अशोक कुमार पांडेय की ये कविता कल मिली….कई बार पढ़ी। जब कविता अर्थ से अभिप्रायों में चली जाती है तो उसे कई बार पढ़ना होता है और ऐसा करने में उसकी वास्तविक अर्थवत्ता का भी पता चलता है। वाकई किसने सोचा था / ऐसा रंगमंच होगी धरती एक दिन कि कवि भी करेगा कविता / प्रतियोगिता में हिस्सेदारी की तरह …. यह होने लगा है…दिख रहा है… लेकिन मुझे विश्वास है कि कविता में प्रतियोगिताओं के हिस्सेदार कविता को, उसकी मूल मानवीय और वैचारिक ऊर्जा को कोई ख़ास क्षति नहीं पहुंचाएंगे ….कुछ भ्रम भले फैलाएं ….पर कुछ दिनों की छीनाझपटी है बस….
हारने के बाद पता
चला मैं रेस में था
चला मैं रेस में था
वह जो बीमार बच्चे की दुहाई देता टिकट खिड़की के सामने की लम्बी लाइन में आ खड़ा हुआ
ठीक मेरे सामने जिसका चेहरा उदासी और उद्विग्नता के घने कुहरे में झुलसा हुआ सा था
आवाज़ जैसे किसी पत्थर से दबी हुई हाथ कांपते और पैर अस्थिर उसकी ट्रेन शाम को थी
और साथ में न कोई बच्चा न कोई चिंता.
वह जिसे चक्कर आ रहे थे, मितलियों से घुटा जा रहा था गला, फटा जा रहा था दर्द से
सर, पैरों में दर्द ऐसा कि जैसे बस की सख्त ज़मीन पर कांटे बिछें हों अथाह, खिड़की
वाली सीट ख़ाली करते ही मेरे सो गयी थी ऐसे कि जैसे हवा ने सोख ली हों मुश्किलें
सारी.
जो कंधे पर
दोस्ताना हाथ रखे निकल आया आगे उसने कहा कहीं बाद में कि अब कछुए दौड़ नहीं जीता
करते खरगोशों ने सीख लिए हैं सबक. जिसके हाथों के दबाव को दोस्ती की गर्माहट समझा
वह कोई खेल खेलता हुआ जीत चुका था. जिसने भरी आँखों वाला चेहरा काँधे पर टिका दिया
वह अगले ही पल कीमत माँगता खड़ा हुआ बिलकुल सामने.
दोस्ताना हाथ रखे निकल आया आगे उसने कहा कहीं बाद में कि अब कछुए दौड़ नहीं जीता
करते खरगोशों ने सीख लिए हैं सबक. जिसके हाथों के दबाव को दोस्ती की गर्माहट समझा
वह कोई खेल खेलता हुआ जीत चुका था. जिसने भरी आँखों वाला चेहरा काँधे पर टिका दिया
वह अगले ही पल कीमत माँगता खड़ा हुआ बिलकुल सामने.
यह अजीब दुनिया थी
जिसमें हर कदम पर
प्रतियोगिता थी
प्रतियोगिता थी
बच्चे बचपन से सीख
रहे थे इसके गुर
रहे थे इसके गुर
नौजवान खाने की
थाली से सोने के बिस्तर तक कर रहे थे अभ्यास
थाली से सोने के बिस्तर तक कर रहे थे अभ्यास
बूढ़े अगर समर्पण
की मुद्रा में नहीं थे तो विजय के उल्लास में थे गर्वोन्मत्त
की मुद्रा में नहीं थे तो विजय के उल्लास में थे गर्वोन्मत्त
खेल के लिए खेल
नहीं था न हंसी के लिए हंसी रोने के लिए रोना भी नहीं था अब
नहीं था न हंसी के लिए हंसी रोने के लिए रोना भी नहीं था अब
किसने सोचा था
कि ऐसा रंगमंच
होगी धरती एक दिन कि कवि भी करेगा कविता
होगी धरती एक दिन कि कवि भी करेगा कविता
प्रतियोगिता में हिस्सेदारी की तरह
जीत और हार के इस
कुंएं में घूमता गोल-गोल सोचता सिर धुनता मैं
कुंएं में घूमता गोल-गोल सोचता सिर धुनता मैं
और चिड़ियों की एक
टोली ठीक सिर के ऊपर से निकल जाती है चहचहाती
टोली ठीक सिर के ऊपर से निकल जाती है चहचहाती
अपनी ही धुन में
गाती, बड़बड़ाती याकि धरती के मालिक को गरियाती…मुंह बिराती
गाती, बड़बड़ाती याकि धरती के मालिक को गरियाती…मुंह बिराती
***
यह कविता कठोर समय में भावुक बने रहने और होड से अलग रहकर रचनाकर्म में लीन रहने के लिए प्रेरित करती है. दुनिया रंगमंच है मगर इसमें लोग अपनी भूमिका ईमानदारी से नहीं निभाते.
प्रतियोगिता की प्रवृति पर निर्मम प्रहार करती सार्थक कविता.रिश्ते हों या रेस-हर जगह सीधे आदमी को हारना पड़ता है.हार- जीत के दलदली माहौल से अलग एक चिड़िया की उन्मुक्त उड़ान आशा की किरण जगाती है.यानी सब कुछ अभी खत्म नहीं हुआ है.मन में हौसला बाकी है.
बहुत सुंदर कविता ….
'हार की जीत' कहानी याद आ गयी
बेहतरीन कविता अशोक.
"….जिसके हाथों के दबाव को दोस्ती की गर्माहट समझा, वह कोई खेल खेलता हुआ जीत चुका था …..". जीवन की कुछ ऐसी ही कड़वी सच्चाइयों से दो – चार होने पर लगता है कि काश! हम भी उन चिड़ियों की टोली का ही हिस्सा होते.
बिलकुल ..सोचा तो किसी ने ऐसा नहीं था , लेकिन यह सब हो रहा है | बकौल शिरीष जी 'बस कुछ दिनों की छिनाझपटी है यह' |हम भी यही चाहते हैं , कि यह छिनाझपटी कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाए |
अपने दौर में जिस तरह से 'झूठ और फरेब' जीवन के साथ घुल गया है , वह अत्यंत सालने वाला है | एक तरह से यह हमारे विश्वासों के टूटने का भी समय है | ऐसे में यदि उन्हें थोडा भी बचा लिया जाए , तो शायद हम अपने दौर को इतिहास में भी बचा लेंगे |
इस सार्थक कविता के लिए मित्र अशोक को बधाई
badhai ashok, jivant kavita likhnae kai liyae . es kavita mai hamara samay aur hamara chehra baenkab hota hai … kuhb khub badhai
Ashok bhai haardik badhai. Shirish sir abhaar. – vo jeete jhund mein
Hum haare samooh mein
Yahi hamaari jeet thee. – Kamal
Jeet choudhary ( j n k )
aaj k waqt ka kadwa such jo sabhi ki zindgi mai astitva rakhta hai, use bakhubi bayaan krti ek saarthak kavita. badhai ashok ji
Kathor shabdon me samay ke us kadave sach ko bayan karati kavita josaki pabale lalpana kisi ne shayad nahi hi ki ho
हारने के बाद पता चला मैं रेस में था…!!!!
क्या कहूँ…??? निशब्द…..!!!!
बहुत बढीया कविता अशोक जि .. " किसने सोचा था .. हिस्सेदारी की तरह".. आप की ये पंक्तियाँ बहुत गहरा अर्थ लिए हुए हैं .. इस उम्दा रचना के लिए आप को बधाई .. और हार्दिक आभार मित्र विशी सिन्हा जी का जिन्होंने इसे हमारे साथ फेसबुक पे सांझा किया !
————- राकेश वर्मा
नया नंगल { पंजाब }
9417347342
ज़्यादा दुख तब होता है जब मालूम पड़ता है कि प्रतियोगिता कविता की नहीं, नाम और यश की थी .
आप सबका शुक्रिया दोस्तों…
lajabaw kar dene wali kavita..
lajabaw kar dene wali kavita..
अशोक जी बहुत उम्दा उत्कृष्ट अभिव्यक्ति बहुत सुन्दर आभार ।
अंततः चिड़ियों की चहकार तो सुनाई पडी ,वह भी गरियाहट में गुम हो गयी. क्या फिर भी कविता की गुंजाइश बची रह जाती है ?
अच्छी कविता है…
जीवन से स्वाभाविकता की जगह चतुराई ने ले ली हैं …लगता है कविता अब इंजीनियरिंग कालेजों में पढ़ाई जाने लगेगी |
Ambiguity is today's reality.
कविता मुसलसल आत्मलोचन के ज़रिये समाज की आलोचना है. कविता के आखिर तक पहुँचते-पहुँचते आप देख सकते हैं कि चिड़िया का गुज़रना दिखाया जा रहा है…फिर चिड़िया के मन:स्थिति का भी आकलन किया जा रहा है. दरअसल चिड़िया का मूँह बिराना कवि का खिजा हुआ होना है. जो लगातार दोहरी ज़िन्दगी से उकता गया है. उसमें हिम्मत नहीं कि वह भी हथकंडे अपनाएँ और सक्सेस का परचम लहराए. यह नैराश्य कि कविता है. इति.
Ambiguity is today's reality. तात्कालिक परिस्थियों का स्पष्ट आकलन करती कविता. शुक्रिया.