राकेश रोहित की कविताएं एक वक़्त से फेसबुक और उनके ब्लॉग पर पढ़ता रहा हूं। मद्धम आंच से भरी उनकी कविताएं मनुष्यता के पक्ष में खड़ी होती हैं। कला के लिए कोई अतिरिक्त आग्रह नहीं, यथार्थ से सीधी मुठभेड़ आमफ़हम भाषा के साथ वे संभव करते हैं। मैंने उनसे कविताओं के लिए आग्रह किया था। अनुनाद पर वे पहली बार छप रहे हैं। राकेश रोहित का कविता के इस मंच पर स्वागत है।
एक सपना, एक जीवन
आदम हव्वा के बच्चे
सीमाहीन धरती पर कैसे निर्बाध भागते होंगे
पृथ्वी को पैरों में चिपकाये
कैसे आकाश की छतरी उठाये
ब्रह्मांड की सैर करता होगा उनका मन?
सीमाहीन धरती पर कैसे निर्बाध भागते होंगे
पृथ्वी को पैरों में चिपकाये
कैसे आकाश की छतरी उठाये
ब्रह्मांड की सैर करता होगा उनका मन?
वो फूल नहीं उनकी किलकारियाँ हैं
जिनको हरियाली ने समेट रखा है अपने आँचल में
उनके लिखे खत
तितलियों की तरह हवा में उड़ रहे हैं!
वे जागते हैं तो
चिड़ियों के कलरव से भर जाता है आकाश
उषा का रंग लाल हो जाता है
हवा भी उनको इस नाजुकी से छूती है
कि सूर्य का ताप कम हो जाता है।
जिनको हरियाली ने समेट रखा है अपने आँचल में
उनके लिखे खत
तितलियों की तरह हवा में उड़ रहे हैं!
वे जागते हैं तो
चिड़ियों के कलरव से भर जाता है आकाश
उषा का रंग लाल हो जाता है
हवा भी उनको इस नाजुकी से छूती है
कि सूर्य का ताप कम हो जाता है।
सो जाते हैं वही बच्चे तो
प्रकृति भी अंधेरे में डूबी
चुप सो जाती है।
प्रकृति भी अंधेरे में डूबी
चुप सो जाती है।
एक मन मेरा
रोज रात उनके साथ दौड़ता है
एक मन मेरा
रोज जैसे पिंजरे में जागता है!
क्या किसी ने शीशे का टूटना देखा है
क्या किसी ने शीशे के टूटने की आवाज सुनी है?
किरचों की संभाल का इतिहास
ही क्या सभ्यता का विकास है!
रोज रात उनके साथ दौड़ता है
एक मन मेरा
रोज जैसे पिंजरे में जागता है!
क्या किसी ने शीशे का टूटना देखा है
क्या किसी ने शीशे के टूटने की आवाज सुनी है?
किरचों की संभाल का इतिहास
ही क्या सभ्यता का विकास है!
हमारे हाथों में लहू है
हमारे हाथों में कांच
हमारे अंदर एक टूटा हुआ दिन है
हमारे हाथों में एक अधूरा आज!
मैं जिंदगी से भाग कर सपने में जाता हूँ
मैं सपने की तलाश में जिंदगी में आता हूँ।
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो उस सपने को याद कर निरंतर रोता है
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो इससे बेखबर सोता है।
हमारे हाथों में कांच
हमारे अंदर एक टूटा हुआ दिन है
हमारे हाथों में एक अधूरा आज!
मैं जिंदगी से भाग कर सपने में जाता हूँ
मैं सपने की तलाश में जिंदगी में आता हूँ।
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो उस सपने को याद कर निरंतर रोता है
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो इससे बेखबर सोता है।
जिसने एक छतरी के नीचे
इतने फूलों को समेट रखा है
मैं बार– बार उसके पास जाता हूँ
उसे मेरे सपने का पता है।
मैं लौट आता हूँ अपने निर्वासन से
आपके पास
आपकी आवाज भी सुनी थी मैंने
आपका भी उस सपने से कोई वास्ता है।
***
इतने फूलों को समेट रखा है
मैं बार– बार उसके पास जाता हूँ
उसे मेरे सपने का पता है।
मैं लौट आता हूँ अपने निर्वासन से
आपके पास
आपकी आवाज भी सुनी थी मैंने
आपका भी उस सपने से कोई वास्ता है।
गजब कि अब भी, इसी समय में
गजब कि ऐसे समय में रहता हूँ
कि खबर नहीं है उनको
इसी देह में मेरी आत्मा वास करती है।
कि खबर नहीं है उनको
इसी देह में मेरी आत्मा वास करती है।
गेंद की तरह उछलती है मेरी देह
और मन मरियल सीटी की तरह बजता है
हमारी भाषा के सारे विस्मय में नहीं
समाता उनकी क्रीड़ा का कौतुक!
गजब कि इस समय में मुग्धता
नींद का पर्याय है।
और मन मरियल सीटी की तरह बजता है
हमारी भाषा के सारे विस्मय में नहीं
समाता उनकी क्रीड़ा का कौतुक!
गजब कि इस समय में मुग्धता
नींद का पर्याय है।
गजब कि आत्मा से परे भी
बचा रहता है देहों का जीवन!
बचा रहता है देहों का जीवन!
रोज मेरी देह आत्मा को छोड़ कर कहाँ
जाती है
रोज क्यों एक संशय मेरे साथ रहता है
रोज दर्शन का एक सवाल उठता है मेरे मन में
आत्मा मुझमें लौटती है
या मैं आत्मा में लौटता हूँ!
रोज क्यों एक संशय मेरे साथ रहता है
रोज दर्शन का एक सवाल उठता है मेरे मन में
आत्मा मुझमें लौटती है
या मैं आत्मा में लौटता हूँ!
क्या हमारा अस्तित्व
धुंधलके में खामोश खड़े
पेड़ों की तरह है
लोग तस्वीर की तरह देखने की कोशिश करते हैं हमें
और मैं अपने अंदर समाये हजार स्वप्न
और असंख्य साँसों के साथ
नेपथ्य में खड़ा
आपके विजय रथ के गुजरने का इंतजार करता हूँ?
धुंधलके में खामोश खड़े
पेड़ों की तरह है
लोग तस्वीर की तरह देखने की कोशिश करते हैं हमें
और मैं अपने अंदर समाये हजार स्वप्न
और असंख्य साँसों के साथ
नेपथ्य में खड़ा
आपके विजय रथ के गुजरने का इंतजार करता हूँ?
कैसे हारे हुए सैनिकों की तरह लौट
गयी है इच्छायें,
कैसे उदासियों के पर्चे फड़फड़ा रहे हैं?
कैसे अनगिन तारों के बीच
निस्तब्ध सोयी है पृथ्वी,
कैसे कोई जागता नहीं है
कि सुबह हो जायेगी?
कैसे उदासियों के पर्चे फड़फड़ा रहे हैं?
कैसे अनगिन तारों के बीच
निस्तब्ध सोयी है पृथ्वी,
कैसे कोई जागता नहीं है
कि सुबह हो जायेगी?
गजब कि ऐसे समय में, अब भी,
तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ है
गजब कि अब भी,
इसी समय में,
कोई कहता है
कोई सुनता है!
तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ है
गजब कि अब भी,
इसी समय में,
कोई कहता है
कोई सुनता है!
***
इच्छा, आकाश के आँगन में
इच्छा भी थक जाती है
मेरे अंदर रहते– रहते
यह मन तो लगातार भटकता रहता है
आत्मा भी टहल आती है
कभी– कभार बाहर
जब मैं सोया रहता हूँ।
यह बिखराव का समय है
मैं अपने ही भीतर किसी को आवाज देता हूँ
और अपने ही अकेलेपन से डर जाता हूँ।
यह समय ऐसा क्यों लगता है
कि काली अंधेरी सड़क पर
एक बच्चा अकेला खड़ा है?
लोरियों में साहस भरने से
कम नहीं होता बच्चे का भय
खिड़कियां बंद हों तो सारी सडकें जंगल की तरह लगती हैं।
इच्छा ने ही कभी जन्म लिया था मनुष्य की तरह
इच्छाओं ने मनुष्य को अकेला कर दिया है
आत्मा रोज छूती है मेरे भय को
मैं आत्मा को छू नहीं पाता हूँ।
मैं पत्तों के रंग देखना चाहता हूँ
मैं फूलों के शब्द चुनना चाहता हूँ
संशय की खिड़कियां खोल कर देखो मित्र
उजाले के इंतजार में मैं आकाश के आँगन में हूँ।
***मेरे अंदर रहते– रहते
यह मन तो लगातार भटकता रहता है
आत्मा भी टहल आती है
कभी– कभार बाहर
जब मैं सोया रहता हूँ।
यह बिखराव का समय है
मैं अपने ही भीतर किसी को आवाज देता हूँ
और अपने ही अकेलेपन से डर जाता हूँ।
यह समय ऐसा क्यों लगता है
कि काली अंधेरी सड़क पर
एक बच्चा अकेला खड़ा है?
लोरियों में साहस भरने से
कम नहीं होता बच्चे का भय
खिड़कियां बंद हों तो सारी सडकें जंगल की तरह लगती हैं।
इच्छा ने ही कभी जन्म लिया था मनुष्य की तरह
इच्छाओं ने मनुष्य को अकेला कर दिया है
आत्मा रोज छूती है मेरे भय को
मैं आत्मा को छू नहीं पाता हूँ।
मैं पत्तों के रंग देखना चाहता हूँ
मैं फूलों के शब्द चुनना चाहता हूँ
संशय की खिड़कियां खोल कर देखो मित्र
उजाले के इंतजार में मैं आकाश के आँगन में हूँ।
छतरी के नीचे मुस्कराहट
छतरी के नीचे मुस्कराहट थी
जिसे उस लड़की ने ओढ़ रखा था,
उसकी आँखें बारिश से भींगी थी
और ऐसा लग रहा था जैसे
भींगी धरती पर बहुत से गुलाबी फूल
खिले हों!
जैसे पलकों की ओट में
छिपा था उसका मन
वैसे छतरी ने छिपा रखा था
उसके अतीत का अंधेरा।
पतंग की छांव में एक छोटी सी
चिड़िया
एक बहुत बड़े सपने के आंगन में खड़ी
थी।
***
हमारे ही बीच
का होगा वह, जो सच कहेगा
हमारे ही बीच का होगा वह
जो सच कहेगा
हमारे ही भीतर से आएगा!
जो सच कहेगा
हमारे ही भीतर से आएगा!
देवताओं सी चमक
नहीं होगी उसके चेहरे पर
नहीं होगा,
वह उम्मीद की गाथाओं का रचयिता!
हो सकता है
इंद्रधनुषों की बात करते वक्त भी
उसकी आँखों से
झांक रही हो
रात की थोड़ी बची भूख
और कहीं उसके गहरे अंदर
छूट रही हो
एक नामालूम रुलाई!
नहीं होगी उसके चेहरे पर
नहीं होगा,
वह उम्मीद की गाथाओं का रचयिता!
हो सकता है
इंद्रधनुषों की बात करते वक्त भी
उसकी आँखों से
झांक रही हो
रात की थोड़ी बची भूख
और कहीं उसके गहरे अंदर
छूट रही हो
एक नामालूम रुलाई!
एक सामान्य सी सुबह होगी वह
और रोज की तरह का दिन
जब रोज के कामों से
थोड़ा वक्त निकाल कर
जैसे सुस्ताता है कोई पथिक
वह हमसे– आपसे मुखातिब होकर
सरे राह सच कहेगा!
ऐतिहासिक नहीं होगा वह दिन
जब सूरज की तरह
चमकेगा सच
और साफ झलकेगा
भूरी टहनियों पर
हरे पत्तों का साहस।
***जब सूरज की तरह
चमकेगा सच
और साफ झलकेगा
भूरी टहनियों पर
हरे पत्तों का साहस।
मुझे लगता है मंगल ग्रह पर एक कविता
धरती के बारे में है
मुझे लगता है मंगल ग्रह पर बिखरे
असंख्य पत्थरों में
कहीं कोई एक कविता धरती के बारे में
है!
आँखों से बहे आंसू
जो आँखों से बहे और कहीं नहीं पहुंचे
आवाज जो दिल से निकली और
दिल तक नहीं पहुंची!
उसी कविता की बीच की किन्हीं पंक्तियों
में
उन आंसुओं का जिक्र है
उस आवाज की पुकार है.
संसार के सभी असंभव दुःख
जो नहीं होने थे और हुए
मुझे लगता है उस कविता में
उन दुखों की वेदना की आवृत्ति है.
पता नहीं वह कविता लिखी जा चुकी है
या अब भी लिखी जा रही है
क्योंकि धरती पर अभी-अभी लुप्त हुई प्रजाति
का
जिक्र उस कविता में है.
मुझे लगता है संसार के सबसे सुंदर सपनों
में
कट कर भटकती उम्मीद
की पतंग
मंगल ग्रह के ही किसी वीराने पहाड़ से
टकराती है
और अब भी जब इस सुंदर धरती को बचाने
की
कविता की कोशिशें विफल होती है
मंगल ग्रह पर तूफान उठते हैं.
मुझे लगता है
जैसे धरती पर एक कविता
मंगल ग्रह के बारे में है
ठीक वैसे ही मंगल ग्रह पर बिखरे
असंख्य पत्थरों में
कहीं कोई एक कविता धरती के बारे में
है!
***
***एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर
हारा हुआ आदमी पनाह के लिए कहाँ
जाता है,
कहाँ मिलती है उसे सर टिकाने की जगह?
कहाँ मिलती है उसे सर टिकाने की जगह?
आपने इतनी माया रच दी है कविता में
कि अचंभे में है अंधेरे में खड़ा आदमी!
आपके कौतुक के लिए वह हंसता है जोर- जोर
आपके इशारे पर सरपट भागता है।
कि अचंभे में है अंधेरे में खड़ा आदमी!
आपके कौतुक के लिए वह हंसता है जोर- जोर
आपके इशारे पर सरपट भागता है।
एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर
चमत्कार का अंगोछा झाड़ कर आपकी पीठ पर
कहेगा, कवि जी कविता बहुत हुई
आते हैं हम खेतों से
अब जोतनी का समय है।
चमत्कार का अंगोछा झाड़ कर आपकी पीठ पर
कहेगा, कवि जी कविता बहुत हुई
आते हैं हम खेतों से
अब जोतनी का समय है।
***
जन्म
: 19 जून 1971.
संपूर्ण शिक्षा कटिहार (बिहार) में. शिक्षा : स्नातकोत्तर (भौतिकी).
कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचि. पहली कहानी “शहर में कैबरे” ‘हंस‘ पत्रिका में प्रकाशित.
“हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं” आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में प्रकाशित और चर्चित. राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन.
सक्रियता : हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, आजकल, नवनीत, गूँज, जतन, समकालीन परिभाषा, दिनमान टाइम्स, संडे आब्जर्वर, सारिका, संदर्श, संवदिया, मुहिम, कला आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचनात्मक आलेख, पुस्तक समीक्षा, साहित्यिक/सांस्कृतिक रपट आदि का प्रकाशन.
संप्रति : सरकारी सेवा.
संपूर्ण शिक्षा कटिहार (बिहार) में. शिक्षा : स्नातकोत्तर (भौतिकी).
कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचि. पहली कहानी “शहर में कैबरे” ‘हंस‘ पत्रिका में प्रकाशित.
“हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं” आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में प्रकाशित और चर्चित. राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन.
सक्रियता : हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, आजकल, नवनीत, गूँज, जतन, समकालीन परिभाषा, दिनमान टाइम्स, संडे आब्जर्वर, सारिका, संदर्श, संवदिया, मुहिम, कला आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचनात्मक आलेख, पुस्तक समीक्षा, साहित्यिक/सांस्कृतिक रपट आदि का प्रकाशन.
संप्रति : सरकारी सेवा.
राकेश जी, आपकी कविताओं में शब्दों और भावों के समानान्तर सुनाई देने वाला यह आह्वान कि तमाम विसंगतियों के बावजूद इस समय में भी कविता लिखी जानी चाहिए मुझे सदैव प्रेरित करता रहेगा, आपको अशेष बधाई !
अनुनाद पर राकेश जी कविताओं को पढ.ना अच्छा लगा. सुन्दर चयन है. राकेश जी की कविताएं अलग अलग तो पहले भी पढ.ता रहा. पर यहां कई कविताओं को एक साथ पढ.ना उनके समस्त प्रभाव को महसूस करने का अवसर आपने दिया. आभार.
एक अलग सा तेवर एक अलग सा ओज एक अलग सी आवाज लिए ये कविताये अपना अलग स्तर बना रही है
अनुनाद के माध्यम से इन्हें पहली बार पढ़ा….
यक़ीनन ये और भी अधिक उम्मीद जागते है
आपको पुनः पढ़ना चाहूँगा…
जिंदगी से भागकर सपने में जाता हूँ
सपने की तलाश में जिंदगी में आता हूँ.…
राकेश जी की कविताएँ पढ़ीं .दस्तंबू सजा दिया अनुनाद ने .राकेश जी आपको बधाई और अनुनाद का शुक्रिया .
"ऐतिहासिक नहीं होगा वह दिन
जब सूरज की तरह
चमकेगा सच
और साफ झलकेगा
भूरी टहनियों पर हरे पत्तों का साहस।"
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति!
नीलेश सोनी, कोलकाता
कवितायेँ कवि के आत्मसंघर्ष के सन्दर्भ जनसंघर्षों में तलाशती है और यही इन कविताओं का सकारात्मक पक्ष है ! इन सुन्दर कविताओं के लिए राकेश जी और 'अनुनाद' दोनों को बधाई !
बहुत अच्छा राकेश जी। मंगल ग्रह वाली कविता बहुत अच्छी है।
राकेश जी की कविता चुपचाप सरलता से संघर्ष को अभिवयक्त करती है । इनकी कविता में कहीं भी शोर नही है जो की कविता को सुन्दर बनाते हुए उसे पूरी तरह संवेदनात्मक धरातल पर ले जाती है। कविता के लिए 'अनुनाद' और राकेश जी दोनो को हार्दिक बधाई।
अच्छी कविताएँ हैं। रोहित राकेश।
बहुत सुन्दर सहज सी भावनाओं का गूड मंथन ,जीवन की सुन्दर सच्चाई सी यह कविता ये मंथर स्वर में धीरे धीरे मन में प्रवेश करती हैं .अच्छी लगी सभी रचनाएँ ,बधाई राकेश रोहित जी
इन कविताओं को पढ़ने से लगा समय की सुरंग से होके कैसे गुजर गया कुछ वक़्त कविताओं के गुजरने जैसे ही।
बधाइयाँ इतना अच्छा पढ़वाने के लिए
बहुत गहरी और ठहरी हुई कविताएं हैं ,राकेश जी लिखा पहले भी पढ़ा है..पर लंबी कविताएं पहली दफा पढ़ी हैं ..
अनुनाद का शुक्रिया !
"उजाले के इन्तज़ार में….सरे राह सच कहना…"आदि बिन लाग_लपेट सीधी सरल बातें अनायास ही दिल तक पहुँचती हैं।कविता वही जो अन्तरमन को छू ले।राकेश जी बधाई हो…आप बहुत अच्छे रचनाकार बन चुके।
राकेश रोहित की कवितायेँ रहस्य से भरी हैं. अविस्मरणीय, अप्रतिम! इनकी अनुगूंज पढ़ने के बाद देर तक बनी रहती है. – रचना राय, बरहामपुर
रोहित जी की कवितायेँ पढ़ कर ऐसा लगा जैसे अपनी ही अनकही बात को शब्द मिल गए हों! इनको और पढ़ना चाहूंगा. क्या इनका कोई संकलन आया है?
मिथिलेश जायसवाल, कोलकाता.
With many experiences, overt and covert….these poems connect us with inner and outer world while redefining relations, also challenge the existing spiritualistic assumptions.