ये सीधा सादा मृत्यु बोध नहीं था बल्कि उससे भी ज्यादा गहरा ज्यादा अँधेरा था.एक बेचैनी जिसमें बाज़ी के ख़त्म होने की घोषणा नहीं हुई थी. कंधे चित्त थे पर रैफरी उसकी बेचैनी से तय नहीं कर पा रहा था और फैसला करने में अभी तकनीकी अवकाश बीच में था. एक पलटी से वो फिर गेम में आ सकता था.
असल में उसकी तमाम यांत्रिक क्रियाएं शरीर की खुद को बनाए रखने की चेष्टाओं जैसी थीं. उसका दिमाग लेकिन संभावित बचाव की सूरत में फिर से रोजमर्रापन में झोंके जाने की अनिवार्यताओं से जंग लड़ रहा था.करवट बदलने के बाद भी फौरी तौर पर उसे एक लगभग निर्वात चाहिए. निशब्द. बाहर के इस भीषण शोर में ‘सटल’ स्पंदन को महसूस किये जाने लायक. संवेदी तंतुओं के सिरों को फिर से जो आवेश ग्राही बना सके.एक ऐसी अवस्था चाहिए थी उसे एक बार की कि जिसमें चेतना एक बेहद हल्की दीप्ति में ही हो.
बस पाँव के अंगूठों के पोर पर ही हो महसूस करने जैसा कुछ.
जीवन की करवट में लौटने पर दुनिया में जाने से पहले सब कुछ शून्य से प्रारंभ चाहता था वो.
पर उसका शरीर अब भी तड़प से भरा था.
One morning, when Gregor Samsa woke from troubled dreams, he found
himself transformed in his bed into a horrible vermin. He lay on
his armour-like back, and if he lifted his head a little he could
see his brown belly, slightly domed and divided by arches into stiff
sections. The bedding was hardly able to cover it and seemed ready
to slide off any moment. His many legs, pitifully thin compared
with the size of the rest of him, waved about helplessly as he
looked.
सुंदर टेक्स्ट काफ्का की याद दिलाता.. संजय जी को बधाई. शिरीष जी के प्रति आभार.
महेश वर्मा, अंबिकापुर, छत्तीसगढ़.
तलाश अंततः मुक्ति की है।
ब्रह्मलीन….अनंत…और अस्तित्वहीनता की ओर…
संभव है?
सुंदर लिखा आपने संजयबाबू
सस्नेह
अजित
शुक्रिया शिरीषबंधु को