अनुनाद

एक देश और मरे हुए लोग -विमलेश त्रिपाठी की लम्‍बी कविता

युवा कवि विमलेश त्रिपाठी की यह कविता अनुनाद पर लम्‍बी कविताओं के प्रसंगों का एक महत्‍वपूर्ण अंग बनने जा रही है। मैं विमलेश को शुक्रिया कहता हूं कि उन्‍होंने इस मंच को उपयुक्‍त समझा। अनुनाद पर पहले भी उनकी एक लम्‍बी कविता छपी है, जिसे यहां पढ़ा जा सकता है। विमलेश की दूसरी लम्‍बी कविताओं की तरह ही इस कविता में भी कथातत्‍व इसके रचाव में एक बहुत महत्‍वपूर्ण उपकरण की तरह सामने आता है, जिसके सम्‍बोधन पर्याप्‍त कवितामय हैं। कविता की शुरूआती घोषणा ही इस बारे में बहुत कुछ कह देती है। और फिर अंत के क़रीब का कथन –

एक लंबी कविता है यह देश 
और दुखों का एक लंबा आख्यान यह लोकतंत्र 

– यही इस कविता की कथा है….और इस लम्‍बी कथा की कविता भी। पाठकों की प्रतिक्रिया का इंतज़ार है।  

एक देश और मरे हुए लोग 


[1]
एक हकीकत को कथा की तरह
और कथा को हकीकत की तरह
सुनिए भन्ते

एक समय की बात है किसी देश में एक राजा रहता था

जब वह राजा बनकर सिंहासन पर बैठा लोगों ने तालियां बजाई मंत्री-कुनबों ने दी बधाइयां
राजमाता ने राजा के सम्मान में आयोजन किया एक बड़े भोज का खजाने के द्वार खोल दिए गए खूब मुर्ग-मसल्लम खाने-पीने की छिलबिल
लेकिन बहुत जल्दी ही इल्म हो गया राजा को कि उसके चारों ओर मर चुके लोगों की जमात है
मरे हुए मंत्री मरे हुए कुनबोंसंत्रियों के बीच उसे घुटन होती वह चाहता था कहना अपनी बात राजमाता से कई बार
कई बार उसने पद त्याग करने की बात भी सोची
लेकिन जब गया वह कहने अपनी बात तो जो एक बात उसे पता चली वह यह थी
कि राजमाता तो पहले से मर चुकी हैं और पता नहीं कितने समय से ढो रही हैं अपनी लाश

राजा को आश्चर्य होता कि इतने सारे लोग मर कर भी खुश और सहज कैसे हैं

राजा पढ़ा लिखा था सादगी पसंद थोड़ा पुराने खयालों वाला इसलिए अपने देश के लिए
चाहता था कुछ करना कुछ ऐसा जो पहले किसी ने न किया हो और गुलामी के बाद भी
जहां पहुंची नहीं थी रोशनियां वहां तक पहुंचाना चाहता था रोशनी के कतरे
रोटी और दाल कम से कम

लेकिन बहुत जल्दी पता चल गया मंत्री कुनबों को कि दरअसल जो राजा बना है
वह जिंदा है और मरी हुई जनता के बीच पहुंचाना चाहता है रोशनियां
फिर साजिशें शुरू हुईं और लंबी चौड़ी जिरह के बाद बात जो सामने आयी वह यह थी कि राजा को राजत्व और मौत में से किसी एक को चुनना था

राजा बहुत गरीब घर से आया था और राजा बनने के पहले मर चुका था असंख्य बार
इस आशा में कि एक बार राजा बनने के बाद वह फिर से जिंदा हो जाएगा और मिटा देगा
बार-बार मरने के अपने कलंक लेकिन फिर वही मसला था

तो इस बार आखिरी बार वह मरा और चुपचाप हो गया
मरने के बाद शामिल हो गया वह भी मुर्दों की जमात में
फिर उसके शासन काल में मुर्दे लोगों के लिए की गई तरह-तरह की और उन्नत व्यवस्थाएं
सुविधाएं दी गई उन्हें घोटाले हुए बड़े-बड़े
हुए सेकैम और हत्याकांड बलात्कार और ऐसी-ऐसी चीजें
जनता जिसकी अभ्यस्त थी बहुत पहले से
सिर्फ मुट्ठी भर जिंदा लोग पसीजते रहे डर-डर कर बोलते रहे और जिसने भी बहुत अधिक दिखाया उत्साह उसे झट तब्दील कर दिया गया एक मुर्दे में

कहते हैं राजा ने एक विशेष आदेश जारी कर किसी दूसरे देश से मंगवायी थी एक मशीन
वहां के वैज्ञानिकों ने रात दिन मिहनत कर के खास राजा के देश के लिए बनायी थी वह मशीन
जो जिंदा लोगों को तुरंत मुर्दे में बदल सकती थी और तथ्य यह कि इसमें उसके सभी मुर्दे विरोधियों की भी सहमति थी शामिल
ऐसा कहते हैं लोग
उस मशीन के आने के बाद बाकी बचे जिंदा लोगों को भी तेजी से बदला जाने लगा मुर्दे में
उसमें कवि-लेखक,  कलाकार,  समाज सेवी और तरह-तरह के लोग थे जो आसानी से हो सकते थे उनके शिकार
कहते हैं वह ऐसी मशीन थी जो कभी भी किसी भी शक्ल में बदल सकती थी और उसके दिमाग में सदियों की स्मृतियों के सॉफ्टवेयर शामिल थे उसके पास इतिहास की गहरी समझ थी पुराने दर्शन से लेकर उत्तर आधुनिक विमर्शों पर भी दखल था उसका।
उस मशीन के जरिए पीढ़ियों की एक फेहरिश्त को बनाया गया मुर्दा

और समय के साथ राजा के खानदान के कई लोग राजा बने और मशीन ने उनका साथ दिया भरपूर
वे खुश थे कि उनका शासन चलता रहेगा लगातार और कोई भी उनकी सत्ता को दे नहीं पाएगा चुनौती

लेकिन हर देश में हर समय में जिंदा रहती हैं कुछ विलुप्त मान ली गई प्रजातियां वे छुप-छुपकर रहती हैं जिंदा और कुछ के पास तो जन्मतः ही होता है एक कवच-कुण्डल और जिन्हें मार पाना कभी भी नहीं रहा आसान किसी भी तंत्र के लिए

ऐसे लोगों की तलाश में घूमता रहता है तंत्र
मसलन एक कवि था पिछली सदी में जो बच गया था जिंदा अपने मरने के ठीक पहले तक और मरने के कुछ समय बाद वह नए सिरे से हुआ था जिंदा कई लोगों को एक साथ जिंदा करता हुआ
उसके नाम में गणेश और कृष्ण साथ में जुड़े हुए थे वह अपने बोध में सदैव रहा मुक्त हलांकि तंत्र उसकी तलाश में था
होती थीं जासूसियां उसके खिलाफ और वह भटकता रहा एक गुहांधकार में मुर्दों को जिंदा करने के मंत्र खोजता हुआ

तो ऐसे लोग निशाना बनते रहे मारे जाते रहे रास्ते से हटाए जाते रहे रोड़ों की तरह

लेकिन हकीकत और कथा के बीच एक और बात है जो कविता में स्वप्न की तरह हो रही थी घटित
कुछ लोग जो जिंदा थे और लड़ रहे थे और लड़ते-लड़ते बहुत कम रह गए थे
एक खंडहर में मिले एक बार  दो बार  तीन चार और सौ- हजार बार
और वेश बदल कर फैल गए पूरे देश में शब्दों के जादू मंतर लेकर  जिंदा करने मरे हुए लोगों को
बनने लगे गुप्त संगठन मरे लोगों को पता चलने लगा कि दरअसल मर चुके हैं वे और उन्हें जिंदा होना है

और संक्षेप में कहा जाय तो एक सुबह राजा के किले पर हुआ हमला
जिंदा लोगों के सामने देर तक नहीं टिक पाए मुर्दे और उनकी मरी हुई सेना
कहते तो यह भी हैं कि सैनिक सारे जिंदा होकर शामिल हो गए सत्‍ता के खिलाफ
ढह गया किला
समय के चेहरे पर जीत की एक कथा लिखी कुछ लोगों ने मिलकर
इतिहास में और इतिहास के बाहर साथ-साथ एक साथ

हालांकि कथा तो यहीं खत्म हो जानी चाहिए

लेकिन कविता और कविता के बाहर
मैं सोचता हूं कि आखिर वह मशीन कहां गई जो जिंदा लोगों को मुर्दे में तब्दील कर देती थी
मैं बहुत समय से खोज रहा हूं वह मशीन वह रोज मेरे सपने में आती है और झंकझोर कर चली जाती है
उस खतरनाक मशीन का पता लगाना
और नष्ट करना जरूरी है
क्या आप आएंगे मेरे साथ…..??


[2]
एक मरा हुआ आदमी घर में
एक सड़क पर
एक बेतहासा भागता किसी चीज की तलाश में

एक मरा हुआ लालकिले से घोषणा करता
कि हम आजाद हैं
कुछ मरे हुए लोग तालियां पिटते
कुछ साथ मिलकर मनाते जश्न

हद तो तब
जब एक मरा हुआ संसद में पहुंचा
और एक दूसरे मरे हुए पर एक ने जूते से किया हमला

एक मरे हुए आदमी ने कई मरे हुए लोगों पर
एक कविता लिखी
और एक मरे हुए ने उसे पुरस्कार दिया

एक देश है जहां मरे हुए लोगों की मरे हुए लोगों पर हुकूमत
जहां हर रोज होती हजार से कई गुना अधिक मौतें

अरे कोई मुझे उस देश से निकालो
कोई तो मुझे मरने से बचा लो ।


[
3]

एक आदमी चित्र बनाता है
एक कविता लिखता
एक लिखता है लंबे-लंबे लेख
कुछ लोग जिंदा होते अचानक
और उठकर खड़े हो जाते हैं
देश के संसद भवन के सामने

मरे हुए लोगों की कड़ी नजर है उनपर
सबसे ज्यादा डर इन जिंदा लोगों से
कुछ भी कर के वे
उन्हें भी शामिल करना चाहते अपनी जमात में


एक आदमी पैदा होता है जिंदा
और धीरे-धीरे एक मुर्दे में तब्दील हो जाता
वह जीत रहा चुनाव
हथिया रहा बड़े-बड़े ओहदे
वह खुद को साबित करना चाहता जिंदा
कि उसके कंधे पर एक देश का भार

एक पहले से मरा हुआ
गाता देश भक्ति के गीत
एक सदियों का मरा आदमी
ईश्वर और मुक्ति के उपाय पर
करता प्रवचन
मरे हुए लोग मुक्ति के लिए
लगाते भीड़ उसके आस-पास
मरे हुए लोगों का बढ़ रहा कारोबार

एक देश जहां मुर्दे लोग सबसे अधिक ताकतवर
जिंदा लोगों को भेजा जा रहा जेल
चढ़ाया जा रहा सूली पर
उन्हें मारने के लिए की जा रहीं
तरह-तरह की साजिशें

अपने ही देश में सच बोलना मना
सच सोचना मना
सच को सच की तरह लिखना मना
छुप-छुप कर डर डर कर जीना
मना मना मना जिंदा रहना

मैं खुद को बचाता-छुपता चला आया हूं
कविता की दुनिया में
यहां भी दखल बढ़ रहा मरे हुए लोगों का
मेरे उपर लागातार मरने का दबाव

मुझे अपने जिंदा होने पर
नहीं हो रहा यकीन कई बार

मैं लागातार शब्दों से टकरा रहा
जानता हूं
जब सब कुछ खत्म हो रहा धीरे-धीरे
तो क्या अब शब्द ही बचा सकते हैं मुझे
मर जाने से

उम्मीद-सा कुछ
बस इतना-सा यकीन ।

[4]

कभी हिन्दी का एक कवि कहता रहा कि न सोचने और न बोलने से मर जाता है आदमी

मरा हुआ आदमी सोच रहा है बोल रहा है बोल- कुबोल एक मरे हुए की सोच में सारे जिंदा लोग मरे हुए
यह देश मरा हुआ
मरे आदमी के पास तरह-तरह के हथियार
तरीके असंख्य
वे गिन रहे हैं उंगलियों पर जिंदा लोगों की लाशें
और हंस रहे हैं घटती जा रही रोज-ब-रोज जिंदा लोगों की संख्या पर

मैं चुपचाप देख रहा हूं
विसुर रहा अपनी वेवशी पर

मुझे निकलना है अपने ही अंदर की सुंरगों से बाहर लड़ना है एक युद्ध अपने ही लोगों के खिलाफ
कविता के भीतर
और कविता के बाहर

एक समय मर रहा है
और मैं चुप-चाप देखता
खुद के जख्मों से लहूलुहान
तब्दील होता जा रहा हूं आदमी से एक डमी में —

{
मर गया देश
और जीवित रह गए तुम
यह कैसे हुआ
यह क्योंकर हुआ
ऐसा कभी हुआ है कि देश मर गया और जिंदा बच गया कोई}

देश और देश और देश के बीच
मरे हुए और मरे हुए लोगों के बीच
बचे हुए कुछ जिंदा शब्द
हंस रहे पूरे आत्मविश्वास के साथ

बन रही है कहीं कोई एक कविता ।



 [5]

आया वह अचानक सृजन की तरह
कविता में आए कोई ठेठ गंवई शब्द जैसे
असंख्य वायदे के साथ
प्यार किया
बड़ी-बड़ी बातें कीं
मरे हुए लोगों के बीच एक जिंदा आदमी की तरह
रहा बहुत दिन जिंदा
एक दम जिंदा

लेकिन समय के जटिल रेशे में उलझा
एक दिन बेबश वह
रोने-रोने को
कहा उसने कि मेरे चेहरे के मुखौटे को नोचो
मैं चुप – हतप्रभ
कुछ देर के सन्नाटे के बाद
मैंने नोच दिया
सुंदर और मासूम उसका वह चेहरा
और हैरान

उपर सिर्फ मुखौटा था
और नीचे एक कंकाल
असह्य गंध
झूठ फरेब मक्कारी इत्यादि
जो जीवन और कविता दोनों के लिए गैर जरूरी

वह पता नहीं कितने समय से
मरा हुआ एक विभत्स कंकाल
एक जिंदा मुखौटा लगाकर घुमता
लोगों को प्रेम की कविताएं सुनाता

एक देश
जहां मरे हुए लोगों के पास असंख्य मुखौटे
अपनी चमक से विस्मित करते
लुभाते
लैश गहरे आकर्षण से

मैं कविता में जिंदालिखता
और वह लिखा मरे हुए शब्द में तब्दील हो जाता

सुनिए सुनिए
अजी सुनिए बहुत तकलीफ है कहने में
फिर भी सुनिए

आप मेरे चेहरे का मुखौटा नोचिए
तफ्तीश कीजिए
क्या मेरे मासूम चेहरे के पीछे छुपा है कोई कंकाल

मेरी कविता ने जवाब देना
छोड़ दिया है ।

[6]

नशे में वह खूब गालियां बकता
रखता अपने उजले आदर्शों को बार-बार मेरे समीप
जैसे एक बच्चा
उछाह से दिखाता खिलौने छुपाए हुए

उसे समय पर बहुत क्रोध
चाहता वह कि बन जाए सब कुछ अच्छा
पर नहीं दिखता जब कुछ भी अच्छा-बातरतीब
तो आंखों में सियाह बादल तैरते

और वह चला जाता समय की अंधेरी सुरंगो में
दौड़ता बदहवास
इतिहास की नंगी-अंतहीन सड़कों पर
कर आता बहस
हवा पानी या तारे में तब्दील हो गए अपने पुरखों से

पेड़ों से पूछता कबीर और बुद्ध का पता
चिडियां से पूछता
उड़ने का राज

नदी में रक्त
और समंदरों में आंसूओं का खारा पानी
देखकर सन्न हो जाता
चाहता छू लेना उस हवा को
कि जिसमें पिछली सदी के मुर्दों के इमानदार नारे
गूंजते बहुत धीमी आवाज में

और कुछ खन बाद वह लौटता जब मेरे समीप
रो पड़ता फफककर
मुंह ढांपकर हिचकी लेता

बहुत देर बाद चुप होता
सबकुछ शांत
बीच में पुराना पंखा घूमता – खड़खड़ाता
यह रोज का किस्सा अब
कि इसके बाद बुदबुदाता
कविता जैसा कुछ
कविता ही

और हर रोज मरता
मेरे अंदर कुछ….
हर रोज जिंदा होता
मेरे अंदर कुछ….।।

 [7]

एक ने बनाया इतिहास को मरोड़कर
एक ढोलक
जिसे डम-डम बजाता फिरता
लोग उसकी अदा पर हो रहे थे मोहित
जुट रही थी भीड़ उसके चारों ओर

यह ढोल नगाड़ों का समय था
खाप पंचायतों का समय था
राजनीति का समय था
मक्कारी और बेशर्मी का समय था
इस समय सबसे अधिक होड़
सबसे कम आदमी रह जाने के लिए थी

एक मरा हुआ आदमी
कविता को पान की तरह चबाकर थूकता था
एक शराब की बोतल के साथ
पूरी पीढ़ी की कविता को
गटागट पी जाना चाहता था

मुझे कवि नहीं बनना था
कवि नहीं कहलाना था
लेकिन शब्द मेरे पास आकर जमा हो रहे थे
ढल रहे थे कविता में

मैं इंतजार में था
कि शब्द किस तरह बारूद और बंदूकों में ढलेंगे
शब्द भागते हुए आते थे
कुछ छटपटाकर मर जाते
जो बच जाते
चुप-चाप कविता में शरण ले लेते थे

शब्द हथियार में कभी नहीं बदले

मैं चाहता था
उन्हें हथियारों में बदलना
लेकिन हर बार
हथियार में बदलने के पहले ही
हो जाती थी शब्दों की हत्या
कविता का बलात्कार

मैं चुप-चाप देखता रह जाता था मायूश

गूंजता था अट्टहास
होते थे चुनाव
जितती थीं पार्टियां
होते थे जश्न
देश की जनता मर रही थी हर रोज
भय से
दुख से
मक्कारी से
अब और कोई रास्ता नहीं बचा था

एक ऐसा समय था वह
जब मंच पर एक आदमी भाषण देता
और रात में एक लड़की के साथ रात बिताता
इस तरह से हो रहे थे शोध उस देश में
बांटी जा रही थीं डिग्रियां
बांटे जा रहे थे पद
बांटी जा रही थी कुर्सियां

मरे हुए लोगों की कतारें थी लंबी
जेब में पैसे
और अंतर की गुहाओं में मक्कारी

एक देश जहां हर दूसरा आदमी
मरने के लिए सज संवर कर बैठा रहता था
हर मौत पर मनायी जाती थीं खुशियां
भर सकती थीं जेबें
मिल सकती थी नौकरियां
मिल सकती थी प्रेमिकाएं

मरने पर ही मिल सकती थी
जिसे उस समय में
मुक्ति कहते-समझते थे लोग

लेकिन उसी देश में मैं लिखता था कविताएं
और आप तो जानते हैं
कि कविता लिखने वाले को
उस देश के लोग किस निगाह से देखते हैं

मरे हुए लोगों के बीच
मेरी कविताएं कब तक रहेंगी जिंदा
मेरे लिए सबसे बड़ी चिंता की बात
यही थी

लेकिन अंधेरे और मरे हुए समय में
अपने से ज्यादा यकीन
खुद से भी ज्यादा भरोसा
मुझे सिर्फ और सिर्फ
कविताओं पर ही था…

मैं मरना चाहता था एक साधारण मौत
जो प्रकृति ने मुकर्रर की थी मेरे लिए
मरने से पहले मरना
कुबुल नहीं था
क्या इसलिए मैं लिखता रहा कविताएं!

देखता समय की रेत पर
सबको फिसलते और मरते हुए
अपने जिंदा होने पर
भयभीत
उन्मादित
कातर
और….. करता अफसोस…

[8]

मुहल्ले में एक जिंदा आदमी था
गाता था आबल-ताबल गीत
वह आया था पूरब के देश कहीं से
उसके गाने को लोग आबल-ताबल ही कहते —

मरहिं के बेरिया इतना बतायो जा घर से जीव आया हो…
हो..हो…हो…..
मरि गयो लोग देस मह सारे
मुर्दे राज करतु हैं संतो जागो …
संतो जागो……..

एक फटा हुआ खादी का झोला
एक कंथरी पहने
गाता रहता था रात दिन
जागो-जागो जागते रहो जिंदा करता सबको
कि जैसे मुर्दगी सन्नाटे में
नगाड़े की तरह बजते थे उसके शब्द


पूरे मुहल्ले में वही था एक जिंदा
जो तंत्र की साजिशों का करता था परदाफाश
रात भर लैंपपोस्ट की नीम रोशनी में
लिखता था गीत
सुबह गाता घूमता था इस पाड़ा उस पाड़ा
इस मुहल्ला उस मुहल्ला

मरे हुए लोग उसे पागल कहते
बच्चे जो मरे हुओं की संगत में
बदलते जा रहे थे मुर्दे में
पथ्थर फेंकते उसकी कुचैली देह पर
चिकट कहते
उस विराट आदमी के पीछे भागते
हल्ला मचाते

वह अंधेरे घर की दीवारों पर लिखता था
हिन्दुस्तान
इसके बाद आजादी
इसके बाद 1947
और इसके बाद 2012
एक चित्र बनाता था
जिस चित्र में एक आदमी के सहस्त्र सिर होते
और उसके चारों ओर रोते बिलखते
असंख्य आदमी

कहते हैं
वह इतिहास से बचकर
चला आया एक आदमी था
जो वर्तमान में गाता घूम रहा था
और भविष्य की ओर देखते हुए
जार-जार रोता था

हर बार जब मिलता था
उसकी आंखों में जो होता था
उसके अर्थ किसी शब्दकोष में
मुझे नहीं मिला था आज तक
हालांकि इसके लिए बहुत कोशिशें की थीं मैंने

पता नहीं क्यों जब नहीं दिखा
वह बहुत दिनों तक एक समय

बहुत दिनों बाद जब उससे मिला मैं
वह डरा हुआ था
डरा हुआ और हैरान परेशान कि उसकी सासें अब जवाब दे रही थीं

उसकी कथरी में असंख्य गीत थे
उसके दिमाग में कहीं और ज्यादा
इतने कि उससे एक देश बनाया जा सके
उसके गीत घर तो न बना सके
लेकिन देश बना सकते थे

उसकी चिंता को समझ रहा था मैं
वे गीत अब उसके साथ चले जाएंगे
कैसे बचेंगे वे गीत
जो जरूरी बेहद समय के लिए
उसकी चिंता में शामिल हो रही थीं मेरी चिंताएं

मैं आपसे पूछता हूं पाठकों
वह गीत जो चले जाएंगे उसकी अर्थी को कांधा देते
गुम हो जाएंगे वर्तमान के किसी खोह में
अतीत की अंधेरी सुरंगों में लौट जाएंगे
उन्हें कैसे बचाया जाए

मैं सोचता हुआ वापिस लौट आता हूं
अपने तीसरी मंजिल के फ्लैट में
रोशनी से दूर
बल्ब की धुंधली छाया में

अपनी डायरी में लिखता हूं
एक प्रश्न
और रक्त बीज की तरह
वे हजार-लाखों प्रश्नों में बदल जाते हैं
मुझे घेरते
नोंचते
मेरी देह और आत्मा को लहूहुहान करते

सुबह तक चलती हैं जोर-जोर सांसे
बुझते दिए की रोशनी
बुझती लागातार धीमे-चुप

तड़के भागता मैं पहुंचता हूं
अंधेरे तहखाने में
कोई नहीं वहां सिर्फ न होने की गंध के अलावे

दौड़ता हूं लोक-लोक ग्रह-ग्रह
नक्षत्रों तक पहुंचते हैं मेरे कदम
भागता रहा हूं सदियों
उस बूढ़े की तलाश में
जिसे पागल कहता था पूरा मुहल्ला

क्या आपको मालूम है
कि वह समय का सबसे बूढ़ा आदमी
कहां रहता है अब?

कि कहां मिलेगा?

[9]

आइने के सामने खड़ा हूं
खुद से सवाल पूछता
जाना चाहता हूं लौटकर वहीं
जहां मेरे पुरखों की देह की राख
मिली है मिट्टी में

खो रहा है गांव
बंसवारी उजड़ रही है
रह गए हैं केवल बूढ़े बेरोजगार अलबटाह लोग
महिलाएं सिसकती
बच्चे धूल में खेलते मटिआए

उन बच्चों को क्या चाहिए
एक आदमी जोर-जोर से चिल्लकार पूछता है
उसके चेहरे पर राजाओं की-सी चमक
और भाल पर
बल गर्व की कांति

क्या चाहिए इन बच्चों को
मोबाईल
लैपटॉप
पॉर्न किताबें
कम्प्युटर
या हवा और पानी
और रोटी
जो अब तक नहीं पहुंच पाई है साबुत
और हमें गर्व है कि हमने पिछले साल ही
आजादी का छठां दशक मनाया है

एक आदमी पता नहीं कब से रो रहा है
उस फूटपाथ पर खड़ा
मुर्दों की भीड़ उसे चिरती हुई
निकल रही है
अपनी-अपनी कब्रों में जल्दी पहुंचने को
उसका बेटा अमेरिका चला गया है
और अब कभी न लौटने
की खबर आयी है अभी कुछ देर
पहले ही

एक आदमी खूब ठोक बजाकर
करता है अपने शिष्यों का चुनाव
देता है चालच नौकरी का
परीक्षाएं पास कराने का
वह चाहता है कि उसके शिष्य
उसका गुणगान करें
साबित करें
उसे समय का सबसे बड़ा कवि-आलोचक-कथाकार
वह एक मंडली तैयार करता है
जहां लोग उसको अच्छी लगने वाली बात
कहते और सुनते हैं
जिसपर भी उसे शक होता है
कि वह सच बोल देगा
उसके चेहरे का नकाब नोंच कर फेंक देगा
उसे निकाल बाहर करता है
अपनी मंडली से

वह इस नयी सदी में
खुद को साबित करना चाहता है भारतेंदु हरिश्चंद्र
उसकी आंखें
अमरता की तलाश में बेचैन दिखती हैं
लेकिन मंच पर
वह बन जाता है सबसे भोला-भाला
उजबक सलोना
जैसे अनाथ कोई नाथ

अकेले में होता खूंखार
लड़कियों के सामने शिष्ट
लेकिन रात के अंधेरे में
करता है उन्हीं लड़कियों का शिकार
बन जाता खूंखार कामुक

उसे अमर होना है
इतिहास में नाम दर्ज कराना है
हे नाथ क्षमा करना
वही करता है भ्रष्ट सब काम
उसके चेहरे पर कई चेहरों की पर्तें
जिनका जरूरत के मुताबिक
करता इस्तेमाल
यह देश उसे ही मानता है आजकल
सभ्य नागरिक
शिष्टजन
अध्यापक
वैज्ञानिक
राजनीतिज्ञ
समाजशास्त्री
भाषाविद
इत्यादि…..

मैं गुमनाम कवि एक ऐतिहासिक शहर का
खोजता हूं इतिहास में
उन तीन गांवों का नक्शा
जिसे मिलाकर बना था यह शहर
वह जमीन कहां है
जहां उगा था पहली बार इसका नाम

लोग जल्दी में हैं
सबको दर्ज करना है अपना-अपना इतिहास
मैं संकोची
एक जमाने पहले खेत बधार छोड़कर आया
लौटना चाहता हूं
उस समय में
जब सच कहना रिवाज था
झूठ की आंखों में घोंप दी जाती थीं सूईयां

चलिए माट साहेब
आप तो अमर हो गए
मेला ठेला सिंपोजियम सेमिनार कर के
हम लौटते हैं
अपने पुराने समय में
अपने सच के साथ

वह कौन इतिहास था
जो क्षमा नहीं करता था भीष्म को भी
अब तो नहीं रहा ऐतबार इतिहास पर भी
और कविता
कविता को क्या कहूं…

आप भी कहिए न…..।

[10]
एक कवि तलाश रहा जिंदा शब्द
जिंदा और साबुत
आदमी के अंदर लागातार धड़कते दिल की तरह
एक जिंदा शब्द
वह लिख रहा कविताएं
रंग रहा पोथियां
गा रहा गीत
बज रही तालियां

लेकिन शब्द वह जिसकी तलाश उसे
वह बहिष्कृत
निष्कासित सदियों हुए एक जंगल में
बन गया आदिवासी
मर रहा – वह
जिंदा हो रहा – वह
पेड़ों की तरह कट रहा
जल रहा खेत में पकी फसलों की तरह
सदियों – सदियों हुए

कोई इतिहास नहीं उसका
कोई भूगोल नहीं
राजनीति और समाजशास्त्र की बात भूल जाइए
नहीं उसका कोई अर्थशास्त्र भी

उसे खोजने के लिए घुसना होगा
अतीत की गहरी अंधेरी और संकरी गलियों में
यह बीड़ा कौन उठाएगा
किसे है अधिक परवाह उस शब्द की
कविता से ज्यादा
रंग से ज्यादा
पोथियो-तालियों से ज्यादा

देखो, गोलियां चलने लगी हैं
चैनलों पर लाशें दिखने लगी हैं
बहस करने लगा है वह लड़का
जिसे देश से ज्यादा अपनी नौकरी की चिंता

मरे हुए लोगों की जुटने लगी है भीड़
भाषण होने लगे हैं
टिप्पणियां रिकॉर्ड हो रही हैं
फुटेज कवर हो रहे हैं

उफ्फ…उफ्फ…उफ्फ… हाय….हाय…हाय….
कत्ल
दंगे
घोटाले
पार्टियां – उनके झण्डे
चुनाव – करोड़ों रूपए
वह कवि खड़ा है छतरी ओढ़े कतार में
उसके वोट का नंबर नहीं आया
उसके झोले में रखे सारे शब्द मर चुके
वह खड़ा है
वह जिंदा दिखता है
हालांकि वह मर चुका है पंद्रह-बीस साल पहले ही

1857 की क्रान्ति को एक शोकेस में सजाकर
धूप और अगरबत्ती दिखा रहे हैं कुछ लोग
बिरसा मुण्डा बिरसा मुण्डा
चिल्ला रहा है एक आदिवासी
एक लड़की लक्ष्मी बाई की तस्वीर
और झण्डा लेकर खड़ी है
पुरूषों की सदियों पुरानी परंपराओं के खिलाफ

मंच पर पता नहीं कितने समय से
चल रहा है यह दृश्य
यह नाटक रूकने का नाम ही नहीं लेता
जब कि इस देश को आजाद हुए
हो गया पैंसठ साल से ज्यादा





[11]



सोच रहा हूं मैं एक गुमनाम कवि


कहां गए वे निःश्वास जिनसे जन्म के समय का परिचय
दीवारों पर नाखूनों से खुरचकर बनाई गई वे परियां
नींद की एक पवित्र दुनिया में चलना जिनके साथ
और अतीत के पार से आतीं पूर्वजों की आदिम पुकार
जिनकी महत्ता इतनी कि मेरे मनुष्य के लिए उनका पीछा करना जरूरी

कितने तो शरीर जिनसे पुतलों की शक्ल में मिला
जैसे इतनी दूरियों ने मेरे शरीर से आत्मा जैसी किसी चीज का हत्या कर दी हो
कहां उन मंत्रों की परंपरा जिन्हें हमारे पूर्वजों ने ही अपने खून से गढ़े
और जिनके साथ की पोटली में
मुर्दा तक को जिंदा कर देने की जादुई क्षमताएं

एक घर है जिसमें मरा मैं हजार मरण
मेरी हत्या किसी तलवार चाकू या बंदूक से नहीं हुई
मेरी हत्या की उन किताबों ने जिसे इस देश के करोणों लोग पवित्र मानते रहे
इन पवित्र मंत्रों की आड़ में हुईं जितना हत्याएं
नहीं हुई किसा विदेशी आक्रमण में
जालियांवाला बाग में मरने वाले निर्दोषों की संख्या
नगण्य है इन मीठी हत्याओं के आगे

एक घर एक देश का करोणों घर है जो मेरी कलम की नोक पर आ बैठता है
और मुझे अपनी कविताओं पर आती है शर्म
कि मेरा एक भी शब्द उतना ताकतवर नहीं
कि एक किसान की आत्महत्या के पहले
अनाज में बदल जाए…।।


[12]


कविता से हीन इस समय में
शब्दों से हीन इस समय में
मूल्यों से हीन इस समय में
क्या कविता और दुख के साथ ही
रहना है हमें

एक लंबी कविता है यह देश
और दुखों का एक लंबा आख्यान यह लोकतंत्र

दवाइयां सब बेअसर
कविताएं सब बेमानी

फिर भी एक गुमनाम कवि मैं

अंततः
एक चौराहे पर खड़ा होकर
जोर-जोर से चिल्लाना चाहता हूं
देश
देश और लोकतंत्र
कि कविता कविता
और कविता… ।
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0 thoughts on “एक देश और मरे हुए लोग -विमलेश त्रिपाठी की लम्‍बी कविता”

  1. विमलेश त्रिपाठी जी उन विरला कवियों में से है जो अपने दुःख का संपादन नहीं करते ! क्यूंकि उनका दुःख उनका नहीं अपितु ये हमारी घुटती कुढती मरती आत्मा का संताप है जिसे वो अपने शब्दों का रूपक देते है और अपने संताप की वेशभूषा देते है !
    उनके भीतर का कवि एक पूर्णकालिक भावुक हृदयी है ! जिसे अपने आसपास की पीडाएं सालती रहती हैं !
    मै उनकी कविता के किसी पड़ाव पर खुद को उनकी कविताओं में मौजूद पाता हूँ ! मेरा होना उस आम आदमी का आत्म-बोध है जिसे वो अपने तेवर के साथ भरपूर रचते है ! यदि कविता में कोई क्रांति होती है तो उनकी कवितायें बदलाव की झन्डाबरदार है ! जिनमे एक तहजीब भरी अदबी नाफ़रमानी है !
    यदि इधर के काव्य समय में कहीं कविता की क्लासिकता बची हुई है तो वो विमलेश जी की कवितायें हैं ! मै उन्हें कुमार अम्बुज के समानांतर का कवि मानता हूँ ! ऐसा कहता हुए मै उनकी विशिष्टताएँ कमतर नहीं करना चाहता !
    पर ये सत्य है वो कवि होने के लिए अपनी कविताएँ नहीं रचते…! एक देश और उसके मरे हुए लोग उसी भाव की अभिव्यंजना है !
    और यह कविता अपनी व्याख्या खुद बी खुद कर रही है !

  2. yah kavita wah kavita h jo kvita k kad ko unchi krti h wo v us zamane me jb kavita ka kad chhota hota ja rha h
    is kavita me lekhak murdo ko zinda krne ka jo mantra tlas rha h wahi loktantra ki samvawnao ko bcha skta h
    aur bcha skta h wh bht kuch jo fir se murdo ko insan ban dene k liye jaruri h
    yah kvita sadi ki gini chuni badi kavitao me se ek h.yah kivita is mare hue yug k ek zinda bde kvi ka halfnama nhi blki uske dwara diya hua wah mantra h jiska jap krke murde insan me fir se dapdil ho skte h
    ap ki kvita ki unchai apki unchai btati h.wah nirala, sarveshwr, liladhar, vinod kr shukl ki unchai h, apni puri bisistta k sath
    vimlesh bhai is sadi ke ek bade kavi h. iska sabut h yah kvita.

  3. बहुत लंबी कविता के लिए बधाई पढ़ने के लिए धैर्य की ज़रूरत है वह भी ज़िंदा
    बड़ी कविताएँ लिख कर आपने वह धैर्य पा लिया है मुझे वसुधा वाली लंबी कविता बहुत अच्छी लगी थी उसके मुक़ाबले यह थोड़ा कम है हो सकता है दोबारा पढ़ने से और बातेँ निकले बधाई
    संजीव बख्‍शी

  4. प्रिय विमलेश जी, कविता की यह ऊर्जा अक्षुण्ण रहे। ऐसे ही कविता की लंबी साधना करते रहें। बधाई। बधाई, शिरीष जी आपको भी। इसी तरह अच्छी कविता और अच्छी कविता की संभावनाओं के साथ रहें।

  5. अपनी समकालीन विचारधारा को गहनता से पाठकों के साथ संवाद कराती यह अद्भुत रचना है। इसमें वर्तमान है, इसमें इतिहास है, इसमें राजनीति है पर सबसे बढ़कर इसमें गजब की नाटकीयता है। नुक्कड़ नाटक के रूप में निकल पड़े तो वंदेमातरम गीत की तरह एक जनसंवाद बन जाए। नाटककारों को इस कविता की ओर इस दृष्टि से भी देखना चाहिये।

  6. विमलेश की लम्बी कविताओं में अंत तक ऊर्जा अपनी टेक के साथ बनी रहती है और यह कविता तो इक्कीसवीं सदी का रिपोर्ट कार्ड ही लग रही है। शुक्रिया शिरीष जी

  7. विमलेश भाई, की यह कविता हमारे समय का राजनितिक ही नहीं अपितु सांस्कृतिक आख्यान भी है. इसे पढ़ते हुए एक कोलाज सा उभर आता है हमारे समय का. यह कोलाज उस समय का है जिसका सपना तो हमारे कर्णधारों ने कत्तई नहीं सोचा था. विमलेश जी ने इस लम्बी कविता को जिस तरह से साधा है वह प्रशंसनीय है. कविता को पढ़ते हुए कहीं उबन नहीं होती. अक्सर लगता है जैसे अपने यानी एक आम आदमी पर लिखे गए आख्यान को ही पढता जा रहा हूँ बदस्तूर. बधाई विमलेश जी को और आभार शिरीष भाई का.

  8. aapki kavita behad asardar hai vimlesh ji.aap apane samaya se sakchar kar pa rahen hain yeh khushi kee baat hai. badhaee!

    shailendra

  9. अद्भुत !!

    आपकी लेखनी ने हमेशा प्रेरित किया है श्रीमान!

    इस बार तो श्रधा उपज आई!

    Amit Anand

  10. मनीषा त्रिपाठी

    कविता का कलेवर इसे बड़ी कविता बनाता है। कवि की बेचैनी और छटपटाहट कविता के हर अंश में मौजूद है। लंबी कविताओं में जिस तनाव का निर्हाह होना चाहिए वह भी है। पहले पाठ में कविता मोहित करती है। कविता में कवि की इमानदारी भी झलक रही है। मेरी बहुत बधाई….

  11. बेचैन कर देने वाले समय में इस सार्थक हस्तक्षेप करने वाली कविता के लिए आपको बधाई | इसे पढ़ते हुए मुझे आपकी लम्बी कहानी 'संकल्प-कथा' की याद ताजा हो आयी |

  12. vyavstha se upaje krodh nairashy ko shabd deti sarthak kavitayen ..aapki kavitao me aam aadami ki pareshaniyon unki mansik baicheni ki shashakt abhivyakti hoti hai …bahut bahut badhai aapke sundar aur sarthak lekhan ke liye ..

  13. समसामयिक विसंगति ओरचुनौतियों को सहेजती लंबी कविता वर्तमान परिप्रेक्ष्य मे नए मानदंड स्थापित करती है। लोकतंत्र एकअसाध्य बीमारी है। इसने जिस देश मे प्रवेश किया वहाँ के लोग ही मृतप्राय हो गए क्योंकि सत्ता की गद्दी तक पहुँचने के लिए जिस मार्ग का चयन करना होता है उस मार्ग मे व्यक्ति को खुद को मिटाना होता है ओर फिर वो शासन भी तो मरे हुए लोगों पर ही करता हैजिसका खुद का कोई वजूद नहीं होता। इस तरह मरे हुए लोगों पर मरे हुए लोगों का शासन। सबसे बड़ी बात ये भी कि आज की राजनीति के लिए पुराने उदाहरण ही सँजोने पड़ते हैं। भाषा,शिल्प ओर प्रवाह मे नवीन शैली का प्रयोग कविता के हर भाग को संप्रेषणीय बनाती है। बधाई

  14. विमलेश भाई ! आपकी यह लम्बी कविता पढ़ने के बाद लगा कि बहुसंख्य लोग भले मुर्दा हो गए हों मगर जिन्दा है अभी मेरा देश पूरी जवानी के साथ। सबूत है उसकी जिन्दा जवानी का वक्त के इस कठिन दौर में आप जैसे कवियों का उसकी कोख से पैदा होना …।

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