हमारी कोशिश है कि भिन्न-भिन्न स्वर कविता के हम अनुनाद पर छाप सकें। इसके लिए कभी सीधे कवियों से सम्पर्क करते हैं और कभी किसी के माध्यम से उन तक पहुंचना होता है। इसी क्रम में इस बार हम आलोकवर्धन की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं और माध्यम बने हैं युवा समीक्षक आशीष मिश्र। हमारे आग्रह पर आशीष ने इन कविताओं पर एक छोटी-सी मूल्यवान टिप्पणी भी लिखी है – उनके इस सहयोग के लिए आभ्ाार व्यक्त करते हुए अनुनाद आलोकवर्धन का स्वागत करता है।
आशीष मिश्र का कहना है कि कवि अपनी तस्वीर प्रकाशन हेतु देना नहीं चाहते। उनका परिचय और सम्पर्क बस इतना ही है -आलोकवर्धन, प्रधान सम्पादक – E-News.in E-Mail: alokwardhan@e-news.in
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नारे और
सामान्यीकरण अधिकतर अथार्टेटिव चरित्र रखते हैं । वे ‘अलग’ को परिधि पर धकेलते हुए, बहुत तेजी से अपने को सार्वभौमिक सत्य की तरह स्थापित कर
देते हैं । फिर लोग उसी को दुहराते चले जाते हैं । पिछले तीन-चार वर्षों में 90 के
बाद की कविता पर ख़ूब बहस हुई है । मोटा-मोटी सबकी स्थापनाएँ एक-सी हैं ! सोवियत
रूस के विघटन और बाबरी मस्जिद विध्वंस, दो घटनाओं के सूत्र से पूरी कविता का हल दे दिया जाता हैं
। एक सरलीकरण यह है कि रूस के विघटन के बाद विकल्पहीनता और उदासी फैल गयी । कवियों ने लोक में
शरण खोज लिया । जिन कवियों में उदासी नहीं फैली उनका क्या करें? और इस तरह के कवि कम नहीं
हैं ! इस तरह की यांत्रिक व्याख्याएँ सिर्फ़ आत्म-साक्षात्कार से बचाने के तरीक़े
हैं । आज विकल्पहीनता उतनी ज़्यादा नहीं है जितनी की उन विकल्पों के प्रति
संवेदनशीलता का अभाव । पूरा मध्य भारत सक्रिय है, पूरा लैटिन अमेरिका प्रतिरोध का प्रतीक बना हुआ है । बात
यह है , मध्य वर्ग
अपने को इनसे जोड़ नहीं पाता। वह एक सैलानी नज़र के साथ या तो लोक की तरफ़ जाता है
या फिर अपने में ही घुटता रहता है । आत्मबद्ध दायरे को तोड़ नहीं पाता । इसी को ‘लॉन्ग नाइनटीज़’ और रूस के पतन के नाम पर
सिद्धान्त में बदल देता है। दृश्यप्रपंच को तथ्य की तरह पेश किया जाता है ।
आशीष मिश्र का कहना है कि कवि अपनी तस्वीर प्रकाशन हेतु देना नहीं चाहते। उनका परिचय और सम्पर्क बस इतना ही है -आलोकवर्धन, प्रधान सम्पादक – E-News.in E-Mail: alokwardhan@e-news.in
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आशीष मिश्र |
इस तरह देखेंगे तो ये असुविधाजनक कविताएँ हैं । इन कविताओं में दुनिया को बदलते देखने की ललक और भविष्य के प्रति एक आशा है । यही आलोकवर्धन का मूल स्वर है । ये बातें जीवन-जगत के तार्किक निष्कर्षों की तरह निकलती हैं । इस प्रक्रिया में अपने को प्रमाणित भी करती हैं । ऐसा न होने पर इसे भावुकता और लफ़्फ़ाजी कहा जाता । इन कविताओं में किसी तरह की ‘विशिष्ट छविमयता’, चमत्कार और सम्मोहन का प्रयास नहीं मिलेगा ।
-आशीष मिश्र
आलोकवर्धन की कविताएं
जंगल कहाँ है?
जंगल कहाँ है?
यह सवाल नहीं, खोज है
कि जंगल वहां है
जहां
कुल्हाड़ियां उठी हैं
और कुल्हाडियों के ख़िलाफ़
पेड़ खड़े हैं।
जंगल वहां है
जहां,
हम और आप खड़े हैं
और हमारे बीच
बिगड़ती,
बनती दुनिया की संभावनायें हैं,
लातिनी अमेरिका है
वॅालस्ट्रीट है
डॅालर की बोझ से दबता यूरोप है
और सुलगते अफ्रीकी देशों में
एक लाख लोगों से भरा तहरीर चौक है।
जगंल वहां है
जहां
हमारे होने की फ़सल बढ़ रही है
और बढ़ रहे हैं, वे लोग
जो हमारे होने के ख़िलाफ़ हैं,
जो हमें
इराक,
अफ़गानिस्तान
और लीबिया बनाने पर आमादा है।
वे जानते नहीं
कि जंगल क्यूबा है
वेनेजुएला और बोलेविया है।
जंगल
इस्त्राइली टैंक पर
पत्थर फेकने वाला फ़िलिस्तीनी बच्चा है
जिसे गोली मार दी गयी।
कि जंगल
अब चीख़ नहीं
सरसराती सी बढ़त
और सरगोशियों से भरी आवाज़ है।
जंगल वहां है
जहां
आने वाले कल की
अधूरी बात पूरी हो रही है,
जंगल वहां है
जहां
कुल्हाडियों को पेड़ ढूंढ रहे हैं।
धूप की ख़ुशी
ख़ुशी
किसी चिड़िया का नाम नहीं
जो ज़िन्दगी की डाल पर
आकर बैठ जाये
और चहकने लगे।
छेड़े ऐसी राग
कि साज़ कोई बजने लगे।
ख़ुशियां आने से पहले
ज़िंदगी का सत्त निचोड़ लेती हैं।
ज़िंदगी
कामकाजी हाथों के बीच
भीगे कपड़े-सी निचोड़ी जाती है,
फिर भी
भीगी की भीगी रह जाती है।
भीगे–भीगे दिन,
भीगी–भीगी रातें
और
भीगे–भीगे लम्हों के बीच
धूप सेंकते हुए, सूखने का सुख
बड़ी मुश्किल से मिलता है।
पत्नी लगे हाथ
घर का सारा काम
निपटा लेना चाहती है,
बच्चे
उम्रके हिसाब से हाथ बंटाते हुए
कोई खिलवाड़ कर लेना चाहते हैं,
खिड़की पर
आकर बैठी गौरईया
भीगे कपड़ों को निहारती है,
चोंचसे
झाड़कर परों को
हाथ आने से पहले उड़ जाती है।
उड़ते हुए समय के बीच
ख़यालों में
मां की तरह बसे लोग
मुझे,
बड़ी हसरत से देखते हैं।
देखता हूं मैं
भीगे कपड़े,
भीगे लम्हे
और ओस से भीगी सर्दी की सुबह को,
और
अरगनी सा
एक छोर से दूसरे छोर तक
तनता जाता हूँ
***
सुबह रोज़ होती है
मेरा दिल
अपनों के लिये प्यार से
भरा हुआ है,
मैं कभी अकेला नहीं होता,
नही ख़ाली होता
हूं, कभी काम से।
काम करने के लिये
काम की कमी नहीं होती है भाई, अपनों के लिये।
एक लड़का
भीख मांगता है,
कचड़ा बिनता है,
या पढ़ने के लिये स्कूल जाता है, कहीं।
एक औरत
चैका–बर्तन करती है,
अपने को बेचती है,
या काम करने जाती है कहीं।
एक आदमी
खेती–किसानी करता है,
पीठ पर सामान ढोता है,
या दिन–रात काम से लगा रहता है, कहीं।
यह मानने में कोई हर्ज़ नहीं है
कि उन्हें जो मिला है, वो उसे ही जीते हैं।
यह सवाल करने में कोई हर्ज़ नहीं है
कि क्या अपनों के लिये ऐसे ही जिया जाता है?
जो लोग
जीते हैं अपनों के लिये
वो लोग क्या ऐसे ही होते हैं?
एक लड़का
अपनी काली आंखों में
उजाले का सपना भरता है।
एक औरत
अपनी कामकाजी अंगुलियों से
आने वाले कल का सपना बुनती है।
एक आदमी
अपनी नाराज़गी को मुट्ठी भींचे
कभी हथियार,
कभी जुलूस को देखता है।
एक प्यारी-सी बच्ची
सुबह की तरह लाल फ्राक पहने
यहां–वहां भागती फिरती है,
कभी किसी दरवाजे पर दस्तक देती है,
कभी किसी के चेहरे को छूती है,
कभी हथियार
कभी जुलूस के
आगे–पीछे चलती है।
मेरे भीतर एक बच्ची
काम की नयी संभावनायें भरती है।
लोग कहते हैं– ‘‘सुबह रोज़
होती है।‘‘
अपनों के लिये
प्यार से भरा मेरा दिल
अपनों के प्यार से भरने लगता है।
मैं कभी अकेला नहीं होता,
नही ख़ाली होता हूं,कभी काम से।
काम करने के लिये
काम की कमी नहीं है भाई, अपनों के लिये।
अपने
जो न हारने वाली लड़ाई लड़ रहे हैं।
***
अभी अख़बार का निकलना बाक़ी है
सुबह
अख़बार में छपे
एक विज्ञापन से मिलना हुआ,
जिसमें
किसी लड़की की हंसती हुई सूरत नहीं थी,
ना ही,
अपनी ओर खींचने वाले
किसी आदमी की तस्वीर थी विज्ञापन में,
तस्वीर थी
अब तक शिनाख़्त नहीं हुए, मुर्दा चेहरे की।
न जाने क्यों
उस तस्वीर में मुझे वह आदमी दिखा
जो अपने देश, अपने महाद्वीप
और अपनी दुनिया को, ,बदलना चाहता था उन्हें
जिनके हाथ पीछे बांध कर सिर पर गोली मारी गयी।
छब्बीस हज़ार हवाई उड़ानों से भरे आसमान
और बमों के धमाकों से–
उधड़ी ज़मीन पर
मलबों के बीच जो बच गये,
तस्वीर मुझे उन्हीं में से एक की लगी।
तस्वीरों से मैंने
बहुत प्यार किया है,
तस्वीरों से ही मैंने उन्हें देखा और चाहा
और जिया है
जिनसे आजतक नहीं मिला।
मिल–बैठकर जिनके साथ
न तो चाय,
ना ही सिगरेट पी,
ना ही जो है,
उसे बदलने की बातें हुई उनसे,
फिर भी,
जिनके साथ जीना, मरना,
अच्छा लगा।
लगने को यह भी लगा
कि जिस आदमी की सूरत
बालों के बीच से उभरती है,
उसकी सूरत मेरे होने से अलग नहीं है।
वह आदमी,
जिसकी खोपड़ी चमकती है
और दाढ़ी छोटी है,
उस आदमी की तस्वीर भी मुझे अपनी लगती है।
मोटा सिगार पीता वह आदमी
जिसकी टोपी पर लाल सितारा है चमचम,
जिसे गोलियों से भून दिया गया,
जो मारा गया।
उसकी तस्वीर मुझे यक़ीन दिलाती है
कि वह ज़िंदा है।
शिनाख़्त न हुए लोग और लापता दर्ज़ वे लोग
जिनसे उनकी पहचान छीन ली गयी,
जिनके शिनाख़्त का विज्ञापन नहीं छपा,
ऐसे लोग जिन्हें गुमशुदा भी दर्ज़ नहीं किया गया,
न जाने क्यों मुझे लगता है
मेरी सूरत
–ज़िंदा सूरत– मुर्दा चेहरों से बनी है।
मेरे भीतर
वह लड़की हंसती है
जो अब तक पैदा नहीं हुई।
मेरे भीतर
वह सुबह रोज़ होती है
जिस सुबह से मिलना, अभी बाक़ी है,
अधूरे काम और अधूरे आज का
पूरा होना अभी बाक़ी है।
उस अख़बार का निकलना अभी बाक़ी है
जिस अख़बार में
शिनाख़्त के लिये कोई मुर्दा चेहरा नहीं होगा।
अख़बार में तस्वीर उनकी भी होगी
आज जिन्हें सामूहिक क़ब्रगाहों में दफ़न किया गया
जिनके माथेपर गोली मारी गयी है।
***
हमारी तादाद बढ़ रही है
कहने को
कहा जा सकता है
कि हम मुट्ठी की तरह बंधे नहीं हैं,
मगर
हम जहां खड़े हैं
हमारी तादाद वहीं बढ़ रही है,
और हम, चौराहे पर खड़े हैं(!)
हम,
जंगल–पहाड़
नदी के किनारे बसी बस्ती
और खदानों में खड़े हैं,
हम,
अपनों के बीच
और दुश्मनों की जमात में खड़े हैं।
हम,
वहां खड़े हैं,
जहां से एक नदी
सोते की तरह फूटती है
और लोगों को
अच्छी फ़सल की सौगात सौंपती है,
हम वहां खड़े हैं,
जहां हर एक पांव के नीचे
अपनी ज़मीन है,
ज़मीन के बारे में हम क्या कहें,
ज़मीन हदों के इस ओर
और हदों के उस पार है।
हम,
जहां खड़े हैं
हमारी तादाद वहीं बढ़ रही है।
***
मेज़ पर रखे पत्थर को देखकर
मेज़ पर रखे
पत्थर को देखकर
न जाने क्यों लगता है मुझे
कि अपने होने की समझ, बढ़ रही है।
उसमें छुपी आकृतियां
पहाड़ों से मिलती हैं,
गजमस्तक
और ऊंची मिनारों से मिलती है,
सपाट चट्टान
और दीवारों से मिलती है,
उन लोगों से मिलती है
जो खड़े होते हैं, तनकर
और जिनकी मांस–पेशियां
पत्थरों की तरह सख़्त होती हैं।
फिर भी,
जो होते हैं तिनकों की तरह मुलायम
जो परिंदों के नीड़ में
उड़ान की तरह होते हैं,
जिनकी जड़ें
न जाने होती हैं कितनी गहरी,
जो मुट्ठी में ज़मीन के होने को
बड़ी शिद्दत से महसूस करते हैं।
मेज़ पर रखा पत्थर
न जाने क्यों मुझे
टूटे हुए पत्थर की
कसी हुई अंगुलियों सा लगता है।
यह भी लगता है मुझे–
–रात जब गहराती है–
कि पत्थरों के बोल फूट रहे हैं
अंगुलियां
कागज़ पर लिखे
शब्दों पर फिर रही हैं।
परछाई की तरह हाथ बांधे कोई आदमी
यहां से वहां
और वहां से यहां सधे क़दमों से चल रहा है,
जंजीरों के रगड़ खाने
और सलाखों से टकराने के बीच
पन्नों के पलटने की आवाज़ सुनाई पड़ती है,
यक़ीनन,
पत्थर बेहिज,
बेजान नहीं।
उनमें
छुपी होती हैं आकृतियां,
पहाड़ों की बाढ़
नदी की रवानी
झरनों का मुखर संगीत
और परिंदों की उड़ान होती है।
चीख़,
पुकार
और न टूटने वाले संघर्षों की
अमिट छाप होती है।
मेज़ पर रखे
पत्थर को देखकर
न जाने क्यों लगता है मुझे
कि उनमें,
अपने होने की समझ, बढ़ रही है।
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प्रस्तुतकर्ता : आशीष मिश्र, बी.एच.यू. से केदारनाथ सिंह की कविताओं पर शोधकार्य। लेखन ही आजीविका और दिल्ली में रहवास।
अच्छी कविताएं।