स्मृतियाँ
यह वो जगह है जिसे हम घर कहा करते थे
हम नाचते गाते थे यहाँ
जब पूरे शबाब पर होता था पूनम का चाँद
और लुका छिपी खेलते थे मुखिया के घर के पिछवाड़े
बड़ी बड़ी चट्टानों के पीछे छिप छिप कर
तब तो गर्मियों में भी लबालब भरी बहती रहती थी नदी
उसके घर के आस पास से
और उसकी कोठी को ही हम अपना घर कहते थे…
हम जब तब हवा से बातें करते थे…
गा गा कर उस से मनुहार करते थे
कि वो हमारे लिए अच्छे वर ढूंढ़ कर भेजे
हवा ने हमारी आवाजें गौर से सुनीं..अमल किया
और हमें बख्श दीं मुट्ठियाँ भींचे हुए मर्दों की फ़ौज
उनकी क्रूरता अब तो जगजाहिर है
और स्पष्ट दिखाई दे रही है उनसे पैदा हुए
अनगिनत बच्चों की आँखों में
जिन्हें अपनी मरियल बांहों में टाँगे टाँगे फिर रही हैं हम
अब हमारा पीछा कर रही हैं कैसी कैसी दुश्चिंताएं
पर किसी और के कोप से नहीं पैदा हुई ये विपत्तियाँ
हम इंसानों की ही सिरजी हुई है ये दुनिया.
***
एक योद्धा की कब्र
उन्होंने आज उसको दफना दिया
होंठ और जीभ काट कर फेंक दिए अलग
जैसे वह कहीं गरज न पड़े
मरने के बाद भी
अचानक.
***
beautyful smile.
हवा ने हमारी आवाज़ें ग़ौर से सुनीं…अमल किया..
दिल को छू लेती कविता.
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