अनुनाद

रेत मजदूर को देखते हुए – पंकज मिश्र

फेसबुक पर कभी-कभी बहुत अच्‍छी कविताएं मिल जाती हैं। अशोक कुमार पांडेय के सौजन्‍य से यह कविता अभी मिली…जिसे अनुनाद पर लगा देने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूं। 
***

उसने लोहा उठाया  ,
झट, उसका कान उमेठा
बाल्टी के नंगे कानों में पहना,
चल दिया,
वो भी ,सज संवर
बाहों में लटक ….चल पडी
साथ उसके डुबुक …
छिछले पानी में घुसता,
नीचे मोतियों का,घूरा चमकता,
ले आता उपर,रेत भर भर
बस एक परत
मटमैले पानी के भीतर
मोतियों का चूरा,दमकता
डूबता उतराता , तैरता,
भर बाल्टी रेत,उलीचता 
तट से दूर खड़ी,नाव में
नदी किनारे बसे,तुम्हारे गाँव में 
भरी दोपहरी , थक कर 
गर्म तवे पे चलकर
धूसर ढूह की सूनी छांव में,
छितर जाता……. 
अखबार में गठियायी, 
बासी खबरे समेटे ,सूखी रोटी
काले धब्बों वाले पीले चाँद सी रोटी…कुडकुडायी 
अक्षर शब्द सब,रोटी के जिस्म पे
उलट पुलट चिपक गए …..
पीला चाँद,आइने सा 
दुनिया का अक्स लिए 
बोल रहा था…..
सारी दुनिया का सारा सच
खारी दुनिया का खारा सच
खोल रहा था…..
वो कौर पे कौर पे कौर
तोड़ रहा था  
एक कौर और
असंगठित मजदूरों की कल्याण कारी योजनाये 
सीधा हलक के भीतर 
एक कौर, और 
जापानी बुखार का कहर  
पानी के घूँट के साथ
उतर गया
सर्कस में कोई
सफ़ेद बाघ था, मर गया
ओबामा के भोज में
चिकन तंदूरी,
हैदराबादी बिरयानी
सैफ करीना की कहानी  
एक कौर, और
……..ये मेरी नहीं, 
जनता की जीत है
…………ये हमारी 
सेवाओं का फल है
बाद चुनाव् ,होने वाले सद्र की 
नवधनिक दीमकों की मुस्कुराती,
हाथ मिलाती तस्वीरें,  
……चबाये जा रहा है
दाँतों का झुनझुना
बजाये जा रहा है  
गाये जा रहा है……
रोटी खत्म ….
पेट आधा भर गया
तमाम ख़बरें 
पानी के साथ ,निगल गया
चल दिया आदतन  
ढूह  की ओट में
खाने के बाद मू….ने 
रोटी रह गयी पेट में ,
पानी बह गया रेत में,
सूख गयीं, भाप हुईं ,
गर्म तवे पर
तमाम ख़बर …..
तन मन ,बाद दो पहर ,
फिर तर बतर 
छालों में स्वेद बिंदु भर,
निर्विकार,थक हार
ढलते सूरज के साथ ,ढह जाता 
नाउमीद सन्नाटे सा ,
नदी किनारे पसर जाता  
गठियायी शैम्पू की पुडिया
टेंट से निकालता 
देह भर,साबुन की
सस्ती टिकिया लगाता 
दिन भर की हजार डुबकियों
के बाद भी,जाने क्या छुडाता  ,
मल मल नहाता…
सस्ता गम्कौउआ तेल लगा
किसी आस सा ,संवर गया 
पानी में जाने कब कैसे
दिन भर का छाला घुल गया
पसीना फिर पानी से धुल गया   
सूरज ढलने के साथ साथ 
तारों की बारात चली 
उसके संग फिर रात चली …….
देशी दारू के ठेके पे 
सारी दुनिया है ठेंगे पे …..

0 thoughts on “रेत मजदूर को देखते हुए – पंकज मिश्र”

  1. पंकज मिश्र की कविताएँ बिलकुल अभी पढ़ने को मिली हैं. यह कविता इस बात की बानगी है कि उनका स्वर कितना सधा हुआ है…

  2. देशी दारू के ठेके पे
    सारी दुनियाँ ठेंगे पे…
    व्यंग्य और करुणा का अद्भुत फ्यूज़न।

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