धनुष पर चिड़िया
कवि: चंद्रकांत देवताले
चयन व संपादन: शिरीष कुमार मौर्य
प्रकाशक:शाइनिंग स्टार एवं अनुनाद
उत्तराखंड
मूल्य:रु.200
धीरे धीरे उम्र की छलॉंगें लगाते हुए पचहत्तर के हो चुके कविवर चंद्रकांत देवताले ने हिंदी कविता के स्वर में न जाने कितनी नई आत्मछवियॉं, बिम्ब और प्रतीक सँजोए हैं और उसे वैविध्य के साथ साथ जीवन के बीहड़ से बीहड़ अनुभवों से लेकर रागात्मकता के एकांत और गुलजार अरण्य की अंतर्ध्वनियों से सजाया है। पहचान सीरीज के कविता संग्रह के अलावा अब तक नौ-दस कविता संग्रह उनके खाते में हैं और उनके हर संग्रह से जीवन के कुछ विरल अनुभव कविता की अनुभव-संपदा में जुड़ जाते हैं। लेकिन एक बात जो लक्षित करने योग्य है वह यह कि लगभग हर कवि वृहत्तर अर्थों में प्रेम का ही कवि है। ‘धनुष पर चिड़िया’ के जन्म की कथा कुछ ऐसी ही है कि एक दिन उनके दाम्पत्य में अनुगूँज की तरह शामिल श्रीमती देवताले से मिले स्नेह और बाद में असाध्य रुग्णता से इस संसार से रुखसत होने वाली स्त्री को लेकर शिरीष मौर्य के भीतर इस आकांक्षा ने जन्म लिया कि चंद्रकांत के कवि को दूर तक गढ़ने और पोसने वाली छवि कितनी गाढ़ी और अन्योन्याश्रित रही है। शिरीष ने पाया कि स्त्री की सजल और मार्मिक छवियों ने चंद्रकांत के भीतर स्त्री संसार का एक विपुल कोना रच रखा है जिसकी तहें उलटते हुए लगा कि उनकी ये कविताएं प्रेम के उद्दीप्त आलोक में रची गयी है। यह संचयन उसी का सुफल है।
लिहाजा कविता के इस प्रेममय संसार में चंद्रकांत देवताले की वे सारी कविताऍं हैं जो स्त्री के तमाम रूपों में उसकी उपस्थितियों को दर्ज करती हैं। उसकी अनुरागमयी अनुभूति के साथ साथ उसके सुख-दुख के साथ यात्रा करती प्रतीत होती हैं। एक कवि के भीतर जैसे समूची मानवता का वास होता है, वैसी ही उसकी संवेदना की मखमली उपत्यका में स्त्रियों का वास होता है। एक पति और प्रेमी के रूप के अलावा बकौल शिरीष औरतों की पूरी बसाहट, पूरी दुनिया भी वहॉं मौजूद दिखी जो चकित करती है। देवताले के इस निजी और अंतरंग से लगते कविता संसार में एक ऐसे अस्तव्यस्त जीवन का नक्शा उभरता है जिसमें स्त्रियॉं उसी तरह समाई हुई हैं जैसे वे घर मे, बाजार में, सफर में, कामकाज में, कुछ बुनने रचने में निमग्न होती हैं, आते जाते, बस में ट्रेन में मैदानों और घाटियों में जीवन के अपार चहल पहल के बीच, खेतों,खलिहानों में, मेहनत से इस दुनिया को सँवारते हुए दृष्टिगत होती हैं। उनका रंग भी संसार की तमाम स्त्रियों की तरह ही कहीं गोरा है, कहीं गेहुँआ, कही उद्यम और कड़ी जीवनचर्या के बीच सँवलाया हुआ। कवि से उनके कई तरह के रिश्ते हैं, कहीं उनमे बेटियों की आभा है, कहीं पत्नी की, कहीं अंतश्चेतना को प्रेम की उद्दीप्त ऑंच से पिघलाती हुई प्रेमिका की—यानी कवि ने सब कुछ उसी भाव से रचा है जैसे बच्चन कह गए हैं: मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता…………….।
स्त्रियों के होने से ही यह संसार कितना सुंदर है। एक कवि के शब्दों में, यही स्त्री है जो पूरे संसार को बुहारती है। देवताले को यह स्त्री कभी आकाश और पृथ्वी के बीच कपड़े पछीटती और धूप के तार पर उसे सुखाती हुई दिखती है तो कभी वह अनंत पृथ्वी को अपने स्तनों में समेटे दूध के झरने बहाती हुई, सिर पर घास के गट्ठर रखे धरती नापती हुई दिखती है। देवताले ने स्त्री को उसकी सुकोमल भंगिमाओं में देखा और उसकी इन्हीं छवियों को ऑंखों की कोरों पर सहेजा है। उन्हें स्त्री के भीतर एक ऐसे पानी का संगीत सुनाई देता है जिस पर किसी तरह की कोई खरोंच नही लगी है और जो पुरुष के खुरदुरे, विवर्ण और पत्थर सरीखे चेहरे को भी शिशुवत बना देने में निपुण हे। एक ऐसी ही स्त्री को देख देवताले कहते हैं: ‘तुम इतना जीवन-रस कहॉं से ले आती हो/ अँगुलियों की पोर से टपकता हुआ।’ पर इस अनुरागमयता से अलग ऐसी स्त्रियॉं भी उनकी कल्पना में दस्तकें देती हैं जिनके धड़ और हाथ भीड़ में भटकते हुए अपना चेहरा और अपना पता खोज रहे हैं।
देवताले की इन आत्मीय स्नेहसिक्त कविताओं में स्त्री को उसकी तमाम भंगिमाओं में उकेरा गया है। सोती हुई, नींद में हँसती हुई, थकान उतारती हुई, रचती-खटती हुई। कहीं बालम ककड़ी बेचती लड़कियॉं हैं, कहीं चिड़ियों सी चहकती बेटियॉं। मॉं की याद खाना परोसने से जुड़ी है, तो पिता का अदृश्य प्रेम ईश्वर की मानिंद लगता है। कवि हर चीज पर कविता लिख सकता है, पर मॉं पर नहीं, ऐसा सोचता है। उसकी निगाह के दायरे से उन औरतों की दुनिया भी ओझल नही है जो सड़क को हरम और हमाम की तरह वापरती हैं और मर्दों की सनक, प्रताड़ना और झिड़िकयों की अभ्यस्त हो चुकी हैं। उसके अवलोकनों में सफर में फूल पान-सी नाजुक और पानबहार-सी मुस्कराहट लिए सपने-सी तन्यमता में डूबी वह गर्भवती स्त्री भी है जो कवि को लिखता हुआ देख पूछ बैठती है: ‘क्या कविता लिख रहे हैं आप?’ पणजी से आती बस में एक आदिवासी बच्ची को भीड़ में गोद में जगह देते हुए उसे अपनी बेटी-की सी गंध महसूस होती है।
इन कविताओं में उपस्थित स्त्रियॉं विभिन्न तबकों की हैं। वे कर्मठता और जिजीविषा से लड़ रही हैं तो अपने शराबी मर्दों के सामने अपने ऑंसू छुपाती हुई अकेले और अँधेरे में रो भी रही हैं। स्त्रियॉं कितनी लाचार हैं इस पृथ्वी पर, किन किन वजहों से वे रोती हैं, यह रहस्य बता पाना कवि के वश का नहीं पर हॉं, उसे इतना पता है कि उसके रोने की जड़ें उसी जगह होंगी जहॉं से फूटती है कविता की पहली कोंपल। कोई स्त्री मामूली वजहों से नहीं रोती। ऑंखों के आँसुओं के रोने के हँसने के गाने के प्रेम करने के अनेक दहकते, धधकते सुलगते बिम्ब देवताले के यहॉं हैं। उनका कवि मनुष्य की समस्त खूबियों और कमजोरियां के साथ यहॉं एक संवेदनशील नागरिक के रूप में दृष्टिगत होता है। एक स्त्री के भीतर का समस्त कोलाहल, कलरव, मनुहार, प्यार, दुलार और धिक्कार सब कुछ यहॉं कविता के फार्म में धड़कता है। इन्हें पढ़ते हुए लगता है, हम कवि की आंखों से इन स्त्रियों के स्वत्व के तमाम अलक्षित पहलुओं को देख पा रहे हैं। देवताले की इन प्रेम कविताओं की ताकत और इन्हें रचे जाने की वजहों की तलाश करनी हो तो शायद एक कविता उनके समूचे कवि व्यक्तित्व की नुमाइंदगी करती प्रतीत होती है और वह है: ‘स्त्री के साथ।’ कवि के शब्दों में, ‘उसकी बगल में लेट कर ही मैं भाप और फूलों के बारे में सोच पाता हूँ और मुझे लगता है कि मृत्यु मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ।
जिस संवेदना से देवताले ने अपनी कविताओं में स्त्रियों के चित्र ऑंके हैं, जिस समव्यथी करुणा से उन्होंने स्त्री के भीतर बजते सन्नाटे और सुबकते हुए रुदन की अनुगूँजें सुनी है वैसे ही नेह की नमी से सिक्त दृष्टि यदि समूचे पुरुष समाज को मिल सकती तो शायद यह दुनिया कितनी खूबसूरत होती! पर स्त्री को समझना आसान नही है। क्योंकि कवि के शब्दों में, ‘वह समूचे ब्रह्मांड की एक सिम्फनी है जिसका दूध दूब पर दौड़ते हुए बच्चों में कुलाँचें भरता है तो एक कंदरा भी है किसी अज्ञात इलाके में, जिसमें उसकी शोकमग्न परछाईं दर्पण पर छाई गर्द को रगड़ती रहती है।’ किसी भी फौरी सर्वेक्षण से स्त्रियों के भौतिक हालात तो जाने जा सकते हैं पर उनके सुखों, दुखों, इच्छाओं और सपनों का पूरा जायज़ा नहीं मिल सकता। कविता स्त्रियों के सुदूर एकांत में प्रवेश करती है और उनके अंत:पुर की खबर देती है। जहॉं सूर्य की रोशनी नहीं पहुँचती, कविता की सूक्ष्म तरंगें वहॉं पहुँचती हैं। देवताले ने स्त्रियों के अभेद्य मनोजगत में कुछ इसी तरह प्रवेश किया है।
—————————————
शुक्रवार से साभार
ओम निश्चल,
जी-1/506 ए, उत्तम नगर,
नई दिल्ली-110059
फोन: 09696718182
कवि चंद्रकांत देवताले का स्त्री को देखने समझने के अंदाज को समीक्षा के माध्यम से जिस तरह प्रस्तुत किया गया है…पढ़ने के दौरान की अनुभूति रोमांचित कर गई..।