वरिष्ठ
कवि हरीश चंद्र पाण्डेय हिंदी के बेहद सतर्क एवं चौकन्नी दृष्टि वाले कवि हैं। उनके यहाँ विषयवस्तु-शीर्षक-बिंब-रूपक-प्रतीक
का दोहराव नहीं के बराबर मिलता है। आप उनके पहले कविता संग्रह ’कुछ भी मिथ्या नहीं है’ से लेकर सद्य प्रकाशित चौथे कविता संग्रह ’असहमति’ तक की सारी कविताएं पढ़ जाइए, आपको मुश्किल से ही कोई शीर्षक या कविता की पंक्ति
दुबारा पढ़ने को मिलेगी और न ही किसी अन्य कवि की कविताओं से मेल खाती हुई। उनकी
कुछ कविताएं तो ऐसे अछूते विषयों पर रची गई हैं जो पहली बार किसी कविता की
अंतर्वस्तु बनी हैं। वे दोहराव से बचने की सचेत कोशिश करते हैं और पूरी सतर्कता
बरतते हैं। इसके चलते ही उनकी कविताओं में हमें
भाव-विचार या अंतर्वस्तु की विविधता एवं जीवन की व्यापकता दिखाई देती है।
इसके पीछे कहीं न कहीं उनका यह विश्वास भी काम करता होगा कि आंखें –
ऊब
जाती हैं एकरस दृश्य से
कितना
ही सुंदर हो दृश्य
हर
हमेशा चाहती हैंदृश्यांतर।
उनका
मानना है कि-
कितने
टोटे में है वह आँख
जो
केवल एक-से ही दृश्य देखना चाहती हैं
दृश्यों
से लबालब इस दुनिया में।
उनकी
हमेशा कोशिश रहती है कि कविता में जीवन के विविध रूप-रंग-गंध-स्वाद-स्पर्श वाले
दृश्य स्थान पाएं। अब यह देखने वाले की बैठने की स्थिति पर निर्भर करता है कि
कौनसा दृश्य किसको किस तरह दिखाई देता है। क्योंकि एक ही दृश्य को गाड़ी की इंजन
की ओर मुँह करके बैठे आदमी को आता हुआ और पीछे के डिब्बों की ओर मुँह करके बैठे को
छूटता दिखता है। उनकी कविताएं संभावनाओं की तरह पाठक को कहाँ-कहाँ नहीं ले जाती
हैं-
ठीक
जहाँ से चटकती हैं कली
ठीक
जहाँ फूटते हैं पुंकेसर
ठीक
जहाँ टिकते हैं फूल बौर और फल।
जहाँ
चिटियाँ लंबी कूच पर निकली हैं और उनको देख अलग-अलग वय व लिंग के लोग अलग-अलग तरह
से उन्हें देखते हैं। जहाँ पत्नी द्वारा पति को पीटे जाने की खबर है। जहाँ ऊँचे
स्थापत्य के शिखर पर दूसरा कोट करते हुए ’पुताईवाला’ सोचता है अपनी कूची से सबसे मजबूत ,समतल-चैरस और सब इमारतों में यकसा पाए जाने वाली नींव को
छूने के बारे में। दरअसल उनकी कविताओं का प्रयोजन-न होने को अपनी आँखों से देखना
है/और होने को तो चखना ही है।
पाण्डेय जी अपनी ’असहमति’ को कभी छुपाते नहीं और पूर्ण सहमति जैसी किसी स्थिति को
अपवाद मानते हैं। वे असहमति के आदर को एक जरूरी मूल्य का दर्जा देते हैं। कवि का
यह कहना सही है कि बामियान में बुद्ध की प्रतिमा और अयोध्या में मस्जिद को सदियों
तक बचाये रखा जा सका तो उसके पीछे ’असहमति का आदर’ ही तो था। ऐसा एक सच्चा लोकतांत्रिक कवि ही कह सकता है
जिसकी लोकतंत्र में गहरी आस्था हो। अन्यथा एक ऐसे समय में जबकि असहमति को शत्रुता
के रूप में लिया जा रहा हो उसकी वकालत करना कम साहस का काम नहीं। उनकी कविताएं ’प्यास’ जैसी सामान्य संज्ञा की लय और आवाज को भी ऐसी उदात्तता
प्रदान कर देती हैं कि मन उस प्यास के प्रति नतमस्तक हो जाता है। उनकी ’प्यास’ कविता पढ़कर किसी की भी इच्छा हो जाए पानी पीने की-
धार
घटक-घटक कर चली जा रही थी
कंठ
के नीचे
सूखी
गढ़ई में
गले
की घटिका घटक-घटक के साथ
खिसक
रही थी नीचे-ऊपर
एक
आवाज थी और एक लय
और
बनती-मिटती लहरें थीं त्वचा की।
कितनी
कविताएं हैं आज ऐसी जो संज्ञा को क्रिया में बदलने की ताकत रखती हैं। उनके भारतीय
ज्ञानपीठ से पिछले दिनों प्रकाशित काव्य
संग्रह की यह पहली कविता ही इतनी प्यास जगा देती है कि पाठक घट-घट सारी कविताएं
पढ़ जाता है और उसकी प्यास बढ़ती ही जाती है।
इन
कविताओं में विसंगति-बिडंबना का चित्रण मात्र ही नहीं बल्कि उनके कारणों की गहरी
पड़ताल है। कवि ’वार’ को ही नहीं उसकी ’धार’ को भी देखता है। उनकी कविता की-उंगुली वार करने वाले पर
ही नहीं/धार बेचने वाले पर भी उठती है। तभी तो वे किसानों की आत्महत्या को
आत्महत्या नहीं बल्कि हत्या मानते हैं जिसके लिए यह व्यवस्था जिम्मेदार है। उनकी ’किसान और आत्महत्या’कविता की यह पंक्ति सीधे मर्म पर चोट करती है-’क्या नर्क से भी बदतर हो गयी थी उनकी खेती’? जिन किसानों के
लिए जीवन उसी तरह काम्य रहा है जिस तरह मुमुक्ष के लिए मोक्ष तथा जिन्होंने हलों
की फालों से संस्कृति की लकीरें खींची, आखिर वे आत्महत्या क्यों करते हैं?
जो
पितरों के ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल
के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने
ही ऋणों के दलदल में धँस गए
जो
आरुणि की तरह शरीर को ही मेड़ बना लेते थे
मिट्टी
में जीवनद्रव्य बचाने
स्वयं
खेत हो गए।
ऐसा
क्यों हुआ? इस पर यह कविता पाठक का ध्यान खींचती है। साथ ही उस
बिडंबना पर भी कि इसके बावजूद हत्यारे को सीधे-सीधे पहचानना कठिन है। लेकिन अच्छी
बात यह है कि कवि उसे अच्छी तरह पहचानता है और दुनिया को उसकी पहचान बताता है। यह
उनकी कविता की ताकत है।
उनकी
कविताएं कभी साथ-साथ चलतीं बातें करती हुई दुःखों को बाँटकर निर्भार करती हैं। कभी
मूक संवाद करती हैं। कभी ट्रेन में चढ़ आए लोफर किस्म के लड़के से मिलाती हैं जो
किसी के लिए बहुत प्यारा और जरूरी है तो कभी मई-जून की दोपहर में दरवाजे-दरवाजे
जाकर अपना माल खरीदने के लिए कनविंश करते लड़के-लड़कियों की कठिनाइयों से। कभी
परिचित कराते हैं अपने हाथों का जोर और पैरों की टेक परखते हुए बाबूजी से जिन्हें
अपना ’लाइफ सर्टिफिकेट’ बनवाना है।उनकी नजर एक ओर सड़क किनारे गोबर के लिए खाली
तसला लिए खड़ी उस महिला पर है जो भैंसों का उधर से गुजरने का इंतजार करती है और
दूसरी ओर राजधानी में खुलने वाले टेंडर पर। यहाँ एक ओर वह दुनिया है जहाँ इस बात
का इंतजार है कि टेंडर किसका खुलता है और दूसरी ओर होड़ कि भैंस का गोबर कोई दूसरा
आकर न हथिया ले। इस तरह उनकी कविताओं में दो वर्गों में बँटी दुनिया के साफ-साफ
दर्शन होते हैं।यहाँ वह जीवन और समाज बिखरा पड़ा है जिसे हम रोज-ब-रोज अपने आसपास
देखते-झेलते-ठेलते हैं और जिससे मिलते-टकराते हुए आगे बढ़ते हैं। हमारा चाहा-अनचाहा,खुरदुरा,कठोर और उपेक्षित जीवन ,जिसकी खुबसूरती में हम कभी रीझते हैं और विकृति में
खीजते हैं, जो हमें मथता भी है और सचेत भी करता है। इन कविताओं में ’खुरदरे जमीन के अस्तर की गर्माहट’ का अहसास होता है। नए दाँत निकलते बच्चे की बेचैनी , ठेला ठेलते हुए लड़के की मंद-मंद मुस्कान,लाशघर में लाशों को पहचानती हुई क्षत-विक्षत आँखें, रस्सी खींचनेवालों की हथेलियों की रगड़न-छाले-जलन भी
उनकी कविताआंे में व्यक्त हुई है। कवि अपनी कविता में ’गुल्लक’ जैसी उन चीजों का हिसाब भी रखता है जो बनते-बनते भी
फूटती रहती हैं। इसके माध्यम से संदेश देते हैं-जहाँ बचपन के पास/छोटी-छोटी बचतों
के गुल्लक-संस्कार नहीं होंगे/वहाँ की अर्थव्यवस्था चाहे जितनी वयस्क हो/कभी
भरभराकर गिर सकती है।’उनकी एक बड़ी खासियत है कि वे जीवन के मामूली से
मामूली प्रसंगों को भी अपनी कविताओं की
परिधि में ले आते हैं और सहजता से अपने जीवन-दर्शन को अभिव्यक्त कर देते हैं।
समीक्ष्य
संग्रह की कविताएं सत्ता के चरित्र और जनता के साथ संबंधों की भी पड़ताल करती हैं।
वे ’थर्मस’ के रूपक के माध्यम से इस संबंध को बहुत सटीक तरह से
व्यक्त करते हैं-
सभी
कुछ झेल रही हैं बाहर की दीवारें
कुछ
भी पता नहीं है …भीतर की दीवारों को
भीतर
काँच की सतह पर गर्म दूध
हिलोरे
ले रहा है
एक
दिव्यलोक जहाँ
ऊष्मा
बाँट ली जाती है भीतर-ही-भीतर
बाहर
का हाहाकार नहीं पहुँच पाता भीतर
भीतर
का सुकून बाहर नहीं झाँकता।
यही
तो हो रहा है आज लोकतंत्र में ,किसको फुरसत है जनता के हाहाकार को सुनने की ? एक दिव्यलोक में खोए हैं सुनने वाले। बहुत बड़ा वैकुअम
बन गया है जनता और सरकार के बीच। कहीं कोई संवाद नहीं है। ’प्रजातंत्र’एक मिथक की तरह टूटा है।
मनुष्यता
में लगातार आ रही गिरावट के बावजूद कवि का मनुष्य और मनुष्यता पर गहरा विश्वास है।
उनका मानना है कि मनुष्येतर के बारे में हमने जो भी जाना एक ’मनुष्य होने पर ही’ जाना। ’सारा सबकुछ सोचा हमने मनुष्य होकर ही समग्रता में।’ ..’अणु के यथार्थ को पहचाना तो विराट की फंतासी भी की’ मनुष्य होने पर ही। गर ऐसा नहीं होता तो आज हमारे पास
कोई धरोहर नहीं होती। न व्याकरण रचते ,न विचार-मंथन करते और न आविष्कार। पश्चाताप व अपराधबोध
जैसे भाव हमारे मन में एक मनुष्य होने के चलते ही पैदा हुए। वे प्रश्न खड़ा करते
हैं-
मनुष्य
ही सच नहीं अगर
तो
वह सच कैसे है
जो
सोचता है यह मनुष्य ,मनुष्येत्तर।
प्रस्तुत
संग्रह में दाहकर्म कराने वाली पर लिखी गई
कविता ’महराजिन बुआ’ एक अद्भुद कविता है जो इस विषय पर मेरे संज्ञान में
हिंदी की पहली कविता है। एक ऐसे समाज में जहाँ महिलाएं शव यात्रा में शामिल तक नहीं होती हैं वहाँ
महाराजिन बुआ मरघट की स्वामिनी बनकर घाट पर सारे शवों की आमद स्वीकार कर रही
है-चिताओं के बीच ऐसे टहल रही है/जैसे खिले पलाश वन में विचर रही हो। वह भी कभी एक
साधारण औरत थी जिसके आँचल में दूध और आँखों में पानी था। विधवा हो गई। पर उसने
मथुरा या वृंदावन का रास्ता न पकड़कर श्मशान का रास्ता पकड़ लिया और वहाँ चिताओं
को मुखाग्नि दिलवाने और कपाल क्रिया करवाने में लग गयी-
पंडों
के शहर में
मर्दों
के पेशे को
मर्दों
से छीनकर
जबड़े
में शिकार दबाये-सी घूम रही है वह…
ठसकवालों
से ठसक से वसूल रही है दाहकर्म का मेहनताना
रिक्शा-ट्राली
में लाए शवों के लिए तारनहार हो रही है।
आगे
की पंक्तियों में उसका कैसा विराट व्यक्तित्व उभर आता है-
घाट
के ढलान पर
उम्र
की ढलान लिए
दिन
भर सूर्य की आँखों में आँखें डाल खड़ी है
मनु
की प्रपौत्री वह
असूर्यंपश्या
तीर्थराज
प्रयाग को जोड़नेवाले
एक
दीर्घ पुल
और
परम्परा के तले……।
यह
कविता पूरे पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देने वाली कविता है। एक ओर वह
विधवाएं हैं जो सारी परम्पराओं का निर्वहन करती हुई निरीह-अबला बनी पूरा जीवन किसी
अभिशाप की तरह काटती है और दूसरी ओर महराजिन बुआ है जो परम्पराओं को चुनौती देती
हुई सूर्य की आँखों में आँखें डाल खड़ी है। कितना विराट चरित्र है एक स्त्री का जो
पाठक के भीतर एक रोमांच पैदा कर देता है। इसके सामने सारी पुरुषसत्ता और धर्मसत्ता
बौनी प्रतीत होती है। इसके अलावा ’चिटियाँ-2’,’पनचक्की’,
’रतजगा’ जैसी कविताएं हैं जो स्त्री जीवन के यथार्थ को कहती हैं।
’पनचक्की’ के रूपक के माध्यम से एक गृहस्थिन के योगदान को रेखांकित
करते हैं-जिसका जितना देय/ सब चुकता करती है पनचक्की/एक गृहस्थिन की तरह। ’रतजगा’ अपने आप में एक अलग मूड की कविता है जो पुरुषसत्तात्मक
व्यवस्था का स्वाँग रचती है। इसमें कुमाउँ अंचल में लड़के की शादी पर बारात जाने
वाली रात ’रतेली’ के अवसर पर औरतों द्वारा होने वाले नाच-गाने और स्वाँग
के बहाने सदियों से औरतों के प्रति होने वाली प्रताड़नाओं,वर्जनाओं ,फटकारों का चिट्ठा खोला गया है-
प्रताड़नाएँ
,जिन्होंने उनका जीना हलकान कर रखा था
अभी
प्रहसनों में ढल रही हैं
डंडे
कोमल-कोमल प्रतीकों में बदल रहे हैं
वर्जनाएं
अधिकारों में ढल रही हैं…….
जो
आदमियों द्वारा केवल आदमियों के लिए सुरक्षित हैं
उस
लोक में विचर रही हैं
पिंजरे
से निकल कर कितना ऊँचा उड़ा जा सकता है
परों
को फैलाकर देख रही हैं।
कवि
ने बहुत खूबसूरत तरीके से इस बात को व्यक्त किया है कि शादी के समय झंझावातों में
भी साथ रहने के मंत्र और सात जन्मों के साथ रहने की आकांक्षा रखने वाली औरतें एक
ही जन्म में साथ चलते-चलते थक जाती हैं। इस पर सोचा जाना चाहिए कि ऐसा क्यों है?
प्रकृति
का बेलाग सौंदर्य भी इन कविताओं में अपनी छटा बिखेरता है-अभी-अभी नहाये
बच्चे-सा/चमक उठे हैं-’पहाड़’। उनकी कविता में आया गाँव के सीमांत पर खड़ा टुन का
पेड़ जो अब नहीं रहा कितना अद्भुत है। यह मात्र एक पेड़ नहीं बल्कि पूरा गाँव और
गाँव की संस्कृति का पाठ है। साक्षी है एक कालखंड का,एक नदी, पहाड़,पक्षी,वसंत,पतझड़ों का। कवि उसको कुछ इस तरह याद करता है-
हमारे
बचपन में जवान थे तुम
अखाड़े
में कूदने को तैयार-से
तुम्हारी
भुजाओं की ऐंठी मछलियों पर
जब
सूर्य की पहली किरन पड़ती थी
मालिश
किए पहलवान की तरह दमकते थे तुम
क्षितिज
तुम्हारी शाखों की गझिन हरियाली में विलीन हो जाते थे
चाँदनी
एक पत्ते से फिसल कर दूसरे में अटक जाती
और
बरसात तरस कर रह जाती
तुम्हारे
नीचे खड़े आदमी को भिगोने को।
यही
पेड़ था जहाँ पर घास से लदी युवतियाँ बोझ बिसाने बैठती थी। गाँव की सयानी औरतें
नववधुओं के मुखड़े का दर्शन करतीं थी। लड़कों ने गोद रखे थे अपने नाबालिग सपनों के
नाम। बूढ़े उसकी जड़ों में बैठकर गढ़ते थे किस्से-कहानियाँ। कवि इस पेड़ के बहाने
पहाड़ के खाली होते गाँवों की स्थिति को अभिव्यक्त करता है-
वैसे
भी यह केवल औरतों का गाँव होता जा रहा है
जिनके
मर्द बाहर हैं रोजी के लिए
जो
एक ओर देख रही हैं छोटे-छोटे बच्चों को
और
दूसरी ओर बुढ़ाते सास-ससुर को।
अच्छी
बात यह है कि वहीं पर एक नए पेड़ को उगते हुए देख रहा है। कवि केवल बसंत में खिलने
वाले फूलों का ही जिक्र नहीं करते बल्कि एक ऐसे मौसम में जब आग लगी है चारों ओर उस
मौसम में खिलने वाले फूलों का भी जिक्र करते हैं-
ये
टेसू ये गुलमोहर ये अमलतास
और उधर
कछारों में हँसने लगे हैं
पीले-पीले
फूल तरबूज के
उन
फूलों के पीछ पीछे चले आ रहे हैं फलों के काफिले
बाहर
सूर्य का ताप जितना अझेल हुए जा रहा है
भीतर
ये उतने ही रसीले,मीठे और लाल हुए जा रहे हैं।
’भय के प्रकाश में’ कविता में उत्तराखंड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग
के दृश्य का जीवंत चित्रण किया गया है-
आग
की बारिश
आग
की फिसलन
आग
का मलबा है….
सहस्रों
पाँव निकल आए हैं आग के
दशासन-सी
दिख रही है आग
अग्निपक्षी-सी
उड़ रही है।
इस
आग के पीछे के कारणों को अपनी कविता में बताते हैं-
ये
आग ठेकेदार की कारस्तानी
जिसे
नहीं मिला जंगल का ठेका
या
फिर किसी पर्यटक की हरकत है
या
फिर कोई लड़का फेंकी गयी बोतल की पेंदी को
सूरज
की सीध में रख
बीड़ी
सुलगा रहा था….
मुमकिन
है कोई टहनी रगड़ खा गयी थी
अपने
ही पेड़ की दूसरी टहनी।
इस
संग्रह में किशोर अपराधियों पर अपने तरह की अकेली कविता है ’उनका भविष्य’। इस कविता में किशोर मन की उथलपुथल तो है ही साथ ही
अपराध के कारणों की ओर संकेत भी। जिसको अपराध कहा जाता है वह दरअसल अपराध नहीं इस
उम्र की सौंदर्य के प्रति एक सहज जिज्ञासा है।
जिस किशोर को एक अंगुठी की चोरी के अपराध में पकड़ा गया था दरअसल उसकी चोरी
का कारण अंगुठी का वह रूप था जिसे देख कर वह मोहित हो गया और उसने वह अंगुठी अपनी
अंगुली में डाल ली फिर पहुंच गया किशोर अपराध गृह में जहाँ-
उन्हें
उनका भविष्य समझाने
कुछ
विशिष्ट अतिथि पहुँच रहे हैं सफेदी से तर-ब-तर
उँगलियों
में झिलमिल अगूँठियाँ पहने
कुछ
बड़े अपराध
उन
हाथों से मुक्त होना चाह रहे हैं।
इस
कविता में भी कवि बहुत खूबसूरती के साथ अपराध के कारणों की ओर बिन कहे संकेत कर
देते हैं। यह कविता जहाँ समाप्त होती है वहाँ से एक दूसरी कविता पाठक के मन में
चलती है।
पांडेय
जी की कविताओं का शिल्प स्वेटर की बुनाई की तरह है जिसके लिए अतिरिक्त कहीं से कुछ
लाना नहीं होता है बल्कि फंदों को कुछ उल्टा-सीधा करके सुंदर बिनाई उभर आती है।
उनके शिल्प में बातचीत की आत्मीयता फूटती है। भाषा व शिल्प की दृष्टि से भी वे एक
लीक पर नहीं चलते नई राह बनाते हैं। कविता में काव्यात्मकता का निर्वहन करते हुए
भी सहजता कैसे संभव है यह उनकी कविताओं से सीखा जा सकता है। इस रूप में वे
नागार्जुन,त्रिलोचन और केदार की परम्परा को आगे बढ़ाते हैं। इन
कविताओं में जीवन की गझिन समझ और काव्यतत्व दोनों का संतुलन मिलता है। जितनी विविधता
है उतनी ही व्यापकता भी है। जीवन की बारीक वास्तविकताओं और मानवीय संवेदना के सघन
तंतुओं की बुनावट है। जीवन का उल्लास और विश्वास इन कविताओं में गुंथा है। इस बात
से सहमत होना कठिन है कि उनकी कविताएं चुप्पी की कविताएं हैं। उनकी कविताओं का
स्वर शांत,संयत और नियंत्रित जरूर है पर उसे चुप्पी नहीं कहा जा
सकता है। उनकी कविताओं में भरपूर प्रतिरोध है पर वह नारेबाजी के तर्ज में न होकर
काव्यात्मक रूप में है। यह उनके कवि की पहचान है।
प्रकाशकःभारतीय
ज्ञानपीठ 18,इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड नई दिल्ली-110003
महेश पुनेठा
संपर्क-
रा0इ0का0 देवथल जिला-पिथौरागढ़ 262542 मो09411707470
कृति को खोलकर सामने रख देने वाला आलेख… कवि, उसकी कविता ,कृति, और उसकी पक्षधरता को स्पष्ट करता एक जरुरी आलेख…
जैसी आत्मीयता कविता में है वैसी ही समीक्षा में भी । बधाई दोनों को ।
'असहमति 'से सहमत होना इतना आसान नहीं होता लेकिन महेश पुनेठा जी अपनी कलम की ताकत से' असहमति' पर भी लोगों को सहमत करने निकले हैं .अब जब वे खुद 'असहमति 'की बकालत कर रहे हैं तो उनसे सहमत होना कैसा लगेगा ? तो क्या कभी 'असहमतों से भी सहमत हो जाना चाहिए .महेश पुनेठा जी आज आपकी 'असहमति ' से सहमत !हरीश पांडे जी को मुबारक !
महत्वपूर्ण समीक्षा कविता सामने रख बात की गई है।
केशव तिवारी।
महेश भाई संग्रहों पर बेहद गंभीरता और तफसील से लिखते हैं. हरिश्चंद्र पाण्डेय जैसे महत्त्वपूर्ण कवि की काव्य संवेदना को उन्होंने बेहद आत्मीयता और सम्बद्धता से रेखांकित किया है..