१९४८ में टी एस इलियट ने नोबेल पुरस्कार लेते हुए जो वक्तव्य दिया था, उसके एक महत्त्वपूर्ण अंश का अनुवाद हमारे लिये किया है रंगनाथ सिंह ने। |
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आमतौर पर कविता को सभी कलाओं में सर्वाधिक स्थानीय माना जाता है। चित्र, मूर्ति, स्थापत्य, संगीत का आनन्द वही ले सकते हैं जो सुन या देख सकते हैं लेकिन भाषा, ख़ास तौर पर कविता की भाषा, का मामला अलग ही है। कविता लोगों को एक करने के बजाए अलग भी कर सकती है।
दूसरी तरफ हमें यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि यदि भाषा एक बाधा का निर्माण करती है तो वहीं कविता स्वयं इन बाधाओं को पार करने की वजह देती है। किसी अन्य भाषा की कविता का आस्वादन उन सभी लोगों के बारे में समझ बढ़ाने का आनंद देता है जिन लोगों की वह भाषा है जो कि किसी अन्य कला माध्यम में संभव नहीं है। हम यूरोप की कविता के इतिहास की बात कर सकते हैं और यह भी कि एक भाषा की महान कविता का किसी दूसरी भाषा की कविता पर क्या असर होता है। लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हर विशिष्ट कवि के ऊपर अपनी भाषा से ज्यादा दूसरी भाषा के कवियों का असर रहा है। हम कह सकते हैं कि किसी भी देश या भाषा की कविता क्षीण या खत्म हो जाती गर इसे किसी विदेशी भाषा की कविता का पोषण न मिला होता। जब कोई कवि अपने लोगों से संवाद करता है तो उसकी आवाज में उन सभी अन्य भाषाओं के कवियों की आवाज भी होती है जिन्होंने उस कवि को प्रभावित किया हो। वह कवि स्वयं भी अन्य भाषा के युवा कवियों को प्रभावित करता है और उनके माध्यम से उसकी जीवनदृष्टि और सांस्कृतिक चेतना उनके लोगों तक पहुँचती है। इस तरह कोई कवि थोड़ा अनुवाद के द्वारा, जोकि एक हद तक कविता का पुनर्सृजन ही होता है, तथा थोड़ा अन्य कवियों के ऊपर प्रभाव के द्वारा एवं उन पाठकों पर अपने प्रभाव के द्वारा जो कवि नहीं हैं, लोगों के बीच आपसी समझ बढ़ाने में योगदान देता है।
हर कवि के कविकर्म का काफी हिस्सा ऐसा होता है जो सिर्फ उसके क्षे़त्र या भाषा के कवियों को प्रभावित करता है। लेकिन पूरी दुनिया में ‘यूरोप की कविता’ या सिर्फ ‘कविता’ का एक सर्वमान्य अर्थ है। मेरे हिसाब से विभिन्न देशों या विभिन्न भाषओं के लोग, किसी एक देश में प्रत्यक्षतः एक अल्पसंख्यक वर्ग, इसी अंश के माध्यम एक दूसरे के प्रति अपनी समझ बांटते हैं। कविता की समझ का वह अंश भले ही अल्प हो लेकिन वह बहुत जरूरी होता है। मैं यह नोबेल पुरस्कार स्वीकार करता हूँ क्योंकि यह एक कवि को दिया जा रहा है और इस तरह यह कविता के देशातीत मूल्यवत्ता को मान्यता प्रदान करता है। और इस बात पर जोर देने के लिए समय-समय पर कवियों को यह पुरस्कार मिलते रहना चाहिए। मैं आज आपके सामने यह पुरस्कार स्वीकार कर रहा हूँ लेकिन अपने निजी गुणों के लिए नहीं बल्कि किसी समय में कविता का जो महत्व होता है उसके प्रतीक के रूप में।
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टी एस इलिएट का वक्तव्य पढ़कर कविता की आत्मा से मुलाकात हुई ऐसा लग . रंग नाथ सिंह जी को इतना सुंदर अनुवाद पढ़ाने के लिए बहुत धन्यवाद !!
आभार।
जी सच है कविता अपनी मूल प्रक्रति में ही एक सार्वभौमिक अभिव्यक्ति है !
बढ़िया आलेख
बहुत-बहुत शुक्रिया शिरीष भाई इस प्रस्तुति के लिये।
सोचता हूँ ईलियट के इस वक्तव्य को पढ़कर कि अपने हिंदी-साहित्य के इस वर्तमान दौर में कितनी सार्थक रह गयी है ये बात…तमाम पत्र-पत्रिकाओं और अब इस ब्लौग-जगत में कविता के नाम पर परोसे जाने वाली पंक्तियाँ क्या सचमुच में कविता ही है? आज के कुछेक गिने-चुने नामों{आप,शैलेय, लाल्टु, अशोक भाई, कोकास जी, मनोज झा…लिस्ट तनिक लंबी हो जायेगी} को छोड़ दिया जाये तो अ-कविता या नई कविता और छंदमुक्त के नाम पर हर खिड़की में हर पन्ने पर एक कवि बैठा नजर आता है बकायदा घोषणा करता हुआ कि हम कवि हैं। कवि को अगर खुद कहना पड़े कि वो कवि है पढ़ों उसे तो कविता अपनी वस्तुस्थिति बयां कर देती है। अभी कुछ दिनों पहले गीत चतुर्वेदी साब का लिखा आलेख पढ़ रहा था "आज की कविता"..तो वहाँ भी कुछ ऐसे ही विचार उमड़े थे। नब्बे प्रतिशत लिखी जाने वाली आज की कविता को "कविता" बस वो लिखने वाला खुद ही कहता है तो मानना पड़ता है कि ये कविता है। वर्ना तो…हम पाठकगण भटकते ही रहते हैं एक सचमुच की कविता की तलाश में
पूरे वक्तव्य में ईलियट का ये कथन कि "कविता की समझ का वो अंश भले ही अल्प हो लेकिन बहुत जरुरी होता है" सार है। ऊपर लेकिन अनुवाद की बात पर मन में प्रश्न उठ कर रह जाता है कि क्या सचमुच विदेशी कविता अपने अनुवादित रूप में{कुछेक अपवादों को तज कर} कविता रह पाती है?
रंगनाथ जी के इस अनमोल अनुवाद का आभार।
शिरीष और रंगनाथ्…दोनों मित्रों को बधाई।
गौतम जी की बात में दम है। नयी कविता के नाम पर बहुत कुछ ऐसा लिखा गया/ लिखा जा रहा है जिसके कविता होने पर प्रश्नवाचक चिह्न है।
बात केवल वेदेशी कविता के अनुवाद पढने..सम्ज्हने तक ही ख़त्म हो जाती तो ..बात थी /मगर बात इससे भी आगे जाती है जब वहां के कविता के आयामों का comparison स्थानीय कवी और कविताओं के साथ होता है….बात यहाँ तक भी रुक जाती तो बात थी..लेकिन फिर स्थानीय को कम आंकने के भी ये काम आ जाती है……गीता पर वाद होगा तो हर व्यक्ति पांडित्य से बोलेगा लेकिन zenें की कथाओं पर वाद नहीं होता ..सिर्फ सुना जाता है …क्योंकि विदेशी है !!…विदेशी लिखे को उद्ग्रथ करने में ये फायदा है..!!!!गरेदिये े और ज्यादा घुमे फिरे या विदेश की बातें करने वालो को हम ऐसे ही ज्ञानी की संज्ञा दे देते है…….बाजु के बगीचे की घास ज्यादा हरी होती ही है…:-)
कल मेरा कमेंट पब्लिश न हो पाया.
यह महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है. इस मे बहुत सारी बातें हैं. इसे कुछ दिन लगाए रखना शिरीष . पहली बार इलियट का वक्तव्य देख रहा हूँ. आप दोनों का शुक्रिया.
# गौतम .
हर तरह की कविता को हम एक ही कसौटी पर नहीं परख सकते.किसी कविता को इस लिए खारिज नहीं कर सकते, कि उसे कम लोग समझ पाते हैं. या कोई भी समझ ही नहीं पाता. उसे हम कमज़ोर कविता ज़रूर कह सकते हैं.
आप ने आदिवासियों गाते सुना है? आप के निर्धारित मापदंडों पर कहीं भी खरा नहीं उतरते हुए भी आप को उसे कविता ही कहना पड़ेगा. हाँ आप समझ न पाते हों, या उसे समझना न चाहते हों, अलग बात है. लेकिन अपने ट्राईब के अन्दर वह एक कविता ही मानी जाएगी. कम्ज़ोर कह सकते हो. क्यों, उस का स्कोप सीमित है.
हाँ कोई कविता यदि आप की समझ मे न आते हुए भी ,महज़ कवि की प्रतिष्ठा के दवाब में चुप लगा जाते हो, प्रश्न नही करते हो तो यह कविता के साथ धोखा है.कवि के साथ भी. कविता और कला की दुनिया मे सब कुछ तय नहीं होता, गणित की तरह. यह एक्स्प्लोर करने जैसा है . एक साथ खुद को भी , और उस रचना को भी. ज़रूरी नहीं कि सारी कविता आप को समझ आ ही जाए. यह भी ज़रूरीरी नहीं आप सारी कविता तक पहुँच ही पाएं. अपने तईं कवि की हर रचना कविता होती है.
कविता को अप्प्रिशिएट करना मुश्किल काम है. क्या आप किसी पक्षी को चह्चहाते देख उस का उपहास कीजिएगा? मैं तो कदापि नहीं.मैं तो यही कहूँगा, कि काश उस की भाषा समझ पाता मैं.
# अमित.
आप की बात से सहमत हूँ, हमारे यहाँ बाहर की चीज़ के सामने अपनी चीज़ को गरियाने की लंबी परम्परा है. लेकिन आप को बता दूँ कि गीता और ज़ेन कथाओं के मामले में यह सही नहीं है.
गीता एक दर्शन है. जिस का आधार तर्क है. इस लिए उस मे विवाद के लिए स्कोप है. वाद विवाद के माध्यम से ही गीता का सच हासिल हो सकता है. ज़ेन कथाओं का लॉजिक से लेना देना नही है. इस लिए उन्हे केवल सुना जा सकता है. वे आप को ओढ़े हुए विचारों से शून्य कर देते हैं और आप एक आदिम विस्मय से भर जाते हैं.एक बच्चे की तरह आप जीवन के सच को नये सिरे से देखना शुरू करते हैं.
ये दोनों ही मेरे लिए प्रिय हैं. गीता का संस्कार पिता से पाया, ज़ेन साधना माँ से सीखी.और ज़ेन कोई बाहरी चीज़ नहीं है. भारत क "ध्यान" ही चीन, कोरिया से जापान तक की यात्रा में "ज़ेन" हो गया था.
@अजेय जी,
आपकी प्रतिक्रिया का आभार। किंतु मेरा मंतव्य वो नहीं था। शायद कमी मेरे ही शब्दों में ही थी कि मैं अपना कथन स्पष्ट नहीं कर पाया। किसी कविता को खारिज करने की बात उसे न समझ पाने से मैंने तो जोड़ा ही नहीं। मैं तो बस ये कह रहा था कि आज तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं में कविता के नाम पर गद्य के एक टुकड़े को उसकी पंक्तियों को छोटा-बड़ा करके, ऊपर-नीचे लिख देने से क्या वो कविता हो जाती है? कविता में कुछ तो कविता-जैसा हो। मैं छंद या तुक की बात नहीं कर रहा। छं तो खैर अब व्याकरण की किताबों तक ही सीमित रह गया है। एक लय, एक फ्लो तो हो कम-से-कम जो इतना तो डिस्टिन्गविश करे कि जिस रचना को हम पढ़ रहे हैं वो कविता है या निबंध कोई। क्या सचमुच इस नई कविता और अ-कविता का नाम देकर छपी हुई हर रचनायें कविता ही होती हैं, जरा हृदय पर हाथ रख कर कहियेगा। नीराला ने जब मुक्त-छंद या छंद-मुक्त और नई कविता का आह्वान दिया होगा, असमंजस में हूँ कि उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी इन "कथित" कविताओं को पढ़कर।
सार ये कि एक आम पाठक के स्तर पर मुझे आज की अधिकांश कवितायें कहीं से कविता नजर नहीं आती हैं। आपने आदिवासियों के गाने और पक्षी के चहचहाने की बात कही। बिल्कुल सहमत हूँ मैं आपसे। आदिवासी गीत या पक्षी के चहचहाने को न समझते हुये भी मैं या मेरे जैसा मूढ़ पाठक एप्रेशियेट करेगा क्योंकि उसमें धुन है, लय है, प्रवाह है, संगीत है। क्या यही बात आप इन पत्र-पत्रिकाओं में छपे नब्बे प्रतिशत कविताओं के बारे में कह सकते हैं क्या?
अजय भाई,ये सिर्फ इसलिए लिख रहा हूँ की आपसे बात करने का मौका छोड़ना नहीं चाहता / zen कथाएं मुजहे प्रिय है,उन्हें तो सुनता ही हूँ,मैं तो गीता में भी तर्क नहीं करता,उसे भी सुनता ही हूँ / मेरेउदहरणों की व्यापकता कम रह गयी…अफ़सोस की उदहारण भी स्थानीय ही रह गए..:-))
गौतम, अमित.
लगता है, आप दोनों से संवाद संभव है.
# गौतम. फिलहाल कोई सटीक उत्तर नहीं है मेरे पास. मैं लग्भग निरुत्तर हूँ , लेकिन फिर भी भरा भरा हूँ. भाषण देने की बजाय आगामी किसी प्रसंग में अपनी बात कहूँगा. बने रहिए. अनुनाद कविता का मन्दिर है ! जिस में हमीं गुरु हैं , हम ही चेला… हम जिसे खोज रहें हैं, मिलेगा ज़रूर.
आमेन!
amen!
अजेय जी जहां इस तरह के विमर्श से कविता धवल-स्वच्छ रूप में सामने आती हो उसे कविता का मंदिर ही कहना ठीक है पर ये आस्था-मूढ़ लोगों के पवित्र स्थान के बजाय प्रति प्रश्न कर सकने को वालों
आमंत्रण देता स्थान ज्यादा है.
'वालों' के बाद 'को' पढ़ें.शुक्रिया
इलियट का अनुवाद करुँ…..
अंगरेजी में…???
कविता और कला में सब कुछ तय नहीं होता….
होता है…
एकदम से तय होता है सब कुछ…..
हाँ ,
अब लोग बाग़ इस तय किये हुए की परवाह नहीं करते…..
इसीलिए आये दिन आर्ट-गैलरियां…मोडर्न-आर्ट से…
और ब्लॉग आदि…. मोडर्न कविता से भरे देखता हूँ….
और गौतम की तरह ही दुखी होता हूँ…
दुखी मत होईए, लिखिए,रचिए. जो गलत दिख रहा है, उसे अपने लेखन मे, रचना मे ठीक कर के बताईए. यही सृजन की प्रक्रिया है. काल जयी कृतियाँ रातों रात नहीं बन जाती , तय फार्मूलों पर चल कर. वे अपने लिए अपने युग की मांग पर नए मुहावरे गढ़्ती हुई एक लंबी प्रक्रिया में से विधायित( प्रोसेस) हो कर निकलती हैं. आप दुखी होने के बजाए उस प्रक्रिया का हिस्सा बनें. हो सकता है आप ही वह कालजयी कृति रच डालें, जिस की इस युग को ज़रूरत है. प्रयोग धर्मिता और नवाचार को कोस कर क्या होगा?
सब कुछ तय होता तो हर एक घंटे में एक कालजयी कृति रच ली जाती. दुनिया में कलाकारों की कमी नहीं है.
यहाँ इस लिंक पर इस दौर के सशक्त कवि कृष्ण कल्पित की कविता जैसी कोई चीज़ लगी है :
http://ek-ziddi-dhun.blogspot.com/
गौतम, मनु, आप को किन (निर्धारित )माप दंडों के आधार पर यह कविता लगती है,
और किन (निर्धारित )माप दण्डों पर यह कविता नहीं लगती ?
तफ्सील से बताएं. समझिए कुछ दिनों के लिए हम अनुनाद के स्कूली छात्र हो गए, आप के पास अनलिमिटेड समय है. किसी भी करॆंट पोस्ट पर ,लेकिन यहीं अनुनाद में बताईएगा.
जब कविता की बात करने का मूड था..
तो आपका दिया लिंक कोपी पेस्ट ही नहीं हुआ…..
फिर बाद में हमने अपने जुगाड़ से खोला…
तो हमारा मूड नहीं था…
तय तो होता ही है…
ये हमारा मानना है…
हाँ,
हम खुद को कवि नहीं मानते….
आप का मूड, टोन और पोज़ बताता है कि आप कवि ही हो.नही मानते हो तो आप की कमज़ोरी है. जो आदमी खराब कविता को देख कर दुखी हो जाए, वह कवि के सिवा क्या हो सकता है? किसी प्रधान जी, लाला जी , दरोगा,बीमा एजेंट या किसी बेचारे रामलाल को क्या फसी है कि के कविता अपने मापदंडों से, तयशुदा स्तरों से कहाँ च्युत हो रही है? आप कलादीर्घाओं और ब्लॉगों में अच्छी रचना की तलाश में ही भटकते हो न? ऐसे थोड़े ही मुकर सकते हो?कोई बात नहीं, मैंने भी काव्य शास्त्र नहीं पढ़ा है, जितना आता है आप सिखाईए, जो छूट जाए शिरीष समझा देगा. आप अपना मूड ठीक कीजिए, उस कविता जैसी चीज़ को दोबारा पढ़िए, और सीधी बात में समझाएं, वर्ना लोग हर जुगाली को कविता घोषित कर देंगे,
और कविता के साथ ये अन्याय होगा.