आप तो नाहक ही डर गए
मैं तो अभी गुस्से में नहीं मुहब्बत में झपटता हूँ हर आने वाले पर उसकी अंगुलियां अपने मुंह में रखकर
अपने दांतों के हल्के दबाव से परखना चाहता हूँ
उनकी मज़बूती
त्वचा का स्वाद मैं महसूस करना चाहता हूँ अपनी अबाध बहती लार में लपेटकर
जान-पहचान बढ़ाने का यह मेरा तरीका है
आप तो …..
मेरा कोई मालिक नहीं…जिन्हें मालिक कहा जाता है मेरा वो तो बब्बा, मम्मा और दद्दा हैं मेरे
मेरी तरह कभी आंखों में देखिए उनकी
ये कुत्ता क्या होता है प्रणय जी?
बब्बा कहते हैं कभी-कभी नाराज़गी में मुझे ‘कुत्ता है साला‘
और ये साला क्या होता है प्रणय जी?
नाराज़गी क्या होती है मैं पहले नहीं जानता था पर अब जानता हूँ जब बब्बा बात नहीं करते मुझसे
देखते नहीं मुझको देखते भी हैं तो बहुत खुली आंखों से
वरना तो प्यार में
उनकी आंखें कभी खुलती ही नहीं पूरी
प्यार क्या होता है मैं नहीं पूछूंगा आपसे
आप चाहें तो पूछ सकते हैं मुझसे
बब्बा आपको कहते हैं प्रणय जी इसलिए मैं भी कह रहा हूँ प्रणय जी और बब्बा जब कहते हैं प्रणय जी तो उनकी आंखों में भी वैसी ही मुहब्बत होती है जैसी मुझमें जब मैं झपटता हूँ आप पर
बब्बा झपट नहीं सकते हैं इसलिए कहते हैं प्रणय जी शब्दों के हल्के दबाव से
वे भी परखना चाहते हैं
आपकी मज़बूती
ये अज्ञेय क्या होता है प्रणय जी?
बब्बा जब कहते हैं प्रणय जी किसी से बात करते हुए फोन पर तो वो अज्ञेय भी कहते हैं
कभी-कभी मैं जब अलस काली रात के बेहद दार्शनिक दबाव में
निपट लेता हूँ घर के भीतर ही
किसी चोरकोने में तो मुझे डर लगता है
मैं आंखें नहीं मिला पाता बब्बा से मुंह फेरता किसी और जगह चले जाना चाहता हूँ
तब बब्बा सारा ग़ुस्सा छोड़ हंसकर कहते हैं –
कितना तो अपराधबोध है इस साले कुत्ते में
दुनिया चलाने वाले कच्चा चबा रहे हैं उसे और उनमें कोई अपराधबोध नहीं … अब तो अपराधबोध का न होना ही हमारे देश में सच्चा राष्ट्रवाद है
ये महान क्या होता है प्रणय जी?
ये अपराधबोध क्या होता है प्रणय जी?
ये देश क्या होता है प्रणय जी?
ये राष्ट्रवाद क्या होता है प्रणय जी?
जब मैं खाना खाता हूँ बहुत सारा और पेट भर जाने पर भी और मांगता जाता हूँ तब बब्बा कहते हैं –
कुत्ता है कि अमरीका है साला !
ये अमरीका क्या होता है प्रणय जी?
ये जो आपके साथ बैठे थे सौम्यता साधे बब्बा पंकज भाई कहते हैं इन्हें
इनके बारे में कुछ बोलते बब्बा की आवाज़ बहुत मुलायम हो जाती है
शायद वो प्यार करते हैं इन्हें
इनका या किसी और का भी बब्बा से हाथ मिलाना पसन्द नहीं मुझे
बब्बा सिर्फ़ मेरे हैं और मम्मा के हैं और दद्दा के हैं
दद्दा को देखा है आपने ध्यान से – गौतम दद्दा मेरा!
कितना प्यारा दोस्त…यार
जिसके साथ उछलना-कूदना-झपटना-काटना-चाटना सभी कुछ सम्भव है
प्यार क्या होता है आप गौतम दद्दा से पूछ सकते हैं
जब वो लाड़ में गाल खींचता मेरे कहता है बार-बार –
छ्वीटी….छ्वीट…..छ्वीटीबब्बा कुछ पीते हैं अकसर रात को जिसे आप पी रहे हैं दिन में
मैं भी बहुत चाव से पीता हूँ इसे बब्बा अकसर मेरे कटोरे में डाल देते हैं कुछ बूंदें उस तरल की फिर कभी ख़ुश तो कभी नाराज़ रहते हैं ऐसी हालत में अपने पिता से बात हो जाने पर हमेशा कहते हैं ज़ोर ज़ोर से –
सामंत!
सामंत!
सामंत!
मैं भी उन्हें देख पूरी ताक़त से सिर झटकाता भौंकता हूँ बार-बार
ये सामंत क्या होता है प्रणय जी?
अभी शाम जब आप चले गए बब्बा के पंकज भाई के साथ तो बोतल की बची हुई थोड़ी मुझे देते और बाक़ी ख़ुद पीते हुए वे बड़बड़ा रहे थे थोड़ी ख़ुशी और थोड़ी खीझ के साथ –
जसम….जसम…..जसम…
पार्टी…..पार्टी….पार्टी….
कविता….कविता….कविता….
दोस्ती…..दोस्ती…दोस्ती…
ये जसम क्या होता है प्रणय जी?
ये पार्टी क्या होती है प्रणय जी?
ये कविता क्या होती है प्रणय जी?
जैसी गौतम दद्दा की और मेरी है उसके अलावा ये दोस्ती क्या होती है प्रणय जी?
मुझे आपकी हंसी बहुत अच्छी लगती है प्रणय जी
जैसा आप और पंकज भाई और बब्बा मिलकर हंस रहे थे अभी
या जैसी गौतम दद्दा और मम्मा और बब्बा मिलकर हंसते हैं हमेशा
उसके अलावा भी कोई हंसी होती है क्या?
मैं तो हंस नहीं सकता इसलिए हांफता हूँ ऐसे मौकों पर पूरी जीभ बाहर निकाल कर
बब्बा कहते हैं एक और हंसी दुनिया में होती है –
तानाशाह की हंसी….
अनाचारकी हंसी…
ज़बरे की हंसी..
ये तानाशाह क्या होता है प्रणय जी?
ये अनाचार क्या होता है प्रणय जी?
ये ज़बरा क्या होता है प्रणय जी?
भौं…भौं…भौं…गुर्रर्र…..भौं…भौं…गुर्र……भौं…भौं
– – –
पहुंचाने वाला- शिरीष कुमार मौर्य शाम/9 अक्टूबर 2010/नैनीताल।
पंकज चतुर्वेदी भी इस दिन साथ थे…ये कविता जैसा कुछ इन्हीं सब लोगों के लिए…बकौल वीरेन डंगवाल ख़ुदा करे हमारी ये `नदियों जैसी महान वत्सल मित्रताएं´ बची रहें हमेशा। आमीन!)
प्रणय जी के लिए लिखी गई एक कविता को ऑलरेडी पुरस्कार दिया जा चुका है, शिरीष भाई. इसलिए आप ऐसी कोई उम्मीद न करें. और वैसे भी इस कविता का शिल्प किसी दार्शनिक सत्य तक नहीं पहुंचाता.
कविता जैसा ये क्या है भाई | अब तो अपराधबोध का न होना सच्चा राष्ट्रवाद है -ही काव्यपूर्ण पंक्ति है| शेष अकथनीय कथनी| कविता की निजता का साधारणीकरण में घटित होना भी कविता का एक आवश्यक तत्व है| आपका क्या ख्याल है|
bharat ki baat se sahmat. jo kavita kambakht kisi "darshnik satya" tak na pahunche wo kaisi (mahan) kavita? wo to koi aur hi cheez na ho jayegi sasuri?
par baat ye bhi hai ki apne ko "kav ita" aur uski politics palle nahn padi. mool text pe dhyan dein ya aapki dil dosti etc wali tippani par?
@भारत भाई किसी दार्शनिक सत्य तक पहुँचना मेरे हिसाब से कविता और कवि दोनों का मर जाना है…आप तो जानते ही हो मैं अभी मरना नहीं चाहता. उम्मीद कर रहा हूँ प्रणय के लिए कविता लिख कर पुरस्कार पाने वाला कवि भी इस कविता और आपकी टीप को ज़रूर पढ़ेगा.
@मिश्र जी जो आपका ख़याल है, वही मेरा भी ख़याल है….फ़र्क़ बस इतना है कि आपका शायद द्रुत ख़याल है…और मेरा अतिविलाम्बित ख़याल है.
@गिरि प्यारे बिलकुल सही कहा तुमने. वैसे तुम मूल टेक्स्ट पर ही ध्यान दो, गुज़रे दिनों की घटनाओं के चलते तुम्ही सबसे ज़्यादा समझ सकते हो उसे. नीचे जो टिप्पणी लिखी है वो भी यथार्थ है. मेरे अनेक यथार्थ हैं. और हाँ शिरीष की कविता की पालिटिक्स आसानी से पल्ले पड़ जाये तो फिर कहे का शिरीष?
शुक्रिया दोस्तों
— एक बात अंत में कहना चाहूँगा कि कू सेंग ने एक कविता लिखी थी कि वो सी आई ए का चीफ बनना चाहता है—फिर अंत में जब दोस्त भड़क गए तो उसने असली बात लिखी – एक तरकीब थी जो काम कर गई…
गुर्र… गुर्र… भौं… भौं… कविता ..राजनीति??? …गुर्र… गुर्र…पुरस्कार …सत्य .. दर्शन ..दार्शनिक सत्य??? …गुर्र ..गुर्र.. ???
सत्य ..दर्शन .. राजनीति …मै भी कहीं हूँ ?( -पाठक )
amit tarav se sahmat.mahesh verma
@भारत भाई किसी दार्शनिक सत्य तक पहुँचना मेरे हिसाब से कविता और कवि दोनों का मर जाना है… aur yah kaise hai sambhav ho to samjhaaiiye…mai sahamat nahii ho paa rahaa aapse…mujhe to kavitaa us tak pahunchne kaa musalsal prayaas hii lagatii hai..
शिरीष भाई…यार बात बनी नही कुछ..मैंने कई बार पढी और हर बार कुछ मिसिंग सा लगा…बस जो काम का लगा वह पेस्ट कर रहा हूं…
…बब्बा कुछ पीते हैं अकसर रात को जिसे आप पी रहे हैं दिन में
मैं भी बहुत चाव से पीता हूँ इसे बब्बा अकसर मेरे कटोरे में डाल देते हैं थोड़ी-सी
फिर कभी ख़ुश तो कभी नाराज़ रहते हैं ऐसी हालत में अपने पिता से बात हो जाने पर हमेशा कहते हैं ज़ोर ज़ोर से – सामंत!
सामंत!
सामंत!
मैं भी उन्हें देख पूरी ताक़त से सिर झटकाता भौंकता हूँ बार-बार
@ दार्शनिकता/अशोक – कविता की अपनी अपनी समझ है अशोक भाई …आपकी समझ मुझसे बेहतर या आगे की समझ हो सकती है…
कविता कोई गहरे इम्प्रेशन नहीं छोड़ती.लेकिन मुझे मज़ा आया पढ़ कर के. जब् समझ मे आएगी …. छोड़ो यार हर कविता को समझना ज़रूरी तो नहीं……
दार्शनिक सत्य वाली बात पर शिरीष से सहमत . आज की कविता अंततः सत्य के सूत्र पकड़ने की कोशिश भर है. मैं नही समझता कि सत्य को प्राप्त आदमी फिर कविता( आज की कविता) करना चाहेगा .हाँ , वह कबीर की तरह " एक अजूबा देखा" गा सकता है…… 🙂
अमां यार चार्जर जी, ऐसी कविता तो बब्बा ही लिख सकता है, चार बनाए कोनों में खींची जिंदगी जिसमें ढे..ए..ए..ए..र सारी/ प्यारी संवेदना और थोड़ी थोड़ी वेदना के साथ चित पट विरासत खालिस चित्र पट वाली कविता [है कि नहीं ] – हाँ और जरा बब्बा से मनुहार मारें कि आप हमारे इष्ट देव के गण हुए तो प्रसाद पिलाने के साथ साथ कभी “रोट” भी खिला दें हमारी तरफ से, और दर्शन देते रहें अनुनाद पर यदा कदा, कूँ/ कूँ/ सस्नेह 🙂
jst dont knw abt the complexities of philosophy or message or other special ingredients true and great poets r luking for in this poem….
bt hving shared many memorable moments in such short span of time wid u ,ma'am, gautam and above all charger, i jst felt i have lived it all.it was so picturesque and heart warming.
यह एक अपील है मित्रों से कि वे इस कविता को फिर कभी पढ़ें. दुबारा . जरूर.
किसी पुस्तकालय में कविता संकलनों की दार्शनिक दुविधाओं से जूझते हुए नहीं.किसी जुलूस में खनन -माफिया के खिलाफ नारे लगाते हुए नहीं. किसी सुनहरी शाम नदी किनारे जलपाखियों के पंखों से बिखरते अकलेपन को पलकों में संजोते हुए नहीं. बल्कि ठन्डे पड़े किसी स्कूटर को स्टार्ट करने के अंतहीन घंटों के बीचोबीच.सब्जी बाज़ार में महंगी बासी सब्जियों के ढेर से एक ताज़ा खरीदी जा सकने वाली सब्जी तलाश करने के बीचोबीच. बिज़ली दफ्तर की बाबू-विहीन खिड़की के सामने गलत बिल ठीक करवाने की हसरत पालने वाले अहमकों की चाँद तक जाती लाइन में निहायत गैरसलीकेदार धक्कों के बीचोबीच. किसी अतिवृद्धा रुग्णा स्त्री के लिथड़े हुए कपड़ों को बदल कर दिन में सातवीं बार नहाने के बीचोबीच.
पढ़ें. दुबारा. जरूर.
शिरिश जी
नमस्कार !
क्या कही कविता के संधर्भ में . नित नएप्रयोग हो रहे है या किये जा रहे है . शायद नये बिंम्ब नए प्रतीक नयी उपमाये नयो परिभाषाये दूँदी जा रही है या अन्य .. . .,
धन्यवाद
सादर !
ajey jee kee sthapana " har kavita ko samajhana zaroori to nahin" …par mitron kee kya ray hai? mahesh verma ,cg
इस कविता पर कुछ कहने के पहले मैं भारत भूषण की टिप्पणी पर गहरी आपत्ति दर्ज करता हूँ। शिरीष जैसे सरल व्यक्ति और गंभीर कवि के प्रति इस तरह की हल्की बात ठीक नहीं। दूसरे क्या आप यह कहना चाहते हैं कि व्योमेश शुक्ल की वह कविता केवल प्रणय को समर्पित होने से महत्वपूर्ण और सम्मान के लायक हो गई। क्या उस कविता में कुछ भी नहीं था जिसका सम्मान किया जाना जरूरी था।
मुझे नहीं लगता कि शिरीष को किसी सम्मान के लिए इस तरह की कविता लिखने की कोई आवश्यकता है। वे हिंदी के बहुत मान्य कवि हैं। उनकी सहजता के कारण आप उनको अपमानित न करें।
कविता कोई गणित का प्रश्न है क्या कि किसी न किसी नतीजे तक पहुँचे ही।
शिरीष भाई, आपने कविता में एक जीवन का पहलू उभारा है। भारत में पंचतंत्र से लेकर न जाने कितने वर्णन के तरीके रहे हैं। आपने अपनी एक बात अपने तरीके से कही। लिखते रहें। जो जो कहते हैं लोग उसे सुनते रहें।
अपना ध्यान रखें और चार्जर का भी वह अभी बच्चा है।
बाप रे क्या कविता है….मैंने देर कर दी इसे पढने में. आशुतोष जी, कोपल जी और जोशिम जी की टिप्पणी में ही मेरी भी टिप्पणी है. भारत जी टिप्पणी की पहली पंक्ति बहुत शर्मनाक लगी मुझे…मेरे ख़याल से ये कवि के प्रति क्रूरता है. आप कविता को ख़ारिज कर दीजिये पर पुरस्कार का नाम लेकर कवि का अपमान मत कीजिये….ये तो चरित्रहनन जैसा है..
आम तौर पर मैं शर्मनाक और आपत्तिजनक बातें पब्लिकली नहीं करता. यह टिप्पणी मैंने पहले शिरीष जी को व्यक्तिगत ईमेल से भेजी थी उन्होंने इसका बुरा नहीं माना इसलिए मैंने पोस्ट पर भी टिप्पणी डाल दी. मैंने ये भी नहीं कहा कि 'केवल' प्रणय कृष्ण को समर्पित होने के कारण व्योमेश की वह कविता महत्त्वपूर्ण और सम्मान के लायक हो गई. अगर ऐसा होता तो व्योमेश को 'प्रणय कृष्ण के लिए' वाली कविता के बदले 'उदयन वाजपेयी के लिए' वाली कविता के लिए सम्मानित किया जाता. किस कवि की कौन सी कविता सम्मान के लायक है/थी या नहीं, यह बहस अंतहीन है यह हम सभी जानते हैं.
ये क्रूरता है क्या शिरीष जी?
ये हल्की बात है क्या शिरीष जी?
ये अपमान है क्या शिरीष जी?
ये चरित्रहनन है क्या शिरीष जी?
यार भारत तुमने तो टिप्पणीकारों के शब्दों की फायरिंग वापस मुझ पर कर दी…
मेरे लिए तो दुनिया में प्यार ही सब कुछ है
मेरे लिए तो दुनिया में दोस्ती ही सब कुछ है
मेरे लिए तो दुनिया में पीड़ा ही सब कुछ है
मेरे लिए तो दुनिया में कविता ही सब कुछ है भले मैं उसे लिख पाऊं या नहीं….
@मेरे लिए तो दुनिया में कविता ही सब कुछ है भले मैं उसे लिख पाऊं या नहीं….कविता तो तुम बखूब लिख लेते हो, दोस्ती का परीक्षण होता रहेगा पर ये बात यहाँ कहना चाहूँगा कि हिन्दी का सबसे ज्यादा नुकसान दोस्तियों ने किया है। जब तक दोस्तियों का प्रोटोकॉल नहीं टूटेगा, हमारा सार्वजनिक व्यवहार और वचन संदिग्ध और गुटबाज रहेगा। एक सच्चे लेखक का कोई 'स्थायी' दोस्त नहीं हो सकता सार्वजनिक स्पेस में। दोस्तों की टोलियाँ जल्द ही गिरोहों की तरह काम करती पायी गयी हैं। तुम चाहे यह कहो कि दोस्ती तुम्हारे लिये सब कुछ है, मैं जानता हूँ तुम उस सब कुछ को आये दिन संकटापन्न करते रहते हो। और यार अपने को पता नहीं चलता यह कमबख़्त कब दोस्ती होती है कब नेटवर्किंग कब चापलूसी कब चालाकी!
शिरीष भाई की यह कविता अनायास ही आलोचना के केन्द्र में आ गयी है। हिन्दी की तमाम ख़राब पुरस्कृत कविताओं से चमत्कृत होते हुए लगता है हम काव्य-रचना की मूल-संवेदना से भटक गये हैं। मुझे यह कविता पसंद आई है।
भारत जी आपके संदेश का आन्तरिक मर्म आप बेहतर समझ सकते हैं। मैं मोटी बुद्दि का आदमी मुझे जो समझ में आया मैंने लिखा। काश कि आप के लिखे के मर्म को समझ पाता। यह जान पाता कि जब आप किसी को अपमानित कर रहे होते हैं तो वह दरअसल उसका सम्मान करना होता है।
मैं कोई किचकिच नहीं चाहता। खास कर इस मुद्ददे पर। क्योंकि जब भी बात बढ़ेगी शिरीष को लिथड़ना होगा। आप का विवेक और सहृयता विकसित होती रहे। आप सब अपनी दोस्तियों और काव्य क्षमताओं को चरम सुख तक ले जा पाएँ यही दुआ है। गिरिराज बात जब किसी खुले आँगन में होती है तो धिक्कार और जयकार में फर्क बिना कहे समझ में आता है। वैसे भी मैं बाहरी और औसत कवि लेख हूँ। तो मेरी बात क्या और मेरी औकात क्या।
आप सब खूब कहें और ऐसे ही सार्थक और अर्थ गर्भित कहें। कहते ही जाएँ। सबका का भला होगा।
बोधिसत्व जी,
जैसा कि आपने कहा है कि 'बात कहने के अलग अलग तरीके होते हैं'. वैसे ही उसे इन्टरप्रेट करने के भी अलग अलग तरीके होते हैं. मसलन, आपकी (और रागिनी जी की) इन्टरप्रेटेशन को सवाल बनाकर मैंने शिरीष भाई से उन्हीं के अंदाज़ में पूछा, तो वे उसे फायरिंग समझ बैठे.
शिरीष भाई अगर यह कह देते हैं कि मेरी टिप्पणी उनके प्रति अपमानजनक थी या है तो मैं उनसे क्षमा मांगकर टिप्पणी तुरंत हटा देने के लिए तैयार हूँ. और आपकी मेधा और बुद्धिमत्ता पर सवाल उठाने की क्षमता मेरी न कभी थी और न रहेगी. आपकी शुभकामनाओं के लिए आभार.
बात बिनाबात के काफ़ी आगे बढ़ चुकी है…कविता पीछे छूट गयी है…बोधि हों…गिरि हों…भारत…सब बेहद संवेदनशील और कविता से प्यार करने वाले लोग हैं…शिरीष भाई तो कह ही चुके हैं…
पर गिरिराज की बात ग़ौर की जानी चाहिये…दोस्तियां कविता से भी ज़्यादा ज़रूरी मुझे लगती हैं…लेकिन उन्हें बचाने के लिये मैं अपनी 'बात' या उसे कहने की आज़ादी कभी ख़तरे में नहीं डाल सकता…हालांकि यहां ऐसा कुछ हुआ…मुझे तो कम से कम नहीं लगा…
कविता मुझे अच्छी नहीं लगी थी…एक तो वह कहीं पहुंचती नहीं…न ही किसी सफर या भटकन का सुख देती है…दूसरे एक छह माह के कुत्ते को शराब पिलाया जाना मुझे बेहद क्रूर लगा…उसे मानवीकृत करने के बाद भी भौं-भौं और गुर्र-गुर्र द्वारा उसके कुत्ते होने को सायास याद दिलाने की कोशिश या यह पंक्ति 'कितना तो प्यार है इस साले कुत्ते में' उस 'पशुप्रेम' के तिलिस्म को तोड़ती है…वह एक आबजेक्ट के रूप में बदल जाता है जिसका सिर्फ़ यूज़ होना है…अपने बच्चे नहीं जिसे concubine कहा जा सकता है…
सच यही है कि अगर यह कविता किसी और की होती तो शायद सिर्फ़ एक खीझ भरी मुस्कुराहट के साथ निकल जाता…शिरीष एक ऐसे कवि हैं जिनसे मुझे हर बार एक बेहतर कविता की उम्मीद रहती है। इस बार टूटी तो कहा…
मेरी समझ ख़राब, घिसी-पिटी या obsolete हो सकती है…लेकिन जो है वो है…आशा है जितनी भी हैं दोस्तियां… बनी रहेंगी…
maine ek 'general'baat kahi thi. yahan uska context khud shirish ki tippani mein tha. wo kavita ke sath tippani na lagata 🙂
bodhi bhai ne jo kaha hai usse mere kahe ka koi sambandh nahin. yahan is post par koi dosti nahin nibhai gai, yeh kya kam uplabdhi hai!
main fir wahi general baat kahunga: dostiyan nahin chahiye, aise dost chhoote to chhoote jo sarvajanik alochana ko dosti nahin manate hon! tabhi ham ek alochanatmak sahitya-samaj bana payenge.
इससे पहले कि कुछ अप्रिय हो जाये। एकाध बातें। मेरी टिप्पणियों में दोस्तियों को "" में पढ़ें। मेरा शुरू से मंतव्य है कि 'साहि्त्य में' दोस्ती को नहीं कुछ और को सबसे ऊपर रखा जाना चाहिये। 'जीवन में' मेरी कुछ दोस्तियाँ ऐसी हैं कि उनके सामने लेखक होना ना होना एक मामूली बात है। शिरीष की यह कविता मुझे उन वजहों से पजल कर रही थी जिसका ईशारा उसने मेरे पहले कमेंट का जवाब देते हुए किया है। शिरीष ने अपनी टिप्पणी में मित्रताओं का उल्लेख किया था जिस पर मैंने कहा कि हम कविता पर ध्यान दें या टिप्पणी पर। उसने कहा कविता पर ही दो लेकिन लगता है बात कविता से दूर चली गई। मुझे कविता अपने ढंग से पजल और आकर्षित करती रही। मैंने इसे फेसबुक पर भी लिंक किया। हमें आशुतोष कुमार व विशाल की बात मानते हुए फिर कविता पर आना चाहिये।
और मुझे लगता है खुद शिरीष में वह चीज़ है कि साहि्त्य में दोस्तियों को नहीं दूसरे मूल्यों को सबसे ऊपर रखता है। उसका आचरण बताता है वह दोस्तयों को संकटापन्न करके भी जो उसे उचित लगता है वह कहता है।
shireesh ji ki yah kavita ek mahaan kavita hai. samkaaleen yuva kavita mein maine aaj tak itni bheetar tak bhigo denevaali yani maarmik, jeevant aur paardarshi kavita koi nahin parhi. vaise is kavita par sarvashreshtha comment ashutosh kumar ji ka aa chuka hai. shireesh ji ne bhi beech mein itna achchha comment kiya hai ki lagtaa hai ki ve is waqt best form mein hain—–na sirf kavita mein, balki uske baahar apne gadya mein bhi. ab kisi ko yah lag jaay ki mujhe yah kavita dosti ke kaaran mahaan lag rahi hai, to aisi 'nyaay-chetnaaon' ke sammukh natmastak hone kaa filhaal mere paas koi vikalp nahin hai.
—pankaj chaturvedi
kanpur
अलबत्ता कवि के कुत्ते का फोटू शानदार है
आखिर ये हल्कू का झबरा तो है नहीं
कुत्ते का वर्ग चरित खोजना अच्छा है धीरेश भाई….पर ये भी तो देखो कि हम भी हल्कू नहीं….