मेरी दादी ऐसे चूमती है
जैसे पिछवाड़े के आँगन में बम हों फूट रहे,
रसोईघर की खिड़की से होकर जहाँ
पुदीना और चमेली अपनी महक फैलाती हो,
जैसे कोई लाश कहीं गिर रही हो भरभरा कर
और किसी बच्चे की जांघ की नसों से होकर
जैसे लौट रही हो लपटें,
बिदा के ज़ख्मों के साथ जैसे थिरक उठे तुम्हारा धड़
दरवाज़े से बाहर निकलने के लिए.
नहीं होते भड़कीले चुम्बन, और न ही पश्चिमी संगीत सिकुड़े
होठों वाला, जब चूमती है मेरी दादी, चूमती है ऐसे
जैसे खुद को भर देना चाहती है
तुम्हारी साँसों में, गाल से एकदम सटी हुई नाक
जिससे कि तुम्हारी खुशबू उसके फेफड़ों के भीतर
सुनहली बूंदों के मोतियों में बदल जाए, मौत भी जैसे जकड़ती है
कलाई को तुम्हारी, जिस वक़्त तुम्हें थामे हो दादी.
मेरी दादी ऐसे चूमती है
इतिहास का अंत हुआ ही न हो जैसे
जैसे अब भी कहीं कोई लाश
गिर रही हो भरभरा कर.
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yahi to nishchal bhola prem hai bina dikhaave ka…
भारत भाई अब कम से कम एक किताब तो आ ही जानी चाहिए कविताओं के अनुवाद की.
बहुत बढियां जी अच्छा प्रयास
kya baat hai…aise anuwaad hon to padhne ka lutf badh jata hai..
kya baat hai…aise anuwaad hon to padhne ka lutf badh jata hai..