अनुनाद

अनुनाद

बहनें – असद ज़ैदी

असद ज़ैदी
आज के दिन हमारे प्रिय अग्रज कवि असद ज़ैदी की यह कविता अनुनाद के पाठकों के लिए…साथ ही परिकल्‍पना प्रकाशन को शुक्रिया, जहां से इस किताब का नया संस्‍करण प्रकाशित हुआ है। बहुत पहले अनुनाद पर इसी कविता का अपना किया हुआ पाठ भी लगाया था पर न जाने क्‍यों ये प्‍लेयर अब काम नहीं कर रहा….कोई सुधी पाठक यदि मार्गदर्शन कर पाए तो आभारी रहूंगा। 
*** 

कोयला हो चुकी हैं हम बहनों ने कहा रेत में धंसते हुए
ढक दो अब हमें चाहे हम रुकती हैं यहां तुम जाओ

बहनें दिन को हुलिए बदलकर आती रहीं
बुख़ार था हमें शामों में
हमारी जलती आंखों को और तपिश देती हुई बहनें
शाप की तरह आती थीं हमारी बर्राती हुई
ज़िन्‍दगियों में बहनें ट्रैफि़क से भरी सड़कों पर
मुसीबत होकर सिरों पर हमारे मंडराती थीं
बहनें कभी सान्‍त्‍वना पाकर बैठ जाती थीं हमारी पत्नियों के
अंधेरे गर्भ में बहनें पहरा देती रहीं

चूल्‍हे के पीछे अंधेरे में प्‍याज़ चुराकर जो हमें चकित करते हैं
उन चोरों को कोसती थीं बहनें
ख़ुश हुई बहनें हमारी ठीक-ठाक चलती नौकरियों से भरी
सम्‍भावनाएं देखकर

बहनें बच्‍चों को परी-दरवेश की कथाएं सुनाती थीं
उनकी कल्‍पना में जंगल जानवर बहनें लाती थीं
बहनों ने जो नहीं देखा उसे और बढ़ाया अपने
अज्ञान की पूंजी
बटोरते-बटोरते

यह लकड़ी नहीं जलेगी किसी ने
यों अगर कहा तो हम बुरा मान लेंगी
किसलिए आख़िर हम हुई हैं लड़कियां
लकड़ियां जलती हैं जैसे हम जानती हैं तुम जानते हो
लकड़िया हैं हम लड़कियां
जब तक गीली हैं धुआं देंगी पर इसमें
हमारा क्‍या बस, हम
पतीलियां हैं तुम्‍हारे घर की भाई पिता

मां देखो हम पतीलियां हैं
हमारी कालिख़ धोयी जाएगी, नहीं धोया गया हमें तो
हम बन कालिख़
बढ़ती रहेंगी और चीथड़े
भरती रहेंगी शरीर में जब तक है गीलापन और स्‍वाद
हम सूखेंगी अपनी रफ़्तार से

हम सूख जाएंगी
हम खड़खड़ाएंगी इस धरती पर सन्‍नाटे में
मोखों में चूल्‍हों पर दोपहरियों में
अपना कटोरा बजाएंगी हम हमारा कटोरा
भर देना – मोरियों पर पानी मिल जाता है कुनबेवालो
पर घूरों पर दाना नहीं मिलता
हमारा कटोरा भर देना

हम तुम्‍हारी दुनिया में मकड़ी-भर होंगी
हम होंगी मकड़ियां
घर के किसी बिसरे कोने में जाला ताने पड़ी रहेंगी
हम होंगी मकड़ियां धूल-भरे कोनों की
              हम होंगी धूल
हम होंगी दीमकें किवाड़ों की दरारों में
बक्‍से के तले पर रह लेंगी
नीम की निबौलियां और कमलगट्टे खा लेंगी
हम रात झींगुरों की तरह बोलेंगी
कुनबे की नींद को सहारा देती हमीं होंगी झींगुर

कोयला हो चुकी हैं हम
              बहनों ने कहा रेत में धंसते हुए
कोयला हो चुकीं
              कहा जूतों से पिटते हुए
कोयला
              सुबकते हुए

बहनें सुबकती हैं : राख हैं हम
राख हैं हम : गर्द उड़कर बैठ जाएगी सभी के माथे पर
सूखेंगी तुम्‍हारी आंखों में ग्‍लानि की पपड़ियां
गरदन पर तेल की तह जमेगी, देखना

परिकल्‍पना प्रकाशन

बहनें मैल बनेंगी एक दिन
एक दिन साबुन के साथ निकल जाएंगी यादों से
                घुटनों और कोहनियों को छोड़कर

मरती नहीं पर वे, बैठी रहती हैं शताब्दियों तक घरों में

बहनों को दबाती दुनिया गुज़रती जाती है जीवन के
चरमराते पुल से परिवारों के चीख़ते भोंपू को
जैसे-तैसे दबाती गरदन झुकाए अपने फफोलों को निहारती

एक दिन रास्‍ते में जब हमारी नाक से ख़ून निकलता होगा
                  मिट्टी में जाता हुआ
पृथ्‍वी की सलवटों में खोई बहनों के खारे शरीर जागेंगे
श्रम के कीचड़ से लिथड़े अपने आंचलों से हमें घेरने आएंगी बहनें
बचा लेना चाहेंगी हमें अपने रूखे हाथों से

बहुत बरस गुज़र जाएंगे
इतने कि हम बच नहीं पाएंगे।  
*** 

0 thoughts on “बहनें – असद ज़ैदी”

  1. यह बेहद महत्वपूर्ण कविता अब तक नेट पर नहीं थी . यहाँ लाने के लिए जिंदाबाद . लेकिन क्या यह पूरी कविता है ?मुझे याद आता है कि इस के कई खंड थे ?कृपया स्पस्ट कीजिये .

  2. आशुतोष भाई परिकल्‍पना से प्रकाशित संग्रह से यह कविता ली है…मैंने…वहां इसका यही सम्‍पूर्ण रूप है…पहला संस्‍करण शायद 1978 में आया था इस किताब का….हो सकता है उसमें कुछ रहा हो,जिसे अब कवि ने सम्‍पादित कर दिया है।

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