‘उधेड़बुन’
हर सजीव प्राणी के अन्दर कभी न कभी अवश्य होती है | छोटे लोगों के पास अपनी छोटी
उधेड़बुनें हैं तो बड़े बड़े लोग बड़ी बड़ी उधेड़बुनों में लगे हैं | इस क्रम में युवा
कवि राहुल देव का आया पहला कविता संग्रह ‘उधेड़बुन’ शैशव से लेकर युवाकाल तक की
तमाम चिंताओं का चित्र देती है | इस कविता संग्रह को हाथ में लेते ही सर्वप्रथम
शीर्षक पर ही मेरी निगाह ठहर गयी, शीर्षक अपने अर्थों में व्यापक है क्योंकि आज के
इस कठिन समय को देखते हुए मनुष्य की दुश्चिंताओं के अन्दर चलने वाली यह एक अनवरत
प्रक्रिया है | ठीक इसी प्रकार किशोरावस्था में रची गयी ये कवितायेँ जबकि कवि
स्वयं को किसी निश्चित बिंदु पर ठहरा हुआ नहीं पाता तब उसकी कविता अपने आंतरिक और
बाह्य संसार से जूझकर अपनी एक अलग राह स्वयं निर्मित करती है | राहुल अपने प्रारंभ
से ही चीज़ों को ‘उधेड़ते’ और ‘बुनते’ रहे हैं और ऐसा मैं निश्चित रूप से इसलिए भी
कह पा रहा हूँ क्योंकि मैं इस कवि के जन्म से लेकर अब तक के निजी जीवन का साक्षी रहा
हूँ |
इस
संग्रह की पहली कविता व्यष्टि को समष्टि में तिरोहित करती दिखाई देती है | तो संग्रह
की दूसरी ही कविता एक लम्बी कविता है | ‘छद्मावरण’ शीर्षक से इस लम्बी कविता में
जीवनानुभूति का विडंबनात्मक, व्यंग्यात्मक चित्र है | पूरी कविता से गुजरने के बाद
लगता है कि कवि में चरित्र चित्रण और चरित्र के अंतर्द्वंध की गहरी पहचान है | यह
कविता यथार्थ का कटु व सजीव अभिव्यक्तिकरण है | एक लम्बी छन्दमुक्त कविता में
निरंतर एक व्यक्ति के अंतःकरण और बाह्य जीवन का द्वंद्व चित्रित करना कवि की
एकाग्रता और सघन अध्ययन का परिणाम है | इस कविता को पढ़ते हुए अपनी कुछ पंक्तियाँ
याद आती हैं –
पैरों में पादुका पहन कौन जान सका-
धूल गर्म होती है कौन पहचान
सका
क्षुधा तृप्त होने पर भूख एक संभ्रम है
असफल व्यक्तियों की पीर कौन जान सका?
इस एक कविता में दूसरा जन्म भी ले आना केन्द्रीय चरित्र का चरित्र चित्रण
की शक्ति और वर्णनात्मक क्षमता से युक्त है राहुल की कलम | थोड़ा ध्यान से पढ़ने पर
मुझे तीन जन्मों की कथा मिलती है एक कवि चरित्र की | एक कविता में तीन जन्मों का
लेखा-जोखा कम शब्दों में सिद्ध करता है कि कविता में सूक्ति शक्ति का सफल प्रयोग
हुआ है | कविता के अंत में किया गया व्यंग्य तीखा है तथा धर्माधीशों को चुभेगा जब
कवि लिखता है कि
प्रसाद रुपी मिष्ठान्न
तुम्हें सिर्फ़ सुंघाया गया
तुम कुछ
नहीं कर सकते थे
लार घोटने के सिवा |
अगली
कविता ‘सपने की बात’ को भी एक लम्बी कविता की श्रेणी में रखा जा सकता है | इस
कविता में कवि अपने व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं का समाधान सपनों में पाता है | सपनों
की यह दुनिया बड़ी रूमानी है और यथार्थ से संपृक्त भी | इस कविता में वह सपनों के
माध्यम से रोमांस, विवाह और देहान्तरण जैसे विषयों को एक साथ पिरो ले जाता है |
‘पतझड़ के बाद’ शीर्षक कविता इस संग्रह की एक दार्शनिक कविता है | विद्वानों का मत
है कि हर दार्शनिक कवि नहीं होता लेकिन हर सच्चा कवि दार्शनिक होता है | उम्र के
जिस दौर में यह कवितायेँ रची गयी है अपने भरपूर अनगढ़पन को लिए हुए कहीं कहीं हमें
सहसा चकित भी करती हैं | मुझे तो लगता है कि शायद कवि को खुद भी भान नहीं रहा हो
कि कई जगहों पर वह कितनी बड़ी बात कर गया है | कविताओं में भाव और विचारों का
अद्भुत संतुलन है |
जहाँ
‘ओह कामना वह्नि’ कविता को पढ़ते हुए दिनकर की पंक्तियाँ याद आती हैं –
कामना
वह्नि की शिखा
मुक्त मैं अनवरुद्ध
मुक्त मैं अनवरुद्ध
मैं अप्रतिहत, मैं दुर्निवार!
वहीँ ‘मौन
व्यथा’ शीर्षक कविता में “अरे यायावर !/ तू महान है/ तेरी व्यथा, तेरी ख़ुशी/
रूप में सब कुछ की तरह/ समाई सारतत्व गीता की तरह…” लिखकर कवि ने नवीन उपमान
का प्रयोग किया है | ‘चिंतन’ शीर्षक कविता में राहुल एक दार्शनिक की तरह संसार और
अंतर्जगत को देखते हैं | बचपन, किशोरावस्था और युवाकाल की भूमि तक आते आते ऐसी
गद्यात्मक कविताओं की रचना संकेत करती है कि राहुल को भविष्य में अच्छा गद्यकार
बनने की पूरी सम्भावना है | संग्रह में आगे की तमाम कविताओं को पढ़ते हुए यह भी लगा
कि राहुल के अन्दर के आलोचक को समझने के लिए बुद्धि प्रधान अध्ययन आवश्यक है पाठक
के लिए क्योंकि कहीं कहीं पर राहुल का वैचारिक गुम्फन बहुत जटिल है, उन्हें समझने
में ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम’ सहायता नहीं करता है | राहुल इस बौद्धिक युग के
बौद्धिक कवि हैं जिसने अपने जीवनानुभवों और अपने प्रतिसंसार को अपनी इन कविताओं में
उतारा हैं |
आज
की काव्यभाषा में कहें तो एक आध्यात्मिक अभिव्यक्ति है ‘विश्वनर से’ शीर्षक कविता
तो ‘कर्म’ शीर्षक कविता में कर्म की सहज अभिव्यक्ति की गयी है कर्मकार के चरित्र
से जो किसी भी देश की वास्तविक शक्ति होता है | ‘नवजीवन’ में कवि एक नूतन संसार की
कल्पना में रत है | यहाँ पन्त की पंक्तियाँ याद आती हैं, “अये विश्व के स्वर्ण
स्वप्न- संसृति के प्रथम प्रभात !” ‘अंतर्द्वंध’ कविता में सच्ची मनुष्यता की
तलाश दिखलाई पड़ती है | ‘प्रतीक’ अपने आप में एक प्रतीकात्मक शब्दचित्र है तो एक
नारी मन का, उसके जीवन की विडम्बनाओं का शाब्दिक चित्र है ‘सेज’ | ‘ओस की वह बूँद’
व्यष्टि से समष्टि’ के बीच रिश्ते को व्यक्त करती है और लघुता की निजता में
पारावार की विराटता के दर्शन देती है | ‘परख’ कविता कहती है कि चीज़ों को ज्यादा परखते
परखते मनुष्य अपना उद्देश्य भूल बैठा है | बशीर बद्र कहते हैं, “परखना मत परखने से
कोई अपना नहीं रहता/ किसी भी आईने में आपका चेहरा नहीं रहता |” ‘पाप’ कविता पर
अमर उपन्यासकार भगवती बाबू की लाइन जोड़ता हूँ, “न हम पाप करते हैं न पुण्य करते
हैं | हम वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है |” ‘रहस्य’ को हर लेखक, कवि, विचारक
जानना चाहता है, राहुल भी उनमें एक हैं लेकिन जन्म से पहले और मृत्यु के बाद सिर्फ
अनबूझा रहस्य ही है और वह अभेद्य है | ‘पथिक भ्रमित न होना’ कविता कवि की अपनी
कठोर यात्रा से दूसरों को भी कठोरताओं से न घबराने का सन्देश है क्योंकि कहीं न
कहीं तो ठौर मिलेगा ही, आशियाना छोटा सा बनेगा ही | कविता में आशावाद है | विलियम
वर्ड्सवर्थ कहता है- “चाइल्ड इज द फ़ादर ऑफ़ मैन” किसी बच्चे को एकलव्य न
होना पड़े राहुल इस कविता ‘बच्चे और दुनिया’ में प्रस्तुत करते हैं | ‘सिर्फ कविता
के लिए’ शीर्षक कविता सिद्ध करती है कि कवि के लिए तो अब उसकी कविता, उसका जीवन बन
चुकी है | ‘सौन्दर्य’ कविता को कीट्स की लाइनों से जोड़ता हूँ, “ए थिंग ऑफ़
ब्यूटी, जॉय फॉरएवर” तो ‘बकरी बनाम शेर’ विडंबनात्मक व्यंग्य है इस युग का |
‘आधा सच’ शीर्षक कविता आज के चलते हुए मुहावरों के प्रयोग के लिए एक अच्छा उदाहरण है
| गली-कूंचों और सड़कों पर बहते-फैले वाक्यांशों को अपनी रचना में सुगठित ढंग से
प्रयोग कर ले जाना मैं कवि की कलम की सफलता मानता हूँ | ‘भ्रष्टाचारम उवाच’ में एक
ईमानदार आत्मा, बेईमानी, जालसाजी जैसे हवाले और घोटाले स्पष्ट रूप से दिखाई दिए
हैं –
मैं बदनीयती की रोटी संग मिलने वाला
फ्री का अचार हूँ
पॉवर और पैसा
मेरे हथियार हैं
मैं अमीरों की लाठी
और गरीबों पर पड़ने वाली मार हूँ !
उपरोक्त पंक्तियों में भ्रष्टाचार पर बिलकुल नूतन उपमान हैं | ‘अक्स
में ‘मैं’ और मेरा शहर’ इस किताब की एक महत्त्वपूर्ण कविता है | कवि के तेवर इस
कविता में देखते ही बनते हैं | राहुल लय, सुर, ताल के बंधनों से आज़ाद हैं लेकिन
जिंदगी को देखने के लिए उनके पास बाह्य चक्षुओं के साथ अन्तः चक्षुओं की शक्ति
काफी प्रबल है | इस कविता को पढ़ते हुए नीरज याद हो आए, “कदम-कदम पर मंदिर
मस्जिद/ डगर-डगर पर गुरूद्वारे/ भगवानों की बस्ती में हैं ज़ुल्म बहुत इंसानों पर
|” राहुल का कवि मानववादी है | कवि की अन्तः और बाह्य यात्राओं का सघन गुम्फन
देखने को मिलता है इस रचना में | ‘कविता और कविता’ में ठूंठ से कोंपलों का फूट
पड़ना नया उपमान है इसी तरह जंगल में झाड़ियों का उग आना भी नूतन उपमान है | ‘हारा
हुआ आदमी’ कविता अपने सशक्त कथ्य के कारण अपने अर्थ में बहुत दूर तक ध्वनित होने
वाली कविता है | इस कविता ने मुझे वैचारिक स्तर पर बड़ा आंदोलित किया | इस संकलन की
आख़िरी कुछ कविताओं में वह कविता में प्रतिरोध भी रचते हैं | राहुल की कविताओं को
पढ़ने के साथ साथ मैंने उन्हें कई गोष्ठियों में सुना भी है | उनकी शैली बड़ी मौलिक
और प्रभावी है | राहुल सच को स्पष्ट शब्दों में बगैर किसी दुराव-छुपाव के सच कहने
की हिम्मत रखते हैं | उनकी साफगोई मुझे अच्छी लगती है | वह अपनी कविताओं में कई
बार ऐसे विषय भी उठा लेते हैं जिनके बारे में आज कोई समकालीन कवि लिख ही नहीं रहा
| ‘अनिश्चित जीवन : एक दशा दर्शन’ में जीवन और मृत्यु जैसे जटिल विषय को कविता में
समझने और खोलने का ऐसा ही एक प्रयास है | अंग्रेजी का निबंधकार स्टील कहता है औसत
तीस वर्ष की उम्र के पहले मृत्यु के बारे में कोई सोचना नही चाहता | संस्कृत
साहित्य के गर्भित सूक्ति वाक्यों के साथ इस संसार के दो छोर नापने की कोशिश करने
वाले इस युवा कवि को समकालीन कविता में कमतर करके नहीं आंकना चाहिए |
विज्ञान
की भाषा में मन कहाँ है लेकिन फिर भी अमूर्त मन है सबके पास | ‘मेरे मन’ शीर्षक
कविता में कवि का वही मन एक साथी की तलाश में है | ‘प्रेम पथ का पथिक’ कविता को
मैं अपनी कविता की कुछ पंक्तियों से जोड़ता हूँ “जब-जब पूनम के चंदा ने/ हृदय
उदधि में ज्वार उठाया/ ऊँची उठी तरंगें/ तुम तक तो मैं पहुँच न पाया !” संग्रह
में ‘अंतिम इच्छा’ शीर्षक कविता कवि के अपने समय से आगे बढ़कर लिखी गयी कविता है |
इस कविता को पढ़कर अंग्रेजी कवि राबर्ट ब्राउनिंग की कविता ‘लास्ट राइड टुगेदर’ कविता
याद आती है | यह उदात्त भावनाओं की एक मार्मिक रचना है | एक शराबी की खराबी
संवेदनापूर्वक चित्रित की गयी है ‘नशा’ शीर्षक कविता में, बिम्बधर्मिता कमाल की है
| ‘अपराधी’ कविता में किसी व्यक्ति के आतंकवादी बनने का मनोविज्ञान है और गाँधी की
पंक्ति ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं’, से रास्ता भी सुझाता है कवि | ‘सज्जनों के
लिए’ कविता युगबोध को दर्शाती है और कहती है कि सज्जन लोग यदि प्रैक्टिकल न हुए तो
आज की दुनिया उन्हें निगल जायेगी | ‘कौन तुम’ कविता में स्थूल और सूक्ष्म, आत्म
एवं परमात्म सत्ता का स्वरुप देखा जा सकता है | ‘मेरे सृजक तू बता’ शीर्षक अपनी
कविता में कवि कहता है, मन से सुनने वालों की कमी है | सुनने वाले तो मिल भी जाएँ
लेकिन भावन करने वाले लोग बहुत कम हो गये | कविता छोटी है लेकिन मारक है | फ़िराक
साहब की दो लाइनें अनायास याद आती हैं, “न समझने की बातें हैं- न समझाने की
बातें हैं/ जिंदगी नींद है उचटी हुई दीवाने की |”
‘ये
दुनिया : ये जिंदगानी’ नए उपमानों की दृष्टि से अच्छी कविता कही जायेगी | वर्ण्य
विषय के साथ जैसे सायकिल के ट्यूब का पन्क्चर, गैस के सिलिंडर का ख़त्म होना,
कमरतोड़ महंगाई और जनसँख्या बराबर पीठ पर लदा नटखट बच्चा | इन नवीन उपमानों को उदृत
करने का कारण यह है क्योंकि यह लिखने वाले के नूतन उपमान हैं | नूतन उपमानों को
लाने का कार्य अज्ञेय ने किया अतः कवि प्रगतिशील होने के साथ साथ प्रयोगधर्मी भी
है | ‘एक टुकड़ा आकाश’ कविता में खण्डों में बंटा हुआ जीवन लगभग हर पहलू को स्पर्श
करता है | जितना कुछ कवि की दृष्टि में आ गया है वह इस कविता के टुकड़े में समाया
है | ‘राजस्थान की एक लड़की’ में कवि राहुल की सूक्ष्मता से देखने वाली आँखें और
संवेदनशील विशाल हृदयता के दर्शन होते हैं | डाल से बिछुड़ी हुई टहनी, झुण्ड से
बिछुड़ा हिरन जैसी बातें भी याद आ जाती हैं इसको पढ़कर | अंत में उसे लोगों की
संकुचित मानसिकता पर कटाक्ष करते हुए उसे भारत की बेटी कहकर कवि कविता में अपने
निर्वाह तत्व का लक्ष्य एक सीमा तक पूरा कर लेता है | ‘शहर की सड़कें’ शहरों में
दिन-प्रतिदिन होने वाले हादसों के प्रति सड़कों पर गुज़रते राहगीरों की असंवेदनशीलता
का चित्र है लेकिन इसके लिए भारत की बढ़ती जनसँख्या, कानूनी पेचीदगी भी तो
ज़िम्मेदार है | कविता पाठक को अपने अंत के साथ विचलित कर देती है जब पता लगता है
कि सड़क की हर एक घटना अगले दिन के अखबार की ख़बर से ज्यादा कुछ नहीं |
‘महाप्रलय’
शीर्षक संग्रह की एक महत्त्वपूर्ण कविता पढ़कर मुझे एस.टी. कोलरिज की ‘राइम ऑफ़ द
एशियेंट मारिनर्स’ याद आ गई | मैं जानता हूँ कि राहुल विज्ञान के विद्यार्थी
रहे हैं अतः अंग्रेजी की यह कविता उन्होंने नहीं पढ़ी होगी फिर भी उस कविता जैसा
कुछ तत्व मुझे इसमें दिखा | मैं यह इसलिए भी लिख रहा हूँ क्योंकि दुनिया भर के कवि
दिलों में ऐसी बातें आती हैं | हाँ मानता हूँ कामायनी का जल-प्लावन कवि की चिन्तना
में जरूर समाया होगा | समकालीन कविता समय में ऐसी श्रेष्ठ कवितायें भी रची जा रही
हैं देखकर हिंदी कविता के सुखद भविष्य की आश्वस्ति होती है | कविताओं में कहीं
कहीं आई सपाटबयानी राहुल की अपनी निजी है | ‘अनहद नाद’ जैसी कविता में कवि की
जनपक्षधरता का सहज आभास मिलता है | इस कविता के माध्यम से कवि प्रस्तुत करता है
चित्र उस व्यक्ति का जो समाज के सबसे निचले पायदान पर पहुँच कर भिखारी हो गया है,
यह सामाजिक सरोकार की कविता है|
‘गाँव
से शहर तक’ में कवि प्रेमचंद के गाँव खोज रहा है | ग्रामीण मानसिकता में भी शहरों
का बढ़ता हुआ जंगल का मीठा जहर घुस गया है जोकि आज का कड़वा सच है | अपने कालखंड के
भौगोलिक परिवर्तन पर भी कवि की नज़र है | कवि जैसा होता है, कवि राहुल स्वयं कवि है
इसलिए ठीक नपे-तुले वाक्यांशों में इसे सिद्ध करते चले गये हैं और ‘कवि ऐसा होता
है’ एक सार्थक कविता बन जाती है | कहा जाता है प्रेमी, पागल और कवि एक जैसे होते
हैं, अगर वे नकली नहीं होते तो पथान्वेषी होते हैं | टेनिसन कहता है, “चेंज इज
द लॉ ऑफ़ यूनिवर्स” कवि राहुल फूलों को यह शाश्वत परिवर्तन बताना चाहते हैं
अपनी ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता में | दलदल बहुत प्रकार का होता है और राहुल की
‘दलदल’ शीर्षक कविता जीवन के बहुआयामी दलदल का चित्र प्रस्तुत करती है | यह कविता
अपने अर्थों में एक बड़े कैनवास की ओर संकेत करती है | उनकी कुछेक कविताओं में
शब्दस्फीति थोड़ी ज्यादा है, शिल्प भी कहीं कहीं टूटता है और कहीं-कहीं पर संस्कृत
तथा अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी मिलता है | चूँकि यह संग्रह कवि की काव्ययात्रा
के प्रारंभ की घोषणा करता हुआ आया है अतः काव्यशास्त्रीय या आलोचकीय दृष्टि से इस
पक्षपर बहुत ज्यादा विवेचन किया जाना उचित नहीं प्रतीत होता | संग्रह की अंतिम
कविता ‘एक आस्तिक की स्वीकारोक्ति’ में कवि अंग्रेजी के दो हस्ताक्षरों के समीप
पहुँच जाता है, वे हैं टैनीसन और टॉमस हार्डी क्योंकि ये दोनों प्रकृति को
वर्ड्सवर्थ की तरह नहीं देखते हैं | “सारा तंत्र ही भ्रष्ट है/ समय का फेर है/
यह उबाल कैसे न आता/ जब नदी का पानी/ खतरे की रेखा से ऊपर बह रहा हो !” कविता
की उपरोक्त पंक्तियाँ हर विवेकशील को सोचने पर विवश कर देती हैं | प्रकृति का
शत्रुवत व्यवहार, सृष्टि के प्रति, विधि-विधान और नियतिवाद से गुज़रता हुआ कवि
ऐन्द्रिक संसार अंगों के कार्य व्यापार को खोलता जाता है | कवि आस्तिकता की
परम्परागत बेड़ियों को अपने तर्कों से तोड़कर आस्था का अपना एक नया मानदंड निर्मित
करना चाहता है | कविता में स्त्री-पुरुष के संबंधों पर अपनी सोच के अनुसार कवि का मौलिक
विश्लेषण भी सामने आता है |
समग्रतः
कहा जाए तो राहुल अपनी सीधी, सरल भाषा में दोनों, भावों और विचार के स्तर पर बहुत गहरे
तक प्रभावित करते हैं | 112 पृष्ठ के इस संग्रह का मूल्य बहुत ही कम मात्र 20
रुपये है | इलाहाबाद के अंजुमन प्रकाशन ने काफी कम समय में साहित्य सुलभ संस्करण
जैसी साहित्यिक पुस्तकों का प्रकाशन कर के प्रकाशन जगत में अपनी एक सशक्त उपस्थिति
दर्ज कराई है | हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए शुरू की गयी यह एक अच्छी शुरुआत है
| अच्छे साहित्य को चाहने वालों को इस युवा कवि की कविताओं का आस्वादन और स्वागत
अवश्य करना चाहिए |
– विनोद
कुमार
उपाध्यक्ष ‘निराला साहित्य परिषद्’
महमूदाबाद
(अवध) सीतापुर (उ.प्र.) 261203
युवा स्वर राहुल का यह कविता संग्रह ‘उधेड़बुन’ एक साहित्य के रास्ते पर उनकी लम्बी यात्रा की ओर प्रयाण का प्रथम लेकिन सशक्त कदम प्रतीत होता है | पूरे कविता संग्रह में अलग-अलग मनोभावों और जीवन के यथार्थ के प्रति अपने संघर्ष को प्रदर्शित करती प्रत्येक कविता अपने उत्स का खाका खींचने में सफल होती है |
समस्त कविता संग्रह में कवि कहीं भी अपने वैचारिक प्रबोध को थोपता नहीं है वरन पाठक का सहचर और अनुगामी साबित होता है | तमाम दुनियावी हकीकतों और विसंगतियों से दो-चार होते इस काव्य संग्रह में विभिन्न साहित्यिक आयाम कवि के उज्जवल भविष्य की स्पष्ट आहट का सन्देश देते हैं |
-अरविन्द त्रिपाठी
Arvindtripathi99@gmail.com
राहुल देव की कविताओं में प्रश्नों की व्यापकता की अनुभूति होती है | यही प्रश्न उनकी उधेड़बुन को प्रकट करते हैं | राहुल अपनी छोटी कविताओं में अधिक सशक्त हैं | राहुल अपनी कविताओं में जीवन को जीने का प्रयास करते हैं | – युवा आलोचक अजित प्रियदर्शी, लखनऊ |
–
राहुल की कृति ‘उधेड़बुन’ एक युवा कवि के अंतस का प्रतिबिम्ब है | एक छटपटाहट लिए यह संग्रह एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है | यह समाज के बनावटी जीवन को उद्घाटित करता है | ‘उधेड़बुन’ रोमांटिक प्रोटेस्ट का कविता संग्रह है | – डॉ गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, सं. ‘निष्कर्ष’, लखनऊ |
विनोद कुमार जी ने राहुल की किताब की अच्छी पड़ताल की है | मुझे भी ‘उधेड़बुन’ राहुल देव का प्रथम काव्य संग्रह देखने को मिला | इस संग्रह में 49 कवितायेँ हैं | इन कविताओं के पाठ से ऐसा प्रतीत होता है कि ‘देव’ प्राकृतिक रूप से काव्यसाधना के साथ जुड़े हुए हैं | यद्यपि काव्य सृजन की यह स्थिति एक चिंगारी की तरह कवि के अंतर में निहित है किन्तु भविष्य में उचित परिवेश के माध्यम से यह एक शोले का रूप बन सकती है | मेरी शुभकामनायें !