अशोक कुमार पांडेय हिंदी की युवा कविता के कुछ सबसे सधे हुए कवियों में है,
जिसके सधे हुए होने में भी कुछेक दिलचस्प पेंच हैं। यह सधाव इतना
गतिमान है कि उसे पढ़ते हूए बहुत सावधान रहना होता है। एक मुद्दत तक लिखते रहने के
बाद अब वो विचार और कला के बीच अचूक सन्तुलन का भी कवि है। पहले उसकी राजनीतिक
प्रतिबद्धता ने मुझे उसके निकट ला खड़ा किया फिर उसकी कविताएं इस निकटता को आत्मीयता
में बदलती गईं… गो अभी आमने-सामने मिलना बाक़ी है उससे। साथ की आवाज़ों में अशोक
और व्योमेश, वाम के लिहाज से सबसे ज़्यादा राजनीतिक कवि है….लेकिन कहन के लिहाज
से उनकी कविता दो बिलकुल अलग छोरों पर खड़ी मिलती है – मेरे लिए मेरे वक़्त की और
मेरी उम्र की कविता का यह सबसे सुन्दर दृश्य है। उन दोनों का इस तरह होना,
युवा हिंदी कविता को एक ऐसे संयोजन में बदल देता है….जिससे मेरी
अपनी पढ़त में बीच की वह एक अद्भुत जगह सम्भव होती है, जहां
गिरिराज किराड़ू की विराट उपस्थिति है। जैसा कि मैंने कहा…साथ की आवाज़ें…ये
तीन आवाज़ें, जिनके बिना फिलहाल मेरे लिए युवा हिंदी कविता
की कोई तस्वीर मुकम्मल नहीं हो सकती….फिर दूसरी आत्मीय और प्रतिबद्ध आवाज़ें
भी है, जिनके बारे में फिर कभी अवसर आने पर कहूंगा….आज का
दिन तो यहां छापी जा रही अशोक की कविता के नाम…कुछ निजी क्षिप्र ब्योरों के साथ…
***
मेरे लिए कश्मीर
एक उधेड़बुन है….वीरेन डंगवाल से शब्द उधार लेकर कहूं तो एक अधेड़ उधेड़बुन …. जिसकी एक उम्र हो चुकी है … जिसे हम सरलता के मुहावरे मैं पैंसठ कह सकते
हैं …और जटिलता में देखें तो कश्मीर के हिंदू रजवाड़ों से लेकर अब तक की फौजी
प्रभुसत्ता तक एक पूरा इतिहास है…
***
हम
कश्मीर को किस तरह देखते हैं….मैं सिर्फ़ अपनी उम्रों की बात करूंगा….जब
हिंदी फिल्में रंगीन होनी शुरू हुईं तो दृश्य में एक कश्मीर आना शुरू हुआ … ऊंचे क़दों वाले पेड़ों से भरे पहाड़ … कभी साफ़ नीले…तो कभी बादलों से घिरे आसमान के बिम्बों
से भरी झील…बेदाग़ सुफ़ैद बर्फ़…कितने-कितने रंगों के फूल – कभी बाग़ीचों तो
कभी डलियों में धरे… पतली-लम्बी सुतवां नाक वाले गोरे-चिट्टे ख़ूबसूरत
नर-नारियां…पानियों पर बने घर …उनके रखवाले … उन रखवालों से प्रेम कर बैठती
परदेसी बम्बईया लड़कियां … और ख़ूब खुली-खुली हरी-भरी वादियां और रास्ते,
जिन्हें नायिकाएं अपने दामन और बांहों में बदल लेती थीं … कितने
गीत … कितनी अद्भुत वे कल्पनाएं … सब कुछ बहुत रूमानी … बचपन के कच्चे मन को
आकार देता-सा … पर बचपन बहुत जल्द ख़त्म हो जाने वाली पूंजी है।
***
फिर
जीवन में छोकरापन आता है … मुझे बहुत प्रिय है यह शब्द छोकरा … अजब … आज़ाद … लेकिन उतना
ग़ैरजिम्मेदार नहीं, जितना समझा जाता है। एक नया
जोश …चीज़ों को समझने का और जीवन को जीने का। इसी उम्र में सामना होता है यथार्थ
से … वास्तविकता … कठोर … क्रूर … कभी महान … तो कभी दयनीय … जब मन बनता
है … जब कुछ खटकता है पहलू में … जब विचार आने शुरू होते हैं … हम कभी छिछोरे
तो कभी सौम्य हो जाते हैं। बदलावों का शब्द है छोकरा ….शारीरिक से वैचारिक उलझावों-सुलझावों तक। इस उम्र का असर
दूसरी उम्रों तक जाता है … कभी कोई कह बैठता है कि छोकरापन गया नहीं अब तक इसका।
तो इस छोकरेपन का कश्मीर … आतंक … न जाने कैसे कैसे अबूझ नामों वाले आतंकी
संगठन … धमाके … गोलीबारियां … शहादतें … मेरे इलाक़े उत्तराखंड में भी तिरंगे
में लपेट कर लाए जाते फौजियों के शव … उनके घरों में जवान विधवाओं से लेकर बूढ़ी
दादियों तक के वे शापित विलाप … अभी बन्द नहीं हुए हैं … बूढ़ी बिल्लियों की तरह चक्कर लगाते रहते हैं गांव का और अचानक किसी फोन की घंटी के साथ घुस जाते हैं घरों में…
***
जवानी
आई … जैसे आती है … ताक़त और अहंकार से भरी…किसी भी ओर जा सकती थी … पर गई
नहीं … इसके लिए शुक्रिया आइसा का …. कुछ इतिहास और कुछ वर्तमान पढ़ा हमने।
भारत का कश्मीर कि खलनायक देश पाकिस्तान का कश्मीर …ख़ुद कश्मीर ने भी कभी कहा –
आज़ाद कश्मीर …हमने कुछ ख़ास सोचा नहीं कश्मीर के बारे में सिवा इसके कि अब वो जाने लायक़ जगह रही नहीं। उसका रूमान ख़त्म हो गया … बचपन की नायिकाएं वृद्ध हो गईं … वादियां आग उगलने लगीं… रास्तों पर पहरे लग गए … ज़मीन का स्वर्ग हक़ीक़त में स्वर्गीय हो गया…
***
हिंदू
रजवाड़ों और मेहनतकश मुस्लिम प्रजा का पेंच था कि बंटवारे की ठिठुरन …कबाइलियों
का हमला….आजा़दी के बाद कश्मीर में धारा 370 की
आड़ में नौकरशाहों की अभूतपूर्व अन्तहीन अनथक लूट-खसोट…उनकी कभी न ख़त्म होने
वाली भूख … विशिष्ट राज्य का दरज़ा मिलने के बावजूद कश्मीर के मूल निवासियों का विपन्न होते चले जाना … हिम के प्रदेश में गर्म हवाओं का आना … प्रकृति के
नाज़ुक ढांचे में अचानक बमों का फूटते चले जाना….बहुत उलझन थी….समझ से परे …. अचानक
विस्थापितों की शब्दावली में एक नए शब्द का प्रवेश हुआ ...
कश्मीरी पंडित…
***
न
जाने कहां को भागा जाता था हिंदोस्तान…. इस भटकाव का फायदा उठा तभी कुछ महाजन
उसे अयोध्या भगा ले गए…. तबाही लगातार बढ़ती रही … गांठ-गांठ उलझती रही…
***
अब अपनी उम्रों में दिन ऐसे लगे हैं कि उन्हें पूर्व-प्रौढ़ता कह लें या उत्तर-यौवन … यही हाल कश्मीर समस्या का भी है ….
और ठीक यहीं से मैं अपनी बात को छोड़ते हुए अशोक की कविता को बोलने
देना चाहता हूं … मेरे देखे में ये कश्मीर पर इकलौती कविता है, जो भावुकता और राजनीति की किसी भी ढलान पर फिसलती नहीं है…बल्कि फिसले हुओं
को सहारा ही देती है। दरअसल ये कविता से अधिक कुछ है। कविता जब कविता से अधिक कुछ
होती है, तो ख़ास हो जाती है। हालांकि कविता
को पढ़ने का ये तरीका या कहें कि सलीका हिंदी में उतना प्रचलित नहीं है, हां विश्वकविता से अनुवाद में कुछ ऐसा आ जाए तो धन्य धन्य करने में भी हम पीछे नहीं रहते। इधर
हिंदी कविता में अधिक को अकसर ही अलग मान लिया जाता है … बहरहाल, ये अधिक-अधिक कविता कवि की गूंजती हुई इस दुआ के साथ कि हर चूल्हे में आग रहे और आग लगे बन्दूकों को…
***
-शिरीष कुमार मौर्य
1
ज़मीन पर लहू के
मैं पहाड़ों के क़रीब जाकर आने वाले मौसम की आहट सुनता हूँ
ज़मीन के सीने पर कान रखने की हिम्मत नहीं कर पाता
मैं पहाड़ों के क़रीब जाकर आने वाले मौसम की आहट सुनता हूँ
ज़मीन के सीने पर कान रखने की हिम्मत नहीं कर पाता
2
जिससे मिलता हूँ हंस के मिलता है
जिससे पूछता हूँ हुलस कर बताता है खै़रियत
मैं मुस्कराता हूँ हर बार
हर बार थोड़ा और उन सा हो जाता हूँ
3
ताहद्दे-निगाह चिनार ही चिनार जैसे चिनारों के सहारे टिकी हो धरती
इतनी
ख़ूबसूरती
कि
जैसे किसी बहिष्कृत आदम चित्रकार की तस्वीरों में डाल दिए गए हों प्राण
मैं
उनसे मिलना चाहता था आशिक की तरह
वे
हर बार मिलते हैं दुकानदार की तरह
और
अपनी हैरानियाँ लिए
मैं इनके बीच गुज़रता हूँ एक अजनबी की तरह
मैं इनके बीच गुज़रता हूँ एक अजनबी की तरह
4
ट्यूलिप
के बागीचे में फूल नहीं हैं
ट्यूलिप
सी बच्चियों के चेहरों पर कसा है कफ़न सा पर्दा
डरी
आँखों और बोलते हाथो से अंदाज़ा लगाता हूँ चित्रलिखित सुंदरता का
हमारी
पहचान है घूंघट की तरह हमारे बीच
वरना
इतनी भी क्या मुश्किल थी दोस्ती में?
6
रोमन
देवताओं सी सधी चाल चलती एक आकृति आती है मेरी जानिब
और
मैं सहमकर पीछे हट जाता हूँ
देख
सकता था एक मुग्ध ईर्ष्या से अनवरत
अगर
न दिखाया होता तुमने टीवी पर इन्हें इतनी बार.
6
यह
फलों के पकने का समय है
हरियाए
दरख़्तों पर लटके हैं हरे सेब, अखरोट
खुबानियों
में खटरस भर रहा है धीरे-धीरे
और
कितने दिन रहेगा उनका यह ठौर
पक
जाएँ तो जाना ही होगा कहीं और
क्या
फर्क पड़ता है –
दिल्ली हो या लाहौर!
7
7
और
उनके बीच प्रजाति एक निर्वासित मनुष्यों की
‘कहीं
आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी’
जहाँ
आग लगी वह उनका घर नहीं था
जहाँ
गोली चली वह उनका गाँव नहीं था
पर
वे थे हर उस जगह
उनके
बूटों की आहट थी ख़ौफ़ पैदा करती हुई
उनके
चेहरे की मायूसी थी करुणा उपजाती
उनके
हाथों में मौत का सामान है
होठों
पर श्मशानी चुप्पियाँ
इन
सपनीली वादियों में एक ख़लल की तरह है उनका होना
उन
गाँवों की ज़िंदगी में एक ख़लल की तरह है उनका न होना
8
(श्रीनगर-पहलगाम
मार्ग पर पुलवामा जिले के अवंतीपुर मंदिर के खंडहरों के पास)
आठवीं
सदी सांस लेती है इन खंडहरों में
झेलम
आहिस्ता गुजरती है किनारों से जैसे पूछती हुई कुशल-क्षेम
और
ठीक सामने से गुज़र जाती है भक्तों की टोलियाँ धूल उड़ातीं
ये
यात्रा के दिन हैं
हर
किसी को जल्दी बालटाल पहुँचने की
तीर्थयात्रा
है यह या विश्वविजय पर निकले सैनिकों का अभियान?
तुम्हारे
दरवाजे पर कोई नहीं रुकेगा अवंतीश्वर
भग्न
देवालयों में नहीं जलाता कोई दीप
मैं
एक नास्तिक झुकता हूँ तुम्हारे सामने –
श्रद्धांजलि में
9
पहाड़ों
पर चिनार हैं या कि चिनारों के पहाड़
और
धरती पर हरियाली की ऐसी मखमल कि जैसे किसी कारीगर ने बुनी हो कालीन
घाटियों
में फूल जैसे किसी कश्मीरी पेंटिंग की फुलकारियाँ
बर्फ़ की तलाश में कहाँ-कहाँ से आये हैं यहाँ लोग
हम
भी अपनी उत्कंठायें लिए पूछते जाते हैं सवाल रास्ते भर
फिरन
के भीतर भी जैसे जम जाता है लहू
पत्थर
गर्म करते हैं सारे दिन और गुसल में पानी फिर भी नहीं होता गर्म
समोवार
पर उबलता रहता है कहवा…अरे हमारे वाले में नहीं होता साहब बादाम-वादाम
इस
साल बहुत टूरिस्ट आये साहब, कश्मीर गुलजार हो गया
अब
इधर कोई पंगा नहीं एकदम शान्ति है
घोड़े
वाले बहुत लूटते हैं, इधर के लोग को बिजनेस नहीं आता
पर
क्या करें साहब! बिजनेस तो बस छह महीने का है
और
घोड़े को पूरे बारह महीने चारा लगता है
आप
पैदल जाइयेगा रास्ता मैं बता दूंगा सीधे गंडोले पर
ऊपर
है अभी थोड़ी सी बर्फ़….
यह
आखिरी बची बर्फ़ है गुलमर्ग के पहाड़ों पर
अनगिनत
पैरों के निशान, धूल और गर्द से सनी मटमैली बर्फ़
मैं
डरता हूँ इसमें पाँव धरते और आहिस्ता से महसूसता हूँ उसे
जहाँ
जगहें हैं खाली वहाँ अपनी कल्पना से भरता हूँ बर्फ़
जहाँ
छावनी है वहाँ जलती आग पर रख देता हूँ एक समोवार
गूजरों
की झोपडी में थोड़ा धान रख आता हूँ और लौटता हूँ नुनचा की केतली लिए
मैं
लौटूंगा तो मेरी आँखों में देखना
तुम्हें
गुलमर्ग के पहाड़ दिखाई देंगे
जनवरी
की बर्फ़ की आगोश में अलसाए
10
यहाँ
कोई नहीं आता साहब
बाबा
से सुने थे क़िस्से इनके
किसी
भी गाँव में जाओ जो काम है सब इनका किया
उमर
तो बच्चा है अभी दिल्ली से पूछ के करता है जो भी करता है
आप
देखना गांदेरबल में भी क्या हाल है सड़क का..
डल
के प्रशांत जल के किनारे
संगीन
के साये में देखता हूँ शेख साहब की मजार
चिनार
के पेड़ों की छाँव में मुस्कराती उनकी तस्वीर
साथ
में एक और क़ब्र है
कोई
नहीं बताता पर जानता हूँ
पत्नियों
की क़ब्र भी होती है पतियों से छोटी
11
तीन
साल हो गए साहब
इन्हें
अब भी इंतज़ार है अपने लड़के का
सोलह
लाशें मिलीं पर उनमें इनका लड़का नहीं था
जिनकी
लाशें नहीं मिलतीं उनका कोई पता नहीं मिलता कहीं
इस
साल बहुत टूरिस्ट आये साहब
गुलजार
हो गया कश्मीर फिर से
बस
वे लड़के भी चले आते तो….
12
गुलमर्ग
जायेंगे तो गुजरेंगे पुराने श्रीनगर से
वहीं
एक गली में घर था हमारा
सेब
का कोई बागान नहीं, न कारख़ाने लकड़ियों के
एक
दुकान थी किराने की और
दालान
में कुछ पेड़ थे अखरोट के
तिरछी
छतों के सहारे लटके कुछ फूलों के डलिए
एक
देवदारी था मेरे कमरे के ठीक सामने
सर्दियों
में बर्फ से ढक जाता तो किसी देवता सरीखा लगता
हजरतबल
की अजान से नींद खुलती थी
अब
शायद कोई और रहता है वहाँ …
वहाँ
जाइए तो वाजवान ज़रूर चखियेगा…
गोश्ताबा
तो कहीं नहीं मिलता मुग़ल दरबार जैसा
डलगेट
रोड से दिखता है शंकराचार्य का मंदिर…
थोड़ा
दूर है चरारे शरीफ़ ..
पर
न अब अखरोट की लकडियों की वह इमारत रही न ख़ानक़ाह
कितना
कुछ बिखर गया एहसास भी नहीं होगा आपको
हम
ही नहीं हुए उस हरूद में अपनी शाखों से अलग…
मैं
तुम्हें याद करता हूँ प्रांजना भट्ट हजरतबल के ठीक सामने खड़ा होकर
रूमी
दरवाजे पर खड़ा हो देखता हूँ तुम्हारा विश्वविद्यालय
डल के किनारे खड़ा बेशुमार चेहरों के बीच तलाशता हूं तुम्हारा चेहरा
चिनार का एक ज़र्द पत्ता रख लिया है तुम्हारे लिए निशानी की तरह …
डल के किनारे खड़ा बेशुमार चेहरों के बीच तलाशता हूं तुम्हारा चेहरा
चिनार का एक ज़र्द पत्ता रख लिया है तुम्हारे लिए निशानी की तरह …
13
जुगनुओं
की तरह चमचमाते हैं डल के आसमान पर शिकारे
रंगीन
फव्वारों से जैसे निकलते है सितारे इतराते हुए
सो
रहे है फूल लिली के दिन भर की हवाखोरी के बाद
अलसा
रहा है धीरे-धीरे तैरता बाजार
और
डल गेट रोड पर इतनी रौनक कि जन्नत में जश्न हो जैसे
खिलखिलाता
हुस्न, जवानियाँ, रंगीनियाँ…
बनी
रहे यह रौनक जब तक डल में जीवन है
बनी
रहे यह रौनक जब तक देवदार पर है हरीतिमा
हर
चूल्हे में आग रहे
और आग लगे बंदूकों को.
***
सभी तस्वीरें गूगल से साभार
एक से बढ़ कर एक ! कहाँ कहाँ तक पंक्तियों को कोट करूँ ! शानदार ! आभार अशोक और शिरीष जी !
यह कविता 'निकली' है. बहती हुई . प्रवाह में ! पहले पाठ मे बहुत कुछ छूट गया. अनूप सेठी की कुछ कविताएं पढ़ते हुए मैंने महसूस किया है, कि हम पाठ को रिसीव नही कर पा रहे पूरा. लेकिन पीछे हटने का मन भी नही करता . मानो जो चीज़ें बह रही हैं धारा में, हम रुकें, पीछे देखें तो वे बहुत आगे निकल जाएंगी .यह तर्कसंगत नहीं है, लेकिन फिर भी यही लगता है. कि चीज़ें पकड- से बाहर हो जाएंगी. तो साथ बहते जाने का लोभ जगता है. बल्कि बना रहता है अंत तक.फिर भी छूट जाता है.
यह कविता बार् बार पढ़ूँगा . बहुत सहज है. राग सा बनता है .
जिस आतंक के साये में आम कश्मीरी जी रहा है, उसे बहुत शिद्दत से अशोक भाई ने इस कविता में बुना है। वहां के प्राकृतिक सौंदर्य को इतिहास और वर्तमान के साथ जोड़कर देखने से इस कविता की चिंताओं का विस्तार हुआ है। पाठक इसके प्रवाह में बहता है लेकिन सवाल दर सवाल उसे ठहर कर सोचने विचारने के लिए विवश करते हैं। कश्मीर को लेकर हमारी चिंताएं जितनी तरह की विचार सरणियों में बंटी हुई हैं, उसके लिहाज से इसका शिल्प इसी किस्म का होना था, अलग-अलग दृश्यों में… आखिरी पंक्तियां बहुत ही सार्थक हैं…हर चूल्हे में आगे रहे और आग लगे बंदूकों को… बधाई अशोक भाई, हालांकि मेरा मानना है कि इसके कुछ अंश आपने अभी भी डायरी में बचा रखे हैं। वो भी आएं तो एक और मुकम्मिल दृश्य की रचना होगी
जिस आतंक के साये में आम कश्मीरी जी रहा है, उसे बहुत शिद्दत से अशोक भाई ने इस कविता में बुना है। वहां के प्राकृतिक सौंदर्य को इतिहास और वर्तमान के साथ जोड़कर देखने से इस कविता की चिंताओं का विस्तार हुआ है। पाठक इसके प्रवाह में बहता है लेकिन सवाल दर सवाल उसे ठहर कर सोचने विचारने के लिए विवश करते हैं। कश्मीर को लेकर हमारी चिंताएं जितनी तरह की विचार सरणियों में बंटी हुई हैं, उसके लिहाज से इसका शिल्प इसी किस्म का होना था, अलग-अलग दृश्यों में… आखिरी पंक्तियां बहुत ही सार्थक हैं…हर चूल्हे में आगे रहे और आग लगे बंदूकों को… बधाई अशोक भाई, हालांकि मेरा मानना है कि इसके कुछ अंश आपने अभी भी डायरी में बचा रखे हैं। वो भी आएं तो एक और मुकम्मिल दृश्य की रचना होगी
कई बार यूँ हुआ कि कई कवितायेँ पढ़ी और ठीक से कुछ कहते न बना. 'कहना' कोई लापरवाह सी टिप्पड़ी बनकर न रह जाये सो चुप
में सहेज लिया. लेकिन इन कविताओं को पढ़ते हुए भी चुप रह गयी तो खुद से अन्याय होगा. अशोक जी अपनी कविताओं में
लगातार कुछ खोजते नजर आते हैं. एक बेसब्री सी दिखती है..उलझन. जैसे कुछ मथ रहा हो उन्हें. जहाँ 'मृत्यु' पर उनकी कविताओं में जीवन के
लिए जो उत्कंठा दिखती है, वहीँ कश्मीर की गलियों में भटकते हुए धरती के सीने पर सर रखकर सोने की कामना भी. लेकिन धरती के
सीने में जो आग है वो सोने नहीं देती. 'पहाड़ों पर बर्फ के धब्बे और धरती पर खून के…'
प्रक्रति के सौन्दर्य के बीच जीवन से असल सौन्दर्य की तलाश एक संवेदनशील कवि ही कर सकता है. ख़ुशी है कि सौन्दर्य की राह में एक कवि की चेतना थामे रही उसका हाथ. अशोक जी, मुझे इन कविताओं के बारे में 'अच्छी' या 'बहुत अच्छी' कहने से ज्यादा ज़रूरी यह लग रहा है कि इनमें एक किस्म कि वेदना है जो आने वाली तमाम ज़रूरी कविताओं की बुनियाद है. वो कवितायेँ जो अभी लिखी नहीं गयीं झलकती हैं इनमे.
हर चूल्हे में आग रहे और आग लगे बंदूकों को…
Ashok bhayi ki ye kavitayen unaki ab tak ki kaviton se bhinn prakriti or bhawbhoomi ki kavitayen hain ….sahaj-saral shilp main gahari samvedanaon ki abhivyakti…kalawadiyon ko inamain sapatapan bhi dikh sakata hai par inaka yahi shilp ho sakata hai.jeewan ke vyapak drishya isi roop main sambhaw hain. kavi inmain drishta ki apeksha bhokta lagata hai. kashmeeri jeevan ka spandan or kavi ka wahan ke aam aadami ke paksh main hona in kavitaon ki takat hai.
इस प्रवाहमान कविता ने कश्मीर के दुख दर्द को बड़े शिद्दत से उकेरा है जो भीतर तक मथ कर रख दिया है । बधाई स्वीकारें अशोक सर ।
कश्मीर की तरह खूबसूरत कविता । ठंडक और गर्मी दोनों का अहसास देती रचना । बहुत बहुत बधाई अशोक को और शिरीश जी का आभार !
जिस आतंक के साये में आम कश्मीरी जी रहा है, उसे बहुत शिद्दत से अशोक भाई ने इस कविता में बुना है। वहां के प्राकृतिक सौंदर्य को इतिहास और वर्तमान के साथ जोड़कर देखने से इस कविता की चिंताओं का विस्तार हुआ है। पाठक इसके प्रवाह में बहता है लेकिन सवाल दर सवाल उसे ठहर कर सोचने विचारने के लिए विवश करते हैं। कश्मीर को लेकर हमारी चिंताएं जितनी तरह की विचार सरणियों में बंटी हुई हैं, उसके लिहाज से इसका शिल्प इसी किस्म का होना था, अलग-अलग दृश्यों में… आखिरी पंक्तियां बहुत ही सार्थक हैं…हर चूल्हे में आगे रहे और आग लगे बंदूकों को… बधाई अशोक भाई, हालांकि मेरा मानना है कि इसके कुछ अंश आपने अभी भी डायरी में बचा रखे हैं। वो भी आएं तो एक और मुकम्मिल दृश्य की रचना होगी। …
अशोक जी की यह कविता कश्मीर के प्रस्तुत हालात से पाठकों को जोडने में पूरी तरह से सक्षम हुई हैं. कश्मीर की खूबसूरत वादी सेब, अखरोट, खुम्बियाँ, देवदार और गोलियां, बूटों की आहट और अंत में 'हर चल्हे में आग और आग लगे बन्दूको को'. शानदार कविता
अशोक जी जैसे दृष्टिसम्पन्न कवि की निगाह से कश्मीर को देखना-समझना हमे भी सम्पन्न करता है। कवि ने अपनी यात्रा को हम सबके लिए बहुत सार्थक रूप से साझा किया है। बधाई अशोक जी।
एक बेहद सुदर बात आपके बारे में बकौल शिरीष- विचार और कला के बीच अचूक संतुलन का कवि.
चिनारों के सहारे टिकी हो धरती / इतनी खूबसूरत…
एक भाषा वह है जहां आप गुस्सा जाहिर करते है और कविता थोड़ा चीखती दिखाई देती है. लेकिन गुस्सा अगर आपके शब्दों में ढल जाए याने कविता के ठेठ भीतर, त्वचा पर रेंगता हुआ सा तो कविताई शक्ल में एक जहीन तस्वीर बनती है ठीक कश्मीर की उम्दा शक्ल में. बधाई अशोक भाई, बधाई अनुनाद.
एक बेहद सुदर बात आपके बारे में बकौल शिरीष- विचार और कला के बीच अचूक संतुलन का कवि.
चिनारों के सहारे टिकी हो धरती / इतनी खूबसूरत…
एक भाषा वह है जहां आप गुस्सा जाहिर करते है और कविता थोड़ा चीखती दिखाई देती है. लेकिन गुस्सा अगर आपके शब्दों में ढल जाए याने कविता के ठेठ भीतर, त्वचा पर रेंगता हुआ सा तो कविताई शक्ल में एक जहीन तस्वीर बनती है ठीक कश्मीर की उम्दा शक्ल में. बधाई अशोक भाई, बधाई अनुनाद.
कश्मीर पर बहुत कुछ पढ़ा कहानियां उपन्यास पर कवितायेँ कम पढीं और अच्छी तो उससे भी कम |पर अशोक की ये कवितायेँ मन को छूने वाली हैं |शुरुआती आख्यान (परिचय)सहित|हलाकि नहीं पता कि ये किसके द्वारा लिखा गया है लेकिन बहुत खूब..|हलाकि आपने जिन तीन कवियों के नाम लिए युवा कविता या राजनीतिक कविता से संदर्भित उस श्रंखला में कुछ नाम और जोड़े जाने चाहिए |अशोक की कवितायेँ आम चलन की कविताओं से हटकर और संतुलित हैं इन अर्थों में कि इनमे दुरूह और त्रासद हालातों का ज़िक्र होने के बावजूद ये ना तो एकालाप /कोरा विलाप हैं,ना ही वास्तविकताओं को बचाए जाने की कोशिश ,ना इनमे दोषारोपणों और 'कोसने'की भरमार है और ना ही ये निरीह हैं …इनमे एक संतुलन है जो पाठक को किसी उदासी,विरक्ति या रोष में नहीं ले जाता बल्कि कहीं कहीं एक हल या युक्ति भी सुझाता है | ये शब्द्जाल के चमत्कारों से चौंधियाती एक अधूरी या एकपक्षीय कविता नहीं बल्कि सम्पूर्णता लिए हुए आम पाठक के लिए भी लिखी गई एक सफल कोशिश है कहीं कहीं आव्हान भी |वस्तुतः किसी कवि की यही तटस्थता और काव्यात्मकता ही कवि की ''श्रेष्ठता ''को तय करती है |
—
अशोक की मैंने तमाम कविताएं पढ़ी व सुनी हैं। यह सचमुच उन सबसे अलग एक अद्भुत कविता है, जो कश्मीर की वादियों में घुली-मिली नैसर्गिक सुन्दरता और राजनीतिक कटुता दोनों को एक साथ गज़ब के शब्द-जाल में समेटे हुए है। “मैं पहाड़ों के करीब जाकर आने वाले मौसम की आहट सुनता हूँ/ जमीन के सीने पर कान रखने की हिम्मत नहीं कर पाता” इसी द्वन्द्व का परिचायक है। “ट्यूलिप सी बच्चियों के चेहरों पर कसा है कफ़न सा पर्दा” एक साथ कई विद्रूपों को सामने प्रस्तुत करता है। “यह फलों के पकने का समय है/ …… पक जाएँ तो जाना ही होगा कहीं और/ क्या फर्क पड़ता है – दिल्ली हो या लाहौर!” जैसी पंक्तियों में उस ओर भी इशारा है, जिस पर सारी की सारी राजनयिक उठा-पठक जारी है। “हर तरफ आग रहे/ और आग लगे बंदूकों को” जैसी पंक्तियों का तो कहना ही क्या? अशोक भाई कश्मीर को लेकर एक नई हलचल मचा दी है दिल में आपकी कविता ने! इतनी बढ़िया कविता लिखने के लिए बधाई! शिरीष भाई, आपको इस उम्दा प्रस्तुति के लिए साधुवाद व धन्यवाद!
पूरी कविता अनुत्तरित सवालों, मायूस होती चाहतों, उजागर राजनैतिक खेलों,विडम्बनाओं, विवशताओं और मन की कचोट को रेखांकित करती हुई भी उम्मीद को लेकर चलती है..प्रश्न उठाना और आशा बलवती राजन पर टिके रहना दोनों कवि कर्म निभाने के साथ साथ कश्मीर सौंदर्य परिचय भी सहज होता जाता है .. लंबी मेहनत और ज्ञानात्मक संवेदन का शानदार परिणाम सी इस कविता के लिए तुम्हे बहुत बधाई अशोक
दूसरी बार पढ़ी . बहुत सी छूट गई चीज़ें पकड़ पाया . मसलन अवंतीश्वर के खंडहरों मे नतमस्तक नास्तिक ! झेलम के छलछलाते किनारे . उफ्फ यह ज़िन्दा बिम्ब . यह नायाब 'हिस्सा ' जाने कैसे छूट गया था . बहुत बार पढ़ना अभी इसे. अशोक अपने स्टाईल से आगे क्यों जा रहे हैं ? शायद इस लिए कि उन मे अपनी दृष्टि और अपनी तासीर् से आगे झाँकने का माद्दा है. यहाँ काश्मीर आ कर उन का आवेग और और उन का आक्रोश उन की दृष्टि की चौंध से ठहर सहम गया है. जो विचलित करने की बजाय पाठक को सम्भालता समझाता दिखता है,*नूनचा* पिलाते हुए ……. ज़ाहिर है शिल्प खुद ब खुद नया रूप पाता गया होगा . लोकल आदमी के सम्वाद पूरे परिदृश्य को समझने मे मदद करते हैं . शाम तक एक पाठ और करूँगा .
आपकी कविताओं में काश्मीर हंस रहा है , रो रहा है, लंबी-लंबी श्वासें ले रहा है जहाँ चिनार की हरियाली है , बर्फ है, हर्ष है, विषाद है … अच्छा लगा जानना …
मैं कश्मीर के विषय में अधिक नहीं पढ़ पायी और वहाँ जा भी नहीं पायी… इसलियें विशेष उत्सुकता के साथ पढीं आपकी कवितायें…अब तो जाना ही पडेगा वहा..
आभार शिशिर को और बधाई आपको .
कविता दिलचस्प है।
हमारे दौर की यह त्रासदी हिंदी कविता में उस तरह से नहीं आयी है , जैसे कि इसे आना चाहिए था ..| सामान्यतया लोग इस पर अपनी राय देने से बचते हैं ..| अशोक भाई ने यह साहस दिखाया है ,और इसलिए वे बधाई के पात्र हैं | कविता भी कुल मिलाकर एक संतुलन को साधती है | तीन चार बार कश्मीर में जाने का मेरा भी अनुभव यही कहता है , जो इस कविता में व्यक्त हुआ है |उन्हें पुनः बधाई …
हर चूल्हे में आग रहे और आग लगे बंदूकों को.
मुबारक दोस्त, एक जोरदार कविता के लिए.
Ashok Ji ne apni puraani style chhodi hai. aur maine notice kiya ki beech me chhand likhne ke baad unme yah parivartan aaya hai aur is parivartan ne unke style me chaar chaand laga diye hain. Jahan tak is kavita ki baat hai, maine jab yah pahli baar padhi to Ashok ji se kaha tha ki meri nazar me yah kavita aapke ab tak ke lekhakiy safar ke sar par mukut hai.
शुक्रिया इस सुन्दर कविता को पढवाने के लिये..
कविता में बहुत प्रवाह है….मैंने रूक-रूक कर दो बार पढ़ा .. कविता में ऐसा बढ़िया यात्रा-वर्तान्त मैंने पहले कभी नहीं पढ़ा. ..पढवाने के लिए शुक्रिया
कश्मीर का वर्तमान ' मैं पहाड़ो के करीब …आने वाले मौसम की आहट सुनता हूँ 'लेकिन 'ज़मीन के सीने पर कान रखने की हिम्मत नहीं कर पाता 'क्योकि ज़मीन पर लहू है ….मजहबी आंतक बैठा है 'बच्चियों की चेहरे पर कसा है कफ़न सा पर्दा 'दूसरी तरफ शासन के बूटों की आवाज ..फिर भी अभी कुछ शांति है 'चिनार ही चिनार जैसे चिनारों के सहारे टिकी हो धरती 'बहिस्कृत आदम चित्रकार की तस्वीरों में प्राण डल गए है ….जिंदगी की जद्दोजहद ..यही समय है कुछ कमा लेने का ..विवशता दूकानदार बना रही है.. फिर भी पूंजीवाद स्थानीय व्यवस्था पर भारी है ..फल बड़े शहरों को भेंट चढ़ जायेंगे ..राजनितिक प्रपंच बदस्तूर जारी है….कवि कश्मीर के इतिहास ,संस्कृति व लोक की खूब सैर करता है उसके आनंद में,उसकी व्यथा में ..
.एक नए तरह का 'विश्व विजय पर निकले सैनिको का अभियान ' लोगो में डर भरता है फिर भी आशा नहीं छुटती 'बनी रहे यह रौनक जब तक डल में जीवन है '
अशोक बही को बधाई
आप सबका बहुत-बहुत आभार
शिरीष भाई, 'कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी' मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पंक्ति है…इसीलिए लगा रिफरेन्स न दूं तो भी चलेगा. कुछ मित्रों ने रात को ध्यान दिलाया…चाहें तो रिफरेन्स दे दें.
सादर
कश्मीर यात्रा के बाद की चुप्पी बहुत सार्थक रूप से मुखर हुई है, कविता कई पहलुओं से याद रखी जाने योग्य है …..कभी कश्मीर गयी तो ये कविता बहुत याद आएगी….एक बार पहले भी कश्मीर आपकी कविता में आया था, इस बार कई सारे रंग लेकर आया है….उत्कृष्ट रचना के लिए मेरी बधाई……
आशोक जी ने अपनी यात्रा का अच्छा वृतांत सुनाया और कश्मीर के बारे बनाई गयी, बनती हुई मिथकों को सजगता से, अपनी समझ से देखता हुआ
तमाम इतिहास,मिथिहास के बावजूद यह परम आवश्यक है कि कश्मीर की enigmatic सुन्दरता को बारमबार देखा जाए, उसकी बेचैनी को समझा जाए, यह कुछ और न कर सके लेकिन फिर भी हमें अपने जीवन, इर्द गिर्द के बारे में तुलनात्मक ढंग से बहुत कुछ समझा सकता है कि भौगोलिक नैसर्गिक सुन्दरता के बीच इस तरह राजनीतिक संकट में रहना, भय आतंक के साथ भी संघर्ष किए जाना लोगों में जीवन के प्रति क्या प्रतिक्रम पैदा करता होगा
आपने अपनी यात्रा को बहुत अच्छा संजोया आशोक जी
और अपने बहुत आत्मीय introduction लिखी शिरीष जी…आप अक्सर ऐसे प्रस्तुति करते हैं…यह मुझे अच्छा लगता है, संपादक की राय निश्चय ही पठन को प्रभावित करती है और बाकी पाठक की अपनी समझ वह इसे कितना दूर और कहाँ ले जा सकता है
अशोक की दस्तखत कविताओं में से एक .
इस कविता की नाभि यहाँ है (जिसे आसानी से नहीं भुलाया जा सकेगा )–
''जिनकी लाशें नहीं मिलतीं उनका कोई पता नहीं मिलता कहीं
इस साल बहुत टूरिस्ट आये साहब
गुलज़ार हो गया कश्मीर फिर से
बस वे लड़के भी चले आते तो…''
कश्मीर पर शानदार कविता ……… मैं खुद कश्मीर थोड़े समय के लिए दो बार गया हूँ ……..वहां की स्मृतियों का कोलाज फिर से हरा हो गया …….. इन कवितायों में अशोक जी ने बहुत कुछ समेट लिया है……बिना अतिरिक्त भावुक हुए ….. बिना शोर शराबे के ……. जिसका खतरा ऐसे विषयों के साथ बना रहता है ………..बहुत सी पंक्तियाँ हैं इस कविता में जिन का जिक्र किया जा सकता है …….मगर ये पंक्तियाँ ……………….."अनगिनत पैरों के निशान , धुल और गर्द से सनी मटमैली बर्फ / मैं डरता हूँ इसमें पाँव धरते और आहिस्ता से महसूसता हूँ उसे / जहाँ जगहें खाली हैं वहां अपनी कल्पना से भरता हूँ बर्फ" …………….. मुझे लगता है कि इस पूरी कविता के लिए ……. कश्मीर के लिए….. अशोक जी की मनोस्थिति बयां करती है |
ek suvidhajanak pralaap!
आप सब का बहुत-बहुत आभार मित्रों.
शिरीष जी का इंट्रो आत्मीय और खूबसूरत पाठक को विराम नहीं लेने देता…
कवि और लेखक के शब्दों का सच कहीं दिल में कटार की तरह चुभता है कहीं सर पर हथोड़े की तरह वार करता है , कहीं आखों में पानी की तरह बहता है, कहीं नसों में बर्फ की तरह जम जाता है … कश्मीर देश के नक़्शे में ताज की तरह है, पैसंठ सालों में उस ताज को किस तरह रोंदा गया है कविता में उसकी आत्मकथा है या उसकी आत्मा का दर्पण ?
अशोक भाई की यह लंबी कविता कश्मीर से जुड़ी कई परतों को उधेड़ती हैै। कविता में कवि के सरोकार भी साफ दिखते हैं। अशोक भाई को ढेर सारी बधाइयां…..
कविता से पहले कविता की व्याख्या पढ़ना आपको भ्रमित कर सकता है। इसलिए मैंने व्याख्या नहीं पढ़ी सीधे कविता पर ही गया।
*
कविता पढ़कर पहले लिखे जाने वाले रिपोतार्जों की याद हो आई। कविता शायद मुझे इसलिए भी पसंद आई कि उसमें सरल और सहज भाषा में शब्दों की बाजीगरी दिखाए बिना अपनी बात कही गई है।
*
मेरे हिसाब से कविता वही है जिसे व्याख्या की जरूरत न पढ़े। बधाई।
आदरणीय उत्साही जी….कृपया ख़याल करें – मैंने कविता की कोई व्याख्या नहीं की है। कवि का परिचय दिया है, टिप्पणी कवि के सम्बन्ध में है…और उसकी कविता में आने वाली जगह के बारे में है….कविता पर बिलकुल नहीं है। फिर जो कुछ भी है,वो महज टिप्पणी है,व्याख्या नहीं। इधर पत्रिका के स्वरूप में लाते हुए सहलेखकों के साथ तय किया है कि अनुनाद पर हर पोस्ट एक टिप्पणी के साथ जाएगी…एक अनिवार्य सम्पादकीय जिम्मेदारी की तरह।
***
आपको कविता पसन्द आई….बहुत अच्छा लगा। आपसे निवेदन है अनुनाद पर ज़रूर आइए..दिशा-निर्देशन भी करें…हमारी पूरी टीम को अच्छा लगेगा।
बहुत बेहतरीन कविता.. एकदम कविता की तरह सच्ची.. शिरीष जी ने सच कहा कविता से कुछ अधिक.. 🙂 🙂
काश्मीर – जुलाई के कुछ दृष्य। काश्मीर पर तेरह कविताओं की एक सीरीज़, लम्बी कविता होने के बावज़ूद कहीं टूटती नहीं पर बेशक पाठक के भीतर बहुत कुछ तोड देती है। यहाँ काश्मीर की केवल जुलाई भर नहीं है अपने में बेहद टूटन, दुख समेटे काश्मीर का एक पूरा का पूरा समय है, सिसकता अतीत, थोडा सा राहत पाता वर्तमान और अभी भी धुन्धलके में डूबा भविष्य…
पहाड़ों का दर्द भी पहाड़ जैसा ही था … और मै नदी की तरह तिर आया इन सबके बीच..कुशल छेम पूछता हुआ… हमारी पहचान थी एक गूंघट की तरह हमारे बीच. मै सोचता था १९४७ और वो २००० साल अपने जेहन में लिए जैसे पूछ रहे हों मुझसे मेरा लड़का क्यों नहीं आया वापस… मै पहाड़ हो चुके वर्तमान को देखता हूँ अजनबी की तरह और मन जैसे नदी की तरह निकाल फूटना चाहता है आखों से …. शानदार कवितायेँ …अशोक और शिरीष जी दोनों का शुक्रिया इसे बंटने के लिए
पवन मेराज
आज इस पेज को पढ़ कर बहुत अच्छा लगा … सुन्दर कवितायें अशोक जी की और कश्मीर का सफ़र …
अति सुन्दर और सार्थक कविताये
बस एक शब्द। बेहतरीन। बधाई अशोक जी
अधिक क्लिष्ट साहित्यिक समझ तो नही रखता पर वाकई अशोक सर युवा कवियों में सर्वश्रेष्ठ लगते हैं | उनकी कविताओं की परिपक्वता तो है ही साथ ही साथ एक कैफियत सी महसूस होती है जो प्रमाण है विशुद्ध समकालीन कविता का | नमन है उनकी लेखनी को |
सादर
कश्मीर के जर्रे जर्रे को बतौर मसाएल जीने- समझने को यह कविता बस-कश्मीर समग्र ही है.
''हर चूल्हें में आग रहे
और आग लगे बंदूकों को ''
बहुत बढ़िया कविता है। कश्मीर के वर्तमान हालात को बयां करती है। सुन्दर और सार्थक कविता कई बार पढ़ी जा सकती है।