(राहुल देव युवा समीक्षक हैं। अभी उन्होंने असुविधा ब्लॉग पर आत्मारंजन के कविता संग्रह पर बहुत सधी हुई समीक्षा लिखी है। अनुनाद पर वे पहली बार प्रकाशित हो रहे हैं। हमारी इस पत्रिका में उनका सहयोग अपेक्षित था, आभार और स्वागत।)
युवा
कवि हरेप्रकाश उपाध्याय का वर्ष 2009 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनका पहला
कविता संग्रह ‘खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कवितायेँ’ पढ़ने का मौका मिला | इससे
पहले मैं उनका पुरस्कृत उपन्यास ‘बखेड़ापुर’ ‘तद्भव’ में पढ़ चुका था | इससे पहले मैं
उनकी कुछेक कवितायेँ भी अंतर्जाल पर यत्र-तत्र पढ़ चुका था | उनकी कविताओं ने मुझे
गहरे तक छुआ था और यह उनकी कविताओं की ही ताकत थी कि मजबूरन मुझे ज्ञानपीठ से उनका
संग्रह पढ़ने के लिए मंगवाना पड़ा |
उनके
इस संग्रह में तिरपन कवितायेँ हैं | पाठक से कवि का संवाद पहली ही कविता से बनता
चला जाता है | इस कविता का शीर्षक है ‘वर्तमान परिदृश्य में’ | रेखांकित की गयी
पंक्तियों से जुड़ें तो “सफ़ेदपोश एक/ भाषण दे रहा है हवा में/ हवा में उड़ रही है
धूल/ वृक्षों से झड़ रही हैं पत्तियां/ मगर मौसम पतझड़ का नहीं है/ परिदृश्य में नमी
है” यानि कवि को अपने समय की पहचान है | इस परिदृश्य में बैठकर कविता लिखना
कितनी पीड़ा से गुज़रना है पाठक स्वयं महसूसता है, सिहरता है | अगली कविता ‘पूछो तो’
में व्यक्ति की आत्मा की ऊष्मा का ख़त्म होना कवि की चिंता का विषय बनता है | कितनी
गंभीर परिस्थिति है कि आदमी की आँख का पानी तक मर चुका है | यह कैसा समय है जहाँ
हवा, धरती, आकाश भी अपने नहीं रह गये हैं | कवि मन कविता के माध्यम से प्रश्न करने
पर विवश होता है | कविता में अपना कहा अनकहा कहने के बाद अंत में वह कहता है “हमेशा
बचाकर रखो एक सवाल/ पूछने की हिम्मत और विश्वास” यहाँ पर कवि आशावादी है,
निर्भीक है | अपने हक के लिए कम से कम प्रश्न पूछने की हिम्मत और विश्वास तो हमारे
अन्दर होना ही चाहिए | अगर हममें यह इच्छाशक्ति भी नहीं तो हमारे जिंदा रहने या मर
जाने में कोई अंतर नहीं होगा |
हरेप्रकाश की कविताओं का संसार उनकी मौलिक और व्यापक जीवनदृष्टि का परिचायक है | उनकी
कविताओं के विषय न जाने क्यूँ बहुत अपने से लगते हैं | उनकी कविताओं की बगैर
बनाव-श्रृंगार वाली सहज, सरल शैली पाठक मन को स्पर्श करने में सर्वथा सफ़ल है |
संग्रह की अगली कविता ‘घर’ ही को देखें तो यह कविता एक भारतीय मध्यमवर्गीय घर की
स्थिति का बहुत अच्छा शब्दचित्र उकेरती है | कवि अपनी इस कविता में मानो किसी
पेंटिंग की व्याख्या करता हुआ कविता लिख रहा है, ऐसा प्रतीत होता है | इस कविता
में वह लिखते हैं, “घर में सब रिश्ते-नाते हैं/ एक दूसरे से बंधे/ एक-दूसरे से
संत्रस्त/ घर में सम्भावना है/…………./ घर में कुछ ज़रूरी चीज़ें हैं/ कुछ
दिखाई पड़तीं, कुछ छुपकर रहतीं/…………./ घर में एक छिपकली/ रोज़ दीवार पर चढ़ती
है/ रोज़ गिर जाती है/ घर में न जाने कितनी मक्खियाँ रोज़/ बगैर सूचना के मर जाती
हैं…” ऊपर से देखने पर घर जैसा दिखता यह घर सिर्फ एक घर मात्र नहीं है | अगर
यही कैनवास थोड़ा बड़ा करें तो यह कविता एक बड़े मानचित्र की ओर संकेत करती है | इसके
तुरंत बाद अपनी अगली कविता ‘सोचो एक दिन’ में वह लिख रहे हैं “भाइयों अपने
अरण्य से बाहर निकलकर/ सोचो एक दिन सब लोग/ धरती ने शुरू कर दी दुकानदारी तो क्या
होगा ?” यह कविता अपसंस्कृति और पूँजीवाद के भयानक चेहरों के प्रतिपक्ष में एक
सशक्त साहित्यिक बयान है | मनुष्य के जीवन और उसका समय का गंभीर साहित्यिक
रोजनामचा बनती हैं ये कवितायेँ |
कवि
समाज के निम्न से निम्नतर व्यक्ति के पक्ष में खड़ा होकर कवितायेँ लिखता है | हर
वर्ष नया साल आने पर उस वर्ग के हिस्से में कोई विशेष हलचल नहीं होती | ऐसा लगता
है नए साल पर आयोजित होने वाले उत्सव सिर्फ अभिजात्य वर्गों के लिए ही बने हैं |
गरीब और निचले तबके के लोगों के लिए जीवन संघर्ष सदियों से एक जैसा ही है | उनकी
स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन आज भी दिखाई नहीं देता | ‘इस बरस फिर’ शीर्षक से
लिखी गयी यह कविता इस बहाने वर्तमान सन्दर्भों में शोषक-शोषित के जीवन यापन में
व्याप्त विरोधाभास की गहन पड़ताल करती है |
हरेप्रकाश
की कविताओं की एक और विशेषता रेखांकित करने योग्य है, वह यह कि वे किसी
बंधे-बंधाये खांचे में बैठकर कविता नहीं लिखते | उनकी कविता सिर्फ अपनी बात नहीं
करती बल्कि बगैर किसी शोर-शराबे के, परिवेश का मुखर पोस्टमार्टम करती है | इनकी
तमाम कविताओं से गुज़रते हुए ऐसा लगता है कि जीवनानुभवों ने उन्हें बहुत कुछ सिखाते
हुए समय के साथ बहुत मजबूत और परिपक्व बना दिया है | उनके विचार, भावबोध और
अनुभूतियाँ घनी होने के बावजूद उनमें कहीं भी क्लिष्टता या बोझिलपन नहीं है |
कविताओं में शब्दों के अनावश्यक प्रयोग से उन्होंने अपने को बचाया है जिसकी वजह से
बेहद प्रभावी कवितायेँ बन पड़ी हैं | ‘मास्टर साहब’, ‘गाँधी जी’, और ‘डरना मत भाई’
शीर्षक कवितायेँ पढ़कर यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कवि अपनी ज़मीन से कितने
गहरे तक जुड़ा रहा है | ‘औरतें’, ‘एक लड़की’ व ‘हमारे गाँव में लड़कियां’ शीर्षक
कविताएं पढ़कर कहा जा सकता है कि वह स्त्री विमर्श करते हुए फौरी तौर पर अपना कोई
फाइनल निर्णय नहीं देते बल्कि समाज में उसकी बदलती स्थिति के सच को उठाकर कविता
में पाठक के सामने रख देते हैं कि लो भई अब तुम ही निर्णय करो | ‘बच्चियां : कुछ
दृश्य’ में दस शब्दचित्रों के बहाने स्त्री के विस्तृत इतिहास भूगोल के विभिन्न
रूप सामने रखते हुए वे हमें कुछ ठोस मापदंड निर्धारित करने का वैचारिक आधार प्रदान
करते हैं | इसी तरह अपनी कई कविताओं में वह पाठक मन को अतिक्रमित नहीं करते बल्कि अपनी
बात साफ़ साफ़ कहने के बाद पूरे भरोसे के साथ सारे निर्णय के अधिकारों का स्पेस पाठक
के लिए खुला छोड़कर पाठक के साथ हो लेते हैं | इस संग्रह की कई कविताओं में गाँव का
नास्टेल्जिया भी सामने आता है | इनकी कविताओं में व्यक्त सरल, सीधी और सहज भाषा
उनकी कविताओं की ताक़त बनती है | इस कवि को अपने शब्दों की अहमियत बखूबी पता है |
संग्रह
में ‘चाँद’ शीर्षक कविता देखें तो, “…अब जबकि/ रात और दिन का फ़र्क जानने लगा
हूँ/ रात मुझे हमेशा डरावनी/ और खौफ़नाक लगती है/……../ आखिर कोई बात है ज़रूर/
जिससे चाँद हादसों से भरे समय में/ पूरी यात्रा में कहीं लहुलूहान नहीं हो पाता है
|” कई बार वे कविता में पुराने पड़ चुके प्रतीकों, बिम्बों में अपने कथ्य की
ऊँचाई से कविताओं में नई जान फूंकते हैं | अगली कविता ‘सूरज’ के सन्दर्भ में भी
यही बात लागू होती है | तो वहीँ ‘अभागा’ शीर्षक कविता में तथा इस प्रकार की अपनी
अनेक कविताओं में हरेप्रकाश मरती जा रही मनुष्यता के अनिवार्य तत्व की खोज़ करते
हैं | उन्हें आश्चर्य नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि यह स्थिति अचानक, बैठे-बैठे
यूँ ही हो गयी | कवि ने इन कविताओं में उन कारणों के सूत्र पकड़ने की सार्थक कोशिश
की है | ‘अभागा’ में जब वह लिखते हैं, “….उसके ओढ़ने पर/ खटमलों और कीटों का
कब्ज़ा है/ और उसकी मोमबत्ती की रोशनी/ बदचलन है/ जो उसके लिए सिकुड़ जाती है/ बाकी
सबके लिए फ़ैल जाती है/ हालांकि वह ईश्वर से कोई शिकायत नहीं करता…” या फिर
‘लुहार’ जैसी कविता | ये कवितायेँ विशुद्ध जनपक्षधर कविताएं हैं | इन कविताओं में
कहीं न कहीं ईश्वर, धर्म जैसी चीज़ें युगों-युगों से उसे उसके ख़िलाफ़ चलने वाली किसी
साज़िश का हिस्सा लगने लगती हैं | ऐसे परिवर्तन अनायास या एकाएक तो नहीं होते |
‘हाट
ही सब बिकाय’ कविता बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव तथा भविष्य के प्रति कवि की वाजिब चिंता
का परिचायक है | मानवीय संवेदनाओं का दिनोंदिन ह्रास हो रहा है | ग्लोबलाइजेशन
हमारे जीवन में घुसकर किस तरह अपने पैर पसार रहा है इस कविता में वह लिखते हैं, “मगर
जब से दुनिया ही हो गयी है गाँव/ और गाँव हो गया है हाट/ बदल गये हैं नज़ारे/ वह
दालान ढह गयी है जहाँ/ मिल जुटकर बतियाते थे ग्रामीण/ भैया, चाचा, बहिनी सब हो गये
हैं दुकानदार” यहाँ तक ही होता तब भी गनीमत थी मगर इस मायावी की इन्तहां तो
देखिये, आगे की पंक्ति में आता है कि- “खरिका भी हुआ तो बिका” | यानि कि
दांत खोदने के काम में आने वाला वह छोटा सा खरिका जिसकी कोई कीमत नहीं होती वह भी
बिकने लग गया है अब तो बताइए कि आगे क्या कहा जाए और क्या सुना जाए ! विकास की
शर्तें तय करने वाले लोग सिर्फ अपना हित साध रहे हैं उन्हें आमजन के जीवन व दुःख
दर्द से कोई मतलब नहीं रह गया है | उन्हें तो बस हर जगह अपना प्रॉफिट नज़र आता है |
ऐसी विकट स्थिति में कविता चुप कैसे रह सकती है | हरेप्रकाश अपने इन सरोकारों के
प्रति पूर्ण प्रतिबद्ध नज़र आते हैं |
कवि
कल्पनाशील भी है, ‘ऐसा नहीं होता तो’ शीर्षक कविता तो वहीँ ‘राजा और हम’ कविता में
शासक और शासित का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है | इन कविताओं का प्रवाह
और लय गज़ब की है | संग्रह में ‘मुश्किल’ शीर्षक से एक कविता आती है जो वर्तमान की
तमाम सामाजिक विसंगतियों पर भरसक प्रहार करती है | इस कविता में एक जगह कवि कहता
है, “यहाँ बड़ा गड़बड़ है/ गड़बड़ हैं आवागमन के नियम/ बटोही भी इतने डरे हैं कि भूल
गये हैं कायदे/ सब सिर्फ भाग रहे हैं/ जैसे सबका पीछा किया जा रहा हो” या फिर “…मेरा
यकीन है/ आप अपनी आत्मा पर हाथ फेरें/ तो खून लग जाएगा आपकी हथेलियों में |” इस
कठिन दौर में मनुष्य की आत्मा छलनी हो गयी है | कवि को अपने देश और अपने लोगों से
बहुत प्यार है उन्हें उनके हाल पर छोड़कर कहीं दूर चले जाना उसे गंवारा नहीं | इस
स्थल पर किसी कवि की निम्न पंक्तियाँ अनायास स्मरण हो आती हैं, “साथ चलने के
बटोही/ बाट की पहचान कर ले” | उनकी इस विशेषता से कविताओं की पठनीयता में
वृद्धि तो होती ही है साथ ही यह बात उनकी कविताओं को तमाम अन्य कवियों से अलग भी
करती है | संग्रह की सभी कवितायेँ अपने अभीष्ट की पूर्ति में सफ़ल सिद्ध होती हैं |
पाठक इनसे एक बार जुड़ता है तो इनकी कविताओं के विशिष्ट संसार में खो सा जाता है |
कविता की चेतना पाठक की आत्मा से गंठ जाए, एक कवि को और क्या चाहिए !
इतनी
मुश्किलात के बावजूद कवि आश्वस्त है कि ‘दिन होगा’ | हरेप्रकाश अपनी कविताओं के
माध्यम से पाठक को प्रचलित मान्यताओं के प्रति अपने नज़रिए पर पुनर्विचार करने पर
विवश कर देते हैं | उनकी ‘इतने दिनों बाद’ शीर्षक कविता में कुछ स्मृतियाँ हैं,
कुछ प्रश्न हैं | ऐसा लगा कि कवि अपने अन्दर की उथलपुथल (परिवर्तनों) को महसूस कर
कभी कभी स्तब्ध भी हो जाता है | सचमुच एक सच्चा कवि इस जगत का सबसे संवेदनशील
प्राणी होता है | कहीं न कहीं सामाजिक बेड़ियों के बंधन ढीले जरूर हुए हैं लेकिन
उसने वह पूरी तरह स्वयं को मुक्त कर पाया हो, ऐसा नहीं लगता | संग्रह में उसके मानवीय
सरोकारों को दर्शाती एक महत्त्वपूर्ण कविता ‘फूल’ की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं, “यह
कैसा मज़ाक है/ कि तेतरी के हाथ से/ बने फूल/ हँसते हैं/ और तेतरी के हाथ/ हंसी को
तरसते हैं !” यह विरोधाभास कवि को व्यथित करता है और कविता फूटती है | या उनकी
‘घड़ी’ शीर्षक कविता को ही ले लें “हमारे धनवान पड़ोसी के घर में/ जो घड़ी है/ उसे
हमारी-आपकी क्या पड़ी है !” उनकी कविताओं में यत्र-तत्र तीव्र व्यंग्य भी
लक्षित किया जा सकता है | हरे कहीं भी जोड़तोड़ कर कविता का कृत्रिम शब्दाडम्बर नहीं
रचते न ही बहुत बड़ी बड़ी बातें करते हैं वह तो चुपचाप बगैर किसी शोर-शराबे के युगीन
जटिलताओं के मध्य आदमी और उसके समय का काव्यात्मक आख्यान रचते हैं | उनकी यह
विशेषता कविता के पाठक को अपनी ओर स्वयमेव खींचती है | इनकी कवितायेँ भाव व
विचारों के अद्भुत संतुलन के साथ अपनी मौलिक गति से आगे बढ़ती हुई अपनी राह खुद
बनाती हैं और अपने समय को साथ लेते हुए पाठक से आत्मीय संवाद स्थापित करती हैं |
कविता
संग्रह की ‘ख़बरें छप रहीं हैं’ को देखें तो यह कविता बड़े गंभीर प्रश्न खड़े करती है
| वह कहते हैं, “रात चढ़ रही है/ और ख़बरें छप रही हैं/…./छुपाया जा रहा है
काली स्याही में/ छुपाया जा रहा है/ हमारा वजूद तमाम यातनाओं के इतिहास के साथ/ और
बताया जा रहा है/ कि हमें शिकायत ही नहीं/ कि हम मगन हैं सुख के भजन में/ हरमेश
हमें/ दिन भर काम मिला/ और शाम को मंजूरी/ मौके-मौके ईनाम मिला..” विचारणीय है
कि ख़बरें छप रही हैं | उनके छपने-लिखने-पढ़ने वाले एक हैं | ख़बरें जिनके बारे में
होनी थीं उनका पता नहीं | शासन-सत्ता बेख़बर, सन्नाटा बेहिसाब लेकिन ख़बरें छप रहीं
हैं, धड़ाधड़ ! दूसरी ओर अपनी ‘महान आत्माएं’ शीर्षक कविता में उन्होंने तथाकथित
महान विभूतियों पर करारा व्यंग्य किया है | हरे अपनी अधिकांश कविताओं में कविता के
निर्वाह तत्व का निर्वहन बड़ी कुशलता से करते हैं | इस कविता में भी अंततः मनुष्य
नामक विचित्र जीव की इंसानी फितरत सामने आ ही जाती है, “हमारी उदासी बढ़ती जाती
है/ मगर हम सभागार में जाना बंद नहीं करते/ और किसी दिन हमारे भीतर भी/ चील का
स्वप्न अपने पूरे वजूद के साथ/ कुलांचें भरने लगता है |”
‘हम
पत्थर हो रहे हैं’ शीर्षक कविता में कवि ने इस दौर को भरोसाहीन कहा है | यह पूरी
कविता यहाँ उधृत किये जाने योग्य है लेकिन समीक्षा के विस्तार भय से मैं ऐसा नहीं
कर पा रहा हूँ | इस एक कविता को पढ़कर माहौल की भयंकरता का अंदाज़ा लगाया जा सकता
है, यह कविता हमें भयानक भविष्य के प्रति आगाह भी करती है | संग्रह की ‘पिता’,
‘बारिश’, ‘इस शहर में’ व ‘व्यथावृत्त’ काफी मार्मिक कवितायेँ हैं | ‘व्यथावृत्त’
में कवि कहता है, “सब चाहते तो थे/ कि एक-दूसरे के कंधे पर/ अपना माथा रखकर/
मिल-जुलकर रोएं/ पर सब अपने-अपने कंधे बचाना चाहते/ और आँसू तो कतई नहीं दिखाना
चाहते/ सब दुखी थे और ख़ुश थे/ वही दुख को दुख की तरह/ कहने और नहीं सहने का साहस
कर रहा था/ इसलिए हास्यापद हो रहा था” | हरेप्रकाश, “बुरे वक़्त में/ बुराई
के विरोध में वे/ कविता में प्रतिरोध रचते हैं” (अच्छी कवितायेँ शीर्षक कविता से)
| संग्रह की ‘दुःख’ शीर्षक कविता में एक सच्चे कवि के जीवन की विडम्बनाओं-
विरोधाभास का चित्रण मिलता है | संग्रह में आगे ‘गाँव’ शीर्षक से एक और अच्छी
कविता आती है | इस कविता की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं, “मेरा एक देश था अपना/
जिसमें मुझे कहीं जाने और रहने की आज़ादी थी/ पर यह आज़ादी बस थी/ इसके होने का कोई
मतलब नहीं था/ इस देश की राजधानी में/ जहाँ गाँव एक बहस था/ मैं बिसूरता घूमता इस
ठिकाने-उस ठिकाने/ मेरा अपना कोई ठिकाना नहीं था/ कल जो पता बताया तुम्हें/ सुबह
वह ठिकानाहीन है” इस प्रकार कुछेक कविताओं में सपाटबयानी, कथात्मकता, वर्णन
शैली दृष्टिगोचर होती है | हालाँकि इनमें कवि के स्वयं के जीवन के कुछ तिक्त अनुभव
भी शामिल मालूम होते हैं जिससे घटनाक्रम का सही परिदृश्य उभरता है | कई बार कथ्य
को खोलने के लिए यह आवश्यक भी हो जाता है | यहाँ पर मेरा विचार परम्परागत आलोचकों
से अलग है, इसे कविता की कमज़ोरी नहीं बल्कि इन तत्वों को कविता के विकास का सहायक
टूल मानना चाहिए |
संकलन
की कविता ‘क्या ऐसी स्त्री को जानते हैं’ या फिर ‘लिख नहीं पाता’ जैसी बेहतरीन
कवितायेँ जहाँ कवि की उदात्त प्रेम भावनाएं व्यक्त हुई हैं | कवि के अन्दर इस
दुनिया के दुःख-दर्द को जानने-समझने की ललक दिखाई पड़ती है | या ‘मुकदमा’ जैसी
कविता ही ले लें जिसे पढ़कर लगता है कवि के अन्दर अदम्य जिजीविषा है | इस कविता में
वह कहता है, “हमें चेतावनी दी गयी है/ कि हम समय की अवमानना के संगीन जुर्म के
अपराधी हैं/ हम क्षमा मांग लें/ समय की अदालत में/ नहीं तो हम पर पहाड़ तोड़कर
गिराया जाएगा/ या बिजली गिराई जायेगी” | ‘मन’ शीर्षक कविता में कवि मन के
मनोविज्ञान को कविता में पकड़ने की कोशिश करता दिखता है | यह ‘सच’ शीर्षक कविता की
निम्न पंक्तियाँ, “देखो कैसा कुहरा पसरा है/ इसे ही समझ रहा हूँ/ सच्चे जीवन
में झूठी जिंदगी जी रहा हूँ/ फिर भी सच्चाई इतनी/ कि सब सच-सच बता रहा हूँ…!”
रेखांकित करने योग्य पंक्तियाँ साबित होती हैं | ‘दुखी दिनों में’ नामक कविता में
कवि अपने साथ साथ पाठक को भी भावुक कर देता है |
संग्रह
की शीर्षक कविता ‘खिलाड़ी दोस्त’ एक जानदार कविता है | संभवतः यह कवि की पसंदीदा
कविता भी हो | “खेल में पारंगत दोस्त/ खेल में अनाड़ी दोस्त से ही/ अक्सर खेलते
हैं खेल !” दोस्ती का नक़ाब ओढ़े स्वार्थी दोस्तों (देखा जाए तो जो दुश्मनों से
भी बत्तर हैं) के दोहरे चरित्र को बेनकाब करती है यह कविता
‘बुराई के
पक्ष में’ शीर्षक कविता में हरेप्रकाश बुराई की एक अलग
समाजशास्त्रीय तस्वीर पेश करते हैं क्योंकि कई बार बुरी लगने वाली चीज़ों के भीतर
में भी कुछ अच्छाई छिपी हो सकती है | बुराइयों के प्रति कवि
की यह सहानुभूति प्रत्येक के प्रति कवि के एक समान सकारात्मक पक्ष को उद्घाटित
करती है | चीज़ों को देखने का, कवि का
एक अलहदा नज़रिया प्रस्तुत करती हुई कविता है यह |
इस प्रकार ईमानदारी से कहूँ
तो हरेप्रकाश उपाध्याय अपनी समस्त कविताओं के माध्यम से बेहतर कल की उम्मीद जगाते
हैं | इस संग्रह की सभी कवितायेँ मुझे बहुत अच्छी लगीं | उनके इस संग्रह को पढ़
चुकने के बाद अब मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि वह कथाकार से पहले समकालीन
हिंदी कविता में नयी पीढ़ी के एक महत्त्वपूर्ण, संवेदनशील और सजग कवि हैं | शुभकामनायें !
संपर्क-
9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर (उ.प्र.) 261203
ईमेल-
rahuldev.bly@gmail.com
युवा समीक्षक राहुल देव के द्वारा की गई समीक्षा इस किताब को पढने के लिए उत्सुक करती है | कवि हरे प्रकाश उपाध्याय और राहुल देव को शुभकामनाएं | अनुनाद का आभारी हूँ
अपनी दावेदारी रखने के साथ इनमें विभिन्ता है. मुझे कविताओं की भाषा अच्छी लगी साफ़गोई है। उम्मीद को जागती कविताएं हैं। समीक्ष बहुत बढ़िया है।
खिलाड़ी दोस्त हरेप्रकाश की बेहतरीन कविता है । हालाँकि हरे को प्रमोद रंजन के मार्फत खूब पढ-आ था । और कोई खास राय मैं नही बना पा रहा था उन की कविताई पर । पर खिलाड-ई दोस्त ने मुझे हरे की अन्य कविताओं को फिर से पढने के लिए उकसाया
उपाध्याय जी की कविताएं बहुत सरलता से सच बयानी करतीं हुईं ….उसके साथ ही शिरीष जी आपकी समीक्षा बेहद उम्दा लगी…धन्यवाद .
हरे प्रकाश हमारे समय के किस तरह से प्रासांगिक व ज़रूरी कवि हैं,कैसे उनकी एक भिन्न दृष्टि है।यह इस आलेख में बखूबी चित्रित हुआ है।बधाई।