अनुनाद

संजय व्यास की कविता

एक करवट और
उसकी बेचैनी औंधे गिरे भृंग की तरह थी जो सिर्फ एक जीवनदायी करवट चाहता था.एक अर्ध-घूर्णन. फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा.या कम से कम ऐसी उम्मीद की जा सकती थी. उल्टा पड़ा कीड़ा जैसे अनंत शून्य में अपनी आठों टांगों की बेहाल हरकतों में कोई खुरदरा आधार ढूंढता है. एक मचल मची थी भीतर. एक गहरा गड्ढा जो हर अस्तित्व को नश्वरता में धकेलता था. उसी गड्ढे में तेज़ी से गिरा जा रहा था वो. समय का सूक्ष्मांश ही था उसके पास जो उसकी बेचैनी की रील को चलाए जा रहा था.

ये सीधा सादा मृत्यु बोध नहीं था बल्कि उससे भी ज्यादा गहरा ज्यादा अँधेरा था.एक बेचैनी जिसमें बाज़ी के ख़त्म होने की घोषणा नहीं हुई थी. कंधे चित्त थे पर रैफरी उसकी बेचैनी से तय नहीं कर पा रहा था और फैसला करने में अभी तकनीकी अवकाश बीच में था. एक पलटी से वो फिर गेम में आ सकता था.

असल में उसकी तमाम यांत्रिक क्रियाएं शरीर की खुद को बनाए रखने की चेष्टाओं जैसी थीं. उसका दिमाग लेकिन संभावित बचाव की सूरत में फिर से रोजमर्रापन में झोंके जाने की अनिवार्यताओं से जंग लड़ रहा था.करवट बदलने के बाद भी फौरी तौर पर उसे एक लगभग निर्वात चाहिए. निशब्द. बाहर के इस भीषण शोर में ‘सटल’ स्पंदन को महसूस किये जाने लायक. संवेदी तंतुओं के सिरों को फिर से जो आवेश ग्राही बना सके.एक ऐसी अवस्था चाहिए थी उसे एक बार की कि जिसमें चेतना एक बेहद हल्की दीप्ति में ही हो.
बस पाँव के अंगूठों के पोर पर ही हो महसूस करने जैसा कुछ.

जीवन की करवट में लौटने पर दुनिया में जाने से पहले सब कुछ शून्य से प्रारंभ चाहता था वो.
पर उसका शरीर अब भी तड़प से भरा था.

0 thoughts on “संजय व्यास की कविता”

  1. One morning, when Gregor Samsa woke from troubled dreams, he found
    himself transformed in his bed into a horrible vermin. He lay on
    his armour-like back, and if he lifted his head a little he could
    see his brown belly, slightly domed and divided by arches into stiff
    sections. The bedding was hardly able to cover it and seemed ready
    to slide off any moment. His many legs, pitifully thin compared
    with the size of the rest of him, waved about helplessly as he
    looked.

    सुंदर टेक्स्ट काफ्का की याद दिलाता.. संजय जी को बधाई. शिरीष जी के प्रति आभार.
    महेश वर्मा, अंबिकापुर, छत्तीसगढ़.

  2. तलाश अंततः मुक्ति की है।
    ब्रह्मलीन….अनंत…और अस्तित्वहीनता की ओर…
    संभव है?

    सुंदर लिखा आपने संजयबाबू
    सस्नेह
    अजित

    शुक्रिया शिरीषबंधु को

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