जिन दिनों कर्ज़ नेमत हों और फ़र्ज़ कुफ़्र, उन दिनों यानी इन दिनों की इस कविता में शिल्प की हर सरहद को उलांघ देने की एक खुली लालसा है। कहते हैं बात शिल्प से शुरू हो ये बुरा है पर कुछ सरहदें मैं भी छोड़ देना चाहता हूं।
अशोक की कविता ने ख़ुद को पहले ही बदलाव की ओर मोड़ लिया था पर अब इस बदलाव के मोड़ और तीखे हैं – बार-बार आते तीखे मोड़ों की यात्रा रोमांचित करती है, उसमें सुकून नहीं और न ही मोड़ के बाद के दृश्य का कोई तयशुदा अनुमान – ये सभी बातें कविता पर शास्त्रीय बहस की ज़मीन से बहुत दूर की बातें है – अशोक की कविता इधर हमें बहुत दूर के ऐसे ही इलाक़ों में ले जाती है। नामुराद झूटे साहिबे-वक़्त के क़दमों तले थरथराते इस मुल्क में यह उन दिनों का भी बयान है, जिन दिनों काेयले की स्याह गर्म देह पर खिलती-बिछती लाल आग की तरह रूह पर जिस्म पर जां पर प्यार बिछा होता है – यानी इन दिनों का। इन दिनों की कविताकथा दरअसल दो तरह के इन दिनों के बारे में है। अंधेरे वक़्त और उसके बीच ही रचे जाते उसके प्रतिरोध के दृश्य – ये दोनों ही इन दिनों के एक काॅमन डिक्शन में घटित होते हैं – तभी अपने अभिप्रायों में अलग-अलग दिपते भी हैं – भाषा में महज कह दिए जाने की रवायत के बरअक्स पूरे वजूद के साथ घटित होने से जो दिन बनते हैं, वही कविता है इन दिनों।
इस कविता ने अशोक के प्रति हमारे वैचारिक यक़ीन को और गाढ़ा किया है तो उसकी कविता की ओर एक अलग चौकन्नी दृष्टि बनाए रखने के लिए सचेत भी किया है। पंथ कराल पर चली इस तनी हुई कविता के लिए कवि को बधाई। इसके लिए अनुनाद अपने कवि को शुक्रिया कहता है।
(एक)
इन दिनों
भरोसा एक घायल हिरण है उम्मीद झुण्ड से बिछड़ा पक्षी
इन दिनों
सोचता हूँ देखता हूँ और कहता कुछ नहीं
ये सुनने
के दिन हैं सोचने की रातें
सफे़दियों
पर कोई पीलापन तारी हुआ जाता है
आवाज़ें आती
हैं नहीं आती हैं
उनकी दहलीज
पर ख़ामोश बैठ जाता है
एक सहमा
हुआ सा बशर तन्हा
उसके काँधे
पे हाथ धरता हूँ
तो चौंक
पड़ता है अजाने ख़ौफ़ से किसी
देखना
चाहता हूँ आँखों में
तो फेर
लेता है आँख समेट लेता है जिस्म
शहर की
सारी शफ़्फ़ाक़ गलियों में
शोर है और
एक वीरानी है
कि जैसे
सुबह की ख़बरों में
अनकही रोज़
एक कहानी है
बहुत हैरान
होके ख़ुद से कहता हूँ
क्या बात
है?
चुप क्यों रहता हूँ
(दो)
वह जो
बोलता है दिन रात – झूठ बोलता है
और सवाली
शीशे के घरों में बैठे हैं
जहाँ से
ज्ञान मिलना था चुप्पियों के फ़रमान आते हैं
हथौड़ा थामे
झूल गया है एक हाथ
कटोरा थामे
तने हुए हैं सैकड़ो सिर
क़र्ज़ नेमत
है और फ़र्ज़ कुफ़्र इन दिनों
रोटियाँ
रंगीन दुकानों में सजी हैं हर सिम्त
और थालियाँ
पेट उघारे हुए निर्लज्ज फिरा करती हैं
इन दिनों
आग और पानी में कोई फ़र्क नहीं
दोनों दरबान
है चुपचाप खड़े रहते हैं
साहिब-ए-वक़्त
के इशारों पर
दोनों
झुकते हैं और तनते हैं
ऐसे खुशहाल
दिनों की सड़कों पर
जब कभी
मुट्ठियाँ थोड़ी सी लहराती हैं
एक हरारत
सी होती है,
गुज़र जाती है
चुप्पियाँ
अब तलक है बहुमत में
सुबह फिर
संदली ख़बर ये आती है
(तीन)
साहिब-ए-वक़्त
की बातों में एक जादू है
साहिबे
वक़्त की नज़र क्या ख़ूब
नूर छलके
है उनकी चितवन से
साहिब-ए-वक़्त
के सूट..सुभानल्लाह
कहा कवि ने
और हामी में बजरबट्टू सा हिलने लगा सिर आलोचक का
लिखा अख़बार
ने टीवी पे बजने लगा रेडियो गाने लगा
खुद को
तबले सा पड़ोसी मेरा बजाने लगा
तीरगी में
जो अब तलक बैठा था
उसी को
रौशनी बताने लगा
साहिब-ए-वक़्त
की बातों में एक जादू है
साहिब-ए-वक़्त
जो आये तो चमका सूरज
साहिब-ए-वक़्त
ने कहा तभी रात हुई
पेड़
हरियाये,
खिले गुल, कोख में धरती के
हीरे-मोती की
गैस-ओ-पेट्रोल की बरसात हुई
तो जो उनका
था सब बाँट दिया
सपने
तुम्हारे तेल हमारा
हार
तुम्हारी खेल हमारा
क़ैद
तुम्हारी बेल हमारा
जुबाँ
तुम्हारी बोल हमारा
कितना
सुन्दर है बंटवारा
एक निवाले
को बाँटकर दो में
सादे पानी
से गला भर के कोई निकला तो
सामने
दीवार पर तस्वीर थी साहिबे वक़्त की
(चार)
रूह पर
जिस्म पर जां पर है तुम्हारा प्यार इन दिनों
फफोलों पे
रखी बर्फ सा नर्म
जागती
आँखों में ख़्वाबों की तरह
बयाबाँ में
परिंदों की बेफ़िक्र आवाज़ों सा
आओ पांवों
में पहन लो मुझे चप्पल की तरह
आओ आग सी
बस जाओ मेरी आँखों में
आज जब
ज़िस्म आज़ाद जबाँ क़ैद है तो
आओ बुलबुल
की तरह गाएं इस ज़िन्दां में हम
थाम लें
गिरता हुआ परचम
जलती
किताबों को सीने से लगा लें, बचा लें
अपने
मुस्तकबिल को अपने माज़ी को
सरे बाज़ार
बिकने से बचा लें
जबकि ख़तरे
में है ग़ालिब की जबाँ निराला की पुकार
चार्वाकों
की गरज बुद्ध की मद्धम आवाज़
आओ हम अपने
दहकते हुए सीनों में
अपने
हमराहों,
हमनशीनों में
इनको खुशबू
की तरह समेटें बिखेरें हर ओर
और फिर
ख़तरों से मिलाकर आँखें
जानिब-ए-राह-ओ-इन्कलाब
चलें
ये मेरे
अकेले के बस की तो बात नहीं!
***
***
चूप्पियों में रची गयी बेहतरीन कविता गहरा व्यंग्य
इस पूरे वक़्त को इससे बेहतर तरीके से और कैसे भी नहीं कहा जा सकता था। सच तो ये है कि पिछले कुछ समय से बेतरह डरा हुआ हूँ और तूफ़ान देखकर सिर झुकाए खड़ा हूँ। शतुरमुर्ग सा। तमाम परचम गिरते देख रहा हूँ तो तमाम को रंग बदलते। मैं भी अकेला ही खड़ा हूँ। हाथ थाम लो साथी…
आंतरिक लय तो कमाल की है इस कविता में. बाकी बातें हैं और गजब है लेकिन तात्कालिक कमेंट में कहने के लिए लंबा लिखना पड़ेगा. सो अभी के लिए बस बधाई.
आंतरिक लय तो कमाल की है इस कविता में. बाकी बातें हैं और गजब है लेकिन तात्कालिक कमेंट में कहने के लिए लंबा लिखना पड़ेगा. सो अभी के लिए बस बधाई.
कवि के दुनिंया द्वंदात्मक दुनियां है। एक दुनियां जो विचारों से बनी है , जिसके ज़रिये वह बाहर की दुनियां का मुश्किल होना देखता है।
कंटेंट पर ज़्यादा यक़ीन के साथ लिखी कविताएं, कविता के गहरे आश्य कविता की सतह के नीचे मौजूद हैं। कवि अपने बौद्दिक चिंतन के साथ कई बड़ी बातों को भी बहुत सहजता कह जाते हैं। बदलाव के मोड़ो की यह कविताएं अंधरे वक़्त का प्रतिरोध करती एक अलग क़िस्म की कविताएं है। यह महज़ हवा के झोंके की तरह आकर चलीं नहीं जातीं, बल्कि संगीत के सात स्वर की तरह काफ़ी देर तक गुंजायमान रहती हैं। आम इंसान की ज़ेहनी कैफ़ियत से इनका रचनाकार पलायन नहीं करता। कविता में स्वाभाविक प्रश्नो की एक सिलसिलेवार श्रृंखला है।
क्या बात है चुप क्यों रहता हूँ …अपने समय की कविता कभी बेचैन होती सी अकेली पड़ती तो कभी साथ होने का आग्रह करती सी …इन दिनों पढ़ी गई एक सशक्त कविता अशोक जी को बधाई शिरिश जी का शुक्रिया …
बेहतरीन नज़्में। इनमें आग भी है पानी भी ,वक़्ते-दौराँ की एक कहानी भी। शानदार प्रस्तुति। बधाई।
In dino aag aur paani mein koi frk nhi
/ dono chupchaap darbaan bne khde rahte hain… Sarokaar jb bde hain …sarthk aur saamoohik hain to kala pr kya tipanni ki jaye!! Dhanyavaad Shirish Bhai jee. Sathi Ashok jee badhai!
– Kamal Jeet Choudhary
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