रहेंगे जहाँ में
हमीं हम हमीं हम
ज़मीं आसमाँ में
हमीं हम हमीं हम
नफीरी ये बाजे
नगाड़े ये तासे
कि बजता है डंका
धमाधम धमाधम
हमीं हम हमीं हम
हमीं हम हमीं हम
ये खुखरी ये छुरियाँ
ये त्रिशूल तेगे
ये फरसे में बल्लम
ये लकदम चमाचम
ये नफरत का परचम
हमीं हम हमीं हम
हमीं हम हमीं हम
ये अपनी ज़मीं है
ये खाली करा लो
वो अपनी ज़मीं है
उसे नाप डालो
ये अपनी ही गलियाँ
ये अपनी ही नदियाँ
कि खूनों के धारे
यहाँ पर बहा दो
यहाँ से वहाँ तक
ये लाशें बिछा दो
सरों को उड़ाते
धड़ों को गिराते
ये गाओ तराना
हमीं हम हमीं हम
हमीं हम हमीं हम
न सोचो ये बालक है
बूढ़ा है क्या है
न सोचो ये भाई है
बेटी है माँ है
पड़ोसी जो सुख दुख का
साथी रहा है
न सोचो कि इसकी है
किसकी खता है
न सोचो न सोचो
न सोचो ये क्या है
अरे तू है गुरखा
अरे तू है मराठा
तू बामन का जाया
तो क्या मोह माया
ओ लोरिक की सेना
ओ छत्री की सेना
ये देखो कि बैरी का
साया बचे ना
यही है यही है
जो आगे अड़ा है
यही है यही है
जो सिर पर चढ़ा है
हाँ ये भी ये भी
जो पीछे खड़ा है
ये दाएँ खड़ा है
ये बाएँ खडा है
खडा है खड़ा है
खड़ा है खड़ा है
अरे जल्द थामो
कि जाने न पाए
कि चीखे पै कुछ भी
बताने न पाए
कि पलटो, कि काटो
कि रस्ता बनाओ
अब कैसा रहम
और कैसा करम, हाँ
हमीं हम हमीं हम
हमीं हम हमीं हम
रहेंगे जहाँ में
हमीं हम ज़मीं पे
हमीं आसमाँ पे.
Bhut Khub!!
Badhai
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
nice one
आपकी कविता पढ़ी हमी हम हमी हम … क्या खूब लिखा है .. ..काश इसे हमी हम हमी की परचम लहरानेवाले पढ़ते शायद शर्मसार होते !
सांप्रदायिक जहर जिस तरह आज के समय में कुछ चंद फिरकापरस्त फैला रहे हैं उसकी मुकम्मल तस्वीर बनाती है मनमोहन जी की यह कविता . शिल्प का नवीन प्रयोग कथ्य को चीख चीख कर कह रहा है .
बहुत ही सुंदर !
वाह . आज तो आप ने बाबा की याद दिला दी.
आभार इस रचना के लिए.
हमी हम हमी हम ……….
सुन्दर कविता… मनमोहन की एक कविता एक जिद्दी धुन पर भी लगी हुई है… और उसका पहला पैर याद रह जाने वाला है… शुक्रिया सर.
मनमोहन की कविताएं हमेशा ही झकझोर देती हैं।
तस दम, तसादम!
… लय.