अनुनाद

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पाकिस्तानी कविता में स्त्री तेवर – और एक ज़रूरी सूचना

बारह फरवरी 1983
सईदा गजदार
(पाकिस्तान में कानून-ए-शहादत के तहत किसी अदालत में औरतों की गवाही का कोई खास मूल्य नहीं है. 12 फरवरी 1983 को लाहौर की महिलाओं ने इस कानून के विरोध में एक जुलूस निकाला. इस प्रदर्शन के दौरान महिलाओं के साथ पुलिस बड़ी बेरहमी से पेश आई. यह कविता इसी घटना से प्रभावित होकर लिखी गई है.)
सुनो मरियम, सुनो खदीजा, सुनो फातिमा
साले-नौ की खुशखबरी सुनो
अब वालिदैन बच्चियों के जनम पे
उन्हें मौत के टीके लगवायेंगे
के कानून और इख्तियार उन हाथों में है
जो फूल, इल्म और आज़ादी के खिलाफ
लिखते हैं, बोलते हैं, फैसला सुनाते हैं
हाकिम और सिक्का माने जाते हैं
हां सुनो मरियम, सुनो खदीजा
सुनो फातिमा
आज वो ऐसा कानून बनाते हैं
के: आंखों से लगाओ
होठों से चूमो
एहसान मानो और शुक्राना अदा करो
घर की मल्लिका हो
बच्चों की मां हो
सर झुकाये खिदमत करती कितनी अच्छी लगती हो
कैसी महफूज और पुरवकार हो
बुलंद-मकाम और जन्नत की हकदार हो
इसलिए तुम्हारे भले को बताते हैं
दो औरतों की गवाही समझाते हैं
यूं तन्हा निकलना ठीक नहीं
आना-जाना मुनासिब नहीं
ये हुक्मे आसमानी है
जिसे मानना निजात की निशानी है
जो इससे इनकारी है
इरतदाद का मुजरिम
काबिले गर्दन जदनी है
सड़कों पर निकलना
लडऩा-भिडऩा
आजादी का हक मांगना
निसवानी तकद्दुस के खिलाफ है
गुंडों का काम है
क्यों इस नाजुक वजूद को थकाती हो
हलकान करती हो
चीनी की गुडिय़ा हो
नजरों में आओगी
टूट के बिखर जाओगी
तेज धूप में पिघल जाओगी
अदालत में सच्ची बात कह न पाओगी
शर्म-व-हया से चुप हो जाओगी
लाज की मारी बेहोश हो जाओगी
मातमी झंडियां फडफ़ड़ा रही थीं
कनीजे बागी हो गई थीं
मुसलेह पुलिस के नर्गे में थीं
आंसू गैस, राईफल और बंदूकें
वायरलेस वैन और जीपें
हर रास्ते की नाकाबंदी थी
कोई पनाह न थी
ये लड़ाई ख़ुद ही लडऩी थी
वो पालतू और चहीते
जमीयत के गुंडे
जब सड़कों पर दनदनाते थे
आग लगाते लूटमार करते थे
बर्छे-भाले घुमाते थे
शहरियों को धमकाते थे
तब ये आहनी टोपी वाले
दूर से मुस्कराते थे
शफकत से हंसते थे
बच्चे हैं….
कहकर दूध पिलाते थे
औरत का पीछा छोड़ो
और अपनी फिक्र करो
ये खोखले एखलाकी बंधन और जाब्ते
अपनी हुक्मरानी के वास्ते
मुझे क्यों समझाते हो?
क्या इस्लाम लाना इतना मुश्किल है
क्या अब से पहले लोग नमाज न पढ़ते थे
क्या रोजा न रखते थे
या कुरान और कलमे को न मानते थे?
फिर क्यों जवानियों को बर्बाद करते हो
इतने कठोर और जालिम बनते हो
बात-बात पे कोड़े मारते हो
अजीयत पहुंचाते हो
मैं आजादी का मंशूर पढ़ती हूं
और तुम!
लिखा हुआ जो सामने है
इतना मोटा और वाजेह है
नविश्ता-ए-दीवार है
पढऩे से कासिर हो
ये तुमने कैसे समझा?
के: तुमको पैदा करती हूं
और तुम्हारे सामने शरमाकर, ल$जाकर
सच कहने से घबराऊंगी
जबान से वो सब अदा न कर पाऊंगी
जो हम दोनों के बीच
मुहब्बत, नफरत, इज्जत और हिकारत का रिश्ता है
क्या औरत की सच्चाई से डरते हो?
क्या मैं माऊफ हूं?
या जेहन मेरा मफलूज है
के: साथ खड़ी मेरी हमजिंस
मुझे याद कराती रहे
मुझे तो रत्ती-रत्ती याद है
तुम्हें भी याद कराना जानती हूं
याद करो….के: जु़ल्म $कानून के हवाले से ख़ूब पहचाना जाता है
समझ में आता है
तुम मुझ से इंसान का दर्जा छीनते हो
मैं तुम्हें जन्म देने से इनकार करती हूं
क्या मेरे जिस्म का मसरफ यही है
के: पेट में बच्चा पलता रहे
तुम्हारे लिए अंधे, बहरे, गूंगे
गुलामों की फौज तैयार करती रहे
हम जानते हैं के: तुम्हारा साथ देकर
हम अपने बच्चों की कब्रें खोदेंगे
इसलिए हम तुम्हारा साथ नहीं देंगे
तुम दो कहते हो
हम दो करोड़ औरतें
इस जुल्म और जब्र के खिलाफ गवाही देंगे
जो $कानूने-शहादत के नाम पर
तुमने हमारे सरों पे मारा है
हम नहीं तुम
वाजिबुल-कत्ल हो
के: रोशनी और सच्चाई के दुश्मन हो
मुहब्बत के कातिल हो.
(अनुवाद-शाहिद अनवर)

(पुरवकार- इज्जतदार, इरदतदाद- नास्तिक होना, काबिले-गर्दन-जदनी- गर्दन काटने के लायक, निसवानी तकद्दुस- नारी की पवित्रता, मुसलेह- सुधारवादी, शफकत- अपने से छोटों से प्यार, अजीयत- तकलीफ, मंशूर- दस्तावेज, नविश्ता-किस्मत, कासिर-कोताही करने वाला, माऊफ- जिसे सदमा पहुंचा हो, मसरफ- इस्तेमाल)
जारी….
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दोस्त कवि और संपादक प्रतिलिपि गिरिराज किराडू की ओर से एक ज़रूरी सूचना

अर्शिया सत्तार से मेरा परिचय काफी दिलचस्प तरीके से हुआ. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में वे एक खाली पूल के किनारे बैठी लिटिल मैग्ज़ीन की संपादक अंतरा देवसेन के साथ ऐसे बतिया रही थीं जैसे महीनों बाद ससुराल से लौटी लड़कियां अपनी सहेलियों से. अंतरा से थोड़ा-सा परिचय था, ई-मेल आदि के मार्फ़त।

इस फेस्टिवल में हर रोज़ हम दोपहर आते आते आत्म-मुग्ध, कुछ कुछ दयनीय ढंग से मंडरा रहे सितारा लेखकों की थोक मौजूदगी से त्रस्त हो जाते हैं. कुछ वैसा ही हाल और समय था. हमने अंतरा से दुआ सलाम की और उसके यह कहने पर कि वो सबस्क्राइब करेगी उसे चौथे अंक की एक प्रति दे दी. हमने अर्शिया को बिलकुल भी एड्रेस नहीं किया और काफी थका हारा-सा हलो कह कर चल दिए. अगले दिन अर्शिया का सत्र था और वे जिस तरह दुर्लभ अंतर्दृष्टि के साथ, बहुत निर्भीक स्वर में लेकिन आत्म-मुक्त होकर खुद पर अधिक हंसते हुए बोलीं हमें अपने किये पर किंचित शर्मिन्दगी हो आयी. मैंने उनसे कहा अगर आप चाहें तो मैं आपको एक प्रति इसलिए भी दे सकता हूँ कि उसे पढ़कर आप तय कर लें कि प्रतिलिपि आपके लिखने लायक मंच है कि नहीं. वे मुस्कुरा कर बोलीं, ” कल से मैं सोच रही थी क्या किया जाये कि यह सुन्दर पत्रिका मुझे भी मिल जाये!”

फिर उनसे अगली बार मुलाकात हुई बनारस में एक सेमिनार में. वहां उनसे कुछ कायदे का परिचय हुआ. वहां जो हतप्रभ कर देने वाला परचा उन्होंने पढ़ा, वह बाद में प्रतिलिपि में प्रकाशित हुआ. पाठकों की जानकारी के लिए अर्शिया सत्तार के वाल्मीकि रामायण और कथासरित्सागर के अंग्रेजी अनुवाद पेंग्विन ने प्रकाशित किये हैं. उन्होंने क्लासिकी भारतीय साहित्य में शिकागो यूनिवर्सिटी से पी.एचडी की है. वे मुंबई में रहती हैं. संगम हाउस उनके स्थापित किया हुआ है. दक्षिण एशिया में इसका काम वे खुद देखती हैं जबकि अमेरिका में डी.डब्ल्यू. विल्सन. संगम हाउस रेजीडेंसी उन लेखकों पर फोकस करती है जिन पर शुरुआती ध्यान तो गया है लेकिन जिन्हें अभी ठीक से स्थापित होना बाकी है. भारतीय भाषाओँ के साथ इसमें डेनिश, जर्मन, पुर्तगाली, ऑस्ट्रियाई और अंग्रेजी में लिखने वाले नए लेखक भी आये हैं. इस वर्ष भी इसका स्वरुप इसी तरह बहु-भाषीय और बहु-देशीय बने रहने की उम्मीद है. रेजीडेंसी में आने वाले लेखकों में से किसी एक को कोरिया में महीने भर की रेजीडेंसी के लिए भी चुना जाता है. अनुनाद के मार्फ़त मैं यह सूचना इच्छुक हिंदी लेखकों तक पहुंचा रहा हूँ. संक्षिप्त विज्ञप्ति नीचे है.

(गिरिराज किराडू)





दक्षिण भारत स्थित अंतर्राष्ट्रीय लेखक पीठ (रायटर्स रेजीडेंसी) संगम हाउस सभी भारतीय भाषाओँ के लेखकों से वर्ष २०१०-२०११ के लिए आवेदन आमंत्रित करती है. रेजीडेंसी सत्र नवम्बर-दिसंबर में दस सप्ताह तक चलता है और एक लेखक के लिए यह अवधि सामान्यतः २ से ४ हफ्ते की होती है. लेखक उपयुक्त सामग्री के साथ आवेदन कर सकते हैं. चयनित लेखकों के आतिथ्य की व्यवस्था हम करते हैं लेकिन उन्हें आने जाने का किराया खुद उठाना होता है.

इस वर्ष आवेदन की अंतिम तिथि ३० जून है. सफल आवेदनकर्ताओं को निर्णय की सूचना अगस्त २०१० के अंत तक दी जाएगी.

और जानकारी के लिए हमारी वेबसाईट देखें: http://sangamhouse.org

0 thoughts on “पाकिस्तानी कविता में स्त्री तेवर – और एक ज़रूरी सूचना”

  1. अरे वाह … प्रतिभा जी बहुत शुक्रिया ….ऐसी इंकलाबी कविता पढ़कर मन तरंगित होकर झूम गया .सईदा गजदार वीरांगना है ..बहुत बधाई .

  2. सईदा गजदार को पढ़ना यानि कि स्त्री के उस समूचे परिदृश्य को पढ़ने जैसा है जहाँ आज भी स्त्री को दोयम समझा जाता है …जहाँ आज भी स्त्री आतंकित है …जहाँ आज भी स्त्री हाशिये पर है…जहाँ आज भी स्त्री को जिंदा गोस्त से अधिक नही समझा जाता …जहाँ आज भी स्त्री एक अंधेरी गुफा मे रोपी हुई है । सईदा का प्रतिरोध कमाल का है और उनके तेवर एक अनोखी आशा जगाते हैं कि अब वह वक्त आ गया है जब स्त्री ने सवाल करने शुरू कर दिये हैं और शुरुआत हो चुकी है ।

  3. पता नहीं क्यों पर मुझे उर्दू कहानिया भी विशेष तौर पे महिलाओं द्वारा लिखी हुई ज्यादा बोल्ड ओर अधिक प्रतिरोध के स्वर देती लगी .बनिस्बत हिंदी कहानियों में जहाँ लेखक कई बार जैसे अपनी सोच को भी रोक देता है .खुल कर नहीं कहता विशेष तौर पे लेखिकाए .एक आध अपवाद छोड़कर .जैसे हाल में ही नया ज्ञानोदय में प्रकाशित वृंदा राग की कहानी….कहने का मतलब वहां प्रतिरोध अधिक मुखर है…..कहानी में भी कविता में भी…….

    ओर हाँ आपका ब्लॉग मोज़िला में नहीं खुलता है कृपया कुछ टेक्नीकल दिक्कते सुधारे…..

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