अनुनाद

अमित श्रीवास्तव की नई कविता








अमित इधर लगातार राजनीतिक क्रूरताओं के बीच फंसी मनुष्यता के आख्यान रच रहा है। उसकी विकट बेचैनी उसके लिखे में गूंजती है। ऐसी बेचैनियों के बीच उपजी इस कविता के लिए मैं उसे शुक्रिया कहता हूं।
अमित का कल जन्मदिन था और मैंने बहुत यत्न किया कि इस प्यारे कवि की यह नई कविता अनुनाद पर लगा पाऊं पर नेट की स्पीड ने साथ नहीं दिया।

मानो कल की ही हो कोई बात
गुजिश्ता इतने सालों ने जो इक तहरीर लिक्खी है
मुसलसल पढ़ रही है जिंदगानी क़तरा क़तरा वो

इतिहास एक कई साला कैलेण्डर है
हर घर में
गली, मुहल्ले, चौराहों पर
दूषित खंडित मूर्तियां
और इधर ज़हन में खुद इसके अनचाही गिचपिच
अपच डकार वायु विकार  
इतिहास कुछ अधपची तारीखें उगल देता है
आँख के ठीक सामने
और इस तरह जुमले की बात
कि खुद को दुहराता है इतिहास
वैसे तो सबसे सुन्दर अनागत मुल्तवी है
किसी आने वाले कल के लिए

इतिहास हांट करता है मुझे नींद में
कुड़बुड़ाता है एक करवट सोता है
चिहुंककर दूसरे करवट जाग जाता है

कुछ सुने का इतिहास है मेरा
कुछ इतिहास देखे का भी है बनता
जब देखने की जुगत हो और इतिहास सुनने का हो
तो असल दर्द होता है

सुनते हैं
`Imbecility of men, history teaches us, always invites the impudence of power’, while we know that `power corrupts and absolute power corrupts absolutely’, however `we learn from history that we learn nothing from history’ that is why we were so mesmerized with the `festival of discipline’ that we extended it forever और अब अँधेरे में उन दिनों की याद बुनते हैं कि
सुनते हैं
उन्हीं दिनों
गलियों में मासूम खिलखिलाहटें
सायरन की आवाज में घुट गईं
टोटल ब्लैक आउट से पुंछी एक सिसकारी
बंधिया हुई सरेआम 
वर्दियां ही वर्दियां, टोपियां ही टोपियां
अँधेरे में सफ़ेद रात
किसी भकुआए उल्लू की तरह
दिशाहीन
बोलने की सजा कम से कम
चुप हो जाना हमेशा के लिए
वो स्वैच्छिक वेश्यावृत्ति राजनीति की
दर्ज है मेरे सुने में
दम्भी पुरुषबल की तिर्यक रेखा
डॉट डॉट डॉट
नहीं देखा
खिचड़ी विप्लव हमने देखा 

कहते हैं
कुछ लोग सब लोगों का इतिहास बनाते हैं, कुछ लोग सब लोगों का भविष्य बनाते हैं, ऐसे भी होते हैं कुछ लोग जो सब लोगों के इतिहास का भविष्य बन जाते हैं, इतना भर सच और कि सब लोग सब लोगों का इतिहास होते हैं  
तो सब लोगों के इतिहास से
बड़े सीरियस मज़ाक से
एक बूँद सहसा उछली खून की
जो यकबयक सुफैद हो चला था
बूँद का हालांकि कई अस्तरों का इतिहास था
पर उछलना फिर भी तात्कालिक रूप में प्रोग्राम्ड था
अब सफेदी खून की
रतौंधी सी जमती जाती है सभ्यता की आँख पर
जिससे धारदार खून निकलता
मरा हुआ पानी
दो भाइयों की बांह पर कटे का निशान
इधर से देखो तो आस्था उधर से राजनीति
भई आम के आम औ` गुठलियों के दाम
जय श्री राम

देखते हैं
जब सब कुछ अच्छा होता दिखता है तब कुछ अच्छा भी नहीं होता और बाद इसके कुछ भी अच्छा नहीं होता  
Stop! Stop! Stop! For god`s sake damn it!
घर के चिराग से
भर गए अखबार सब आग से
एक स्वघोषित नायक अघोषित इतिहास पर लेट गया
एक अघोषित नायक स्वघोषित भविष्य पर लेट गया 
वो एक रात की शुरुआत थी वो एक दिन का अंत था
द्वंद्व था कुछ धुंधलके का घटाटोप से
उस रात के उस दिन के
उस द्वंद्वो राग के कुछ चीथड़े
अब भी लटकते हैं नाम के पिछले हिज्जों पर
चीखते हैं भाई बंद आह ऊह आहा
अ स
अव सव
ण ण स्वाहा  

कौन जाने
कल, कल सा होगा या नहीं, आज, कल सा नहीं है, नहीं है तो नहीं है इसमें क्या सच कहना आसान है कि अब जब रो रहे हैं सब, तब एल ओ एल महज एक स्माइली का एनीमेशन
जबकि  
तब जब महंगा और कीमती के बुनियादी फर्क में
एक भरा पूरा जीवन
और एक खामोश तफसील होती थी
ज़रूरत और विलासिता की दूरी नापने में ख़ाक होती थी एक पीढ़ी
एक पैगाम आया
जिसके हर पुश्त पर एक शर्त थी
रोटी शर्त पर
पानी पर शर्त
बिस्तर शर्त पर
यहाँ तक कि रोने, सोने और सांस लेने पर
कोटे की ज़रूरत
ज़रूरत, अधिकार, समता महज बिकने भर के माल  
खरीद ले बेच दे 
स्वास्तिक के दो स्थाई दाग
शुभ लाभ  
इतनी बड़ी प्रस्तावना कि जैसे उत्कट आकांक्षा कवि की, इतिहास लिख डालूँगा मैं, मैं न कविता साधता हूँ न इतिहास लिखता हूँ बस यों कि एक गुजिश्ता रात हूँ जो कि मानो कल की ही हो कोई बात !!
**** 

0 thoughts on “अमित श्रीवास्तव की नई कविता”

  1. Swapn Kishore Singh

    Sir, hats off to you… Aapki rachnayen padhna, baar-baar padhna maansik jarurat si ho gyi hair…

  2. कितना मार्मिक….कितना सत्य…अंतर्मन की उहापोह….हाथ बांधी विवशता…ऐसे इतिहास को बनते देखने की छटपटाहट जिसे होना ही नहीं चाहिए था….सब कुछ परिलक्षित होता है शब्दों की इस अदभुत माला में…..ऐसे ही लिखते रहिये…कुछ तो अच्छा बने…शायद….एक स्वर्णिम इतिहास रचे…

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