अनुनाद

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अनुभव की प्रयोगशाला में आवाजाही का कवि : पवन करण -महेश कटारे

फेसबुक पर आज संयोगवश अग्रज कवि पवन करण की दीवाल पर प्रख्‍यात कथाकार महेश कटारे का यह चकित कर देने वाला समीक्षा लेख मिला। कटारे जी ने किस तल्‍लीनता और प्रवाह के साथ पवन करण की कविता पर लिखा, यह अनुभव करने वाली चीज़ है। इसे यहां साझा करते हुए बहुत प्रसन्‍नता हो रही है। 
***
सो उनके कहने की कड़ी पूछ परख लाजिमी है।


कुछ दूर से ही सही, मैं पवन करण की रचना यात्रा का साक्षी रहा हूँ। निम्न मध्यवर्गीय परिवार और सचमुच ही पिछड़ी जाति में जन्मे इस कवि को न वंश परंपरा के साहित्य संस्कार मिले, न वह गुरू परंपरा ही नसीब हुर्इ जिसका उल्लेख हो सके । इसलिए यही कहा जा सकता है कि उन्होंने कविता का पाठ जीवन की पाठशाला से सीखा। 

अपने पहले काव्य संग्रह इस तरह मैंसे ही इन्हें एक संभावनाशील कवि के तौर पर पहचाना जाने लगा था क्योंकि वहाँ कुम्हार के आँवा से निकले घड़े की तरह आँच सोखकर, भीतर तलहटी में स्मृतियों की राख चिपकाए, अनपढ़ मुँह के बाहर आती बोली के झिझकते शब्दों में, अभाव का उत्सव खेलते जीवन के दृश्य का दिखार्इ दिये थे। उन दृश्यों में कुछ कविताओं के सहारे झाकते हुए पवन करण के रचना संसार को टोहना शायद अधिक उपयुक्त होगा। जैसे एक कविता है सांझी सांझी कच्चे घरों की दीवार पर गोबर से बनार्इ जाती है और गाँव की लड़कियाँ इसे कुंआर के महीने में चढती शरदऋतु के बीच खेलती हैं। साझीलोक जीवन के सृजन उल्लास की कलात्मक अभिव्यकित ही नहीं, सामूहिक साझेदारी का प्रशिक्षण भी है। उसका एक अंश है – 

देखें कि इन्होंने जो गोबर से। साँझी की आँखें बनार्इ हैं।
उन आँखों में कितने सपने भरे हैं।
कितने गुलाबी हैं। गोबर से बनी साँझी के होंठ।
गोबर से बनी बिंदिया कैसी चमक रही है । 
कितनी खुशबूदार है। गोबर के फूलों की माला ।
कितना लकदक है गोबर का पेड़ ।
गोबर की चिडि़या भर रही है उडान कितनी ऊँची ।
कि कितने मीठे हैं। साँझी की देह पर जड़े 
मिटटी के बताशे।

लगता है जैसे लडकियों के हाथों में प्रकृति की प्राणवत्ता आ बैठी हो – रूप, रस, गंध, स्पर्श के सपनों को आकार देने। इसी क्रम में कुछ और कविताओं के अंश है जो कवि के प्रस्थान और अस्थान के अनुमान में सहायक है। चूल्हा कविता से पंक्तियां है- 

इसकी आग में मैं अपना इतिहास बाचता हू ।
लोग इसे सिर्फ चूल्हा समझते हैं । 
मेरी नजरों में इसकी तौल पुरखे के बराबर है।
इसकी राख में मुझे अपनी भूख दबी मिलती है।

इस तरह मैं एक प्रकार से वह पालना है जिसमें कवि पवन करण के पाँव दिख जाते हैं। गोकि अब पाँवों का उतना महत्व नहीं रहा। तकनालोजी ओर मैनेजमेन्ट के प्रशिक्षण ने पाँव तो क्या, बहुत जगहों पर आदमी को ही हाशिये पर सरका दिया है। पर मैं एक कविता की कुछ पंकितयाँ भी रखना चाहता हूँ – 

उस अकेली वीरान औरत के पास जिसे हम बूढ़ी माँ कहकर बुलाते हैं । 
एक एलबम है। (जिसे) रखती है वह संदूक में सँभाल कर।
मगर जब भी एलबम खुलती है
खुलती है वह निर्जन औरत। खुलता है उसका भयावह सूनापन।
उस औरत का दिल सीने में नहीं संदूक में बंद एलबम में धड़कता है। 
(‘एलबम कविता से )

इस आरंभिक संग्रह की पिता कविता से बस कुछ पंकितयाँ और ………………….

माँ की उदासी पिता का पतझड़ हँसी …………….. वसंत।
पिता भले हीन कहते हों। 
साग रोटी में अब वो स्वाद। नहीं आता उन्हें।
जब माँ थी। तब, पिता बहार की तरह थे। 

ऐसी ही अनेक कविताएँ पहले संग्रह से पाठकों तक पहुँची और इस बात की गवाह बनीं कि सामाजिक और सिथतिगत दवाबों के बीच छटपटाती अभिव्यकित जब विफलता के मौन की उँगली पकड़ती है तब उसे आश्‍वस्त करने का माध्यम बनती है कविता। 

इनका दूसरा काव्य संग्रह स्त्री मेरे भीतर बहुत चर्चित हुआ। इसकी एक विशेषता तो यह थी कि यहाँ सदाशयी संकोच व औपचारिकता से आगे बढ़कर अपने भीतर को खखोलते, खँगारते हुए बहन, बेटी, पत्नी, माँ और सहकर्मी जैसे विविध स्त्री रूपों को परंपरा की सीप में बंद समाज से अलग हटकर स्त्री विमर्श के नये, बेबाक कोण से समझने की कोशिश की गर्इ। कुछ इस तरह –

वह जो मेरे भीतर बैठी हैं, मुँह सिए चुपचाप। किसी दृष्य के लिए मानते हुए
जिम्मेदार मुझेहोते हुए देखना चाहती है मेरे साथ संगसार।
किसी घटना के लिए थूकना चाहती है मेरे मुँह पर। 
किसी अन्याय के लिए चढ़ा देना चाहती है मुझे वह फाँसी।

अर्थात यह कुछ कहने से पहले कुछ कर डालने वाली चाह की स्त्री है। यह स्त्री घर की दहलीज लाँघकर कालेज होती हुर्इ किसी आफिस की कुर्सी तक भले पहुँच गर्इ हो किन्तु सूरज की डूबती किरणों से पहले उसे देहरी के भीतर पहुँच जाना होता है। घर से मिली छूट के साथ कोर्इ भय भी लगातार उसके पीछे-पीछे चलता रहता है। इसलिए कि तरुणार्इ की सीढ़ी पर पहला पाँव रखते ही लड़की स्त्री दिखने लगती है। एक खूबसूरत बेटी का पिता कविता में अपेक्षाकृत आधुनिकता का हामी पिता भी अपने भय से मुक्त नहीं हो पाता-

दरअसल उन तमाम पिताओं की तरह मेरा भय भी यही है कि
मैं एक खूबसूरत बेटी का पिता हूँ। और …………..
मेरी बेटी की खूबसूरत चुभती हुर्इ है।

आशय यही कि पवित्र वर्जनाओं की मानसिक सुरक्षा में जीते हुए, उन्हें फलांगने की कामना रखती लड़की या स्त्री को अभी भी किसी उदार आर्शीवाद की अपेक्षा है। मध्य-वर्गीय भद्रलोक की वर्जनाओं से भिड़ंत की धमक वाली ये कविताएँ पाठक के संवेदनतंत्र में कुछ अलग ही प्रकार से हलचल पैदा करती हैं। क्योंकि भारतीय समाज अभी दैहिक स्वाद के लिए जिज्ञासु बेटी, उस स्वाद की स्मृतियों के पृष्ठ उलटती पलटती अधेड़ विधवा, प्यार करती हुर्इ माँ को अपने संस्कारों के बीच जगह नहीं दे पाया है। प्यार करती हुर्इ माँ, बहन का प्रेमी जैसी कविताएँ वर्जनाओं को लाँघकर अपनी देह के स्वीकार की सामाजिक रहनुमार्इ का हिस्सा बन जाती हैं। कवि जरूरत के ऐसे सुख का अधिकार माँ, बेटी, बहन को ही नहीं पत्नी को भी देने का पक्षधर है। 

इस तरह स्त्री मेरे भीतर की कविताएं भद्रलोक के काव्य वितान में छेद करते हुए प्रेम और देह के बीच खड़ी की गर्इ झीनी, रोमांटिक चादर को किनारे सरकाती हैं। पवन करण के कहने की कला भाषा के सहज संबोधन में निहित है जिसके कारण पाठक चालाक शब्दों और उनकी चमक में चौंधियाने से बचता है जो भाषा हनन में बड़ार्इ मानकर कविता के परदेशी शिल्प सजाते हैं। विश्वसनीयता की आश्वसित ही प्यार में डूबी माँ कविता की ये पंक्तियाँ लिखवाती है – 

इन दिनों उसे देखकर लगता ही नहीं। कि यह औरत तुम्हारी विधवा है ।
इन दिनों मे उसे प्रेम करते ही नहीं। 
अपने प्रेम को छिपाते और बचाते भी देख रही हूँ।

यह छिपाना और बचाना एक स्त्री का अपनी पहले की उम्र में लौटकर नया हो जाना भी है।

अस्पताल के बाहर टेलीफोन पवन करण का तीसरा काव्य सग्रंह है। यहाँ पहुँचते हुए रचनाकार की नाप, परख भी होने लगती है कि कवि आगे बढ़ा है या वस्तु और प्रविधि मे एक जगह खड़े होकर कदमताल कर रहा है? संग्रह की शीर्षक कविता को ही लें तो हम पाते हैं कि उसमें एक कथा है – गाँव के आदमी का बेटा अस्पताल मर गया है। इस मरने की अनेक अंर्तकथाएं संभव हैं जैसे दवा के अभाव में मरा, डाक्टरों की लापरवाही से मरा, अपनी हताशा में आत्मवध चुना या और भी कुछ ………….। पर एक बात उभरकर आती है कि अस्पताल की व्यवस्था ठीक नहीं हैं। इसमें बदलाव होना चाहिए। बीमारी का सही निदान हो। लोग जीवन की खुशी के साथ घर लौटें।
 
गो कि यह टेलीफोन एक सूचना का सार्वजनिक माध्यम है किन्तु इसका लाभ सीमित लोग ही उठाते हैं। दायरे से दूर का आदमी इस माध्यम से उम्मीद भले ही पाल ले पर वह पूरी नहीं होगी। इस प्रकार यह कविता एक मार्मिक प्रसंग के जरिये विकास की विडंबना का चेहरा बना देती है। पिता की आँख में परार्इ औरत कभी रहा है प्रेम तो अब भी होगा या मुझ नातवां के बारे में पाँच प्रेम कविताएँ भी हमें पहले से अलग नजरिये के साथ मिलती हैं। बाजार नाम की कविता में वह 
कहते हैं – 

वह प्रभावशाली ढंग से बजाता है हमारे दरवाजे की घंटी
हम उसकी गोरी चमड़ी के प्रकाश में
इस तरह डूब जाते हैं कि उससे पूछ ही नहीं पाते वजह
और चला आता है घर के भीतर

इस तरह अनायास और अदत्त अधिकार के बावजूद सिर्फ अपने आने की सूचना का संकेत भर देकर बाजार हमारे घर में बैठ घर की आवश्यकताएँ तय करने लगता है हमारा रहन सहन, हमारी जीवन पद्धति को निर्वासित करते हुए आलस, अनुत्पादकता और चौंध मारती लालसा को स्थापित कर देता है। बाजार के इस बारीक यथार्थ को पवन करण ने बहुत सहजता से व्यक्त कर दिया है। एक खूब दिलचस्प कविता है – लात-मंत्री मुलाहिजा कीजिये – 

मुख्यमंत्री ने अपने पैरों में उनसे कर्इ दिनों तक
नाक रगड़वा लेने के बाद उन्हें मंत्री पद सौंपा है।
मंत्री बनने के बाद आज वे पहली दफा
प्रदेश की राजधानी से अपने शहर में पधार रहे हैं। 
अखबार भरे पड़े हैं उनके स्वागत की अपीलों से। 

यह आज का राजनीतिक यथार्थ है, सामाजिक यथार्थ है और मुक्तिबोध के अनुसार एक नीच ट्रेजेडी है, लोकतंत्र की। निर्मल वर्मा जिस यथार्थ को कहानी में झाड़ी में छिपे पक्षी की तरह बताते हैं उस यथार्थ को पवन करण बहुत सरलता से पकड़कर झाड़ी के ऊपर बिठा देते हैं कि यह है, देखो। देश मे सामाजिक और राजनीतिक उद्वेलन के दो बड़े कारक रहे हैं- एक है मण्डल आयोग दूसरा छह दिसम्बर का बाबरी मस्जिद काण्ड। मण्डल आयोग के जातिवादी फलितार्थो पर तो इस कवि ने मुखरता नहीं दिखार्इ है पर बावरी काण्ड के बाद उठी सांप्रदायिक लपटों से आहत तन मन की टोह शिद्दत से की है। दरअसल भारतीय वर्णवाद ने मुसिलम समाज को धीरे-धीरे एक वर्ण के रूप में स्वीकार कर लिया था। जैसे ब्राम्हणों में कर्इ जाति के ब्राम्हण हैं और क्षत्रियों में कर्इ किस्म के क्षत्रिय उसी प्रकार वैश्यों में अनेक प्रकार तथा शूद्रों की विभिन्न जातियाँ हैं। हैं सभी हिन्दू या सनातनी। उसी प्रकार एक वर्ण मुस्लिम मान लिया गया पर था वह अपने ही भारतीय। राजनीतिक लोलुपता ने अलग पहचान की बात उठाकर इसे अलगाना शुरू किया और बात छह दिसंबर तक पहुँच गर्इ। खैर पवन करण कि एक कविता है –पहलवान उसकी कुछ पंक्तियाँ हैं – 

अपनी सैलून में भी, उन्होंने कुछ पहलवानों की
तस्वीरें लगा रखी हैं जिनमें एक तस्वीर
मशहूर पहलवान गामा की भी है। 

गामा को हमारे यहाँ विश्वविजयी पहलवान कहा जाता था। कोर्इ न जानता था, न कहता था कि उनका जन्म दतिया के किसी मुस्लिम परिवार में हुआ था। सुना है कि उनके मुसलमान होने का पता हजारों गाँवों को तब लगा जब उनके पाकिस्तान जाने बाबत सुना गया। हालाँकि उनसे गण्डा बँधवाने वाले सैकड़ों हिन्दुओं ने उन्हे नमाज पढ़ते देखा था पर वह तो र्इश आराधना है। कोर्इ किसी ढंग से करता है कोर्इ किसी ढंग से। राजनीति ने इस सामाजिक समरसता में पलीता लगा दिया। हिन्दू, मुसलमान लड़के आदि कविताएँ सहज मानवीय स्तर पर अपनी संवेदना उदघाटित करती हैं। मुसलमान लड़के कविता में वह कहते हैं – 

डरता हूँ, ऐसा न हो, अपना दुख कहते-कहते। 
अपने लोगों के फंदों में उसकी तरह न उलझ जाएँ वे। 
जैसे मुझे हिन्दू को अपने जाल में फांसने। 
नाना प्रकार के ताने बुन रहे है मेरे लोग।

कवि का डर कतर्इ बाजिब है। विगत बीस वर्ष में चेहरों और वेशभूषा से मुसलमान दिखने का चलन जिस तेजी से बढ़ा है, वह शुभ तो कतर्इ नहीं हैं। 

मुझ नातवां के बारे में: पाँच प्रेम कविताएँ
नातवां से आशय अप्रबल, सामर्थ्‍यहीन………………… 

ये कविताएँ स्त्री मेरे भीतर- का अगला चरण हैं। पाँच कविताएं आपस के पाँच प्रश्‍नों का आधार लेकर बुनी गर्इ हैं जिसमें प्रेम और प्रेमियों पर सामाजिक सोच का लेखा जोखा है और प्रेम जैसे पुरातन पद मे नये समसामयिक आयाम जोड़ती हैं। 

पवन करण का पहला कविता संग्रह इस तरह मैं वर्ष 2000 में आया था और ताजा संग्रह कहना नहीं आता (2012) है। वहाँ से यहाँ तक की इस काव्य यात्रा में स्त्री तत्व एक केन्द्रीय भाव की भाँति संग चलता रहा है गोकि उनमें साथ ही साथ और भी विषय है जैसे बाजार, सांप्रदायिकता, दोस्त, पिता, कविता। पवन करण की कविता मध्यवर्गीय नैतिकता का ध्वंस करती है। उन्‍होंने अपनी कहन के शब्द, मुहावरे, औजार सड़क और गलियों से उठाए हैं अत: भाषा में भद्रकाव्य के घूँघट न होने से वह नये अनुभव का आस्वाद देती है। कविताएँ कहीं भी कवि के मैं को अस्वीकार नहीं करती अत: रचनात्मक संघर्ष द्विस्तरीय हो जाता है-व्यकितगत जो आंतरिक है और बाह्रा जो सामाजिक है। 

कहना नहीं आता में तुलसीदास की कविता विवेक एक नहिं मोरे वाली भक्तिकालीन विनम्रता नहीं अपितु यह भाव निहित है कि क्योंकि मैं ऐसा हूँ इसलिऐ मुझे कहना नहीं आता –

जिनके पास कहने को है
जो कहना चाहते हैं
जिन्हें कहना नहीं आता
मैं उनमें से एक हूँ।

इस प्रकार उनकी कविताएँ लटपट भाषा वाले वृहत्तर समाज की अगुआर्इ में खड़ी हो जाती हैं। हाँ इतना अवश्‍य है कि चार संग्रहों के बारह वर्षों में स्त्री मुग्धा से प्रौढा हो लेती है और भाषा भी। …
सो उनके कहने की कड़ी पूछ परख लाजिमी है। 
***
(महेश कटारे)
निराला नगर, सिंहपुर रोड,
मुरार, ग्वालियर – 474006
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