शमशेर
बहादुर सिंह के बाद विनोद कुमार शुक्ल ही एक ऐसे कवि हैं, जिनकी कविता को पढ़ते
हुए मैं अचानक ख़ुद को बहुत सावधान, विनयी और एक अजब-से अव्यक्त संतुलन में पाता
हूं। उनकी कविताएं मुझे अनुशासन में ले आती हैं। कैसी विनम्र भाषा में कितना
चीरता-सा व्यंग्य, जैसे लम्बी रातों के बाद उन्हें चीरती हुई सुबहें होती हैं
और कोई अकेली चिड़िया धीमे स्वर में बोलना शुरू करती है। उजाले उतरते हैं धरती पर
और हृदय में…. अनगिन संकटों में घिरा मनुष्य कुछ देर के लिए अपनी स्मृति और
वाणी पा जाता है। जैसे भैरव में रिखब और धैवत आते हैं। भोर के इस गहरे राग की
तरह कविता, जो आपको मनुष्य होने का गहरा अहसास दिलाए और वैसा बने रहने का भरपूर
विश्वास भी, कितनी क़ीमती है वह – अपने समकालीन कोलाहल और उथलेपन में उसे पाना
मानो ख़ुद को वापस पाना है। विनोद कुमार शुक्ल के लिए कविता लिखना अपनी सम्पूर्णता
में किस तरह लिखना है, इसे ठीक-ठीक खुद उन्हीं के शब्दों में इस तरह समझा जा
सकता है –
कविता लिखते समय
मेरा ध्यान दुनियादारी में रहता है
लिखते समय
कोई घर का बंद दरवाज़ा
खटखटाता है
तो मैं सुन लेता हूं
और दरवाज़ा खोलता हूं
विनोद
कुमार शुक्ल को न सिर्फ़ उनके आलोचकों, बल्कि चाहने वालों ने भी बंद दरवाज़ों का
कवि साबित करने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। मैंने उनकी कविता में कुछ यात्राएं की
हैं और मैं ताईद करना चाहता हूं कि वे दुनियादारी में लगे दरवाज़ा खोल देने वाले
कवि हैं… उनमें निजता की कोई गुत्थी ऐसी नहीं है, जिसे सामाजिक सन्दर्भों में
न खोला जा सके….अव्वल तो वो ख़ुद-ब-ख़ुद खुल जाती है, उसे किसी बाहरी सहायता की
कोई ज़रूरत नहीं होती।
***
किसी
कवि के बारे में लिखते हुए लिखने वाले का ‘आत्म’ भी सामने आना चाहिए। मुझे अच्छी
तरह याद है कि कई वर्ष पहले एक बार राजेन्द्र यादव ने हंस का एक विमर्शपरक आयोजन
किया था, जिसमें विमर्श का विषय था – ‘न लिखने के कारण’ …. हस्बे-मामूल नामवर जी ने बात को बिलकुल सही
जगह पर पकड़ते हुए कहा था – कारण तो
लिखने के होते हैं, न लिखने के बहाने हो सकते हैं …कारण नहीं। तो हमारे लिखने के कारण हैं और यदि वे कारण हैं
तो उनका समुचित प्रकाशन भी होना चाहिए। मैं यहां इतना और जोड़ना चाहता हूं कि
‘कारण’ डाइअलेक्टिक की विषयवस्तु हैं और ‘बहाने’ डिस्कोर्स की, जिसे यादव जी ने
उस आयोजन में अंजाम दिया था। मुझे पता नहीं क्यूं लगने लगा है कि डाइअलेक्टिक और
उसकी स्पिरिट का सम्मान करना जितना कवि जानते हैं, उतना अब आलोचक नहीं … कवियों
में भी कुछ भटकाव हैं पर उतने नहीं, जितने आलोचकों में। मेरा पूरा यक़ीन
डाइअलेक्टिक में है, इसलिए मैं लिखता हूं … कविता भी और इधर कुछ समय से आरम्भ
हुआ मेरा ये टूटा-फूटा गद्य भी – मोटे तौर पर ये मेरे लिखने का प्रमुख कारण है।
विनोद कुमार शुक्ल के संग्रह ‘कभी के बाद अभी’ में मुझे डाइअलेक्टिक का एक
पूरा आकार और संसार नज़र आ रहा है, इसलिए मैं उस पर भी लिख रहा हूं ….
मैंने
इधर कुछ कवियों के संग्रहों का एक बेचैन इन्तज़ार किया है। मेरे इन्तज़ारों में
इन कवि-मनुष्यों के साथ मनुष्यता पक्ष में हस्तक्षेप करतीं कविताएं भी शामिल
रहती हैं और अकसर मेरे इन्तज़ारों के हासिल भी मिले हैं मुझे – ऐसे कवि-मनुष्य
भी मिले और कविताएं भी… ये मेरे कई जन्म हैं धरती पर, जिन्हें मैं अपने
सामाजिक एकान्त में भरे दिल से सम्भव होते हुए देखता हूं। ऐसे ही भरे दिल से इस
किताब को देख रहा हूं, जिसका नाम ‘कभी के बाद अभी’ है। मुझे किताबें मिलते
ही, उन पर लिपटे भूरे काग़ज़ को फाड़ते हुए पैकिंग खोलने की आदत है पर इस किताब के
मिलने पर मैंने उसे बहुत धैर्य और सावधानी के साथ खोला है… वो भूरा काग़ज़ पूरा
सलामत है और मैंने उसे अपने बच्चे की एक प्रिय किताब की जिल्द के रूप में इस्तेमाल
किया है – किसी को यह पूरी कार्रवाई भले एकबारगी निजी और साधारण लग सकती है पर
कविता के इलाक़े में मेरे लिए और मुझे निकट से जानने वालों के लिए असाधारण है …
***
जिन्होंने शत्रुता निभाई
मैं उनके साथ अमर रहूं
कि एक दिन मित्रता निभायेंगे
अपनी मित्रता बढ़ाकर
संसार भर को मित्र बना लूं
तब तक अमर रहूं
तमाम दुखों के साथ
अमर रहूं
कि एक दिन आएगा
जब कोई दुखी नहीं होगा
और उनमें एक मैं रहूंगा
यह
मेरे इन्तज़ारों की कविता है … मैंने एक निपट जटिलता को पढ़ते-लिखते हुए कुछ
उम्रें गुज़ारी हैं जीवन के उस अर्थ को पाने लिए, जो इस कविता में सहज ही मिल रहा
है। जटिलता, जिसमें ज़रा भी जल नहीं था… सूखी, ऐंठती हुई-सी, कंठ में चुभती चीख़
जैसी… पर यहां वह जल है, जिसे हम खोते जा रहे हैं। स्वीकारना ही होगा कि हमने
बाहर के ही नहीं, अपने भीतरी पर्यावरण को भी बहुत नष्ट किया है। मैं तो मर रहा था
कि जिन्होंने मुझसे शत्रुताएं निभाईं, वे एक दिन मित्रता निभाएंगे – उस मरने के
‘मर’ को अमर करते हुए इस कविता ने मुझे इस इंतज़ार का एक बेहतर सलीका सिखाया है।
अब मेरा यह इंतज़ार अधिक धैयपूर्ण और मनुष्यवत् होगा। मैं देख पा रहा हूं कि
प्रचलित मुहावरे में एक छोटी-सी फेरबदल, जीवन में कितना बड़ा रद्दोबदल कर सकती है।
***
मनुष्य
और मनुष्यता के लिए लिखी गईं कविताओं में तमाम तरह की चिन्ताएं और उनकी सम्भाल
का एक सधा हुआ विचार होता है … इनमें हमारे ठस अकादमिक विद्वान भावात्मक
संवेदना और ज्ञानात्मक संवेदना का अपना प्रिय खेल नहीं कर सकते – यहां भावुकता
ज्ञान से पैदा होती है और ज्ञान भावुकता से। साहित्य संसार की निजी बातचीतों में
विनोद कुमार शुक्ल को अकसर कुछ वाचाल लोग चुप्पा कवि कहते हैं… एकाधिक बार
मैंने इसे कहीं लिखा हुआ भी देखा है। यह ग़लत धारणा है कि विनोद कुमार शुक्ल की
कविताएं कम बोलती हैं। हां, हो सकता है कि वे ज़ोर से नहीं बोलतीं। संयोग नहीं है
कि कुछ सम्मानित अग्रजों और युवा साथियों की पन्ने भर-भर कर लाउडस्पीकर की तरह
बोलती कविताओं में मैंने बहुत कम ‘बोला हुआ’ पाया है। मैंने इधर के अपने
अनुभवों में सीखा है कि हर अवसर पर ज़ोर से बोलने को ही बोलना कहना एक लगभग मनुष्य-विरोधी
विचार हो सकता है और विचार-विरोधी विचार भी। हम मनुष्यता के हक़ में रास्तों पर
बड़ा जुलूस निकालने से पहले कमरे में बैठ कर उसे धीमी आवाज़ों में आकार देते हैं,
उसमें विचार की भूमिका निर्धारित करते हैं, उसके विचारहीन-उन्मादी भीड़ में तब्दील
होकर रह जाने की हर सम्भव गुंजाइश को टटोलते हुए सुगठित और वैचारिक आंदोलन का रूप
देने का प्रयास करते हैं। विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं का चुप भी तो ठीक यही
करता है –
भीड़ के हल्ले में
कुचलने से बचा यह मेरा चुप
अपनों के जुलूस में बोलूं
कि बोलने को सम्हाल कर रखूं का चुप
अपनों
के जुलूस में बोलने के लिए सम्हाल कर रखा हुआ यह चुप इतना मुखर होकर बोलता है कि
वह सब ढेर सारा हल्ला–गुल्ला करके ‘बोला हुआ’ धरा रह जाता है, स्मृति भी
उसे स्वीकार नहीं करती। इस चुप की आवाज़ ही सबसे बड़ी और सधी हुई आवाज़ होती है
फिर भले हम उसे देर में सुनते हैं। इसमें स्मृतियां कराहती हैं, यथार्थ गूंजता है
और स्वप्न जन्म लेते हैं। मैं पूछना चाहता हूं कि स्वप्नों के जन्मने की
पीड़ा भी कम बड़ी आवाज़ है क्या आज की दुनिया में …. यहीं ज्ञान और भावुकता का
वह अनिवार्य सम्बन्ध भी उपस्थित है, जिसने हमें विपुल प्राणिजगत में मनुष्य
बनाया और अब तक बनाए रखा है। विनोद कुमार शुक्ल की कविता इस सम्बन्ध को बार-बार
रचने की कविता है।
***
विनोद
कुमार शुक्ल के इस संग्रह की कविता में मैंने बहुलतावाद की धूर्त पैरोकार बनी
तथाकथित उत्तरआधुनिकता का पर्याप्त और खुला विरोध देखा है। ‘लोगों और जगहों
में’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं –
सिर उठाकर
मैं बहु जातीय नहीं
सब जातीय
बहु संख्यक नहीं
सब संख्यक होकर
एक मनुष्य खर्च होना चाहता हूं
एक मुश्त
ऐसा
लिखना, बहस छेड़ना है। डिफेरेंस और फ्रेगमेंटेशन को बढ़ावा देने और डीकंस्ट्रक्शन
के निरन्तर बेलगाम अलगाव के विरुद्ध कवि का यह बयान काफी स्पष्ट है। इसी क्रम
में ग़ौर करना होगा कि इधर फ्रेंच अकादमी के उत्तरआधुनिक किंवा उत्तरसंरचनावादी
विमर्शों में वैश्विक पर्यावरण भी एक बड़ा मुद्दआ रहा है, जिसमें अमरीका की काफी
रुचि है… ख़ासकर एशियाई देशों के पर्यावरण के लिए अमरीकी चिन्ताएं रेखांकित
करने योग्य हैं। साउथ अमरीका के देशों में सोने और पेट्रोलियम पदार्थों की खोज और
दोहन में इस चिन्ता की कोई रेखा कभी अमरीकी चेहरे पर नहीं देखी गई पर इधर के लिए
तो पूरा चेहरा ही चिन्ताकुल नज़र आता है। जंगल बचाए रखने की चिन्ताओं के बीच
जंगलवासियों के लिए अमरीकी क्रूरता कोई छुपी हुई चीज़ नहीं है। विभिन्न
पर्यावरणों के मूलनिवासियों और वनवासियों की गतिविधियों को अकसर अमरीकी
पर्यावरणविद् जंगल के विनाश के एक कारण के रूप में गिनाते देखे जा सकते हैं। अपनी
मशहूर पुस्तक लिटरेरी थ्योरी में टेरी ईगलटन ने फ्रेंच अकादमी की
इस नई भूमिका को साफ़ तौर पर इंगित किया है –
फ्रांस में उत्तरसंरचनावाद ईरान के कठमुल्लों की प्रशंसा और अमरीका
को एक मात्र मुक्त और बहुलतावादी दृष्टिकोण वाले मुल्क के रूप में समारोहपूर्वक
स्थापित करने में अछी तरह समर्थ रहा है। हमारी निकट की स्मृति साक्षी है कि ईरान-ईराक
युद्ध के ज़माने में अमरीकी नज़दीकी ईरान से ख़ूब रही है। ख़ैर मैं अभी इस विस्तृत
पश्चिमी परिदृश्य में न जाकर यहां भारतीय आदिवासियों के सन्दर्भ में विनोद कुमार शुक्ल की कविता से कुछ उद्धरण
प्रस्तुत करना चाहूंगा –
जो प्रकृति के सबसे निकट हैं
जंगल उनका है
आदिवासी जंगल के सबसे निकट हैं
इसलिए जंगल उनका है
अब उनके बेदखल होने का समय है
यह वही समय है
जब आकाश से पहले
एक तारा बेदखल होगा
जब पेड़ से
पक्षी बेदखल होगा
आकाश से चांदनी बेदखल होगी
जब जंगल आदिवासी बेदखल होंगे
यह
संग्रह में शामिल एक पूरी कविता है, जिसके बयान पहली निगाह में अनगढ़ और भावुकता
भरे लग सकते हैं… पर विनोद कुमार शुक्ल अपने शिल्प में पहली निगाह के कवि हैं
ही नहीं, उन्हें कई निगाहों से पढ़ने की ज़रूरत पेश आती है। वे साधारण दिखते में
असाधारण रचते हैं। उनकी सरलता धोखा दे सकती है। उनके छोटे-छोटे बयान अपने भीतर एक
लम्बी बहस छुपाए होते हैं। जंगल आदिवासियों का है और बाहरी हस्तक्षेप के पहले
उन्होंने हज़ारों साल उसे सभी पशु-पक्षियों समेत बहुत कामयाबी से बचाए रखा है। वे
खेतिहर प्रजाति के सामन्ती दिशा में चले गए लोग नहीं हैं, वे जंगल को दूसरे
प्राणियों की तरह इस्तेमाल करते हुए उस पारिस्थितिकी तंत्र का अनिवार्य हिस्सा
बन चुके हैं। वे बेदखल होंगे … यह ख़तरे की घंटी है, आदिवासियों से अधिक जंगल के
लिए और समूची दुनिया के लिए। दुनिया में जिस भी जंगल से आदिवासी बेदखल हुए हैं, वो
नष्ट होता गया है। पृथ्वी पर मनुष्यता के हित में अब पर्यावरण विमर्श चल रहा
है, जिसे दरअसल डाइअलेक्टिक की भाषा में सामने आना चाहिए। विनोद कुमार शुक्ल की
कविता इसी भाषा का सहारा लेती है और आदिवासियों की बेदखली के साथ आकाश से तारे व
चांदनी और पेड़ से पक्षी के बेदखली के दृश्य प्रस्तुत करती है। तारा दरअसल सूर्य
होता है और पेड़ के बिना पृथ्वी ही नहीं, इस तरह यह पृथ्वी पर उजाले और जीवन के
मरने के दृश्य हैं, महज आदिवासियों की बेदखली के नहीं। इस छोटी-सी लगती कविता में
एक बड़ा आख्यान है और इतिहास, विज्ञान व मनुष्य की सम्पूर्ण स्वतंत्रता के
बड़े आख्यानों के विरुद्ध ल्योतार अपनी रिपोर्ट काफी वर्ष (1979) पहले ही ‘पोस्टमार्डन
कंडीशंस’ के रूप में कैनेडियन-अमरीकी अकादमी और राजनीति को दे चुके हैं। जैसा
कि फ्रांस के अधिकांश उत्तरआधुनिक चिंतकों का मसला है कि ल्योतार भी अल्ट्रा
लेफ्ट से भागे हुए पूर्वमार्क्सवादी हैं। एक निगाह में देखें तो सभी जानते हैं कि
पश्चिमी दुनिया में ‘एज ऑफ एनलाइटमेंट’ और ‘आधुनिकता’ ने दो महान
आख्यान दिए – पहले विज्ञान और फिर बाद में दर्शन व राजनीति के क्षेत्र में मार्क्सवाद
– इन दोनों को ही इस तरह उपलब्धि के रूप में देखने-जानने-पहचानने में एक कोताही-सी
सृजनात्मक हिंदी लेखन में होती रही रही है। अब वैश्विक स्तर पर इन्हें अपदस्थ
करने की तैयारी है। विज्ञान का दोहन सही-ग़लत तकनीकी विकास में जारी है और मार्क्स
का मूर्खतापूर्ण विरोध बहुलतावाद और विभेद के जरिए सामने आ रहा है। टेरी ईगलटन ने
संरचनावाद के प्रस्तोता स्यूसर के लिए लिखा है कि यदि वे जानते कि उनके किए से
आगे ये हश्र होगा तो वे संस्कृत के आनुवंशिक प्रकरण भर से चिपके रहना पसन्द करते। विनोद कुमार शुक्ल इस संग्रह में बार-बार कहते
हैं कि जंगल उनका है जो प्रकृति के सबसे निकट हैं, न कि उनका जो जंगल और दुनिया को
अपनी शर्तों और गणित पर बचाने का ठेका लिए बैठे हैं। कितनी दारूण हो सकती है ये
आशंका –
आदिवासी, पेड़ तुम्हें छोड़कर नहीं गए
और तुम भी जंगल छोड़कर ख़ुद नहीं गए
शहर के फुटपाथों पर अधनंगे, बच्चे-परिवार
के साथ जाते दिखे
अपना जंगल नहीं इस साल
कहीं यही कारण तो नहीं
इस साल का भी अन्त हो गया
परन्तु परिवार के झुंड में अबकी बार
छोट-छोटे बच्चे नहीं दिखे
कहीं यह आदिवासियों के अन्त होने का
सिलसिला तो नहीं
भयावह
सम्भावनाएं किसी भी विचारवान कविता में आती ही हैं…फिर एक दिन वे सच हो जाती
हैं – ये मैंने मुक्तिबोध को पढ़ते हुए जाना। मुक्तिबोध के साथ ही अंतोनियो ग्राम्शी
की भी एक आत्मीय याद के साथ कहना चाहता हूं कि आप उम्मीदों के सहारे जीते हैं और
एक दिन उम्मीदों पर भी संकट आता है, जो आप पर आए संकटों कहीं बड़ा होता है। उम्मीदों
पर आया संकट किसी भी तरह की निजता से बाहर समूची मनुष्यता के लिए एक अधिक भयानक
और चुनौतीपूर्ण संकट होता है। लेकिन हमें जानना होगा कि ऐसी आशंकाएं भी आशाओं के
कारण ही जन्मती हैं। आशंकाओं और आशाओं के बीच की दुविधाजनक और तनाव भरी जगह
विचारों से भरी जाती है। द्वन्द्व बहुत बड़ी चीज़ है। यदि इस जगह और इस द्वन्द्व
के बीच मनुष्यता के पक्ष में एक सही विचार का चुनाव हम कर पाएं तो दिशाएं साफ़ हो
जाती हैं… बाक़ी तो मनुष्य का एक सतत् संघर्षपथ है, जिस पर लम्बी यात्राएं अभी
होनी हैं। विनोद कुमार शुक्ल की कविता में यह पथ दिखता है। यहां छोटे बच्चों का
न दिखना एक बड़ी चेतावनी है और चेतावनी देना कविता का बहुत ज़रूरी काम है। समूची
हिंदी कविता-परम्परा में कबीर से लेकर अब तक आश्वस्ति से अधिक चेतावनी देने वाली
कविताएं ही आज हमारे साथ हैं… शेष तो अभिलेखात्मक अवशेष भर हैं।
सभ्यता
का प्रश्न हमेशा ही हमारी वैचारिकी के सामने बहुत बेचैनी पैदा करने वाला प्रश्न
रहा है। सभ्यता की कई सामाजिक और राजनीतिक परिभाषाएं मौजूद हैं, लेकिन कविता ही
अब तक उसकी सबसे सही परिभाषा न कहें, तो भी कहना होगा कि अभिप्राय को अवश्य प्रस्तुत
कर पायी है। कविता का सृजनात्मक दायित्व भी परिभाषा अथवा अर्थ को नहीं, अभिप्राय
को व्यक्त करना है मेरे लेखे। विनोद कुमार शुक्ल ने इस अभिप्राय को बख़ूबी व्यक्त
किया है, पहले भी और इस संग्रह में तो और भी –
जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक
आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक
जंगल का चन्द्रमा
असभ्य चन्द्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं
क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है
छत्तीसगढ़
में रहते हुए विनोद कुमार शुक्ल में इस चेतना का होना भी स्वाभाविक ही है…ठीक
आदिवासियों के होने की तरह। उम्र और लेखन के इस पड़ाव पर लेखक की यह एक बहुत स्पष्ट
राजनीतिक चेतना है। कौन नहीं जानता कि छत्तीसगढ़ की सरकार ने पिछले कुछ वर्षों
में अब सेवामुक्त हो चुके फिराक गोरखपुरी के कविता-प्रेमी बताए जाते नाती पुलिस
महानिदेशक विश्वरंजन की अगुआई में आदिवासियों की इतनी चिन्ता और संरक्षण किया है
कि वहां अब स्थायी क़त्लगाहें बन चुकी हैं। बहुचर्चित और बहुधिक्कारी
सलवा-जुडूम भी दरअसल उसी अकादमिक समुदाय की पैदावार है, जिसके बारे में मैंने पहले
टेरी ईगलटन का एक वक्तव्य प्रस्तुत किया है। नष्ट होते जीवन को और तेज़ी से
नष्ट करने का क्रूरतम उदाहरण है यह। नक्सलियों के नाम पर आदिवासी औरतें और बच्चे
क़त्ल किए जा रहे हैं और देश के गृहमंत्री अभूतपूर्व बेशर्मी से ‘सारी’ बोल रहे
हैं। इधर मनुष्यता के सन्दर्भ में सभ्यता का अर्थ अभी स्पष्ट होना बाक़ी है
और उधर अमरीकी अकादमी ‘क्लेशेज़ आफ सिविलाइज़ेशंस’ के साथ ‘रीमेंकिंग आफ वर्ल्ड’
का दावा पेश करते हुए एक अभूतपूर्व राजनीतिक स्वांग रच रही है। वह पूरब के सन्दर्भों
में पूरब को ही भरमाना चाहती है।
इस
संग्रह की किंचित लम्बी कविताओं में से एक है ‘रातों में भी जंगल में’ …
जिसका होना घटना के होने की तरह है। बिना इन रातों का शिकार बने ऐसी रचना सम्भव
नहीं है। विनोद कुमार शुक्ल आधुनिक सन्दर्भ में महज दिखाई दे रहे क्रौंच-वधों से
प्रेरित कवि नहीं हैं , वे अपनों और अपना वध देखने वाले कवि हैं। वध उनके लिए
सामने नहीं, भीतर घट रही घटना है..इसलिए मैंने कहा कि ये कविता भी एक घटना है। लेख
की सीमा है कि कविता को एक साथ पूरा उद्धृत नहीं किया जा सकता और स्नैपशाट लेने
भर से पूरे घटनाक्रम को दिखा पाना भी एक चुनौती ही होगा, पर प्रयास करता हूं –
रातों में भी जंगल में
जानवरों की आहट नहीं होती
आदमी की आहट होती है
जंगल से जानवर चले गए
वहां से जानवर होने का
अनुषंग भी चला गया
अगर आहट हुई तो लगता है
कोई आदिवासी वहां जान बचाने छुपा है
कविता
की शुरूआत बताती है कि हमारी कल्पनाओं और इच्छाओं के विरुद्ध इतना भर जंगल बचा
है अब, जहां जानवर नहीं हैं। बताना कतई ज़रूरी नहीं पर पाठ पर ज़ोर देने वाले कुछ
मूर्ख-प्रसंगों के ध्यान में आ जाने के कारण बताना पड़ रहा है कि जानवर चले गए का
अभिप्राय विस्थापित होने से नहीं, नष्ट हो जाने से है। कविता में जानवरों की-सी
लगती आहटें, आदिवासियों की भयपूर्ण उपस्थिति का दृश्य बनने लगती हैं –
जानवरों के नाम पर
एक जंगली खरगोश भी नहीं दिखेगा
आहट होते ही वहां टार्च की
तेज रोशनी पड़ जाए तो
खरगोश के बदले
एक आदिवासी नग्न बच्चा दिखेगा
जैसे जान बचाने प्राय:
खरगोश गायब होता है
वह भी गायब हो जाएगा
एक नीलगाय भी नहीं दिखेगी
बदले में हो सकता है
पीठ पर बच्चा बांधे
एक आदिवासी औरत दिख जाए
ये
किसी डाक्यूमेंट्री फ़िल्म के-से दृश्य लगते हैं। लगता है कवि अपने ही भीतर किसी
खोज अभियान पर है। विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं की पहली पहचान उनकी विदग्ध भाषा
रही है पर इस संग्रह में भाषा की सिनेमेट्रोग्राफी दिखाई दे रही है। यह पूरी कविता
एक रात की फ़िल्म है, जिसमें अंधेरा अद्भुत कुशलता के साथ साकार हुआ है और एक परदा
बन गया है जिस पर कविता के दृश्य दिखाई देते हैं। दृश्य भी कैसे –
हो सकता है अंधेरे घने जंगल में अंदर
कुछ दूर
जानवरों की चमकती आंखें दिखें
तो उन्हें गांव छोड़कर भागे हुए आदिवासी समझना
जो थककर बीड़ी पीते हुए
सुस्ता रहे होंगे
आदिवासियों
का गांव छोड़कर भागना ही सलवा जुडूम है….वे बेचारे अपने ज़बरिया किए जा रहे
संरक्षण से भाग रहे हैं। अंधेरे की इस फ़िल्म में धीमी-धीमी आवाज़ें हैं, जो
बैकग्राउंड में एक अलग दृश्य रचती हैं। कभी कोई प्रतिभावान फ़िल्मकार चाहे तो इसे
परदे पर साकार कर सकता है….यूं भी इस मामले में विनोद कुमार शुक्ल अपने साथियों
से आगे रहे हैं – उनकी कहानियों और उपन्यास पर फिल्में बनी हैं, अब कविता इस
संग्रह की हो सकती हैं जहां आदिवासियों की पूरी सिरीज़ उपस्थित है और दृश्य भी
पहले से तैयार। इन सभी कविताओं में एक थीम है, बीज-आख्यान हैं और पटकथा भी। इस
सबकी राजनीति भी स्पष्ट है –
अपने को बचाने के लिए
खुद को मार डालने
हथियार उठाना पड़ता है –
दु:ख की ऐसी स्थिति
कि आत्महत्या के लिए
हथियार उठाना पड़े
तब दु:ख देनेवाले के लिए
हथियार उठाना
कितना ग़लत होगा
इसको मैं जान लेना चाहता हूं
इसका मतलब सीधा है
मैं जान लेना नहीं
जान बचाना चाहता हूं
यह आदिवासी सच है
इस
कविता को पढ़ते हुए मुझे अनायास ही बहुत साल पहले आई फ़िल्म मृगया के कुछ दृश्य
याद आए हैं। विनोद कुमार शुक्ल का यह आदिवासी सच उन्हें अपने दूसरे संग्रहों की
कविता से अलग कवि बनाता है, ऐसा पहले नहीं हुआ था। वे राजनीतिक मोर्चे पर चुप रहे
या उन्हें चुप मान लिया गया था, इस वजह से राजनीति के सन्दर्भ-विशेष में उनके
लिए एक अस्वीकार-सा कुछ पहले मेरे मन भी रहा था, पर अब इस संकलन के साथ वो जाता
रहा। इस संग्रह में आदिवासियों के बहाने ही सही, उनकी राजनीति खुली है… किसी
पुराने ज़ख़्म की तरह – उसकी लाली नज़र आ रही है। इसी स्वर में संग्रह के अंत की
तरफ़ आने वाली कविता बिलासपुर के पास अचानक मार का जंगल भी बोलती है। इस
संग्रह के पहले रायपुर-बिलासपुर संभाग तो ख़ैर अब एक थाती है समकालीन हिंदी
कविता की।
***
इस
संग्रह में दिख रही बहसों में एक बहस छत्तीसगढ़ के बहाने छोटे राज्यों की
अवधारणा को प्रश्नांकित करती बहस भी है। भारत जैसे एक बड़े गणराज्य में छोटे
राज्यों के पक्ष के जो तर्क हैं, उनसे इनकार नामुमकिन है। मैं ख़ुद उत्तराखंड
राज्य आंदोलन में शामिल रहा। पुलिस की लाठियां खाईं और हवालात का मेहमान
हुआ….शांतिभंग की धाराएं लगीं जो बाद में हट भी गईं। मैं उस आंदोलन की प्रक्रिया
से गुज़रा हुआ आदमी हूं, जिसमें राजनीति का अनिवार्य विवेक मौजूद था। लेकिन
इस विवेक का क्षरण राज्य गठन के साथ ही
शुरू हो गया था। हमें क्षेत्रीय राजनीतिक दलों से उम्मीदें थीं, जो उनकी
विवेकहीनता और अवसरवादिता में कहीं बेआवाज़ क़त्ल हो गईं। विसंगति ये कि सत्ताएं
कांग्रेस और भाजपा के हाथ रहीं, जो दरअसल राज्य आंदोलन के प्रबल विरोधी राष्ट्रीय
दल थे। आज राज्य के नाम पर जो हमारे पास है, वह उदासी पैदा करता है और इस उदासी
को क्षोभ और क्रोध में बदलने का हुनर भी लगता है कि अब बाक़ी नहीं रहा हममें। छत्तीसगढ़
का परिदृश्य भी ठीक यही है और इसका ऐसा होना विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में
जगह-जगह दर्ज़ है। राजनीति के क्षरित – विकृत रूपों में एक रूप है, जिसके बारे में
इस संग्रह की यह कविता बात करती है –
राजनीति के समुद्र में से निकल कर आया
समुद्री घोड़े की तरह
जो नक्शा है छत्तीसगढ़ राज्य का
यह शार्क या मगरमच्छ जैसा भी हो सकता था नक्शे
में –
समुद्री घोड़े के पेट में लोग हैं
यह उतना ठीक नहीं लगता
जितना कि शार्क या मगरमच्छ के पेट में कहने से
जैसा कि है
किस
राजनीति के समुद्र से छत्तीसगढ़ निकला है, इसके बारे में कुछ कहना ज़रूरी नहीं।
जिस राजनीतिक दल ने इसे जिस तरह बनाया और फिर इससे क्या-क्या और कितना-कितना
पाया, इसका पूरा अभिलेख अब मौजूद है। ग़लत विचारों और बदनीयती की परम्परा में
राजनीति एक नकारात्मक अर्थ ग्रहण करती गई है। जिस जनता के लिए राज्य को होना था,
वो वैसी ही रह गई बल्कि उससे भी बदतर हालात में ….लोग वाकई शार्क और मगरमच्छ के
पेट में हैं। कविता में इस क्रूर सच के बाद एक सम्भव न हो सकी सम्भावना की स्मृति
भी है –
इसका नक्शा संयोग से
जंगली फूल हो जाता
या फूल की कली
पकते हुए भात की हंडी हो जाती घर-घर में
जंगली
फूलों और भात की हंडियों के रूपकों में ही इस राज्य की असल सूरत थी। सम्भावनाओं
और विचार के प्रदेश में जब हत्याएं होती हैं तो वे अधिक नृशंस होती हैं – उनमें
व्यक्तियों के साथ स्वप्न, उम्मीदें, भविष्य, बुनियादी हक़-हुक़ूक सब मर जाते
हैं। समूची मनुष्यता मर जाती है। यह कविता इसी दृश्य को इतिहास से वर्तमान तक
खोलती है –
परन्तु उजाड़, जंगल, खेतों, ग़रीब-भूखों का
यहां आदि दृश्य है
जैसा कि है
हो सकता था की –
इस छोटी-सी कथा में
एक पाठ्यक्रम है
कि हाथी पर बैठा
एक राजा है
और जय-जयकार करती
ग़रीब प्रजा
जो शुरू से है
यह
आदिदृश्य अनादि बनता जा रहा है। अब भी वहां राजा है और ग़रीब प्रजा जो शुरू से है
– तो छत्तीसगढ़ को छत्तीसगढ़ बनने से क्या मिला…. और अधिक लूटपाट, संसाधनों
का अमानवीय दोहन और विरोध में खड़े होने वालों के लिए बनाईं वे स्थाई क़त्लगाहें,
जिनका जिक्र मैंने पहले भी किया। और यह सिर्फ़ छत्तीसगढ़ की व्यथा नहीं है, उसके
साथ पैदा हुए झारखंड और उत्तराखंड की भी है। छत्तीसगढ़ की सत्ता के झूट विनोद
कुमार शुक्ल की कविता में एक भरपूर राजनीतिक समझ के साथ उजागर हैं। यह सत्ता भी
मामूली सत्ता नहीं, उसके झूट भी मामूली झूट नहीं हैं – ये भारत की फासिस्ट
ताक़तें हैं और इनके अपने गोएबल्स हैं। छत्तीसगढ़ी में वह झूट बोल रहा है शीर्षक
कविता का यह एक प्रसंग है –
छत्तीसगढ़ी में वह झूट बोल रहा है
कि अब अच्छे दिन आएंगे
सनकर सभी भूखे प्यासे
औरतें छोटे-छोटे बच्चे बूढ़े लोग
बहुत बुरे दिनों को लादे
अपने काले भविष्य के दूर कोनों में
लौट जाते हैं
यहां
अधिक बड़े – अधिक भयावह, पूरे भूगोल में फैले गे़टो हैं, झूट को उघाड़ते जिनके
अनेक दृश्यों में से एक दृश्य कविता में आता है –
…सूर्योदय होते ही
कुंदरा पारा की किसी झोपड़ी मसे
‘खायेबर’ मांगने के कारण
पीड़ा और दुख से, पिटती भूखी बच्ची का
अचानक जोर के चीखने से
संसार की बोलियों के हुए तब सन्नाटे में
लाउडस्पीकर से
छत्तीसगढ़ी में वह झूट बोल रहा है –
लबारी बोलत है ।
विनोद
कुमार शुक्ल की कविता ‘बात केवल की’ में अपनी धरती और जनों से लगाव के साथ
राज्य बनाम गणतंत्र की गुत्थी इस तरह खुलती है कि सबको समझ में आए –
बोत केवल की है
कि मैं केवल छत्तीसगढि़या रहा
और कुछ नहीं
जब मध्यप्रदेश में रहा
तो केवल मध्यप्रदेश में नहीं
और जब छत्तीसगढ़ में
तो छत्तीसगढ़ में नहीं
***
विनोद
कुमार शुक्ल की राजनीति का एक और छोर ‘मुझे बिहारियों से प्रेम हो गया’
शीर्षक कविता में दिखाई देता है। महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार के करम किसी से
छिपे नहीं हैं। वे भीषण सामुदायिक हैं और इस अर्थ में वे ही उत्तरआधुनिकता की सच्ची
संतानें हैं भारत में। जबकि हमारी अकादमियां पोथियों में सिर मार रही हैं, वे
लोकेल को परिभाषित भी कर चुके हैं – फ्रेंच अकादमी के लोकेल सम्बन्धी सिद्धान्त
ही उनके सिद्धान्त हैं। परिणाम हमारे सामने है। एक निरंकुश परिवार जो अपने
परिभाषित लोकेल में किसी भी तरह के बाहरी हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देता। मुम्बई
में मराठी-मानुष की प्रचंड सामुदायिक भावना के आगे सभी नतमस्तक दिखाई देते हैं।
खेद का विषय है कि देश में विखंडन और अलगाव के ये दृश्य उत्तरआधुनिक अवधारणाओं
के अनुरूप हैं। दर्शन के इस हथियार से इस सबका औचित्य प्रमाणित किया जा सकता है
और हमारी लगभग जड़ हो चुकी किताबी अकादमियों ने जैसे चुप रहने की कसम खा रक्खी
है। देश-हित में समग्रता और सम्पूर्णता के लिए राजनीति के इलाक़े में मार्क्सवाद
अकेली राह है पर उस पर हमारे वामपंथी दल भी अब सीधा चलते दिखाई नहीं देते और ‘प्यादे
से फर्जी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जात’ की याद दिलाते हैं। ऐसे वक़्त में विनोद कुमार
शुक्ल एक सीधा संवाद करती कविता सम्भव करते हैं –
मुझे बिहारियों से प्रेम हो गया
जहां जाता हूं कोई न कोई मिल जाता है
उनकी बोली से पहिचान कर यही लगता
कि जिससे पिछली बार मिले थे
बिहार
को दरअसल देश में गुंडाराज और अव्यवस्था का प्रतिरूप मान लिया गया है। बिहार के
आम जन के श्रम, समर्पण और बौद्धिक उपलब्धियों पर कोई बात नहीं करता। इस छवि के
पीछे भी एक साफ़ राजनीति रही है। बिहार की पथभ्रष्ट राजनीति को वहां के आमजन का
आईना मान लेने का अपराध हम करते रहे हैं। यदि सर्वहारा की ही बात करें तो बिहार का
मज़दूर पूरे देश में मिलेगा आपको। कलकत्ता से लेकर मुम्बई और (सुदूर दक्षिण को
छोड़) पूरे शेष मध्य भारत से लेकर उत्तराखंड तक। ये वर्चस्व कायम करने नहीं,
महज कमाने-खाने गए लोग हैं –
बिहार के बाहर
एक बिहारी मुझे पूरा बिहार लगता
जब कोई पत्नी और बच्चे के साथ दिख जाता
तो खुशी से मैं उसे देशवासियो कह कर सम्बोधित
करता
परन्तु यह महाराष्ट्रीय घटना है
कि कमाने-खाने के लिए जहां बसे हैं
वहां से भगाए जाने पर
अपनी बोली भाषा को
गूंगे की तरह छुपाए
कि जान बचाना है
बचाओ किस भाषा में चिल्लाना है
एक भाषा में बचाओ
दूसरे प्रदेश की भाषा में
जान से मारे जाने का
कारण बन जाता है
लोग
विनोद कुमार शुक्ल की चुटीली विदग्ध भाषा पर मोहित हैं और इधर मैं उनकी
सादाबयानी का कायल हुआ जाता हूं। ऊपर जो पंक्तियां उद्धृत की मैंने, उनमें सादा
किंतु मार्मिक बयान भर है। अभिप्राय के साथ मर्म मेरे लिए कविता को आंकने का दूसरा
महत्वपूर्ण बिंदु है। मार्मिकता कविता का एक मानवीय मूल्य है, जिसका लोप इधर
लगातार हुआ है। कविता को नितान्त रूखा बौद्धिक व्यायाम बना देने वाले तो अब
मुक्तिबोध तक से सीखने को तैयार नहीं दीखते, जबकि मुक्तिबोध की कविता के मर्म
हमारी कविता और जीवन के ऐतिहासिक प्रसंग बन चुके हैं। विनोद कुमार शुक्ल की कविता
का मर्म बेधता हुआ आता है और पाठक के मर्म से बिंध जाता है। भाषाई विमर्श भी उत्तरआधुनिकता
का गौरवपूर्ण अध्याय मान लिया गया है पर इसका क्या करेंगे जब एक भाषा में
बचाओ दूसरे प्रदेश की भाषा में जान से मारे जाने का कारण बन जाता हो …. आगे इसी कविता में आता है –
पकड़े गए जन्म से गूंगे का न बोल पाना
उसका जबान न खोलना बन जाता हो
और भीड़ को तब तक उसे पीटना है
जब तक उसकी बोली का पता न चले
तब बोली भाषा के झगड़े में
एक गूंगे का मरना भी निश्चित है
कितना
दारूण दृश्य है यह। अपने लोकतंत्र का हमने क्या बना डाला है …. विनोद जी की
अनुज-पीढ़ी के कवि वीरेन डंगवाल के शब्दों में आखिर हमने ये कैसा समाज रच
डाला है । आज के माहौल में हम कुछ
बड़ी अनाचारी ताक़तों के सिर सारे इल्ज़ाम नहीं थोप कर अपनी जिम्मेदारियों से
भाग नहीं सकते – हमें सोचना होगा कि हमारे देश की जनता में राजनीतिक विवेक भी
लगातार घटता गया है और इधर तो वो दिखाई ही नहीं देता। इन घोर सामुदायिक पहचानों के
बीच कवि की यह चिंता कितनी मानवीय और विचारपूर्ण है –
नागरिको, देशवासियो कहकर किसे पुकारूं
वह कौन है कहां रहता है
जैसा
कि मैंने पहले भी कहा कविता अकसर एक चेतावनी भी होती है लेकिन हममें उसे सुनने का
संस्कार और सलीका कम होता गया है। जीवन से कविता और साहित्य जितना दूर होता
जाएंगे, जितना हमारा बहरापन बढ़ता जाएगा, हम उजड़ते जाएंगे।
***
साम्प्रदायिकता
हमारे देश और समाज का सबसे बड़ा संकट है अभी। उससे भी बड़ा संकट है साम्प्रदायिक
ताक़तों के निरन्तर राजनीतिक विस्तार का। वे महामारी की तरह फैली हैं। ये कहना
बार-बार दुहराना होगा पर आज के अकादमिक संसार में साम्प्रयिकता का मुद्दआ भी कहीं
न कहीं उत्तरआधुनिक बताई गई स्थितियों से ही जुड़ता है। वहां सामुदायिकता का धर्म
आधारित स्वीकार समझ और किसी भी तर्क से परे है। भूगोल और संस्कृति से बाहर सम्प्रदाय
आधारित समुदायों की मान्यता दुनिया को एक डेड एंड तक ले जा रही है। लोग भूल रहे
हैं कि संस्कृति और धर्म में मूलभूत फ़र्क़ है। एक धर्म को मानने वाले अलग-अलग
संस्कृति के हो सकते हैं और एक संस्कृति में अलग-अलग धर्म के मानने वाले रह सकते
हैं। हमारे देश में गुजरात इस नासमझी का अभूतपूर्व उदाहरण बन चला है। वहां की सत्ता
ही नहीं, जनता भी अब संदेह के घेरे में है ….जो उसी सत्ता और मनुष्यता के उसी
खलनायक को बार-बार अपने नायक के रूप में चुनती है। मैं स्वीकार नहीं कर पाता हूं
कि जनता इतनी विवेकहीन कैसे हो सकती है। 2002 के बाद का गुजरात हिंदी कविता में भरपूर
भर्त्सना के साथ दिखाई दिया है। मुझे विष्णु खरे और मंगलेश डबराल की कविताओं की
पूरी स्मृति है। पहल में छपी निरंजन श्रोत्रिय की कविता ‘जुगलबंदी’ इस सन्दर्भ की
एक महान कविता है। विनोद कुमार शुक्ल ने भी अपने स्वर में गुजरात पर मार्मिक
टिप्पणियां कीं लेकिन वे उस तरह नहीं गूंजी, जिस तरह विष्णु खरे और मंगलेश डबराल
की लम्बी कविताएं। ये विनोद कुमार शुक्ल का कवि-स्वभाव है, उनकी गूंज साथ आती
तो है पर दूसरी आवाज़ों में डूब जाती है और फिर एक अन्तराल पर वो सुनाई देती है
…स्थाई की तरह लौटना होता है उस तक। इस संग्रह में साम्प्रदायिकता के राजनीतिक
विरोध की ये कविताएं, इसी तरह की कविताएं हैं। कहना चाहता हूं कि कविता में अब
साम्प्रदायिक आतंक और दुश्चक्रों का पयार्य बन चुके गुजरात का नाम लेना मनुष्यता
के हक़ में एक अनिवार्य राजनीतिक हस्तक्षेप है, जिसे विनोद कुमार शुक्ल ने पूरी
वैचारिकी के साथ अंजाम दिया है –
गुजराती मुझे नहीं आती
परन्तु जानता हूं
कि गुजराती मुझे आती है –
वह हत्या करके भाग रहा है
यह एक गुजराती वाक्य है
दया करो, मुझे मत मारो
मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं
अभी लड़की का ब्याह करना है
ब्याह के लिए बची लड़की
बलात्कार से मर गई –
ये सब गुजराती वाक्य हैं
‘गुजारिश’ एक गुजराती शब्द है
ये
है विनोद कुमार शुक्ल की आवाज़ – अपनी मार्मिकता में गहरे तक बेधती। गुजरात पर
बहुत बड़े-बड़े बयानों के बरअक्स ये कुछ छोटे-छोटे वाक्य, जैसे कवि के बहुउल्लेखित
चुप – वे पराध्वनियां, जिन्हें सुनने के लिए पहलू में चूर-चूर होता एक धड़कता
रक्ताक्त दिल चाहिए – एक दिमाग़, जिसमें कुछ फटा हो।
जब पिता मार डाला गया
तब पिता की गोद में जाने को लालायित
बच्चा भी
मां भी मारी गई
जब बच्चे को पिता की गोद में दे रही होगी
कि वह भाजी काट ले
बच्चे कोधोखे से चाकू लग जाता तो –
तभी चाकू से मारे गए
कि भाजी की तरह काटे गए लोग –
यह जो कहा गया गुजराती में कहा जाता
छत्तीसगढ़ी में कहने से मुझे डर लगता है
परन्तु राष्ट्रभाषा में कहा गया
यहां
भाजी काटने जाती मां बच्चे को पिता की गोद में दे रही है कि धोखे से चाकू न लग
जाए और फिर अचानक समूचे दृश्य में सबसे बड़ा धोखा सामने आ जाता है। ये कारुणिक से
अधिक क्षुब्धता और क्रोध उत्पन्न करने वाला दृश्य है। ये धोखा भी अपनी हदों से
कहीं बाहर एक समूची मानवीय विरासत को दिया गया धोखा है। मनुष्यता के किसी भी शिल्प
में इसका कभी कोई पश्चाताप संभव नहीं है। इसकी सज़ा अनिवार्य रूप से वहीं मौजूद
है, जहां यह अपराध हुआ है और एक दिन उसे हम सबको भुगतना होगा। अभी हम कविता में और
उससे बाहर अपने पश्चाताप दर्ज़ भले कर रहे हैं पर जीवन और उसके संकट जब और भयावह
होकर हमारे ऊपर झुक आएंगे, तब भूमिगत हो जाने भर की भी भूमि नहीं होगी हमारे पास।
इस कविता में जो कुछ कहा गया उसे छत्तीसगढ़ी में कहने कवि को डर लग रहा है, क्योंकि
वहां भी वही ताक़तें हैं और कुछ पता नही कि सिर्फ़ छत्तीसगढ़ नहीं, कब समूचा मुल्क
ही गुजरात में तब्दील हो जाए। अगर है तो ठीक यही इन ताक़तों के विरुद्ध एकजुट
होने का समय है, आगे हम दिक् से भी जाएंगे और काल से भी और कोई अवधि भी नहीं होगी
दरमियान। अब अंतरालों से गुज़र कर कुछ कहने का हुनर काम नहीं आएगा, बल्कि आगे वह
हुनर ही नहीं रह जाएगा।
***
इस
संग्रह की बहुत निकट की कविताओं में एक कविता है ‘सुनो, हम थोड़े लोगों से बात
करते हैं’ – यह कविता हम कवियों से भरपूर मुख़ातिब है, इसमें हमारे
पराभव के प्रसंग हैं और ये छोटे दिखते भले हों पर हमारे और हमारी अभिव्यक्तियों
के नष्ट होते जाने के बहुत बड़े इलाक़े में घट रहे हैं –
सुनो, हम थोड़े लोगों से बात करते हैं
बहुत थोड़े
और गिने-चुनों को सुनते हैं
जबकि बाकी सभी बकाया लोग
कितना हल्ला है
और उतना ही अनसुना, अनदेखा
कुछ दिखता नहीं
हमेशा के दृश्य से पहले आवाज़ चली जाती है
फिर उजाला चला जाता है
इस हमेशा से कुछ दूर दूसरे हमेशा के लिए
थोड़े ज़्यादा लोगों से बात कर लेना चाहता हूं
थोड़े ज़्यादा लोगों को देख लेना-सुनना
परिचितों, रिश्तों, धर्म जातियों से
छिटक कर एक मनुष्य की तरह
बकाया शेष मैं
बकायों से जुड़ जाना
ये
एक निरन्तर अलगाव, बिखराव और चरम की ओर धकेली जा रही संकीर्ण सामुदायिकता के बीच
महत्वपूर्ण बताए जाने वाले लोकेल आख्यानों के सामने खड़े मनुष्यता के महाख्यान
की चुनौती है, जिसे यह कविता बहुत कम शब्दों में सम्भव करती है। समकालीन कोलाहल
में कम किंतु मर्मबेधी शब्दों की सम्भावना भी अब भी एक विराट सम्भावना है। आज
की कविता पाठकों की कमी का रोना बहुत रोती है पर ये भूल जाती है कि वो ख़ुद कितने
थोड़े लोगों से बात कर रही है और सुनती भी कितने कम लोगों को है। परिचितों, रिश्तों,
धर्म, जातियों आदि से छिटक कर कवि किसी आइसोलेशन में नहीं जा रहा है बल्कि वो इन
सबसे एक छिटके हुए मनुष्य की तरह बाकी सभी बकायों से जुड़ने के डाइअलेक्टिक में आ
रहा है। यहां कोई भाषाई खेल नहीं चल रहा, एक वैचारिकी निर्धारित हो रही है। विनोद
कुमार शुक्ल की कविता में ये पड़ाव बहुत ख़ूबसूरत पड़ाव है मेरे लिए।
***
इस
संग्रह में कई जगहें ऐसी हैं, जहां मैं बहुत देर रुक-थम जाता हूं… वो पन्ने
पलटाए ही नहीं जाते मुझसे। जैसे ‘नींद आ रही है’ कविता के पन्ने, जहां एक
लम्बा सधा हुआ विनम्र शिल्प अपनी कहन की परतें खोलता हैं। जिसमें भीतर-बाहर का
जल धीरे-धीरे हिलता है। यहां पीड़ा ख़ुद टूट जाती है और उम्मीदें तोड़ जाती हैं।
कुछ अनहोना घटता है और कुछ होना घटने से रुक जाता है – रुंधे हुए कंठ में अटकी
आवाज़ की तरह। एक आश्वासन जो आशंका के शिल्प में है और आशंकाएं जो आश्वासन और
यक़ीन के परदे में, जहां उनके होने का अहसास ठीक विनोद कुमार शुक्ल कविता की ही
तरह का एक दूसरा अहसास है। यहां मैं देख पाता हूं कि किसी कवि की विशिष्टता दरअसल
एकबारगी देखने में बहुत सहज लगती वस्तु है पर उसे पाने में कई उम्रें खर्च हो
जाती हैं। नींद इस कविता की थीम है पर उसका ठीक-ठीक उपजीव्य जागरण है। यहां ये
दोनों विलोम मिलकर एक संसार रचते हैं, जिसमें भय है, मृत्यु है, रक्तबिंदु हैं,
पुराने दिनों की आहत स्मृतियां हैं, कई सारी होनी-अनहोनियां हैं, स्वप्नों के
एलबम हैं, झूटमूट के बहलावे हैं, कर्कश ध्वनियां हैं जो छाती को चीर कर दीवार से
टकराती हैं, कुछ नींद का मरना है और कुछ व्यक्ति का, वो डरा हुआ भला आदमी है जो
अगले दिन लाश में बदला दिखेगा। यहां नींद आते-आते कहीं निकल गई है – कभी वह पतली
गली के बदबूदार सन्नाटे से आती दिखती है, कभी चोरी-चोरी किसी अपराधी की तरह कि
जागते हुए पास क्यों आ रही है, और फिर –
अंधेरी –अंधेरी गलियों से
भागते-भागते
अचानक रोशनी-रोशनी से जगमगाती चौड़ी सड़क पर
भारी ट्रकों, गाडि़यों के बीच
एक ग़रीब लड़की तरह
इज़्जत बचाने भागती-चिल्लाती नींद
किसी क़ैद से छूटी मगर
किसी चंगुल से बचकर नहीं
लुटकर आ रही है
सब तरफ़ की पहरेदारी को
नींद आ रही है
कई दिनों से जागने की थकावट में
कितने जागते हुए लोगों से
मुंह छुपाकर
मुझ अकेले की तरफ़
मुंह-अंधेरे सुबह-सुबह
क्यों आ रही है
मुझे शर्म आ रही है
कि मुझे नींद आ रही है।
यह
एक लम्बा किन्तु अनिवार्य उद्धरण है इस कविता का। समूची कविता में यह नींद जगह-जगह
रूपकों में बदल जाती है। हमारे जीवन में रूपकों के कितने तत्व जाने-अनजाने शामिल
रहते हैं, यह कोई अनजानी या अनकही बात नहीं है। हर व्यक्ति का जीवन अंतत: एक रूपक
में बदलता है और इस क्रम में उससे जुड़ी चीज़ों, भावनाओं और स्थितियों के
कहां-कहां, कितने रूपक बनते हैं, वो ख़ुद भी नहीं जानता। लेकिन कवि जानता है…
इनमें से कुछ को वो कभी अपनी सार्वजनिक तो कभी निजी अंतरंग अभिव्यक्तियों के लिए
चुनता है। इनके बनने में उसका नियंत्रण नहीं होता लेकिन इनके कविता में सम्भव
होने को वो नियंत्रित कर सकता है। इस तरह की कविताओं में सायास और अनायास के बीच
एक तनाव होता है, जिसे उसके समूचे सन्तुलन में साध लिया जाए तो ऐसी विरल कविता
बनती है, जैसी विनोद कुमार शुक्ल के यहां है। ये लुटकर आ रही नींद जो कितने ही
जागते हुए लोगों से मुंह छुपाकर अकेले कवि की तरफ़ आती भी है तो शर्म की तरह –
अपने लोगों से यह जुड़ाव उन्हें बहुत बड़ा बनाता है मेरे लिए।
***
यह
संग्रह आंचलिक प्रसंगों में आवाजाही कायम रखता है और बोली-भाषा में भी। यह आवाजाही
किसी भाषाई डिस्कोर्स में नहीं, वैचारिक डाइअलेक्टिक में घटित होती है –
कविता की अभिव्यक्ति के लिए
व्याकरण का अतिक्रमण करते
एक बिहारी की तरह कहता हूं
कि हम लोग आता हूं
इस कथन के साथ के लिए
छत्तीसगढ़ी में हमन आवत हन
तुम हम लोग हो
वह भी हम लोग हैं
यह
अकेला उदाहरण नहीं है, छत्तीसगढ़ी के कई शब्द और वाक्य पूरे संग्रह में मौजूद
है। चन्द्रकान्त देवताले ने एक बार बहुत प्यार से समझाया था कि कविता अपनी
ज़मीन और ज़मीर से आती है। तब से मैं हर कविता में कवि की ज़मीन और ज़मीर
ढूंढता हूं। मुझे अपनी खोज के कई प्रसंग इस संग्रह में मिले हैं। एक लिखी जाने
वाली ददरिया शीर्षक लम्बी कविता भी एक ऐसा ही प्रसंग है। यह जीवन-प्रसंग है,
इसलिए विचार-प्रसंग भी है। जहां-जहां जीवन होगा, वहां-वहां द्वन्द्व भी होगा….
जो अपने पीछे एक वैचारिक यात्रा निश्चित रूप से लाएगा। इसी तरह नज़र लागी राजा में एक लोकगीत की आधुनिक टूटन है – ध्यान दिया
जाए कि यह टूटन है, बिखराव नहीं है। देखना होगा कि टूटने से जीवन में कितने सधे
हुए राग संभव होते हैं, उसमें एक समग्र मर्म सम्भव होता है, जिसकी बात मैं
बार-बार कर रहा हूं।
***
यह
संग्रह कवि की उम्र के उस पड़ाव पर आया है, जब संसार और उसकी हलचलें आगत से कहीं
ज़्यादा विगत में उपस्थित होती हैं। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल की इन कविताओं में
यह फांक उतनी बड़ी नहीं है। इसमें ‘आज’ बहुत है, जैसा और जितना स्वाभाविक तौर पर
होना चाहिए उतना कुछ बीता हुआ भी है। मृत्यु के कुछ निजी उल्लेख हैं पर आनेवाले
संसार का स्वागत करतीं एक अनोखी गरिमा से भरी ऐसी अद्भुत प्रिय कविताएं भी हैं –
अब इस उम्र में
कि कोई शिशु जन्म लेता है
तो वह मेरी नातिनों से भी
छोटा होता है
जन्म के संसार में कोलाहल है –
किसी ने सबेरा हुआ कहा तो
लड़का हुआ सुनाई दिया
सुबह हुई चिल्ला कर कहा तो
लड़की हुई की ख़ुशी लगती है
मेरी बेटी की दो बेटियां हैं
सबसे छोटी नातिन जाग गई
जागते ही उसने सुबह को
गुडि़या की तरह उठाया
बड़ी नातिन जागेगी तो
दिन को उठा लेगी
अंत
में कहना चाहता हूं कि मेरे लिए बहस के बाहर न तो किसी भी तरह की कविता की
उपस्थिति है और न जीवन की। ख़ुशी है कि विनोद कुमार शुक्ल अपनी वरिष्ठता के
बावजूद बहस के भीतर के कवि हैं आज भी । कवि की भी हमसे कुछ उम्मीदें हैं, जिन्हें
हमें सुनना चाहिए –
चुप रहने को भी सुन लेना
जीवन की उम्मीद से
छाती से
कान लगाकर सुनना
कि धड़कन की आवाज़
आती है या नहीं
आवाज़ ज़रूर आएगी
यदि मेरे हृदय की नहीं
तो तुम्हारे हृदय की।
सुनने
और बोलने की तमीज़ सिखाती हुई ये कविताएं ऐसे वक़्त में आयीं है, जब कोलाहल बहुत
है। गहरे अंधेरे हैं धरा पर। हत्यारे विचारों की आमद दिखाई देने लगी है। मनुष्यता
के पक्ष में होने वाली बहसों के मुंह बंद करने के लिए अमरीकी अकादमिक समुदाय ने
थैलियां खोल दी हैं – हमारे देश में इस धन की प्रेरणा से विमर्श रचने वाले बढ़ते
जा रहे हैं और बहस छेड़ने वाले कमते जा रहे हैं। हमारा एक बुजुर्ग कवि बहस के पक्ष
में है तो उस बहस का मोल अब पहचानना होगा। कविता में आवाज़ की दर्प भरी ऊंचाई हमने
बहुत देखी। अब हमारे सामने उस विनम्र गहराई को जानने की चुनौती है, जो जीवन के
तलघर से आती आवाज़ों में होती है। चमकते आकाश से ही नहीं, धरती की अंधेरी परतों से
भी कोई बोलता है। आकाश से बोलना बरसता है और बह जाता है मगर धरती की परतों में
बोलना खिलता है। मेरी मार्क्सवादी वैचारिकी के अनुशासन में खुलना और खिलना – ये
दो सबसे अनिवार्य और महत्वपूर्ण प्रसंग हैं – समकालीन जीवन, समाज और कविता के
प्रसंगों में और मैं बहुत गर्व से देखता हूं कि विनोद कुमार शुक्ल की कविता में
ये दोनों ही भरपूर मौजूद हैं। एक दायरे में उन्हें समझने में होती रहीं ग़लतियां आगे
नहीं होंगी, ऐसी कामना है मेरी।
***
पहल के 91 वें अंक में छपा ये लेख ज्ञान जी द्वारा विश्वास के साथ दी गई सिरीज़ का पहला लेख है।
इस लेख की सबसे अच्छी बात यही है कि राजनैतिक झंडाबरदारी के स्थूल नारों से अलग बिनोद जी की महीन, सहज, अन्तरंग गुफ्तगु को पहचाना, बाकी ये भी याद रखनेवाली बात है कि कविता तात्कालिक राजनीति और नैतिकता की मातहत है तो उसका मूल्य कम हो जाता है, उसे हमेशा मनुष्यता के ही हक में नयी तरह से उम्मीद बुनने की कोशिस करनी होगी, कभी बहुत पीछे,और कभी सैकड़ो वर्ष आगे की यात्रा कर फिर आज में लौटना होगा…
बढ़िया लिखा है शिरीष भाई…अभी इतना ही.
विनोद जी को उनके स्तर पर उठकर स्पर्श किया गया है। सुंदर, सलोना लेख 💙