इसी रात में घर है सबका
जो चढ़ती चली आती है
छाती पर
और पार पाना मुमकिन नहीं जिससे
फ़िलहाल तो
इसी में हत्यारे घूमते हैं
बेनक़ाब
उनके चेहरे चौराहे पर सजी हैलोजेन लाइटों से भी ज्यादा
चमकते हैं
गाड़ियां गुज़रती हैं
हथियारों और लाशों से लदी
रास्ते गूंजते रहते हैं
बूटों और चेतावनी देती सीटियों की
आवाज़ों से
लाल और नीली बत्तियों की प्राधिकृत रोशनी में
बेखटके कुचली जाती है
मानवता
इसी रात में
जिसमें हम आंख मूँदकर
सोने का अभिनय करते हैं
इसी रात में चलती रहती हैं
बग़ावत और मुखालिफ़त की भी
पोशीदा कार्रवाईयां
लोग कभी फुसफुसाते
तो कभी चीखते-चिल्लाते हैं
कितना भी हो अंधेरा
कुछ उठे हुए हाथ साफ़ नज़र आते हैं
कैसे रात किसी का घर नहीं –
मेरे समय के बड़े, लोकप्रिय और पुरस्कृत कवि राजेश जोशी बतलाते हैं
अपनी चमचमाते शब्दों वाली एक कविता में !
मैं अभागा समझ नहीं पाता
उनकी बात
और जब भी पढ़ता हूँ उनकी यह कविता
भीतर-भीतर छटपटाता हूँ
इसी रात में घर है
सबका
जी हां सबका !
जिसमें
दारू पीकर स्त्रियों और नवोदितों पर विमर्श करते हुए
हमारे सारे बड़े कवि, आलोचक, सम्पादक
और चिन्तक भी
शामिल हैं
कैसे कहूँ
कि इसी रात में घर है
उस प्रेम का भी
उनके जीवन में दिनों-दिन क्षीण होती जाती है
जिसकी धार
ऐसे में जो बैठे रहते हैं
मन मार
वही कहते हैं रात किसी का घर नहीं
उनके लिए
खुला हुआ कहीं कोई दर नहीं
सिर्फ़ रोशनी है छद्य भरी दिन के उजाले की
अपना मुंह छुपाना बहुत सरल है
वहां
मुझे याद आता है – अंधेरे के बारे में भी गाया जाएगा – कहने वाला
बीते हुए समय का एक चेहरा
गीदड़ों की अनवरत हुंआ-हुंआ के बीच भी अमर हो गईं
जिसकी कविताएं
बहुत खुरदुरे बदन और आत्मा वाली
मैं अभी छोटा हूँ यह कहने को
कि बहुत सरल है क्रान्तिकारी हो जाना
बिना रात में रहे
बिना रात को जाने !
पर बड़े भाई इतना तो आप बताएं
अब से
क्या हम आपको
सिर्फ़
उजाले का कवि मानें ?
ब्रेख्त, राजेश जोशी और मुक्तिबोध भी ! धन्य्वाद शिरीष.
सच तो यह है कि रात को जाने बिना उजाले का कवि नहीं हुआ जा सकता।
बिना रात में रहे
बिना रात को जाने !
!!!!!!!!!!!!!!!!!
बहुत सुंदर !
अँधेरे का सच..जो अँधेरे मे छुपा रहता है..
dag dag ujale ke sandrbha me jujrati huio rat ka andhiyara kavita se nikal kar samane khda ho jata hai,,,,chhut gaye bahut bahut log,,,,baichain karti kavita
बेहतर होता यदि वह कविता भी यहाँ साथ साथ दे देते ..।
"जितना भी हो अँधेरा
कुछ उठे हुए हाथ साफ़ नज़र आते हैं "
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सच !