कृष्णकांत पहली बार अनुनाद पर हैं। इस नई विचारवान प्रतिभा का यहां स्वागत है। वह समाज और साहित्य में प्रतिबद्धता के साथ लगातार चलती एक जिरह है, जिसके बीच कवि हमें लिए जा रहा है। अभी खोजे जा रहे अपने मुहावरों में निमर्मताओं-बर्बरताओं से लड़ने वाली ऐसी हर आवाज़ हमारे लिए अनमोल है। ये निष्क्रिय काव्यात्मक प्रतिक्रियाओं से अलग कुछ बौखलाई हुई-सी कविताएं हैं, हमें ऐसी कविताओं की ज़रूरत है। इनके लिए शुक्रिया साथी।
***
1. हमारे समय की कविता
हमारे समय में
कविता
ऐसी गैर-जरूरी
चीज है
कि यदि कोई
तानाशाह उसे दफना दे
खूब गहरे तो
फर्क नहीं पड़ता
कविता किसी
जमाने में रही होगी
बेआवाजों की
आवाज
अब कविता
कैंडी क्रश है
वह युवा जोड़े
के हाथ में आइसक्रीम है
सुबह सवेरे का
ब्रश है
कविता फेसबुक
का चुटकुला है
बहते पानी में
उभरा बुलबुला है
कविता एक
झाड़ू या चप्पल से भी
गई-गुज़री चीज
है
जिसके न होने
से फर्क नहीं पड़ता
सत्ता कवि को
वोटबैंक मानती है
कवि से उसकी
जाति पूछती है
राष्ट्रकवि की
स्मृति में आयोजित जातीय सम्मेलन में
कवि खीस निपोर
कर खड़ा है
आॅफिस नहीं
गया हो तो टीवी के सामने
बेडरूम में
पड़ा है
वह ताली बजाता
है, ढाई इंच मुस्कराता है
कवि अपनी
कविता के भूमिहार होने
पांड़े, तिवारी, महार होने का गीत गाता है
झूमते हुए
सुबह सवेरे फेसबुक पर
हिंदी अकादमी
की नवनियुक्त अध्यक्षा को
धन्यवाद कहता
है
या किसी
झुरमुट के पीछे ली गई सेल्फी चिपकाता है
हमारे समय का
कवि तटस्थ है
वह कविता
लिखने में व्यस्त है
वह लाला
रामचंद्र हीराचंद जैन के हाथों
पुरस्कार पाकर
मस्त है
कुढ़नखोर
मुंहझौंसा धूमिल कह रहा था
यह कविता की
शिकस्त है
कवि सरकारी
बाबू है
वह जनता से
इतना उपर है
कि माउंट
एवरेस्ट है
इतना रमणीय है
कि जैसे माउंट आबू है
वह सुबह आॅफिस
जाता है, शाम को घर आता है
कभी कभी वह
विश्वविद्यालयों में पिकनिक भी मनाता है
हमारे समय का
कवि कभी न हुंआने वाला सियार है
वह दिल्ली में
गलियारे में
पूंछ हिलाता
पातलू डाॅगी है
दूध कटोरे के
इंतजार में दुबकी हुई बिलार है
प्रेमी जोड़े
भी मुतमइन हैं कि कविता
महज कंडोम का
इश्तिहार है
हमारे समय का
कवि
तानाशाहों से
नहीं भिड़ता
अन्याय पर चुप
रहता है
विसंगतियों से
नहीं लड़ता
अगर वह कविता लिखने
की लिखे
गाय पर निबंध
तो भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता.
***
2. प्रेम
प्रेम एक
दुर्लभ चीज है हमारे समय में
और सबसे जरूरी
भी
खूब गहरी
रातों में
थरथरातें हैं
सहमे हुए सन्नाटे
जब हमारी बंद
खिड़कियों के दराज से
घुसती हैं
बिलबिलाती चीखें
कान में पारा
सा पिघलता है
हर घर का
दरवाजा डरा हुआ है
हर छत कांप
रही है
हर दीवार जूझ
रही है खुद को बचाने के लिए
दीवार के बगल
लगा नीम का पेड़
ठूंठ हो गया
है
हमारी बस्ती
श्मशान होना चाहती है
एक छेवना
कवियित्री मुझसे कहती है
तुम फ्रस्टू
हो, निगेटीविटी के मारे
थोड़ा राजनीति
से दूर रहा करो
कभी पिक्चर
जाया करो
लड़कियों को
लाइन मारा करो
जिंदगी को
एन्ज्वाय करो…
मतलब इस
श्मशान में भी
खुश रह रहने
के कारण खोजे जा सकते हैं
अगर आप गांठ
बांध लें—
‘कोउ नृप होइ हमै का हानी‘
आप तब भी खीस
निपोरे झूमते रहें
जब पड़ोसी का
घर जल रहा हो
वह और वह सड़क
पर छाती पीट रहा हो
हालांकि, हर कोई यह जानता है
संतुष्ट सुअर
होने से अच्छा है
असंतुष्ट
मनुष्य हुआ जाए
ताकि दुनिया
कुछ बदल सके
लेकिन संतुष्ट
सुअर होने में
एक लिजलिजा सा
आनंद है
हमारी बस्ती
में मुर्दनी है
ख़्वाबों का
हर दरवाजा बंद है
मैं अपने हर
साथी से कहता हूं
उठाओ लोनी लगे
पुराने सड़े हुए ईंटे
और शहर की सब
दीवारों पर प्रेम लिख दो.
***
3. हंसो हंसो सब खूब हंसो
ठीक कहा
रघुवीर सहाय ने
हंसो हंसो सब
खूब हंसो
हंसो कि ये
हंसने के दिन हैं
हंसो कि हम
सारे हंसोड़ हैं
हंसों कि
दुनिया हंसती हमपर
गढ़ते हम
फंतासी सुंदर
हंसने को
कितनी बातें हैं
हंसो कि जनगण
मन के साथ
रोज हो रही
झूठी बात
राजा पूछै कवि
की जात
जनता खाए पानी
भात
नहीं छंट रही
काली रात
हंसो कि यह
हंसने की बात
मेरी जान क्या
तुम्हें गिला है
ज्ञान हमारा
बड़ा भला है
सदियों से
फूला है फला है
वेदों से
विमान निकला है
राजा का वादा
जुमला है
कौन कहे क्या
क्या फिसला है
मेरी जान क्या
तुम्हें गिला है
हंसों कि हम
सब मूर्ख बने हैं
हंसो कि
देशभगत बनना है
हंसो कि मरने
से बचना है
हंसों कि खंजर
खूब तने हैं
लोकतंत्र ने
लाल जने हैं
लहू से उनके
हाथ सने हैं
हंसो कि हम सब
मूर्ख बने हैं
हंसो नहीं वे
हंसेंगे तुमपर
हंसो डॉक्टर
हंसो मास्टर
हंसो भगत सिंह
हंसो सुभाष
हंसो करमचंद
आम्बेडकर
तर्क ज्ञान की
खाट खडी कर
हंसो कि ये
हंसने के दिन हैं
हंसो हंसो सब
खूब हंसो
***
4. कहो, यह कौन सा युग है?
कहो, यह कौन सा युग है?
कौन सा यह देश, किसकी बादशाहत
जहां पर
अलसुबह भी है अंधेरा घुप्प?
कहां पर आ
गिरा हूं मैं
जहां किरदार
सब बौने बहुत हैं
इधर से जो
गुजरता है, न मुझको देखता,
कुछ पूछता न
गौर करता है
मैं इक तस्लीम
की दरकार में
बैठा यहां कब
से
बारहा सोचता
हूं धीर धर, कोई तो आएगा
मुझे है प्यास, कितनी अजनबी कि
एक जोड़ी आंख
में पानी कहीं देखूं
कोई गुजरे इधर
से तो लगे
इंसान गुजरा
है
मैं उससे
आदमीयत की
जरा तस्लीम इक
ले लूं
अभी कुछ देर
पहले
इक मुलाजिम
शाह का आया इधर
मुझे आंखें
दिखाते, घूरते
कुछ—कुछ डराते
मैंने पूछा-
साहेब
देश है यह कौन
सा?
घुड़ककर कह
पड़ा—
पहचान अपनी तू
बता
जरा सा
मुस्कराकर कह दिया
मैं कृष्ण हूं
उतरकर कार से
बोला—
नहीं, यह झूठ है
न तो माथे पे
तेरे है तिलक
न वस्त्र भगवा
देह पर
तेरी दाढ़ी, तेरी भाषा
तेरी यह अजनबी
मुस्कान
मुझे संदेह है
तुझपर
बता दे शीघ्र
ही पहचान
तू हिंदू है
नहीं, आश्वस्त हूं
तू दीखता है
शुद्ध मूसलमान
मैंने पूछा कि
साहेब यह कहां का न्याय है
मुझे यूं
दायरे में बांधना शायद बड़ा अन्याय है
तुम्हारी ही
तरह है चाम मेरी
मांस मेरी
हांड़ मेरी
तुम्हारी ही
तरह इंसान हूं
किसी इंसान की
दरकार में
बस, आ गया हूं
मुझे वह घूरता, गुस्से से आगे बढ़ गया
कि जैसे कार
का पहिया मेरी छाती पे आकर चढ़ गया
अभी कुछ देर
पहले ही
मुझे इक मौलवी
ने
देखा था न
जाने किस हिकारत से
गले मिलने की
कोशिश की थी उससे
घुड़ककर बोला—
निकल चल जा
यहां से
सूअर की औलाद
मैं सकते में
खिसकते—रेंगते आया यहां तक था
ये बस्ती कब
हुई ऐसी
जहर बुझ गई
कैसे
मोहब्बत मर गई
कैसे
हिकारत बच गई
कैसे
कहो यह कौन सा
युग है
कहां पर आ
गिरा हूं मैं…?
***
5. स्वप्न
मैं जागता हूं
देखते हुए
स्वप्न
एक ऐसी सुबह
का
कि जब हमारी
आंखें खुलें
मेरी निगाह के
स्पर्श से
तुम्हारे
होंटों पर
चमक उठे एक
हंसी का छल्ला
और ठीक उस
वक्त
दुनिया का कोई
चेहरा उदास न हो!
मैं रोज
तुम्हें हंसते हुए देखकर
खूब हंसना
चाहता हूं
लेकिन जब
चीखते हुए आता है
सुबह का अखबार
न मुझे दिखती
है कोई हंसी
न सुनाई देता
है सुबह का संगीत
मैं विदर्भ के
सिवान में लटकी
किसानों की
लाशें गिनने लगता हूं बदहवास
अक्सर भूल
जाता हूं बाहर निकलकर दूध लाना
बच्चे को
तैयार कर स्कूल भेजने
या टिफिन
तैयार करने में
मदद करना चाहता
हूं तुम्हारी
लेकिन अखबार
में बिखरे
हजारों बच्चों
के चीथड़े बटोरने लगता हूं
तमाम चीखों से
घबराकर
तुम्हें
मुस्कराते देखना, काम में हाथ बंटाना
या स्कूल जाते
हुए बच्चे को
गोद उठाकर, चूमना भूल जाता हूं
मैं उन
किसानों को बोझ लादकर
हुमकते हुए
खेत से घर आते देखना चाहता हूं
उन सब बच्चों
को अपने साथ
स्कूल तक ले
जाना चाहता हूं
लेकिन कुछ
नहीं कर पाता
रोज—ब—रोज छटपटाते हुए
जिंदगी का एक
दिन हार जाता हूं.
*** कृष्णकांत
दैनिक भास्कर, दिल्ली