अनुनाद

हिन्दी साहित्य, समाज एवं संस्कृति की ऑनलाइन त्रैमासिक पत्रिका

कर्मानन्‍द आर्य की ग्‍यारह कविताएं


कर्मानन्‍द आर्य की कविता से मेरा परिचिय सोशल साइट पर हुआ। उनसे बातचीत हुई। पढ़ने के लिए उन्‍होंने कई कविताएं एक फाइल में लगाकर दीं और इन्‍हें एक साथ पढ़ पाने से एक ठीक-ठीक तस्‍वीर कवि की उभरी। मैं यहां कर्मानन्‍द आर्य की ग्‍यारह कविताएं एक साथ अनुनाद के पाठकों के समक्ष रख रहा हूं, उसी समग्र अनुभव की कामना के साथ, जो मुझे इन्‍हें पढ़ते हुए हुआ। 

ये कविताएं अवश्‍य पहले भी पढ़ी गई हैं, कुछ तो सोशल साइट  फेसबुक पर भी, लेकिन एक पढ़त में पढ़ना और बात है। हमारे आजू-बाजू का संसार कभी यूं ही अचानक हमारे सामने खुलता है – हमें जगाता हुआ। ये कविताएं हममें हमारा ही बहुत कुछ जोड़ रही हैं। कवि विचारवान युवा हैं और उनकी प्रतिभा को हिंदी संसार रेखांकित कर रहा है। अनुनाद इन कविताओं के लिए उन्‍हें शुक्रिया कहता है। 

अनुनाद पर आपका स्‍वागत है साथी।  

1
इस बार नहीं बेटी
 
मैं तुम्हें प्रेम की इजाजत देता हूँ
और काँपता हूँ अपने व्यक्तिगत अनुभवों से
अपने जीवन की सबसे अमूल्य निधि तुम्हें भी मिलनी चाहिए

देखता हूँ तुम तल्लीनता में खोई रहती हो
निश्चित तौर पर प्रेम बढ़ाएगा तुम्हारा अनुभव
तुम चाहो तो जी भरकर प्रेम करो

प्रेम करो इसलिए नहीं कि प्रेम पूजा है
प्रेम पर टिकी हुई है दुनिया
इसलिए क्योंकि सबसे बुरा अनुभव मिल सकता है प्रेम से
मिल सकता है रूठने मनाने का हुनर

जिसने सीखा है अपने अनुभवों से
वह जिन्दगी में कभी असफल नहीं हो सकता
कभी टूट नहीं सकता रूठने मनाने वाले का घर

प्रेम केवल कहने के लिए बुरा है
जबकि अच्छाई का स्श्रोत वहीँ से फूटता है

प्रेम प्रयोग की वस्तु है
प्रेम करो और बताओ अपनी सहेलियों को
अपनी माँ को बताओ अपनी मूर्खताएं

वह सब करो जो किया है मैंने
जो मैंने जिया तुम भी जी सकती हो
पर सीखना अपनी माँ से भी

वह प्रेम में हारकर सब हार गई
***

2
वसंतसेना
 
नायकों की एक विशाल पंक्ति
बाहर खड़ी है
आज के दिन भी तुम उदास हो वसंतसेना

कितने बिस्मिल्लाह खड़े हैं
अपनी शहनाइयों के साथ
कितने तानसेन गा रहे हैं
सधे सुरों का गीत

अपने सधे क़दमों से
नृत्य की मुद्रा में आज है
‘दाखनिता कुल’

उल्लास का मद अहा
चोर, गणिका, गरीब, ब्राह्मण, दासी, नाई
हर आदमी आज है नायक

चारुदत्त आये हैं वसंतसेना
फिर भी हो तुम उदास

वसंतसेना निर्व्याज नही जायेगा तुम्हारा प्रेम
प्रकृति उत्तम है

उदास क्यों होती हो ?
क्या गणिकाओं का विवाह नहीं होता वसंतसेना 
***

3
मत्स्यगंधा-एक

जातियों का बंधन टूटता है
तुम्हारे प्रणय के स्पर्श से
जिसे तोड़ नहीं पायी
पवित्र माने जाने वाली ऋचायें
उसे तोड़ दिया
रूप की आकांक्षा ने 

तृषा जागती है
देव, गंधर्व, कोल, किरात
सब लोटते हैं तुम्हारे चरणों में

अरे यह क्या ?
तुम समय की भाषा पढ़ने लगी हो
तुममें भी आ गए हैं
उच्च वर्णस्थ स्त्री के भाव

अच्छा है तुम्हारा यह निर्णय भी
तुम उसी से विवाह करोगी
जो देव, गन्धर्व, कोल, किरात नहीं
तुम्हारी जाति का होकर रहेगा 
***

4
मत्स्यगंधा
 
तुम्हारा पति आज
मछलियाँ पकड़ने नहीं गया
उसे सता रही थी अद्भुत प्यास
वह तुम्हारे आसपास मंडराता रहा

यह बसंत की दोपहरी नहीं है
जब गाती है कोयल
कि… कि… कि….
करके दौड़ती है गिलहरी

वह आज तुम्हें
गिलहरी की तरह दौड़ाना चाहता है
रेंगती रहो जल, थल, आकाश

आज जाल के साथ नहीं
तुम्हारे साथ फसेंगा
उसका प्रथम प्रणय गीत

हर दिन काम का 
हर दिन प्रेम का होना चाहिए!

होना चाहिए न मत्स्यगंधा’ !!!!!!
***

5
मेरा अंतिम पता

सुनो तुमने मेरा अंतिम पता लिख लिया है न
जहाँ तुम्हें भेजना है चिट्ठियां, किताबें, गुच्छदान
जहाँ तुम्हें मेल करना है उन लेखकों के पते
जिन्हें मृत्यु से ज्यादा जीवन पर विश्वास रहा

अब गीता नहीं पढ़ी जाती नहीं पढ़ा जाता गरुण पुराण
मानस का पाठ भी नहीं होता अब
जीवन को कब तक झुठलाया जाएगा

यदि नहीं लिखा है तो सुनो
यह काया न मिट्टी की है न सोने की
लोहा और पत्थर भी नहीं है इसमें
तलवार की धार और बारूद भी नहीं

लेकिन पूरा जीवन मैंने यही होना चाहा
मिट्टी सोना लोहा पत्थर
जो मैंने होना चाहा वह इसी दुनिया का था
कभी लोहा कभी सोना कभी पत्थर कभी बारूद

जीवन में जब जब जीता, जब जब हारा
हजारो किस्से कहे और बनाये
हजारो मील चला इक जरा सी ख़ुशी के लिए
हजार रातों तक की अपने बच्चे की परवरिस

लेकिन सुनो मेरा पुनर्जन्म हुआ है मेरे खुद के द्वारा
तो लिखो मेरा अंतिम पता
जो न बनारस में है न मगहर न संगम न हरिद्वार

मैं रहता हूँ इसी धूल मिट्टी से सने घर
किसी मेहतर की झोपडी में
लिखो मेरा पता जो अब तक का अंतिम पता है
***

6
जब कोई स्त्री रोती है : 

सिगरेट के धुंए से जल उठते हैं बिस्तर, परदे, खिड़कियाँ 
छप्पर से चूकर जब नीचे आते हैं आंसू 
उसका अकेलापन उसे सांत्वना देने आता है 

बहुत भीतर तक कैद की हुई सुख की दीवारें 
जब खुल जाती हैं 
पेपर वेट उठाकर छुटकू पूंछता है
पापा के लड़ने का सामान इतना गोल और भारी क्यों है 

बहुत गीली हो गई लकड़ियाँ अब जलती नहीं 
इन दिनों सीलन से भी घुटन होती है 
सारीसारी रात वह विस्तर को गोंद में उठाये 
पानी और खुद को अलग करती है 

जीवन इतना कठिन नहीं था 
जब वह पानी की इन्हीं बूंदों से खेलती थी 
घंटों नहाती थी सराबोर

एक आज का दिन है हजारो हजार बार 
यह सब कुछ उसकी स्मृतियों से गुजरा है 
महीनों की यंत्रणा 
सात क़दमों से आगे बढ़ गई है 

सिटी बस गुजर रही है
बारबार लगा रही है आवाज 
वह है सड़क से चिपकी पड़ी है 

भीड़ उसे सांत्वना नहीं दे रही है बस देखे जा रही है 
कुछ खामोश औरतें आपस में चुहल कर रही हैं 

वे जानती हैं ये कोई एक स्त्री नहीं है
***

7
तेलु ठकुराइन की अचकन 

मगर वह बिलकुल नंगी थी 
पीठ पर चमक रही थी सफ़ेद बर्फ 
दुःख की छातियाँ नतग्रीव थीं 
कोई समझ नहीं पा रहा था 
उसे नंगा करने वाले कौन लोग थे 
किनकिन लोगों ने उसे ठगा था 
किसकिस की जीभ का लार घुटनों तक आया था 
किसकिस ने देखा था उसका लिजलिजापन 
उसे याद नहीं रहा 

वह विस्थापन से दुखी नहीं थी 
उसी देश से आयीं थीं बहुत सारी लड़कियां 
दुःख आया था उसके आने के बाद 
उसके बड़े होने पर 
जब वह शारीरिक रूप से दिखाई देने लगी थी 
जब उसे नोटिस किया गया था 

वह लड़ाका थी 
कई बार जीतजीत हार गई थी वह 
ऐसा नहीं कि हारने के बाद उसे मिलता था निरा सुख
या निरा दुःख उसे जिन्दा रखता था 

बिल्कुल स्त्री सुलभ नहीं थीं उसकी लीलाएं 
उसका भी मन था देखे अफलातून की फ़िल्में 
ईराक और रूस के संबंधों पर बहस करे 
ठकुरसुहाती तो उसे बिलकुल नहीं पसंद था 

वह जानती थी उसका भोगा उसका भाग्य नहीं 
जो नहीं भोग था उसे पछतावा नहीं 

उसे पता था उसकी माँ नृत्य करती थी 
नाचते नाचते मर गई थी उसकी नानी 
उसे नाचना पसंद नहीं था 
लेकिन अचानक उसे घुंघरू पहनते देखा गया था 

वह आम लड़कियों से अलग होना चाहती थी 
उसकी जुबान पर थीं बहसतलब चीजें
दलितस्त्रीआदिवासी जैसे पद 
उसे आकर्षित करते थे 

लेकिन सुना है उसे मार दिया गया 
दबा दी गई उसकी बोलती आवाज 
किसी ने बताया वह कामरेड स्त्री थी 
अंतिम बार उसे देखा गया था 
तेलू ठकुराईन की अचकन पहने
***

8
तुम्हारी उदासी मेरी कविता की पराजय है
 
सच कह रहा हूँ
नहीं लिख सकूंगा इस जंगल का इतिहास
इस जंगल से गुजरने वाली नदियों का आत्मवृत्त
मछलियों और केकड़ों की जीवंत कहानी
सच कहूँ यहाँ इतिहास है ही नहीं

यहाँ कुछ टटोलेंगे
तो मिलेगा कुछ और

राजाओं के नाख़ून हैं यहाँ इतिहास की जगह
रानियों का क्रीड़ालाप और फंसी हुई कंचुकी है
सीताओं का मृगचर्म पड़ा हुआ है
सच कह रहा हूँ
नहीं लिख सकूंगा इस जंगल का इतिहास

यह आदिमानवों की नगरी है
जंगली और असभ्य
अपनी अनोखी दुनिया और प्रतिमानों से भरे हुए
फूलों की नाजुक कहानी है यहाँ

देवता, जाख, केंदु और पलास
भालू और मनुष्य का सामूहिक नृत्य
यहाँ पशु हैं लेकिन पशुता आयी नहीं आजतक

जोंक, घोंघे, केकड़े, शैवाल और नदियाँ
उन्होने सोचा नहीं अपने पुरुखों के बारे में
बस खाया पिया और खोये रहे अपनी दुनिया में
नदियों के किनारे रखे कुछ सूत्र
पाणिनी के व्याकरण से पहले लिखे हुए

हाँ एक इतिहास है उनके पास
उनके औजार और गीत कहते हैं कोई कहानी
पर वाह कहानी राजाओं की नहीं है
वह केवल प्रजा और प्रजा की कहानी है

जानता हूँ दोस्त तुम बेचैन हो
तुम्हारी उदासी मेरी कविता की पराजय है
***
 
9
गया में गिद्ध 
 
ये गिद्ध तीसरी सदी में लौटना चाहते हैं 
धर्म की जय जय कार करते हुए 
वे बार-बार लौटना चाहते हैं 
इतिहास उन्हें जाने देता है
तर्पण का मेला लगता है
मूर्खताओं के युग में 
इक्कीसवीं सदी की जहालत डूब जाती है 
फिर तीसरी सदी में
यदि कोई फादर मुक्ति बेचता 
तो ये गिद्ध चले जाते यूरोप 
उन्हें समझाते हमारे यहाँ भी है एक वैतरणी नदी 
हमने उसी में सब डुबोया
पहले हमने मनुष्य को फिर धरती को 
फिर शैव, शाक्त, बौद्ध 
अब हम विज्ञान को डुबाने का उपक्रम ढूढ रहे हैं
प्रेतयोनि शिला 
ब्रह्मयोनि पहाड़ियां 
विराजे हुए विष्णु के पाँव 
सब लौटना चाहते हैं तीसरी सदी में
गया में गिद्धों का जमघट लगातार बढ़ता जाता है 
वे कहते हैं दुनिया को फिर लौटना चाहिए 
नरबलि, पशु बलि के युग में 
नहीं तो देवता को बंद हो जायेगी 
ताजे मांस की आपूर्ति
देवता के साथ 
नए गिद्धों का भोजन बंद हो जायेगा 
पुराना गिद्ध इसलिए परंपरा में सिखाता है 
‘’मांस के लिए हत्याओं की तरकीब
विज्ञान हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती
***

10
तुम्हारे माथे पर एक चुम्बन 
 
तुम आज भी मेरे भीतर
दिए की तरह जलती हो 
तुम्हारी रोशिनी 
इस कालिमा में कहीं विलीन हो जाती है
योगिनी मुद्रा में तुम 
विचरती हो कई कई अक्षांश 
मुझे लगता है इसी योगमाया ने 
मुझे बार-बार बनाया है अद्भुत
यह कोई एक साधना नहीं
केवल एक मुद्रा नहीं 
प्रेम की अनंत गति है 
चार्वाक की अनंत परंपरा है 
यह एक ज्योति है अकेली 
कुंडलिनी की आभा से भरी हुई
यह कैसी साधना है 
यहाँ उत्तर के बाद आता है कोई प्रश्न
सुनो तुम्हारे माथे पर 
जो रख आया था एक चुम्बन 
उसे पतंजलि अपनी योग मुद्रा में 
आज भी साधता है
***

11
सुगना पाखी से 
 
उड़ते उड़ते थक जायेंगे पंख तुम्हारे 
सुगना पाखी 
मौसम है दर्दीला 
घंटों की बारिस में डूबा है यह टीला 
सुगना पाखी
दर्द हिलोरें लेता है 
मौसम करवट लेता है 
बंजारे का पाँव बना है बदन गठीला 
सुगना पाखी
मौसम तो बदलेगा एकदिन 
भूल न जाना रिमझिम रिमझिम 
दुःख का आना 
सुगना पाखी 
एक तुम्हारा उड़ना गीत 
दूजा दुःख का यह संगीत 
उड़ते जाना उड़ते जाना 
सुगना पाखी
उड़ना जीवन में बस उतना 
जितना हो अपनों का सपना 
पंख सजाना फिर महलों में 
फिर धरती को भीतर रखना 
सुगना पाखी
सुगना पाखी, सुगना पाखी 
आना, याद तुम्हारी आती है 
मौसम भी तो आता है फिर-फिर 
सुगना पाखी
***  
कर्मानन्द आर्य

एम.ए, पी.एच-डी. (गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार), यूजीसी नेट-जेआरएफ, सहायक प्राध्यापक, भारतीय भाषा केंद्र, बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया।
विषय विशेज्ञता / अभिरुचि : भारतीय काव्यशास्त्र,  समकालीन कविता,  कथासाहित्य,  दलित-स्त्री विमर्श, पत्रकारिता,   अनुवाद, प्रयोजनमूलक हिंदी. बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में पदस्थापन से पूर्व डॉ. आर्य ने वरिष्ठ अध्येतावृत्ति प्राप्त कर गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से भारतीय काव्यशास्त्र (वक्रोक्ति सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में नागार्जुन के काव्य का अनुशीलन) विषय पर शोधोपाधि प्राप्त की तत्पश्चात उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार के हिन्दी और भाषाविज्ञान विभाग में अध्यापन कार्य किया| आजकल बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं.
प्रकाशन : हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कवितायेँ, लेख, शोधपत्रों का प्रकाशन, अपने हिंदी ब्लॉग www.uttalhawa.blogspot.comपर लेख, कविता का निरंतर प्रकाशन|
सम्‍पर्क  : डॉ. कर्मानंद आर्य, भारतीय भाषा केंद्र,बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया  
मो –8863093492/ 8092330929


0 thoughts on “कर्मानन्‍द आर्य की ग्‍यारह कविताएं”

  1. कर्मानन्द दिनों पटना में मेरे घर के नजदीक भी रहे पर उनको पढ़ सुन नजदीकी तब बढ़ी जब वे तनिक दूर, गया, चले गए. इस बीच हमारी मुलाकात के कुछ करीबी संयोग भी बने, बावजूद अभी प्रथम भेंट बाक़ी है.
    उनकी यहाँ संकलित कविताएं उनके अच्छा कवि होने का पता देती हैं. 'इस बार नहीं बेटी' सुघड़ बुनावट में आधुनिक धरातल की गजब की संवेदनापूरित रचना है. मत्स्यगंधा-1, गया में गिद्ध रचना में वैज्ञानिक सोच निमज्जित दलित चेतना की गूंज है.
    वे जन्मना दलित होकर दलित चेतना से लैस भी हैं, मेरे लिए यह आह्लादक है. पत्र-पत्रिकाओं की मार्फ़त उनके आलेख, समीक्षाएँ आदि गद्यात्मक विचार भी पढ़ता रहता हूँ, वहाँ भी इनकी अभिव्यक्ति प्रभावी होती है.

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