अनुनाद

मनोज कुमार झा की कविताएँ

बहुत दिनों बाद किसी उपहार की तरह मनोज कुमार झा की कविताएँ अनुनाद को मिली हैं. युवा हिंदी कविता में बिलकुल नया मुहावरा रचती और साथ ही प्रगतिशील परम्पराओं का सबसे सार्थक वाहक बनती ये कविताएँ ख़ास तौर पर हमारे पाठकों के लिए…….

त्राहि माम
शीशे आकर्षक दीवारें भी

आवाज़ें आकर्षक सारी
चिपका हुआ स्टीकर  कि मूल्य भी आकर्षक
पीने का पानी तक आकर्षक
मैं झेल नहीं पा रहा आकर्षणों का ताप
मेरे थर्मामीटर में इतनी दूर की गिनती नहीं

कई सहस्त्र पीढि़यों से झूल रहा हूं ग्रह-नक्षत्रों के आकर्षण के मध्य
सबसे कड़ा खिंचाव तो इस धरती का ही
जैसे तैसे निभाता कभी बढ़ाता दो डग तो कभी लगती ठेस
नाचता शहद और नमक के पीछे

आचार्य, कौन रच रहा है यह व्यूह
मुझे बस रहने लायक जगह हो
और सहने लायक बाज़ार
जहां से अखंड पनही लिए लौट सकूं।
***

अकारण

क्या रूकेगी नहीं एक क्षण के लिए यह एम्बूलेंस
कि जान लूं बीमार कितना बीमार
या मृतक कैसा मृतक
वृद्ध  है तो कितने दांत साबुत और बच्चा है तो उगे हैं कितने
कौन उसके साथ रो रहे और कौन दबा रहे हैं पांव
कोई कारण नहीं, नहीं मैं कोई कारण नहीं ढूंढ पा रहा
बस यूं ही मैं भी धरती के इसी टुकड़े का रहबैया
और एक ही रस्ते से गुज़र रहे हम दोनों।
***

जटिल बना तो बना मनुष्य

मेरी जाति जानकर तुम्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा
तुम और मेरी जाति के लोग एक सरल रेखा खींचोगे और चीखोगे
कि उसी पार रहो, उसी पार
मगर इन कंटीली झाड़ियों का क्या करोगे
जो किसी भी सरल रेखा को लांघ जाती हैं, जिनकी जड़ें अज्ञात मुझे भी
हालांकि मेरी ही लालसाओं से ये जल खींचती हैं

एक धर्म को तुम मेरा कहोगे और भ्रम में पड़ोगे
कोई एक ड्रम की तरफ़ इशारा करेगा
और कहेगा कि यह इसी में डूबकर मरेगा
मगर हज़ारों नदियां इस देश में, इस पृथ्वी पर
मैं किसी भी जल में उतर सकता हूं
किसी भी रंग का वस्त्र पहने और किसी भी धातु का बर्तन लिए

तुम मेरा जन्मस्थान ढूंढोगे और कहोगे
अरे यह तो वहां का है वहां का
किन्तु नहीं, मेरा जन्मस्थल धरती और मेरी मां के बीच का जल है आलोकमय
अक्षांशों और देशान्तरों की रेखाओं को पोंछता

चींटियों का परिवार इसमें, मधुमय छत्ता, कोई सांप भी कहीं
दूर देश के किसी पंछी का घोंसला, किसी बटोही का पाथेय टंगा
मनुष्य एक विशाल वृक्ष है पीपल का
सरलताओं के दिठौनों को पोंछता

इस चौकोर इतिहास से तो नमक भी नहीं बनेगा
कैसे बनेगा मनुष्य
***

अपने घर में

बहुत सी ट्रेनें थी चलती
बहुत से वायुयान
धीरे-धीरे जाना और जानना अच्छा लगा
कि अकेला नहीं आया इस धरती पर
चलने के इतने सामान
और बैठने के भी

इससे बेहतर स्वागत क्या हो सकता है एक जीव का पृथ्वी पर
यदि पृथ्वी पर घर हो तो और क्या चाहिए किसी को एक घर से
मगर एक हाथ बढ़ने में भी लगता कितना ज़ोर

एक दिन समय बदलेगा तो घूमूंगा ऋतुओं और महलों के आर-पार
और साफ़ करवा लूंगा दीवार की नोनी जहां पीठ टेकता हूं।
***

पुकार

नहीं, मैं नहीं रोक सकती
मैं जान ही नहीं पाती कि नींद में कब कराहती हूं और क्यों
जगे में कराहना भी मैंने बड़ी मु‍श्किल से रोका है
लगता है ख़ून में धूल मिल गई है जो नसों की दीवार खुरचती रहती है
नहीं हो पाएगा बंद नींद में कराहना
जगे में कराहना भी रुक नहीं पाता
सच कह ही दूं, बस किसी तरह छुपा लेता हूं तुम सब से
जीवन की फांस में फंसे हो अच्छा है ध्यान नहीं जाता इधर
पाट पर कपड़ा पटकने की आवाज़ छुपा भी लूं
तो बाहर आ जाती है पानी की गड़गड़
कई पुरखे याद आते हैं
नानी के श्वेत स्वर का पुरानी साड़ी सा फटना और दागों से भरते जाना
मरने से एक दिन पहले मछरी खाने की अपूर्ण इच्छा मां की
गिरना कौअे के टूटे पंख का पिता की थाली में
असंख्य चितकबरी यादें कराह के उलझे धागों पर रेंगती रहती हैं

मैं नहीं रोक पाऊंगी नींद से उठता यह विषम स्वर
नींद मेरे बस में नहीं
नींद की नाव में जो आता मैं उसकी स्वामिनी
जो बस में था वो भी छूटता जा रहा
मेरी आंख, मेरा गला कुछ भी मेरे बस में नहीं
जब असह्य हो जाए मेरी कराह
तो तुम ही घोंट देना
तो तुम ही सारथि बन जाना इहलोक से परलोक का
तू ही बना जाना इस नींद से उस नींद के बीच का पुल मेरे पुत्र
***

१९७६ में दरभंगा जिले के एक गाँव में जन्मे मनोज कुमार झा, गणित में स्नातकोत्तर हैं हिन्दी के अतिरिक्त अँग्रेजी एवं मैथिली में भी लिखते हैं सेन्टर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाईटीज के लिए इन्होंने ”विक्षिप्तों पर पड़ती निगाहों की दास्तान“ विषय पर शोध किया है इनकी कविताऐं एवं आलेख हिन्दी की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छप चुके हैं इन्होंने समकालीन चिन्तकों यथा टेरी ईग्लटन, फ्रेडरिक जेम्सन, नोम चॉम्स्की, मिशेल फूको इत्यादि के आलेखों का हिन्दी अनुवाद किया है कविता के लिए इन्हें २००८ का प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला है।

0 thoughts on “मनोज कुमार झा की कविताएँ”

  1. मनोज झा जी कविताओं में, सादा गांव और वहां के जन की गझिन जीवन की जटिलताओं का पुरसादगी से उतरना रसिक पाठक को सहज हृदयग्राही लगता है,उनकी कविताओं से उभरते बिम्ब और प्रतीक स्थानिक से आरंभ होकर वैश्विक फलक की यातना और संत्रास को परखती सी लगती हैं|मनोज की अद्यतन कविताओं को पढकर मेरी यह धारणा एक बार फिर से पुष्ट हुई है| शिरीष भाई इन कविताओं से रूबरू कराने हेतु आपका आभार ……

  2. 'अकारण', 'जटिल बना तो मनुष्य' और 'पुकार' ख़ास तौर से पसंद आई. ध्यान खींचने वाली 'कहन' है. बधाई. आगे इनकी कविताओं पर नज़र रखूंगा.

  3. सच में उपहार की तरह हैं मनोज की कविताएँ…उनसे संवाद तो नियमित है लेकिन कविताएँ अक्सर लंबे गैप के बाद ही मिल पाती हैं.

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