अनुनाद

नगाड़े ख़ामोश हैं और हुड़का भी – रमदा

गिरदा पर एक स्मृतिलेख


रामनगर में इंटरनेशनल पायनियर्स द्वारा आयोजित पहली अखिल भारतीय नाटक प्रतियोगिता(1977) के दौरान गिरीश तिवाड़ी (गिरदा) से पहली बार मिला था। तब वह युगमंच, नैनीताल की प्रस्तुति `अंधेर नगरी´ लेकर आया था। गिरदा के अलावा यह रंगकर्म की दुनिया से भी मेरी पहली नज़दीकी मुलाक़ात थी। नाटकों को पढ़ भर लेने से इतर किसी नाट्यदल को नज़दीक से देखने-समझने-भुगतने, रिहर्सल्स में मौजूद रहने और प्रस्तुति के लिए एकाएक ज़रूरी हो आई किसी चीज़ के जुगाड़ में जुटने का पहला अवसर। प्रतियोगिता में गिरदा ही सर्वश्रेष्ठ निर्देशक माना गया। यहीं से गिरदा के साथ थोड़ा उठ-बैठ सकने का सिलसिला बना। अगले वर्ष की प्रस्तुति `भारत दुर्दशा´ थी। चूंकि गिरदा के व्यक्तित्व के इसी पहलू से मैं सबसे पहले परिचित हुआ, गिरदा की छवि मेरे मन में हमेशा एक रंगकर्मी- ज़बरदस्त रंगकर्मी की रही। यह बात दीगर है कि अभिव्यक्ति के तमाम अन्य माध्यमों पर अपनी पकड़ से वह लगातार इस छवि को ध्वस्त करता रहा। हुड़के पर थाप देते…होली गाते….गोष्ठियों में अपनी बात रखते….गीत/कविता पढ़ते/सुनाते…गिरदा की भंगिमाओं को याद कीजिए…रंग ही रंग हैं। सी.आर.एस.टी. नैनीताल प्रांगण `नगाड़े ख़ामोश हैं´ के रिहर्सल्स एवं प्रस्तुति के बाद से मैं गिरदा का कायल होता गया। प्रांगण के उन दो विशाल देवदारुओं के बीच गहराते, छितराते कोहरे और दो `लाइट बीम्स´ के नीचे सूत्रधार को सधे क़दमों से चलने का निर्देश करते हुए `अण्ड से पिण्ड और पिण्ड से ब्रह्माण्ड रचा….´ के उच्चारण का अभ्यास कराते गिरदा की छवि मेरी स्मृति में ताज़ा है। गिरदा की प्रस्तुतियों में लोक/लोकसंगीत/लोकसंस्कृति के साथ ब्रेख़्त के प्रोजेक्शंस की अद्भुत जुगलबन्दी थी – दोनों पर उसकी गहरी पकड़ का प्रतीक। `नगाड़े ख़ामोश हैं´ की प्रस्तुति की सूचना देने वाले बैनर को लेकर उसके मानस में था – टाट का एक लम्बा चीथड़ानुमा टुकड़ा जिस पर पिघलते कोलतार से लिखा हो – नगाड़े ख़ामोश हैं। ऐसा हो तो नहीं पाया मगर मल्लीताल में पन्त जी की मूर्ति के पास ऐसे एक बैनर का बिम्ब आज तक मन में है। उन दिनों कोरोनेशन होटल के पास की अपनी `हमन हैं इश्क़ मस्ताना हमन को होशियारी क्या´ जैसी अद्भुत रिहाइश/जीवन-शैली में गिरदा ऐसा ही था…टाट के बैनर पर चमकते काले रंग से लिखे `नगाड़े ख़ामोश हैं´ जैसा।

इसी सबके दौरान डी.एस.बी. में `अंधायुग´ की ऐतिहासिक प्रस्तुति भी हुई और कहा जा सकता है कि कम से कम नैनीताल में तो रंगकर्म के पुनर्जागरण के केन्द्र में गिरदा ही था। यही वह समय भी है, जब नैनीताल में हो रही जंगलात की नीलामी के विरोध में वह अपने मुट्ठी भर साथियों के साथ हुड़का बजाता, गाता-नाचता-सा निकला और गिरीश तिवाड़ी से गिरदा बन गया। यहीं से लोकवाद्य हुड़के को एक नया आयाम मिला। कृषिकर्म, मेले-ठेलों, जागर और यहां तक कि जनस्मृति से भी धीरे-धीरे बाहर होते जा रहे हुड़के को गिरदा ने और बदले में हुड़के ने गिरदा को एक अलग ही धज दी। विरोध की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति उठी बन्द मुट्ठी के समानान्तर उत्तराखण्ड में हुड़का जैसे स्खलित होती व्यवस्था के विरोध का प्रतीक बन गया। इसी हुड़के के साथ कुमाऊं की परम्परागत विशिष्ट खड़ी होली को जन-संघर्षों एवं आन्दोलनों का हथियार बनाने का काम गिरदा ने किया। इसी हुड़के की थाप के साथ वह `जंगल के दावेदारों´ के साथ रहा….व्यवस्था के विरोध में होने वाले छोटे-बड़े जन-संघर्षों एवं आन्दोलनों में पूरे जीवन के साथ शरीक हुआ … आदमी की ग़लतियों एवं प्रकृति के कहर से होने वाली आपदओं के कष्ट भोग रहे लोगों के दु:ख-दर्द बांटने गया ….समाचार के लिए रिपोर्टिंग करता रहा। अब मुझे ठीक से मालूम नहीं है कि जनसरोकारों की लड़ाई के बदले जब रुद्रपुर में गिरदा पुलिसिया जुल्म का शिकार हुआ तो हुड़का उसके साथ था या नहीं। आपातकाल के दौर से लेकर अगस्त 2010 तक के उत्तराखण्ड के किसी भी जनसंघर्ष या व्यवस्था विरोधी स्वर को गिरदा के बिना, या अगर किसी वजह(पिछले तीन-चार सालों से गिरती तबीयत के कारण मुख्यत:) से वह सशरीर वहां अनुपस्थित रहा हो तो, उसके जनगीतों के बिना नहीं देखा जा सकता।
गिरदा की प्रतिभा अभिव्यक्ति के किसी एक माध्यम में बंधी नहीं रही। नाटक किये, गीत-कविताएं लिखीं – उत्तराखण्ड के जनआन्दोलनों की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का पयार्य बन गया गिरदा। गिरदा ने अनुवाद भी किये – फ़ैज़, साहिर के अनुवाद….फ़ैज़ की अमर रचना `हम मेहनतकश …´ का ऐसा भावानुवाद गिरदा की कलम से निकला जिस पर फ़ैज़ को नाज़ होता। बानगी है – ` ओड़, बारुड़ि हम कुल्ली-कबाड़ी जै दिन यै दुनि थें हिसाब मांगुल। एक हांग नि ल्यूल एक फांग नि ल्यूल पुरि खसरा कतौनी किताब मांगुल´। फ़ैज़ की `सारी दुनिया´ को उत्तराखण्ड के सन्दर्भ में `खसरा-खतौनी की किताब´ में समेट देनेवाली नज़र गिरदा के ही पास हो सकती थी।
अपने इस पूरे मानवीय पराक्रम में जो चीज़ गिरदा को गिरदा बनाती है, वह ये है कि यह सारा कुछ सवालों, मुद्दों और संघर्ष/आन्दोलन को असली लोगों(हाशिये पर सिमट गये लोगों) तक ले जाने के लिए ही था यानी चौराहे तक ले जाने के लिए, जिससे आम बुद्धिजीवी हमेशा हिचकता रहा। नाटक/गीत/कविता/होली/हुड़का/जुलूस सब केवल इसलिए कि मुद्दे पूरी शिद्दत के साथ असली लोगों के बीच ले जाये जा सकें…..और इसीलिए वह सबका गिरदा बन सका। यहां ऐसा कुछ नहीं था जो वह अपने लिए कर रहा हो, गिरदा की फक्कड़ी में अपने लिए की ज़्यादा गुंजाइश थी भी नहीं। समय विशेष पर अभिव्यक्ति के जिस भी ज़रिये को उसने अपनाया, मूल में चाह एक ही थी – मुद्दों को उन तक ले जाना, जिनसे वे बावस्ता हैं।
उत्तराखण्ड के जनसरोकारों की बात करने वाले लोगों में से अधिकांशत: कालान्तर में `स्वयंभू´ या `मठाधीश´ हो गए – टिहरी के राजा `बोलान्दा बद्री´ की तरह ` बोलान्दा उत्तराखण्ड´। इनकी व्यक्तिगत उपलब्धियों की सूची बड़ी होती गई, किन्तु जिस उत्तराखण्ड की बात करते यह लोग समाज और राजनीति में स्थापित हुए, उसकी उपलब्धियां ? गिरदा वहीं रहा, असली लोगों के बीच, अनिष्ट और अव्यवस्था को जड़ से पकड़ लेनेवाली अपनी पैनी नज़र के साथ। गिरदा की नज़र समकाल के पार बहुत आगे तक देख सकने वाली नज़र थी। 1994 के जन-उभार के दौरान `सतत् प्रवाहमान ऊर्जा´ और `आज दो-अभी दो´ के उतावलेपन में भी नैनीताल समाचार के सांध्य बुलेटिन में अपनी गीतात्मक अभिव्यक्ति में गिरदा का स्वर अकेला स्वर था, जो राज्यप्राप्ति के दौरान और राज्यप्राप्ति के बाद दलगत राजनीति के प्रति लोगों को आगाह कर रहा था। अपनी इन अभिव्यक्तियों में वह अचूक भविष्यदृष्टा ही साबित हुआ, क्योंकि अन्तत: `उत्तराखण्ड´, आन्दोलन का नहीं बल्कि राजनीति का ही विषय रह गया है। गिरदा के गीत `घुननि मुनई नि टेक जैंता ! एक दिन तो आलो´ की उदासी के मूल में दलगत राजनीति के हावी हो जाने का ही ख़तरा है।
अब गिरदा नहीं है। उसकी जगह शून्य है, लेकिन जैसी कि गिरदा की स्थाई टेक थी `भले ही मानी न जाये मगर सुन मेरी भी ली जाए´ – कहते हैं प्रकृति किसी भी शून्य को बर्दाश्त नहीं करती…हर शून्य अन्तत: भरता है। फिर भी एक जगह ऐसी है जहां गिरदा का होना बेहद ज़रूरी था…जहां गिरदा की ग़ैरमौज़ूदगी बड़े तीखेपन से महसूस की जायेगी। उत्तराखण्ड के जनसरोकारों की लड़ाई को `संघर्षवाहिनी´ के बिखराव ने अत्यधिक क्षति पहुंचाई थी। 1994 के `जन उभार´ के चढ़ाव के दौर में आन्दोलनकारी ताक़तों की जो एकजुटता दिखाई दे रही थी, वह भी अवसाद के दौर में बिखराव की शिकार हुई। आन्दोलनकारी ताक़तें इस सर्वव्यापी बिखराव की वजह से जितनी नेपथ्य में जाती रहीं, मंच दलगत राजनीति के लिए उतना ही खुलता गया। आन्दोलनकारी ताकतों के बीच इस समय ` जितने बांभन उतने चूल्हे´ की निर्लज्जता पसरी हुई है। मूल कारण छोटे-छोटे अहंकार और परस्पर अविश्वास हैं। उत्तराखण्ड की लड़ाई के लिए इन छोटे-छोटे शक्ति-समूहों एवं आन्दोलनकारी ताक़तों के किसी एक एक `फोकल प्वाइंट´ पर घनीभूत हो सकने का सपना गिरदा के इर्दगिर्द ही सम्भव था, किन्तु गिरदा अब नहीं है…नहीं है मतलब नहीं है!
उम्मीद ज़रूर की जा सकती है कि असल मुद्दों को असली लोगों तक पूरी शिद्दत के साथ ले जाने की गिरदा की अदम्य और अपार इच्छा को यदि हम अपने भीतर जीवित रख सकें तो उत्तराखण्ड में नई सुबह का सपना देखते हुए ` जैंता एक दिन तो आलो वो दिन यै दुनिं में…´ अब भी गाया जा सकेगा।
***
रमदा आदर और प्यार का संबोधन है…श्री प्रेमबल्लभ पांडे के लिए, जिन्होंने ये स्मृतिलेख लिखा है। वे कई वर्ष अर्थशास्त्र के प्राध्यापक रह कर साल भर पहले सेवा निवृत हुए। नैनीताल ज़िले के क़स्बे रामनगर में रहते हैं। साहित्य में उनकी गति अनंत है। ख़ासकर कविता वे बहुत प्यार से पढ़ते हैं। मेरी लिखी हर कविता उनसे सहमति प्राप्त होने के बाद ही प्रकाशित होती है। उनके जैसा मित्र पा लेना भी इस दुनिया में एक बड़ी उपलब्धि है। मैंने कई बार प्रयास किया कि समकालीन हिंदी कविता पर उनसे कुछ लिखवाया जा सके पर वे सनक की हद तक संकोची भी हैं….और मैं उनसे काफ़ी खीझा भी रहता हूँ। बहुत प्यारे दोस्त को खो देने के कारण गिरदा पर लिखना उनके लिए ख़ासा कष्टप्रद रहा, पर आख़िरकार उन्होंने कुछ लिखा और मैं आभारी हूँ कि अपने लिखे को अनुनाद के लिए भी दिया।

0 thoughts on “नगाड़े ख़ामोश हैं और हुड़का भी – रमदा”

  1. गिरदा की स्मृति में बहुत आत्मीयता से लिखी गई पोस्ट। वीरेन दा के बाद रमदा की यह पोस्ट गिरदा के प्यारे व्यक्तित्व को सार्थक श्रद्धांजलि देती है। धन्यवाद रमदा इस खूबसूरत पोस्ट के लिए।

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