अनुनाद पर निरन्तर काम करते रहने का सुफल कभी-कभी यूं भी मिलता है जैसे मेरे प्रिय कविमित्र आशुतोष दुबे ने अपनी छह कविताएं अभी अचानक उपलब्ध करा दी हैं। इनमें से तीन पूर्व प्रकाशित हैं और तीन पहली बार कहीं छप रही हैं।
आशुतोष दुबे आकार में छोटी लगती किंतु बड़ी आख्यानात्मक स्मृति छोड़ जाने वाली कविताओं के कवि हैं। कई बार लोग धोखा खाते हैं कि छोटी कविताएं कम बोलती हैं। वे भले कम बोलती लगें पर अगर वे आशुतोष दुबे जैसे कवि की कविताएं हैं तो देर तक गूंजती हैं।
इस प्रिय कवि के पास जीवन और विचार के अपने मर्म हैं और उनसे हमें गहरे तक बेधने सकने की अपनी विशिष्ट शक्ति भी, जो कविता में शिल्प जैसी बहुउल्लेखित चीज़ को उतना ही वापरती है, जितना ज़रूरी हो।
भूख, स्वाद, नींद, हवा, कपड़े, फूल, जड़, पेड़, जकड़, तकलीफ़, टीस, शर्म, बदला, उम्मीद, जूता-सूनेपन में गूंजती उसकी हंसी, स्मृति, पृथ्वी, नीमरोशनी, अंधेरा, तृप्ति और कामना – ज़रा सोचिये क्या ये सब महज कविता के पद हैं। इनका उपयोग तो सभी कवि करते हैं लेकिन उनसे ज़्यादा वे जो कवि नहीं है। ये कविताएं उनको कवि बनाती हुई कविताएं हैं जो कवि नहीं हैं। मेरा मानना है कि हर मनुष्य के भीतर एक कवि होता है, यदि हम अपनी कविताओं से ख़ुद को नहीं, सभी को उनके कवि होने का अहसास करा पाएं तो हमारा कवि होना सार्थक है। आशुतोष ऐसा कर दिखाने वाले कवि हैं, इसीलिए तो हमारे कवि हैं।
अनुनाद पर उनके प्रथम प्रकाशन पर मैं उनका बहुत आत्मीय स्वागत करता हूं और इन कविताओं के लिए शुक्रिया कहता हूं….इस उम्मीद के साथ सिर्फ़ कविता और कविता पर विचार के लिए समर्पित हमारी इस छोटी-सी ब्लागपत्रिका को उनका संग-साथ मिलता रहेगा।
तस्वीर कवि के फेसबुक प्रोफाइल से |
॥ एक लम्बी नींद ॥
स्वाद भूख में होता है
इसलिए हर कौर के साथ
भूख मरती जाती है
और स्वाद भी
लेकिन जिनके पास केवल भूख है
और कौर नहीं
उनके
स्वाद कहाँ जाते हैं
स्वाद कहाँ जाते हैं
क्या
वे भूख के जंगल में भटक जाते हैं
वे भूख के जंगल में भटक जाते हैं
और
थक कर वहीं कहीं सो जाते हैं
थक कर वहीं कहीं सो जाते हैं
एक
लम्बी नींद
लम्बी नींद
या वे जीभ पर धधकते रहते हैं
और खो गए बच्चों की तरह
भूख के सपनों में आते हैं
राख
की एक लगातार परत
की एक लगातार परत
जमती
रहती है
रहती है
जीभ
से आत्मा तक.
से आत्मा तक.
***
॥ हवा ॥
खूँटी से टँगी
पतलून में हवा की टाँगे हैं
अपनी शर्ट के बटन खोले
ये हवा है
जो हमारी कमीज़ पहने है
कपड़ों में हमारी गैरमौजूदगी को पहन
कर
कर
वह जताती है
कि केंचुली नहीं
ये कपड़े हैं जो हमने उतारे हैं
हम फिर पतलून में खुद को डालेंगे
और शर्ट पहन कर बटन लगा लेंगे
और सड़क पर चलेंगे
तो बगैर कपड़ों के
हवा हमारे चारों तरफ दौड़ेगी
***
॥
सिर्फ फूल ही नहीं ॥
सिर्फ फूल ही नहीं ॥
सिर्फ फूल ही नहीं खिलता
डाल भी खिलती है
डाल भी खिलती है
देख पाओ,तो देखोगे कि
जड़ भी खिलती है
सिर्फ फूल ही नहीं खिलता
समूचा पेड़ खिलता है
***
॥ बदला ॥
पहले एक भींच, एक जकड़, जो जल्द ही
बदल जाती है रगड़ में. शुरु में वह उसे भरसक नज़रअंदाज़ करता है. फिर ये सोच के खुद
को समझाता है कि जूता पैरों से दोस्ती करने की कोशिश में है. जल्द ही दोनों में
राब्ता हो जाएगा. पर जूते के ऐतराज़ बढ़ते चले जाते हैं. उनकी अनसुनी करना मुश्किल
होता जाता है. त्वचा छिलने लगती है. टीस बढ़ती जाती है. हालात बर्दाश्त के
बाहर होने लगते हैं. यह उम्मीद हाथ से निकलने लगती है कि जूते
से उसके रिश्ते कभी सुधर भी सकेंगे. वह अजब लाचारी में खुद को घिरा पाता है. काटते हुए जूते को पहनकर चलना बिना जूते के चलने
से ज़्यादा ज़ेब देता है. नंगे पैर, हाथों में जूते लटकाए चलता हुआ आदमी सबको दिखाई
देगा, पर जूते का बेआवाज़ यूँ काटते रहना कोई नहीं जानेगा, सिवा उसके जिसे जूता काट
रहा है और जो हर कदम पर पीड़ा की
पुनरावृत्ति को जी रहा है. उसके होंठ भिंच गए हैं, आंखों की कोर में कुछ गीला-सा
चमकने लगा है, पैर रखने के पहले वह जी कड़ा करता है और फिर थम जाता है. वह इधर-उधर
देख रहा है पर इस समय कहीं कोई इमदाद मुमकिन नहीं.
बदल जाती है रगड़ में. शुरु में वह उसे भरसक नज़रअंदाज़ करता है. फिर ये सोच के खुद
को समझाता है कि जूता पैरों से दोस्ती करने की कोशिश में है. जल्द ही दोनों में
राब्ता हो जाएगा. पर जूते के ऐतराज़ बढ़ते चले जाते हैं. उनकी अनसुनी करना मुश्किल
होता जाता है. त्वचा छिलने लगती है. टीस बढ़ती जाती है. हालात बर्दाश्त के
बाहर होने लगते हैं. यह उम्मीद हाथ से निकलने लगती है कि जूते
से उसके रिश्ते कभी सुधर भी सकेंगे. वह अजब लाचारी में खुद को घिरा पाता है. काटते हुए जूते को पहनकर चलना बिना जूते के चलने
से ज़्यादा ज़ेब देता है. नंगे पैर, हाथों में जूते लटकाए चलता हुआ आदमी सबको दिखाई
देगा, पर जूते का बेआवाज़ यूँ काटते रहना कोई नहीं जानेगा, सिवा उसके जिसे जूता काट
रहा है और जो हर कदम पर पीड़ा की
पुनरावृत्ति को जी रहा है. उसके होंठ भिंच गए हैं, आंखों की कोर में कुछ गीला-सा
चमकने लगा है, पैर रखने के पहले वह जी कड़ा करता है और फिर थम जाता है. वह इधर-उधर
देख रहा है पर इस समय कहीं कोई इमदाद मुमकिन नहीं.
आखिर तकलीफ की शर्म पर जीत होगी. वह
जूते को हाथों में पहनकर नंगे पैरों चलेगा.उसके तलवों को सड़क अपनी खुरदुरी छुअन की
भूली हुई याद दिलाएगी.
जूते को हाथों में पहनकर नंगे पैरों चलेगा.उसके तलवों को सड़क अपनी खुरदुरी छुअन की
भूली हुई याद दिलाएगी.
जूते की हँसी सूनेपन में गूँज रही
होगी.
होगी.
***
॥
मेरी स्मृति भी पृथ्वी की तरह थी ॥
मेरी स्मृति भी पृथ्वी की तरह थी ॥
किसी
दूसरे ग्रह से देखा अपनी पृथ्वी को
दूसरे ग्रह से देखा अपनी पृथ्वी को
वह
आधी अंधेरे में डूबी हुई थी
आधी अंधेरे में डूबी हुई थी
अंधेरे
में ही कहीं मेरा घर था
में ही कहीं मेरा घर था
सिर्फ
मेरी स्मृति में चमकता हुआ
मेरी स्मृति में चमकता हुआ
मेरी
स्मृति भी पृथ्वी की तरह थी
स्मृति भी पृथ्वी की तरह थी
आधी
अंधेरे में डूबी हुई
अंधेरे में डूबी हुई
उसके
अंधेरे में कुछ लोग हमेशा आते-जाते रहे होंगे
अंधेरे में कुछ लोग हमेशा आते-जाते रहे होंगे
कुछ
घटनाएं भी चुपचाप सिमटी सी बैठी होंगी
घटनाएं भी चुपचाप सिमटी सी बैठी होंगी
कुछ
जगहें होंगी जिनमें अपार इंतज़ार रहता होगा
जगहें होंगी जिनमें अपार इंतज़ार रहता होगा
एक
नीमरोशन कोठरी होगी
नीमरोशन कोठरी होगी
जिसमें
सजायाफ्ता स्मृतियां होंगी
सजायाफ्ता स्मृतियां होंगी
बाज़
न आती हुईं
न आती हुईं
उनके
बघनखे अंधेरे में भी चमकने पर आमादा
बघनखे अंधेरे में भी चमकने पर आमादा
इस
ग्रह से देखता हूँ
ग्रह से देखता हूँ
अंधेरे
में आधी डूबी हुई पृथ्वी की नीम रोशन स्मृति को
में आधी डूबी हुई पृथ्वी की नीम रोशन स्मृति को
आँखों
में घुप जाता है
में घुप जाता है
अंधेरे
में रह-रह कर नश्तर सा चमकता कुछ
में रह-रह कर नश्तर सा चमकता कुछ
***
॥ हमेशा ॥
तृप्ति एक बार फिर
कामना को जगह देती है
कामना एक बार फिर
तृप्ति के जल में डूबती है
और फिर बाहर निकल आती है
अनाहत
कमल की तरह
उस पर पानी की जो यहाँ-वहाँ बूँदें
हैं
हैं
वह तृप्ति की स्मृति है
कामना हमेशा इस स्मरण से संतप्त है
***
maine pahle bhi kaha tha ki tumhara yah lautna personally mere liye bahut sukhad hai! bahut pahle shayad jab tum kavi nahin the main tumhari kavitayen pasand karta raha hoon.jio pyaare tum per kavitaon ka shabab aaye!!
शिरीष जी, आशुतोष जी की छोटी कविताओं को पढ़कर बहुत अच्छा लगा। कवि के पास कुछ खास है। शुभकामनाएँ।
Bahut hee pukhta aor man ko chhoone balee kavitain . Bahut bahut shubh kaamnaain
beautiful poems..
suljhi hui , bahut achhi kavitaen..
आशुतोष जी दैनिक अनुभवों के बड़े कवि है। कवि और अनुनाद का आभार इतनी अच्छी कविताओं के लिए।
Mahatvpoorn kavita. Badhai Ashutosh jee.
Abhaar Shirish jee.
छोटी हैं, पर छोटी नहीं हैं ये कविताएं. मामूली चीज़ों की ओर गैर-मामूली ढंग से ध्यान खींचती हैं, ये कविताएं. "एक लंबी नींद", "सिर्फ़ फल ही नहीं", "हमेशा" खूब पसंद आईं. कवि को बधाई.
बहुत संवेदनशील लेखन ….गहरा चिंतन …मितव्ययी हैं शब्दों के इस्तेमाल में …लेकिन दिल को छूती …बेहद असरदार रचनाएं हुआ करती हैं आशुतोष जी की … बहुत बधाई !!
बहुत सुन्दर कवितायेँ . आशुतोष जी को बधाइयाँ . … और शिरीष जी आपको धन्यवाद .
अँधेरे में ही कहीं मेरा घर था ,सिर्फ मेरी स्मृति में चमकता हुआ …आशुतोष दुबे जी मेरे भी प्रिय कवि हैं. आपका आभार इन्हें उपलब्ध कराने के लिये .
इन कविताओं को पढ़वाने के लिए शुक्रिया शिरीष जी.
विलक्षण! सिर्फ फूल ही नहीं, सारा पेड़ खिलता है, इतने स्तरों पर इतनी सार्थक है!
कमीज के भीतर से और दूसरे ग्रह से , जीभ और स्मृति की नोक से , जूते की कील और जड़ों के फूल से …एक साथ दुनिया को देखती दिखाती हुयी पारदर्शी कवितायें .