दुखांत
मेरे लिए दुखांत नाटक का सबसे मार्मिक हिस्सा
इसका छठा अंक है
जब मंच के रणक्षेत्र में मुर्दे उठ खड़े होते हैं
अपने बालों का टोपा संभालते हुए
लबादों को ठीक करते हुए
जब जानवरों के पेट में घोंपे हुए छुरे निकाले जाते हैं।
और फांसी पर लटके हुए शहीद
अपनी गर्दनों से फंदे उतारकर
एक बार फिर
जिंदा लोगों की कतार में खड़े हो जाते हैं
दर्शकों का अभिवादन करने।
वे सभी दर्शकों का अभिवादन करते हैं.
अकेले और इकठ्ठे
पीला हाथ उठता है जख्मी दिल की तरफ
चला आ रहा है वह जिसने अभी-अभी ख़ुदकुशी की थी,
सम्मान में झुक जाता है
एक कटा हुआ सिर।
वे सभी झुकते हैं
जोडिय़ों में-
ज़ालिम मजलूम की बाहों में बाहें डाले,
बुजदिल बहादुर को थामे हुए,
नायक खलनायक के साथ मुस्कुराते हुए।
एक स्वर्ण-पादुका के अंगूठे तले
शाश्वतता कुचल दी जाती है।
मानवीय मूल्यों का संघर्ष छिप जाता है
एक चौड़े हैट के नीचे।
कल फिर शुरू करने की पश्चातापहीन लालसा।
और अब चला आ रहा है वह मेहमान
जो तीसरे या चौथे अंक या बदलते हुए दृश्यों के बीच
कहीं मर गया था।
लौट आए हैं
बिना नाम-ओ-निशान छोड़े खो जाने वाले पात्र
नाटक के सभी संवादों से ज्यादा दर्दनाक है यह सोचना
कि ये बेचारे
बिना अपना मेकअप या चमकीली वेशभूषा उतारे
कब से मंच के पीछे खड़े इंतजार कर रहे थे।
सचमुच नाटक को सबसे ज्यादा नाटक बनाता है
पर्दे का गिरना,
वे बातें जो गिरते हुए पर्दे की पीछे होती हैं
कोई हाथ किसी फूल की तरफ बढ़ता है,
कोई उठाता है टूटी तलवार,
उस समय…सिर्फ उस समय
मैं अपनी गर्दन पर महसूस करती हूं
एक अदृश्य हाथ,एक ठंडा स्पर्श।
***
(अनुवाद- विजय अहलूवालिया)
अभी अभी 23 मार्च बीता है और मै यह कविता पढ़कर शहीद भगत सिंह को याद कर रही हूँ …नाटकों के रिहर्सल युग मे काश कभी सरदार भगत सिंह का भूत आता और फिर से संसद के बहरे कानों के लिए एक विस्फोट करता .
बहुत उम्दा अनुवाद किया है.
बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
ढेर सारी शुभकामनायें.
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
ओह…कविता में कहने की क्या अद्भुत क्षमता…एक ऐसी साधारण सी घटना जिसे हम सबने न जाने कितनी बार देखा होगा…लेकिन यही तो शिम्बोर्स्का की ख़ूबी है कि वह ऐसी साधारण घटनाओं से विश्वस्तरीय कविता निकाल लाती हैं…
थियेटर करना – विश्व रंगमंच दिवस पर…..anunaad par bhi lagaiye…shaandaar hai..world class hai !!
isko sangeet baddh kar ke upload karo yaar…mazaa aa jayega..puraani jeans aur guitaar wale jaisa effect paida karega….sangeetbaddh ho jaye ,…!!
थियेटर करना – विश्व रंगमंच दिवस पर.शिरिश जी की कविता विस्वस्तरिय है ……और इसे सन्गीत्बद्ध होना चहिये /
लगता है , कोई भी इससे सहमत नही है,(कोई resposnse नही है !! ) …..शिरिश जी भी नही ??!!
बहुत सुन्दर