अनुनाद

उधो, मोहि ब्रज – वीरेन डंगवाल

हिन्दी कविता में इलाहाबाद सबसे ज़्यादा है तो वीरेन डंगवाल की कविता में। उनके हर संग्रह में यह शहर पूरी विकलता से पुकारता है। उनकी स्मृतियों में जहां-जहां प्रेम है, मित्रता है, लालसा है, कुछ कोमल कठिन इच्छाओं की सफलता-असफलता है, वहां इलाहाबाद अनिवार्य रूप से है। यहां उनके तीसरे संकलन से इसी तरह की एक कविता प्रस्तुत की जा रही है, जिसे वीरेन जी अपने कुछ परमप्रिय पुराने पदों से फिर-फिर रचा है। इस ब्लॉग पर वीरेन जी की जो फोटो है उसे अल्मोड़ा के वरिष्ठ पत्रकार नवीन सिंह बिष्ट ने खींचा था, जिसमें बगल में मैं भी बैठा हूँ…..पर वीरेन जी और कहाँ मैं….मैंने अपनी छवि क्रॉप करके हटा दी है….इस तस्वीर को ब्लॉगजगत में कई जगह उपयोग किया गया है…इसके लिए मैं सबकी ओर से नवीन जी को शुक्रिया कहता हूँ।

उधो, मोहि ब्रज
(इलाहाबाद पर अजय सिंह, गिरधर राठी, नीलाभ, रमेन्द्र त्रिपाठी और ज्ञान भाई के लिए)

गोड़ रहीं माई मउसी देखौ
आपन आपन बालू के खेत
कहां को बिलाये बेटवा बताओ
सिगरे बस रेत ही रेत
अनवरसिटी हिरानी हे भइया
हेराना सटेसन परयाग
जाने केधर गै सिविल लैनवा
किन बैरन लगाई आग

वो जोश भरे नारे वह गुत्थमगुत्था बहसों की
वे अध्यापक कितने उदात्त और वत्सल
वह कहवाघर !
जिसकी ख़ुशबू बेचैन बुलाया करती थी
हम कंगलों को

दोसे महान
जीवन में पहली बार चखा जो हैम्बरगर।

छंगू पनवाड़ी शानदार
अद्भुत उधार।

दोस्त निश्छल, विद्वेषहीन
जिनकी विस्तीर्ण भुजाओं में था विश्व सकल

सकल प्रेम
ज्ञान सकल।

अधपकी निमोली जैसा सुन्दर वह हरा-पीला
चिपचिपा प्यार

वे पेड़ नीम के ठण्डे
चित्ताकर्षक पपड़ीवाले काले तनों पर
गोन्द से सटी चली जाती मोटी वाली चींटियों की क़तार
काफ़ी ऊपर तक
इन्हीं तनों से टिका देते थे हम
बिना स्टैण्ड वाली अपनी किराये की साइकिल।

सड़के वे नदियों जैसी शान्त और मन्थर
अमरूदों की उत्तेजक लालसा भरी गंध
धीमे-धीमे डग भरता वह अक्टूबर
गोया फि़राक़।

कम्पनीबाग़ के भीने-पीले वे गुलाब
जिन पर तिरती आ जाया करती थी बहार
वह लोकनाथ की गली गाढ़ी लस्सी वाली
वे तुर्श समोसे मिर्ची करा मीठा अचार
सब याद बेतरह आते हैं जब मैं जाता जाता- जाता हूँ।

अब बगुले हैं या पण्डे हैं या कउए हैं या हैं वकील
या नर्सिंग होम, नए युग की बेहूदा पर मुश्किल दलील

नर्म भोले मृगछौनों के आखेटोत्सुक लूमड़ सियार
खग कूजन भी हो रहा लीन !
अब बोल यार बस बहुत हुआ
कुछ तो ख़ुद को झकझोर यार!

कुर्ते पर पहिने जींस जभी से तुम भइया
हम समझ लिए
अब बखत तुम्हारा ठीक नहीं।
***

0 thoughts on “उधो, मोहि ब्रज – वीरेन डंगवाल”

  1. अच्छी नोस्टेल्जिआ है…. लेकिन ……कुर्ते पे जींस ……. क्या ये *खराब वक़्त* की सही परिभाषा है?

  2. दो दिन इलाहाबाद में कर्नलगंज और तमाम दूसरे गंज, पुराने बाजार, सिविल लैन, हाई कोर्ट, कंपनी बाग और दूसरे इलाके वीरेन डंगवाल की कविता पंक्तियों को दोहराते हुए ही गुजारे। शायद कानपूर जाते तो भी ऐसा ही होता। कोई अजनबी शहर (हालांकि अपने पुराने कस्बों की जानी-पहचानी आत्मीय निरंतरता वहां बची है और जो वीरेन डंगवाल की कविता में भी होती है) कविता की वजह से भी ज्यादा अपना लगने लगता है।

  3. चार साल पहले हिन्दुस्तानी अकादेमी इलाहाबाद की एक ग्लैमरस काव्य गोष्ठी (अब जहाँ नामवर जी, केदार नाथ सिंह, मेनेजर पाण्डेय, परमानन्द श्रीवास्तव जैसे लोग मौजूद रहे हों. उसे ग्लैमरस कहना ही ठीक होगा) में मुझे वीरेन सर के साथ काव्य पाठ का मौका मिला था.. वहां उन्होंने यही कविता सुनाई थी.. हम सब मंत्रमुग्ध हो गए थे.. आपको धन्यवाद् उन पलों की स्मृति ताज़ा हो गयी..

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