अनुनाद

वो भारी आवाज़ अब कभी नहीं सुनाई देगी

भगवत  रावत  नहीं रहे। बहुत प्यार करने वाले  बुज़ुर्ग  कवि। फोन पर कितनी बातें होती थीं उनसे। वो भारी आवाज़ अब कभी नहीं सुनाई देगी. निकट की कविता का एक  पूरा इतिहास घूमने लगता है आंखों के आगे। जानलेवा बीमारी के बावजूद उनकी सक्रियता अद्भुत थी इधर के कुछ बरसों में। उन्‍हीं से तो हम जैसों की कविता का परिवार पूरा होता है और इस परिवार में यह इतनी बड़ी मृत्‍यु… 
  

इतनी बड़ी मृत्यु


आजकल हर कोई, कहीं न कहीं जाने लगा है
हर एक को पकड़ना है चुपके से कोई ट्रेन
किसी को न हो कानों कान ख़बर
इस तरह पहुँचना है वहीं उड़कर

अकेले ही अकेले होता है अख़बार की ख़बर में
कि सूची में पहुँचना है, नीचे से सबसे ऊपर
किसी मैदान में घुड़दौड़ का होना है
पहला और आख़िरी सवार

इतनी अजीब घड़ी हैं
हर एक को कहीं न कहीं जाने की हड़बड़ी है
कोई कहीं से आ नहीं रहा
रोते हुए बच्चे तक के लिए रुक कर
कहीं कोई कुछ गा नहीं रहा

यह केवल एक दृश्य भर नहीं है
बुझकर, फेंका गया ऐसा जाल है
जिसमें हर एक दूसरे पर सवार
एक दूसरे का शिकार है
काट दिए गए हैं सबके पाँव
स्मृति भर में बचे हैं जैसे अपने घर
अपने गाँव,
ऐसी भागमभाग
कि इतनी तेज़ी से भागती दिखाई दी नहीं कभी उम्र
उम्र के आगे-आगे सब कुछ पीछे छूटते जाने का
भय भाग रहा है

जिनके साथ-साथ जीना-मरना था
हँस बोलकर जिनके साथ सार्थक होना था
उनसे मिलना मुहाल
संसार का ऐसा हाल तो पहले कभी नहीं हुआ
कि कोई किसी को
हाल चाल तक बतलाता नहीं

जिसे देखो वही मन ही मन कुछ बड़बड़ा रहा है
जिसे देखो वही
बेशर्मी से अपना झंडा फहराए जा रहा है
चेहरों पर जीवन की हँसी कही दिख नहीं रहीं
इतनी बड़ी मृत्यु
कोई रोता दिख नहीं रहा
कोई किसी को बतला नहीं पा रहा
आखिर
वह कहाँ जा रहा है।

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