मेरे प्रिय छात्र अनिल कार्की की वजह से मेरा ध्यान फेसबुक पर संदीप रावत की कविताओं की ओर गया। मैं उनके पिछले कुछ स्टेटस को बहुत ध्यान से देख रहा था, जहां ये कविताएं दर्ज़ थीं। अब मुझे यक़ीन-सा होने लगा है हमारे पहाड़ की मिट्टी और यहां के जीवट में कविता के बीजों का पनपना एक सहज प्रक्रिया है। यहां कविता जीवन में समाई हुई है। एक समृद्ध लोक-परम्परा के साथ ही वह पढ़े-लिखे विचारवान युवाओं में भी एक अलग विन्यास में सम्भव हो रही है, मैं इस दृश्य को बहुत आत्मीयता से देखता हूं। संदीप रावत की कविताओं के सरोकारों में भरपूर राजनीतिक संवाद, गरिमापूर्ण प्रेम, मां की बंधाई उम्मीद आदि से लेकर अकेले पड़ गए बुज़ुर्ग तक शामिल हैं। कितने संतोष की बात है कि इस भीषण बाज़ार-काल में गुलामों के वंशज होने का एक विशिष्ट इतिहास-बोध इस कवि की संवेदना का ज़रूरी हिस्सा है। अब भी लाल दिशाएं देख पाने वाले युवा संदीप रावत का इस फेसबुक विशेष पोस्ट में स्वागत है और आगे के सफ़र के लिए हमारी ख़ुशबाशियां भी उनके साथ हैं।
आज दो
हुकुम दो आज
हाँ हाँ हुक्म दो आज
हम तुम्हारे खरीदे हुए गुलाम
रोम के गुलामों के वंशज
हम खून बोयेंगे हम खून उगायेंगे
हम तुम्हारे सबसे चमकदार सूरज को डुबो
देंगे रक्त के दरिया में
और उससे अपने खेतों तक ले आयेंगे एक
हरी नहर
हम तुम्हारे गुलाम
दो आज हुक्म
हम उठेंगे अपने बच्चो की लाश कंधो पे
लिए
हम उठेंगे कि हड्डी रीढ़ की अभी नहीं
टूटी
हम उठेंगे कि दिशाएं अभी लाल है
हम उठंगे की मुर्गा अभी बांग देगा
हम चीखेंगे कि
एक आवारा कुत्ता अभी भौंक रहा है रात
के ठीक बारह बजे
यह सियारों के रिरियाने का समय नहीं
हैं
उठो गुलामो
वो हुक्म दे रहे है
खोलो आखें कि जिसकी आरज़ू थी आ गयी वो
सहर
और एक भयानक आस्था तुम्हें बुलाती है
मृत्यू के पास से जीवन की तरफ
या कि रोम के चौराहे पर टाँगे गए हमारे
पूर्वजों की हड्डियाँ
उठो वही मिटटी लपेट के उठो
जिसमें हमारे जिस्म का पसीना
और तुम्हारे अत्याचारों की सड़ांध है
हाँ ये हुक्म देने वाले कौन है पहचानो
जिन्होंने तुम्हारे कुनबे जला डाले
जलाओ अपनी आखों में मशाले ये आग बुझने
न दो
जिन्होंने तुम्हे एशिया से ख़रीद कर
यूरोप की बाज़ारों में बेच दिया
कहो उनसे दो
हाँ आज दो हुकम
हुक्म की तामील के विरुद्ध
आज हम
दो हुक्म दो
हाँ आज दो हुक्म
न जाने कितने फासलों
पर हो तुम
कि तुम्हारी आवाज़ छू नही पाती मुझे
न जाने कहाँ हूँ मैं –
कि सुन लेता हूँ वाजेह तुमको !
दिनभर उदास रहकर
रात को तुम्हारा रोना ऐसे होता है जैसे
सोने से पहले कोई
सफेद -सुबक लिबास पहन ले …!
***
जब सब्ज़ा ओढ़ लेंगे रस्ते…
परिंदे बैठे होंगे
पानी के चहबच्चों को घेरे हुए …
चरागाह में पसरा होगा
सुस्त दूधिया कोहरा …
दूर खेतों से आती होगी
चैती के गीतों की सौंधी-सी सरगम…
भीगे बांज के पत्तों पर
फिसलेंगे -संभलेंगे गाय बकरियों के खुर
टप्प ..टप्प …टक्करर ….टप ..टप …
मेरे बच्चे
मेरे नन्हे चरवाहे
तुझे मैं ले चलूंगी अपने संग चरागाहों
पर
सीखाउंगी तुझे चिरई की कूजें
तोडूंगी तेरे लिए बुरांश
तेरी पोरों पर रखूंगी ओस की बूंदें
और दिखाउंगी तुझे
घाटियों में डूब कर उड़ते पंछी …!!
बस कुछ दिन और कर ले इंतज़ार
कि अभी पहाड़ो पर तपते घाम का पहरा है !
ये रूखे -सूखे दिन हमसे दूर चले जाने
हैं बच्चे
बस ज़रा सा सब्र
मैं तुझे ले जाउंगी अपने संग चरागाहों
पर !!
देर रात-
एक चिराग़ की
मद्धम सी रौशनी तले
दायीं करवट सोयी तेरी दो सुरमई आंखें …
तुमसे कहने आया था
की चलो भाग चलें !!
मगर न जाने क्यों जगा भी ना सका
तुम्हें –
मुझे डर था कहीं नींदों में रखा
कोई ख्व़ाब न टूटे …चुभ न जाए
तुम्हें !
जाते -जाते एक बार जी हुआ
छू ही लूं तुम्हें , मगर मुझे डर था …
…दबे पांव लौट आया मैं-
ट्रेन का जो वक़्त था वो गुज़र गया
जेब में आज भी दो टिकटें हैं संभाली
हुई …!!
वो अब किसी काम का नहीं रहा !!
जीवन के
निर्जन में पसरी
स्मृतियों की दूर्वा पर …
बेकार बैठा …
न जाने क्या खोदता है
क्या रोपता है …!
एकांत के आईने में
अभिलाषाओं का दुखद रूप देख कर !
फूट पड़ता है मन
टूट पड़ती हैं आंखें …!
ठहरो !
उसके कमरे में न जाना तुम –
विषाद भरा रुदन
खरोंच देता है कानों को …
पस पड़ने का खतरा है !!
तभी तो घर में कोई नही देता कान
…उसकी बातों पर !!
मांफ कीजिएगा सर ये एक एसा प्रयोग है जिसकी खुरापाती मेरे दिमाग आ गयी लेकिन एक सचेत खुरापात मैंने संदीप से प्रभु कहा और उसने हुकम दो सरकार कहा तो इससे बाद जो संवाद हुए उनमे इतनी लय थी कहीं से भी भी ये केवल बात नहीं लगती .और मैंने संदीप से कहा कि इसे पोस्ट कर ..पर इस पूरी प्रक्रिया ने मुझे नये तरह से झकझोरा है कि वास्तव में आज के युवा के एक जैसे दबाव है .और हमें आशावान हो जाना चाहिए की निसंदेह हमारा समय आने वाला है .और संदीप तो राजनैतिक रूप से भी बहुत सचेत नहीं है फिर भी ये गजब बात है ..ये बात इतनी लायाताम्क होगी और कविता जैसी .मैंने खुद भी नहीं सोचा था और न ही संदीप ने , पर कैसे मिल सकती है इस संवाद में इतनी लय मैं खुद परेशान हूँ अपने मैसेज बोक्स में इसकी पूरी रचनाप्रक्रिया आपको दिखाऊंगा ,..बांकी संदीप में हम अपने पहाड़ को कलम बनाने की संभावना तो देखते है .साथ ही उसकी कविता में अपना पन.बचा हुआ है ये उसकी बड़ी बात है .बांकी दो कवितायेँ उसकी अपनी है पहले पर एक प्रयोग हुआ है इस धूर्तता के क्षमा …
क्या भाषा है तुम्हारे पास .. क्या कहन है .. खुश हो गया तुम्हें पढ़कर .. बहुत उम्मीदों से स्वागत है लड़के .. आओ छा जाओ ..हाँ हाँ छा जाओ ..
बहुत ही सुन्दर रचनाएँ प्रस्तुत की है आपने …
प्रस्तुति के लिए धन्यवाद …
बहुत अच्छीँ सरल व रवानगी भरी रचनाएँ। शरीष भाई बहुत बहुत अभार
संदीप की कविताओं में एक सहज निर्दोष और मौलिक सी आत्मीयता, प्रेम और वाजिब गुस्सा है। सचमुच पहाड़ का युवा कवि ऐसा ही होना ही चाहिए। और कहने का ये अंदाज एक जमाने से मुझे पसंद है।
संदीप रावत जी की कविताएँ अच्छी लगीं । एक सच्चाई लिये हुए ।
Pahlee aur teesree kavita bahut acchi lagi . Badhai Sandeep jee. Abhaar Shirish jee.
संदीप रावत की सारी सभी कविताएँ मुझे पसंद आयी.इस युवा कवि तक मेरी शुभकामनाएं पहुंचे.जब कोई कवि, जन की भाषा में जन की बात करता है या लिखता है तो ऐसे कवियों का मै तहे दिल से स्वागत करता हूँ.अनिल भाई ने मुझे संदीप के बारे में बताया लेकिन मुलाकात हो नहीं पायी. ये दोनों युवा कवि अपने समय से संवाद करते हुए रच रहे हैं.जिसने अपने समय को नहीं जाना-परखा लिखा…वो काहे का कवि.यार ?
संदीप भाई की अंतिम कविता ' वो अब किसी काम का नहीं रहा'…अच्छी रचना है.अब तो पचास पार या साठ पार यानी बुजुर्गावस्था को आप एक खतरनाक बीमारी कह लीजिए और हम ऐसे विश्वग्राम में जी रहे है कि घर तक में हमारे बुजुर्ग माता-पिता अकेलापन महसूसते हैं.
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खेमकरण 'सोमन'
रूद्रपुर
बहुत बढ़िया सार्थक कदम ..
बहुत बढ़िया कवितायेँ पढने को मिली …
आपका आभार
आप सभी जनों का बहुत आभार ….बहुत हौंसला मिला …