अनुनाद

अनुनाद

संगीत और जीवन का तारतम्य : वंदना शुक्‍ल की कविताएं



सुपरिचित कथाकार-कवि वंदना शुक्‍ल इस बार अनुनाद के लिए संगीत का अनुपम उपहार लायीं तो लगा किसी अमर प्रतीक्षा का सुफल मिला। कविता के कार्यकर्ता हमेशा ही संगीत की ओर झुकते हैं। दोनों कलाओं का अन्‍तर्सम्‍बन्‍ध अपने आपमें एक पुराकथा है। वंदना जी ख़ुद कुशल ध्रुपद गायिका हैं और हम इन कविताओं के लिए उनका हार्दिक आभार व्‍यक्‍त करते हैं।
***



कहते हैं पूरा जगत वस्तुतः संगीतमय है। पृथ्वी एक नियमित लय में घूमती है। पत्तों के हिलने-डुलने में भी एक लय और ताल होते हैं।मनुष्य का ह्रदय एक समान लय में धड़कता है। ख़ुशी में मनुष्य गुनगुनाता है और दुःख को संगीत कम करने की क्षमता रखता है। कहने है कि संगीत हमारी हर सांस में बसा हुआ है। प्रस्तुत कविता में शास्त्रीय संगीत के विविध उपांगों और जीवन के तारतम्य में इसे एक काव्यात्मक लय के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश है …एक प्रयोग ..संगीत और हम…संगीत और जीवन …
-वंदना शुक्‍ल

संगीत 

सांस जीती हैं देह को जैसे
स्वरों में धड़कता है संगीत|
एक यात्रा नैरत्य की ….
थकना जहां बेसुरा अपराध है
यात्रा …..
सा से सां तक 
जन्‍म से मृत्यु की ओर |
घूँघट खोलती है सांसों की दुल्हन
जीवन की पोरों से ,
देखती है सात द्वारों के पार
उस अनंतिम देहरी का सांध्य प्रकाश
जो सिंदूरी सुलगता है 
गाढ़ी भूरी राख के भीतर 
हौले हौले …..  
ज्यूँ तलहटी से देखता है कोई बच्चा
आसमान में टंगा शिखर
जैसे जड़ पर दारो-मदार है पोसने का
पेड़ की सबसे ऊंची पत्ती को
या गीले पंख फड़फड़ाकर पक्षी तौलता है 
अपने हौसले की उड़ान ..
***

अलंकार

आरम्भ ,एक महायात्रा का
दिखाई देता है जहाँ से क्षितिज
बहुत दूर …पास होता हुआ|
खुरदुरी पहाड़ियां गवाह हैं शिशु के
छिले हुए घुटनों की ,
आसमान झिलमिलाता है  
नयी आँखों की रोशनी से    
घोंसले भविष्य की राहत होते हैं
बारिश,धूप ,तूफ़ान या पेड़ के गिरने के
तिलिस्म के अलावा |
तमाम शब्दों के लिए अभी
बाकी है शब्दकोश पलटना ,
जैसे कांटे और ज़ख्म ….
फूल और कालीन
धूप और छाँव ….
बिवाइयां और दरारें
क्यूँ कि यात्रा का
हौसलों के बावजूद कोई
विकल्प नहीं होता ….
***

आरोह-अवरोह

सीढ़ियों का धर्म  होता है
आकाश को करीब लाना ,
ज़मीन को भूले बगैर
क्यूंकि लौटना लाज़िमी है
फिर चढ़े जाने के लिए |
जीवन का ग्राफ इन्हीं
आरोह अवरोहों की समानुपातिक लकीरों से होते  
लहराता,उछलता ,उतराता ,डूब जाता |
धरती पर खड़ा आदमी तौलता है हौसलों से
आकाश की दूरी
और डोर सोचती है ,
कांपती हुई हवा का रुख|
बादलों से गुफ्तगू करती है एक चिड़िया
चींटियाँ जोहती हैं बाट बारिश की|
झाडता है आदमी अपनी धूल धूसरित उम्मीदें
भरता  रहता है ज़िंदगी भर इस तरह
अपनी कटी हुई पतंगों के रिक्त स्थान
***

स्वर-मालिका
(शब्द-हीन एक ताल-स्वरबद्ध रचना)

लटपटाते क़दमों से चलता शिशु
धरती को ठेलता ,
एक एक कदम साधकर रखता हुआ
गिरने का शब्द है रोना
और चलने का किलकारियां
दो ही दुधमुहीं पत्तियां हैं अभी
शब्दकोश के नाज़ुक तरु पर उसके
हर बारिश में भरेगा हरापन उसकी आँखों को 
साध साध कर ही सीखेगा वो
दौड़ने के गुर ,
जानता है साधने का मतलब होता है ज़िंदगी
और भय का चूक |
***

द्रुत ख़याल 
(शब्द-स्वर बद्ध एक द्रुत बंदिश –चंचल प्रकृति)

युवा मन की उड़ान और
जिजीविषा का कोलाहल ,
आलाप के दुपहरे सन्नाटे या
तानों की दिलकश बौछारें
सुर-लय को साध जाना ही
जीवन है ,क्यूँ कि सिर्फ़ धड़कनों को
जीवित होने का सबूत नहीं माना जा सकता |
क्यूँ कि,
लय /सुर का टूटना जहाँ
हार जाना होता है ख़ुद से
हो जाता है बेताला जब
राग-विराग का संतुलन
यही वो पल है जब धाराशाई होती हैं उम्मीदें
जैसे ,   
तार सप्तकका शिखर 
हो जाती है  
‘’एन्तीलाया एफिल टॉवर की इमारतें !                         
क्या कोई गिरह पड़ जाती है लय में                   
या जटिल हो जाती है सहसा स्वरों की लिपि ?
***

विलंबित ख़याल
(शब्द –स्वर बद्ध एक धीमी लय की रचना )

अलसाया मौसम ,उनींदें सपने
गजगाम सा चलता लंबे रास्तों पर
मदमस्त-शांत कोई युग जैसे|
संगमरमरी पर्दों के
कंगूरेदार झरोखों से झांकती
महफ़िलों की वो भीगी रोशनी
अमीर खुसरों की बंदगी थी जिसमें    
थी निजामुदीन औलिया की ख़्वाबगाह|
*** 

ठुमरी

विधा ,जिसमे एक पंक्ति को
गया जाता है भाव के साथ
कई कई बार
कई कई तरह से
मनुष्य का तमाम जीवन इसी विधा का
एक रहस्मय संस्करण है ,जीता है जो
कई कई बार कई कई तरह से
जीवन के राग में
स्वरों का उतार चढ़ाव ,
भावों की अभिव्यक्ति पेश करता है
दोस्तों,प्रेमियों,पत्नी,माँ,
ऑफिस,दूकान,सड़क,
और तमाम रिश्तों के आगे
एक ही मन में एक जीवन में
भावों का दोहराव
जैसे प्रेम …..
जैसे घृणा ……
जैसे हंसी …
जैसे सुख और संताप
जैसे पीड़ा और उदासी
सुरों की अहमियत वो खूब समझता है
जो जितना समझता है,उतना उथला है मृत्यु से
जो जितना प्रवीण है दोहरावों के हुनर में
शिखर(तार सप्तक) उसी की प्रतीक्षा है
***

चैतीकजरी  
(एक उप-शास्त्रीय रचना)

मिट्टी ने सोंधेपन का हुनर सीखा है यहीं से
और पत्तों ने लयबद्ध गिरना
मौसमों का अनुशासन और
नववधू की शरमाहट –सी
चैती……
परम्पराओं की गोद में पली बढ़ी
गीत नहीं पूरी संस्कृति है ये
झूले हैं सावन के
या होली के रंग
द्वार पर खड़ी जोहती है प्रेमी का रास्ता
या पपीहे की पिहुक से जलता है बदन
मौसम, जो हरहराकर  आते हैं
पहले बरस नव वधु के मन आंगन में
झूमकर बहती हैं नदियाँ
लहरें चूमती हैं किनारे
पेड़ सोचते हैं अपने चेहरे
नदी के आईने में ,
दौडती हुई अल्हड़ किशोरियां
डोलती हैं दरख़्तों के इर्द गिर्द
बहती हैं नदियाँ अपने किनारों को तोड़कर
इलाहबाद से बनारस तक
*** 

टप्पा 
(चंचल प्रकृति का गीत)

झर झर झरता झरना
पहाड़ की ऊंची चोटी से गिरता
चट्टानों को चूमते,सहलाते,दुलारते
छूता है मिट्टी ….जंगल जिसकी धरोहर है
सफ़ेद-चमकती चांदी से भर जाती ज़मीन
चमेली के फूलों –सी  उलीचती
चंचल ताज़े झक्क सफ़ेद फेनिल मोती ……
बूँदें जिनकी फ़ितरत है उनसे अलग
जो बरसती हैं अंधेरी रात में चुपचाप
***

तराना  

तलाश उस ख़ुदा की
रिहाइश है जिसकी कण कण में
पर कहीं नहीं |
एक शब्दहीन गुहार
जहां सार्थक निरर्थक का भेद
बेमानी हो जाता है  ….
शेष बचती है एक लौ
जिसकी रोशनी टिमटिमाती है
आत्मा के अंधेरों में
खनकती,चुपचाप,बेआवाज़ ….
***
 
ध्रुपद 1

नोम तोम’ का वो
गोबरहारी’’ गर्जन
उठता है जो अध्यात्म के समुद्र से
आसमान के शून्य तक भाप बनकर
भक्ति की निर्मल बूँदें
भिगोती हैं आत्मा को
एक तरीका ये भी होता है
तपती ज़मीन को ठंडक पहुँचाने का   
डूबता जाता है जीवन का सच
गहरे ….और गहरे
खरज के स्वरों की गुफा में  
विलीन हो जाता हुआ  
किसी विराट शून्य में |
अँधेरे ,जो संकल्पित हैं
सच कहने के ,रोशनी के ख़िलाफ़  …..
अंधेरों का सच दृश्य हीनता है
और परिणिति एक तीक्ष्‍ण ज्योति  …

ध्रुपद 2

एक बहुत ऊंची चोटी पर खड़े होकर
देखना छोटे हो चुके विशाल पेड़ों को
समुद्र को पोखर और सड़कों को
लकीरों में तब्दील होते हुए ,
भीड़ को चींटियों के परिश्रम रत जत्थों या
आदमी को कीड़े मकोड़ों की शक्ल में …..
परिणिति के जंगल
हमेशा ही उगते हैं वक़्त की पीठ पर
और विदा हमेशा होती है
सिंदूरी रंग की |
***

0 thoughts on “संगीत और जीवन का तारतम्य : वंदना शुक्‍ल की कविताएं”

  1. कवितायेँ आँखों के रास्ते कानों से गुनगुनाती मन को झंकृत कर रही हैं .एसा लग रहा है शबनम बिरमानी से कबीर सुन रही हूँ

Leave a Reply to Geeta Gairola Cancel Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top