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वंदना शुक्ला |
वंदना शुक्ला की ये कविताएं मुझे उनके मेल द्वारा मिलीं। इन कविताओं की कवि हिंदी के आभासी संसार के अलावा सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी छपती रही हैं। यहां प्रस्तुत कविताएं ‘अन्यायों, मलालों और विडम्बनाओं के कोलाहल’ के बीच अपने स्वर में निजी-सा कुछ बोलती हैं, जिसके छोर बाहरी समाज और संसार से जगह-जगह जुड़ते हैं।
समालोचन में प्रकाशित एक लेख में वंदना शुक्ला कहती हैं –कहानी में कविता की महक और कविता में कहानी की छटा और एक-दूसरे में उनकी सहज आवाजाही निस्संदेह शिल्पगत चातुर्य और बौद्धिक अन्वेषण का ही एक स्वरूप है। मैं इस कथन में आए चातुर्य शब्द से परहेज़ करते हुए सिर्फ़ यह कहना चाहता हूं कि जिस सहज आवाजाही का जिक्र कवि ने किया, उसे पाठक इन कविताओं में भरपूर पाएंगे। अनुनाद वंदना शुक्ला का अपनी लेखक-सूची में स्वागत करता है।
***
ख़्वाहिश
सोलहवीं मंजिल
की खिड़की के
कितना पास
होता है आसमान
और
कितने दूर
लगते हैं लोग
सब कुछ दीखता
है वैसा
जैसा नहीं
सोचा होता कभी
कि ‘’दिखना’’
हो सकता है ऐसा भी
किसी घटना का
होते हुए ….
टेढ़े मेढे
लोगों को
सीधे रस्ते ले
जाती सड़कें
हांफ जाते हैं
ऊँचाई तक आते
अन्यायों,मलालों
और विडंबनाओं के कोलाहल
बंजर धरती को
ढँक लेती हैं
चींटियाँ
आँखों में उतर
आता है हरा रंग
दरख्तों के
ठूंठ मूर्ति हो जाते हैं
किसी देवता की
अलावा इसके
बस
दिखाई देते
हैं रंग
बहुत थोड़े
….
हवा के धुंधले
केनवास पर
सफ़ेद रंग
,उतना सफ़ेद नहीं दिखता
जितना उसे
दिखना होता है
काश ,ज़िंदगी
की दीवार में भी
होती कोई
खिड़की
और ज़िंदगी खड़ी
होती
सोलहवें माले
पे |
***
खिड़कियाँ बनाम दरवाज़े
खिड़कियाँ
,इसलिए खिड़कियाँ होती हैं
क्यूँ कि वो
दरवाजे नहीं होतीं ,
निकल जाते हों
जहाँ से आश्वासन
टहलते हुए ,
बिठा कर पहरे
पर
भरोसे को और
खुद
भूल जाते हों
रस्ते
लौट आने के |
***
डरी हुई उम्र
थके हुए सपनों
की डरी हुई उम्र का
छत पर खड़े हो
देखना
नीचे उतरती
सीढ़ियों को
गोया देखना
कुछ
हाथ से फिसली
कतरनों का
बिखरते हुए
हवा में
अनाथ उड़ते हुए
***
नाच
संथाल,पिंडारी,बस्तर
,कहार और गोंड लडकियां
नाचते हुए
आसमान को नहीं
देखती हैं
धरती को|
कमर में एक
दूसरे के
डाले हुए हाथ,
मुस्कुराती
हैं एक दूसरे की आँखों में
घुमती हैं
प्रथ्वी की बिलकुल
विपरीत दिशा
में ,प्रथ्वी को घेरे
बुदबुदाते हुए
कुछ होठों से ,
बीच बीच में
थाम लेती हैं ये
निर्भाव धुरी
को ,मूसल की तरह
जगाए रखती हैं
प्रथ्वी की बूढी सांसें
ताकि नींद में
कहीं खिसक ना जाये
धुरी से वो
अपनी |
उनके पैरों की
थाप से
कांपती हैं
प्रथ्वी
कभी सोचती हूँ
…
क्या देखती
होंगी वो नाचते हुए
धरती पर ?
सूखती नमी….
बंजर सपने
….
ज़र्ज़र
जड़ें….
चींटियों की
कतारें….
मिट्टी की
दरारें….?
नाचती रहती
हैं वो
ढोल की ज़ोरदार
थाप पर
अनवरत
,निरंतर,अथक ,अचूक
मुस्कुराते
हुए |
जिस दिन
देखेंगी आसमान की ओर
थम जायेंगे
उनके पैर
भूल जायेंगी
वो नाचना
***
शेष दुःख
कुछ भ्रम देर तक पीछा करते हैं नींद का
सिरहाने की हदें भिगो देती हैं चंद किताबें
शब्द खोदने लगते हैं सपनों की ज़मीन
और वक़्त अचानक पलट कर देखने लगता
धरती का वो आखिरी पेड़
जिसके झुरमुट में अटकी है कोई
खुशी से लथपथ फटी चिथड़ी स्मृति
किसी सूखे पत्ते की ओट में , हवा के डर से
थकी,उदास और सहमी सी
करवटें भींग जाती है विषाद से
घूमने लगते हैं घड़ी के कांटे उलटे
रातें बदलती हैं तेज़ी से पुराने अँधेरे
देखती है कोई कोफ़्त तब
हरे भरे पेड़ को वापस ठूंठ हो जाते हुए
या नदी पर खुश्क दरारों की तडकन
सोचती है पीठ किसी क्षत-विक्षत सपने का उघडा
हुआ ज़ख्म
सुदूर एक घुटी
सी चीख टीसती है
कौंधने के पीड़ा-सुख तक चुपचाप,बेआवाज़
किसी डरे हुए पक्षी से फडफडाते हैं कलेंडर के पन्ने
छिपाते हुए खुद से अपनी तारीखों के अवसाद
आंधी में सूखे पत्तों से उड़ते हुए वो मुलायम
स्पर्श
फिर ओढ़ लेते हैं कोई हंसी,दुःख,उदासी
या मलाल
रात….उम्मीद का पीछा करते शब्दों की निशानदेही पर
पहुँच जाती हैं
उस नदी तक
जहाँ चांद की छाँह में स्मृतियाँ निचोड़ रही
होती हैं
अपने शेष दुःख
***
पलायन
कच्चे आंगन
में पुराना नीम का एक पेड़ था
वो मुझे बचपन से उतना ही बूढ़ा,घना और
इस कदर अपना-सा लगता कि मै दादाजी को
उसका जुड़वां
भाई समझती
किसी सयाने
बुज़ुर्ग सा
दिन भर गाय से
सूरज की चुगलियाँ सुनता
जो बंधी होती
उसकी छाँव में
चींटियों की
फुसफुसाहट उसके
तने से झरा
करती
मौसमों की
बेईमानी से रूठ जाता वो
और कुम्हलाने
का नाटक करता
हर पतझड़ में
उतार फेंकता अपने बूढ़े पत्ते
और पहन लेता
नयी कोंपलों की पोशाक
और
निम्बोलियों के आभूषण
इतराता सावन
की बारिश में
हम
बच्चे उस पर चढ़ कर
बैठ जाते वो
बुरा नहीं मानता और खुश होता
तब ताऊ पिता
चाचा बुआ दादा दादी
सब साथ उसी के
नीचे खाट बिछाकर
सई संझा से
बातें करते ज़माने भर की
परिवार समाज
देश त्यौहार,बारिश जाने कहां-कहां के
किस्से बतोले
पर कभी नहीं
करते
उस दुनिया की
जो सरक रही थी धीरे-धीरे
हमारे पांवों
के नीचे से
दबे पाँव ,…बिल्ली सी
‘नीम‘ को बेआवाज़ घटनाओं की आदत थी
मौसमों की तरह
त्योहारों
व विवाहों में आये मेहमानों से
एक एक करके
परम्पराएं विदा होने लगीं
तब पहले
विश्वास टूटे फिर मन
फिर परिवार
उसके बाद
ऑंखें तरेरते
रिश्ते ,सम्बन्ध लहूलुहान होते
देखता रहा
पेड़ ,कहा कुछ नहीं बस
उस बरस
पतझर कुछ
ज्यादा लंबा खिंच गया
आंगन, छत,पाटौर,खेत,कुओं ज़मीनों के
टुकड़े हुए
नीम और गाय
देखते रहते अपने अपने हिस्सों से
एक दूसरे को
भीजी आंखें
बेवा
दादी तो दो नहीं कई हिस्सों में बट गईं
मन और विश्वास
के
जगह की तरह
सिकुड़ते अहसास नहीं कर पाया बर्दाश्त
वो
नीम का पेड़
एक दिन उसने
देखा बगलगीर दीवार पर चढती
दीमकों का
हुजूम
बादल,बारिश,धूप,मौसम,सुबह ,ओस
सब थे चकित
ये सोचकर कि
आखिर क्यूँ की
होगी आत्महत्या
उस सौ साल के बूढ़े दरख्त ने
….
***
यह अनुनाद की 578वीं पोस्ट है…