इस ज्ञान निर्भर युग में हरेक को रखनी चाहिए
जिन्होंने मनुष्य जाति के लिए इतने बड़े ख़तरे पैदा किये
यह नहीं कहा जा सकता कि लक्ष्मी की उन पर बड़ी कृपा थी
और सरस्वती उनसे रूठी हुई थी
क्योंकि जब जब इन कोरी लक्ष्मी वाले बुद्धिमानों की मूर्खता ने
दुनिया को ख़तरे में डाला
तब तब मूर्खों की सरस्वती ने नया रास्ता निकला है
कम जानकारों का बौद्धिक सहयोग ही तिनके का सहारा है
ज़्यादा जानकारों ने हमको कहीं का नहीं छोड़ा
इन बहु-सूचना पायियों ने यह छाप छोड़ी है
कि अबुद्धि को अब इतनी बुद्धि आ गई है कि सुबुद्धि की ख़ैर नहीं
ख़ैरख्वाही के सभी क्षेत्रों में महा अनिष्टों के दाँत उग आये हैं
कुशलता भी भूमिगत हो गई है
बाधाएं भी सफलता का श्रेय शातिर बुद्धि को ही दे रही हैं
आख़िर बूझो तो हर किसी की सूझ ही तो उसकी सरस्वती है
जड़ता का भी अपना एक शास्त्र है
जिसका जट्ट झपट्टा अनुपस्थित को उपस्थित कर सकता है
वज्र मूर्खता भी जब दमक कर गिरेगी
अति प्रकाशित अंधकार की चौंध भी पराकाष्ठा के मूल अंधकार में बदल जाएगी
एन उसी वक़्त जटिलताएं दिमाग़ में अन्कुराएंगी
तब पता चलता है मूर्खता का गोबर अपनी रसायानिकता में
कितना उर्वर है
बाधाएं बहुत हैं और दाँत उनके पास भी बुद्धि के हैं
औज़ारों की मूर्खता ही उन्हें बुद्धिमानों से तोड़ सकती है
तलैया भर सरस्वती में से जिसकी जितनी लुटिया भर बुद्धि है
डुबोने-उबारने के लिए जीवन में काफ़ी है
मूर्खतापूर्ण बुद्धिमानी और बौद्धिक मूर्खताओं वाले
सैकड़ों उद्यम बताते हैं कि सरस्वती के बिना लक्ष्मी आ नहीं सकती
विश्वविद्यालयों से बाहर जब सरस्वती की कृपा होती है
फ़सलें अच्छी होने से चारा अच्छा हो जाता है और पशु दूध बहुत देते हैं
भरपूर रोटी होने से राजनीति ज़्यादा समझ में आती है
असफलता की सफलता के सामने खड़े मनुष्य को
अपनी सरस्वती से पूछना ही पड़ेगा
कौन सी फलदायी वे मूर्खताएँ हो सकती थीं जो हमने नहीं कीं
जनसँख्या को तो हम समझ के आलस्य का उत्पादन मानते रहे
पर वे लड़ाइयाँ ज़्यादा विनाशक हुई जिनमें हमने
मनुष्य होने के ज़रूरी आलस्य से काम नहीं लिया
बुद्धिमानों की जल्दबाजी ने हमें युद्ध में उतार दिया है
शौर्य और धैर्य, सरस्वती और लक्ष्मी सहित मनुष्य का मारा जाना तय है
दानवीय चालाकी के मुकाबले मानवीय मूर्खता के सहारे
कुछ बात बन जाए तो भाई बात अलग है।
ओह्…कितनी हलचल मचाने वाली कविता…
भाई मेरा तो दृढ़ मत है कि यह युग सुन्दर,प्यारी,दुखी या महान कविताओं का नहीं। मुझे तो ऐसी ही कवितायें भाती हैं…मुठभेड़ करती… 'बुद्धिमानों' के छल को नग्न करतीं…चीरफाड़ करतीं, व्यग्र करतीं कवितायें…जहां कवि अपने भीतर कम और बाहर अधिक भटकता है।
जगूड़ी जी को सलाम और आपको आभार
जगूड़ी की यह कविता ज्ञान के कंधों पर बैठकर की गयी विकास-यात्रा की सही-सही समीक्षा प्रस्तुत करती है। निःसंदेह ‘खबर का मुँह…’ से ली गयी यह कविता शिक्षा और समाज के अन्तर्सम्बन्धों की नयी व्याख्या प्रस्तुत करती है। जगूड़ी की चिर-परिचित व्यंग्यात्मक तल्खी इसे विशिष्ट कविता बनाती है। प्रस्तुति के लिए आभार।
एक अधिमान्यता प्राप्त कवि की कविता के बारे में थोड़े संकोच के साथ मैं यह प्रश्न रखना चाहता हूँ कि क्या एक बौद्धिक अंतर्वस्तु किसी टेक्स्ट को कविता कहे जाने के लिए पर्याप्त है? अगर लाइन ब्रेक्स को हटा दिया जाये तो इसमें कितनी कविता बचेगी? यह एक सही और सच्ची टिप्पणी हो सकती है जो किसी लेख का हिस्सा हो या किसी व्यंगयपूर्ण बातचीत का रोचक और मारक हिस्सा..लेकिन क्या है जो इसे कविता मानने को बाध्य करता है? लक्ष्मी और सरस्वती से जुड़ी कहावतें , उनकी प्रतिद्वंद्विता के सामाजिक उदाहरण इतने पुराने कि इनकी बिम्बात्मकता घिस चुकी है… लिखे गये टेक्स्ट (बेशक ज़रूरी और अर्थपूर्ण) से बाहर यह पाठक की चेतना का कैसे विस्तार करती है? क्या यह इकहरा और गद्यपूर्ण नहीं है? क्या हमें वरिष्ठ और मान्याताप्राप्त कवियों के लिखे को आँख मूंद कर सदैव कविता मान लेना चाहिए या हर बार उसके कविता होने ना होने को जाँचना चाहिए? महेश वर्मा,अंबिकापुर,छत्तीसगढ़.