गर्भपात दर गर्भपात-तुम्हे कुछ भूलने नहीं देंगे…
तुम्हे खूब याद रहेंगे वो बच्चे जो आये तो थे तुम्हारे पास
पर रहे नहीं तुम्हारे साथ
नन्हे गीले पिलपिले लोथड़े थोड़े से बालों वाले
या कभी बगैर बालों के भी
वे गायक थे मजदूर थे
पर जिन्हें मौका ही नहीं मिल पाया
हवाओं को छूने का
तुम कभी मुंह नहीं फेर पाओगी उनसे
या पिटाई कर पाओगी प्यार से
या ज्यादा बकबक करने पर डांट कर शांत कर पाओगी
या मीठा कुछ खरीद पाओगी उनके वास्ते..
तुम कभी हटा नहीं पाओगी
मुंह से उनका चुस्सू अंगूठा
या भगा पाओगी उनके ऊपर सवार भूत प्रेत
तुम कभी विस्मृत नहीं कर पाओगी उन्हें
दे ही दोगी खाने को कुछ
जब पड़ जायेगी उनपर एक माँ की निगाह
दर असल जज्ब हो गए हैं वे
तुम्हारी मुलायम उसासों के अन्दर तक..
मुझे सुनाई देती हैं
हवाओं की सरसराहट में घुली मिली
मृत बच्चों की आहटें
और मैं अक्सर बुला कर लगा लेती हूँ
दीखते या न दीखते प्यारों को
अपने स्तन से जिसे पीना उन्हें कभी नसीब न हो पाया
मैं कह पड़ती हूँ…मेरे प्यारों..
यदि मैंने किया है गुनाह
या लील गयी हूँ तुम्हारे भाग्य
तुम्हारे जीवन के साथ साथ
बीच में ही खंडित कर दी है तुम्हारी अ-सीमित उड़ान
यदि मैंने वंचित कर दिए बलपूर्वक
तुम्हे तुम्हारे जन्मों से
और अलग अलग नामों से
छीन लिए तुम्हारे बालसुलभ आंसू
और तुम्हारी धमाचौकड़ी खेल कूद
तुम्हारे कल्पनापूर्ण और भोले भाले प्यार
तुम्हारे तुमुल कोलाहल
तुम्हारी रंग बिरंगी शादियाँ
शरीरी दुःखदर्द व्याधियां
और तुम्हारे मरण अवसान..
यदि मैंने तुम्हारी सांसों की शुरुआत में ही
घोल डाले विष विघ्न..
मेरा भरोसा करना प्यारों
कि मेरे सोचे समझे और नतीजे से सजग फैसले में भी
बिलकुल नहीं थी कोई सजग सोच समझ..
अब क्या हासिल क्यों मैं रोऊँ पीटूं
कसमें खाऊं कि गुनाह मेरा नहीं
बल्कि किसी और का था?
कुछ भी हो
तुम तो अब मौत के पाले में जा ही चुके हो
या यूँ कहते हैं..दूसरे शब्दों में कहूँ..
कि तुम तो कभी जन्मे ही नहीं थे–
पर मेरे मन में ये भी संशय है
कि ये बात भी सच नहीं पूरी पूरी
मुश्किल में हूँ..क्या कहूँ आखिर..
सच को ईमानदारी से कैसे बयान करूँ?
तुम जन्मे तो थे..तुम्हारी मुकम्मल देह भी थी..
पर पलक झपकते मर भी गए..
बस हुआ ये कि तुमने हां-हू कुछ भी नहीं की
न ही इनकी कोई कोशिश..
और रोये चिल्लाए भी तो नहीं..
मेरा भरोसा करो…मुझे तुम खूब दुलारे थे मेरे प्यारों
मेरा विश्वास करो…मैं तुम्हे चीन्हती पहचानती भी थी
…हांलाकि थोड़ा बहुत ही…ज्यादा नहीं
पर प्यार करती थी तुमसे…यक़ीनन
हां, मैं अब भी प्यार करती हूँ तुमसे
मेरे प्यारों….
***
बेटी जो जनमी नहीं – सीमा शफ़क
(इसी विषय पर एक और कविता)
तेरी वहशत ने रोपा था तुझे मेरी बेटी
ये अलग बात,फिर चाहत ने भी उठाया सर
अजब ख्वाहिश कि चाहता हूँ तू फिर से लौटे
कोई लौटा नहीं यूँ जानता हूँ मैं जा कर….
तू होती तो तेरी आँखें बड़ी बड़ी होतीं
रंग कुछ सांवला सा नक्श पर तीखे तीखे
दाँत ऊपर के दो निकले से कुछ अध निकले से
झिलमिलाते हुए जैसे कि धूप में शीशे…
तू होती तो मैं सुब्ह ओ शाम की मसरूफ़ियत से
चंद लम्हे किसी तरह निज़ात के पाता
और फिर तेरी प्राम में बिठा तुझको सड़क पे
गुनगुनाता कोई कविता मैं रोज ही घुमाता…
घुमाते घूमते इक दो तेरी नैपी बदल के
हम ढली शाम जब भी लौट के घर को आते
तू पीती दूध और मैं चाय साथ पिड्कियों के
जहाँ अब तक थे वहीँ रात को भी रह जाते…
तू होती तो मेरे बिस्तर में होती एक मसहरी
अपने पाँव से जिसे रोज़ तू हटा देती
उठाता गोद में तो मेरे धुले कुरते पर
निशान गीले गीले रोज़ तू बना देती….
फिर रात की ख़बरों के वक़्त मैं और तू
पसरे पसरे हुए बिस्तर पर ही खाना खाते
ठीक से खाओ मत गिराओ की हर एक हिदायत पे
कभी दही कभी सब्जी गिरा कर मुस्कुराते…
तू होती तो बहुत कुछ और भी होता ऐसा
बाद सोने के तेरे जो मैं तेरी माँ से कहता
सुकून का,वायदों चाहतों का,ख्वाहिशों का
एक दरिया तमाम रात रूम में बहता…
मगर कुछ भी तो नहीं पास सिवा ख़्वाबों के
वो ख़्वाब जो हक़ीक़तन कभी गुज़र न सके
तुझे खुद अपने हाथों से मिटा के सोचता हूँ
कोई एक ख़्वाब फिर देखूं कि जो बिखर न सके…
मगर जिस भुरभुरी मिटटी में तुझको रोपा था
वहां अब सख्त पत्थरों के सिवा कुछ भी नहीं
और तू जानती तो है तेरी माँ की आदत
यूँ ही नाराज़ है वो मैंने किया कुछ भी नहीं….
***
काल, देश और समाज चाहे बदल जाएँ, भावनाएँ एक सी रहती हैं। इसी विषय पर मैंने भी कभी एक कविता लिखी थी। शब्द अलग थे किन्तु भाव शायद कुछ ऐसे ही थे। कविताएँ पढ़वाने के लिए आभार।
घुघूती बासूती
गर्भपात में संवेदनाओं की ऐसी गुंथी हुई रुंधी हुई गर्माहट है कि ज़िन्दगी के पाँव दिल पर से होकर गुज़र गए . ऐसी मर्म में भीगी कविता हम तक पहुंचाने का शुक्रिया शिरीष जी .
yadi aap seema ji tak apni bhavnayen pahunchana chahte hain to unhe seedhe phone kar sakte hain…9205099906
yadvendra
जबरदस्त पोस्ट…दोनों कवितायें..अद्भुत!!
ग्वेंडोलिन ब्रुक्स की कविता शानदार और धारदार है लेकिन सीमा शफ़क़ की कविता में एहसास उतने तीव्र नहीं हैं कि पाठक को झकझोर पाएँ. यादवेन्द्र जी ने भी जनाब भारतभूषण की ही तरह आपके ब्लॉग में बहुत महत्त्वपूर्ण अनुवादकार्य किया है.
अच्छी कवितायेँ पढाने के लिए धन्यवाद.
ये कवितायें रीढ़ की हड्डी तक सिहरा देती हैं!!
अच्छा चयन – अच्छी प्रस्तुति
श्रेष्ठ रचनाएँ पढ़वाने का शुक्रिया।
Agar Seema Safak ka koi contact ho to dijiye, plz help
Aaj aapka message dekha.
9917479735
बहुत ही मार्मिक