अनुनाद

लवली गोस्वामी की कविताएं

दख़ल प्रकाशन से आयी लवली गोस्वामी की किताब ‘प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता (भारतीय मिथकों का पुनर्पाठ)’ चर्चा में है।कवि का स्वागत और इन कविताओं के लिए आभार। 
 
नियति
साथ चलते शायद बहुत दूर निकल आये हम
पंखड़ी

हम जो नेह के पराग से सने फूल के केंद्र में पड़े थे
अन्वेषक बनते या यात्री सोचते रह गए
केंद्र से परिधी तक की यात्रा में सुगंधी धीमे – धीमे सिमट गई नाभि
में

वह सुगंधी कस्तूरी नही
हम बेकल मृग नही
प्रत्येक अन्वेषक यात्री होता है
प्रत्येक यात्री अन्वेषक नही होता

हाथों से पोछ देती हूँ तुम्हारी आँखों के नीचे उग आये अँधेरे काले
चाँद

उँगलियों में लगी उस कालिख का टीका किसी नवजात के गुलाबी गालों में
लगा देती हूँ

इतना यकसाँ है दिलों से निकलता अवसाद कि अब ख़्याल रखे जाने की
ताकीदें बेमानी हो गई है

पृथ्वी अंतिम सीमा पर ज्वालामुखी की दरारों में पैर लटकाये साथ बैठे
हम

देख रहे हैं अपने पैरों को  धीरे धीरे
लावे की गिरफ्त में जाते

राख कहीं दूर नरसंहारों के अवशेष बने  श्मशान में गिर रही है
हम लड़ना नही चाहते
हम भागना नही चाहते
हम मरना भी नही चाहते

हमारे पास लेनदेन के वास्ते दुरूह सौदागरों वाले हुनर हैं
रेगिस्तान में फंसे यात्रियों सा धैर्य है
हम कंदराओं में बंद कैदियों से निरीह भी हैं
गाँव जला दिए जाने के बाद बचे एकमात्र जीव से अकेले भी
हमारे खून में आतंकी चींटियाँ भी रेंगती है
संवेदनाओं का गाढ़ा शहद भी बहता है
आखें सबके सम्मिलित रुदन का महासागर भी होती है
गोलक निराशा की धूप से सूख कर दरकते भी हैं
हम एक समय में सबसे समृद्ध नागरिक हैं
ठीक उसी समय बहिस्कृत विपन्न कोढी भी

घड़ी की सुईयों की तरह हम प्रत्येक क्षण
अविरल गति में तो हैं

समय ही शायद सभ्यताओं की मेढ़ लाँघता

निर्वात
में कहीं ठहर गया है।
*** 
 
प्रतीक्षा
तुम्हे प्रेम करना लक्ष्य से अधिक
खुद को रास्तों में बदलते देखना है
तुम्हारी प्रतीक्षा करना घडी की
सुईयों से कालचक्र में बदलते जाना है

फिर भी मैंने तुम्हे एक निमंत्रण पत्र लिखा जिसमे पता नही था
उसे सबसे नाकारा हरकारे को थमा कर
मैंने आँखें बंद कर ली 
उस निमंत्रण पत्र में तुम्हारे आने
की किस्तें बंद थी

तुम मेरे पास किसी बेकल खोजी की तरह आना
कल्पनाओं को हक़ीक़त में बदलने वाले कीमियागर की शक्ल लिए
हम इतिहास के अधूरे सपने को  उन दराजों
में से निकालेंगे

जिसमे गुम कर दी गई सबसे पुराने विद्रोहों की कथा
हम विद्रोहों को डोर खोलकर आज़ाद कर देंगे
कल्पनाओं को भविष्य के सतरंगी चित्र में बदल देंगे

फिर तुम मेरे पास कामकाजी दिनों की व्यस्तता की तरह आना
मैं तुम्हारी उपस्थिति बेतरतीब फाइलों में समेट लूंगी
जब किसी रात  खिडकी से आती तेज़ हवा बिखेर
देगी

प्रेम के संचिकाओं के सब पन्ने
तुम्हारी अनुपस्थिति समेटते मैं रख दूँगी उनपर
अनंत प्रतीक्षाओं का पेपरवेट

तुम गहरी नींद के सबसे उत्ताप स्वपन की तरह आना
स्वपन जो इतना तीक्षण हो कि वितृष्णा की परतें भेद सके
और समयों के अंत तक मैं उनपर शब्दों का चंदन लपेटती रह जाऊं
तुम्हारे स्पर्शों का ताप मध्यम करने के लिए

किसी दिन तुम मिलना ट्रेन के किसी लम्बे सफ़र में
अनजान  पर अपने से लगते मुसाफिर की तरह

इस दौर में भी जब भरोसे भय बन गए हैं
मैं हिम्मत करके पूछ लूंगी तुमसे कॉफी के लिए
फिर हम दुनिया के दुःख सुख के जरा से साझेदार बनेंगे
जीवन भर साथ चलने के वादे तो जाया हुए
पर हम किसी सफर में कुछ घंटे साथ चलेंगे

फिर तुम तानाशाहों के मिटने की खुशनुमा खबर की तरह आना
जिससे मजलूमों के सुनहरे कल की कवितायी उजास छिटके
सदियों की चुप्पी तोड़कर तुम्हारे शब्द मैं अपने होठों पर रख लूँ

मेरी मुस्कराहट उसे तराश कर एक उजियारी रक्तिम सुबह में बदल दे

मैं जब अगली बार हँसू तो वे धरती के अंतिम छोर तक बिखर जाएँ

तुम आना ऐसे कि हम पूरा कर सके वह सपना
जिसमे पीस देते हैं हम अपना तन क्रूरताओं की चक्की में
न हम खून से प्रेम पत्र लिखते है न बृहद्कथा
चक्कियों से टपकते अपने रक्त को हम आसमानों में पोत देते हैं

कि उससे  बना सकें एक नवजात सूरज

जो भेद सके  किलेबंदियों के तमाम
अंधियारे

*** 
 
परावर्तन
कभी – कभी समझ नही पाती मैं
कैसे एक बीते
प्रेम की स्मृति
 इतनी बड़ी हो जाती है  
जो ग्रस लेती है 
दुनिया की सब कला 
सारा साहित्य 
रंगों के सब शेड 
कविता के बहुसंख्यक पाठ 
कैसे दोहराव
बन जाता है
 भावों का हर
सम्भव अनुवाद
 
मैंने शाप दिया था तुम्हे 
जाओ कि तुम्हारा हर भाव मेरे प्रेम
का चलताऊ अनुवाद होगा
 
भूल गई कि यह शाप मुझे भी इतना ही
डसेगा
 
मैं भी खो दूँगी स्मृतियों के
गलियारों में भटकते हुए
 
बतकही का असाध्य कौशल 
सारे रंग 
सब पाठ 
जिन्हे संवारने में जीवन झोंक दिया 
कलात्मक कौशल के वे सब संवाद
*** 
स्वीकृतियाँ
मैं हमेशा अपने भाव छिपाती रही खुद
से

भावनाओं का आना कविताओं का आना था
मुझे भय लगता रहा मन में कविता के आने से
कटुता और रुक्षता के रीत जाने से
तितलियों के रंगों से अधिक उनकी निरीहता से
फूलों की महक से अधिक उनकी कोमलता से
बारिश की धमक से अधिक ख़ुद भींग जाने से

शक्तिशाली होने का अर्थ उन्माद के
क्षणों में एकाकी होना है
विस्तृत होने का अर्थ आघात के लिए
सर्वसुलभ होना है
सबसे गहरी अँधेरी खाईयों की तरफ
बारिश का पानी प्रचंड वेग से बहता है
ऊँचे और विस्तृत पहाड़ सबसे अधिक
भूस्खलन के शिकार होते हैं
बड़े तारे सबसे शक्तिशाली ब्लेक हॉल
में बदलते हैं
ठूँठ कठोरता और पौधे लचक के कारण
बचे रहते हैं
फलों से लदे विशाल हरे पेड़ आंधी में
सबसे पहले टूटते हैं

महानता के रंग -रोगन नही चाहिए थे मुझे
पर इंकार के सब मौके मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गए
घोषणापत्रों पर मुझे आवाह्न के नारों की तरह उकेर दिया गया
कोई व्यंग से हंसा  मैं कालिदास हुई

किसी ने अपमानित किया मैं शर्मिष्ठा
हुई

किसी ने नफ़रत की मैं ईसा हो गई
जब जब किसी ने अनुशंसा की
मैं सिर्फ सन्देश रह गई
मैं सिर्फ शब्द बनी रही
सबने अपने – अपने अर्थ लिए
मैं सापेक्ष बनी रही
सब मुझे अपने विपक्ष में समझते रहे

जब भी मौसम ने दस्तक दी मैंने चक्रवात चुने

जब गर्मियाँ आई मुझे दोपहर की चिलचिलाती
धूप भली लगी
जब सर्दियाँ आई माघ की ठंढ
(यूँ ही नही कहते हमारे
गांव में माघ के जाड़ बाघ नियर)

सामर्थ्य नही था मुझमे पर विवशता में हिरण भी आक्रामक होता है
मुझे उदाहरण भी नही बनना था
पर मिसालों के आभाव ने समाज की
बुद्धि कुंद कर दी
मुझे योग्यता के विज्ञापन में बदल
दिया गया
सिर्फ इसलिए कि किसी को गैरजरुरी सी
शुरुआत में बदल जाना था

महानताओं ने धीरे से क्षमा कर दी उसकी गलतियाँ
पलायन एक सुविधापूर्ण चयन होता है
चुनौतीपूर्ण चयन अहम का आहार होता है
जिसकी बलि चढ़ा दी जाये वह समर्थ नही कहलाता
वरना समाज अभिमन्यु की जगह
अरावन की प्रशस्ति गाता

***

प्रहसन
मैं जिससे मिली उसने मुझे व्यंग से
“सम्पूर्ण प्रहसन
का सम्बोधन दिया
मैं मुस्कुराई कि हाँ यों तो मेरे अंदर सभ्यताओं के अंश शेष हैं
प्रहसन के लिए

मेरे अंदर युद्ध के बाद खंडहरों में तब्दील हुए शहरों के बियाबान
में रोते सियारों सा अपशगुन पैबस्त है

जो अँधेरे में नृशंस हत्याएँ करके भाग गए मेरे अंदर उनकी ग्लानि भरी
है

रोते – रोते जो गर्भपात कराए गए मैं ने भोजन के रूप में उन शिशुओं
की हड्डियाँ चबाई मेरे अंदर उनकी पीड़ा और वितृष्णा शेष है

अकाल में जो बेमौत मारे गए अक्सर उन धरतीपुत्रों की चित्कारें
कंठ छीलती रहती हैं
लेकिन यह बस प्रहसन का उत्तरार्ध है इसका पूर्वार्ध मैं आपको सुनाती
हूँ
 

मेरी सबसे पुरानी और भयावह स्मृतियों में मैं एक राह भटक गई बच्ची
हूँ

जो अँधेरे से लड़ते अपने घर तक पहुचती तो है पर रस्ते में ठोकर लग कर
उसके घुटने छील जाते हैं

यौनांगों पर पहला विजातीय स्पर्श याद करूँ तो देह पर रेंगते
अपरिचितों की उँगलियाँ कब्र बिज्जूओं का रूप लेकर मेरे शरीर का मांस कुतर कुतर कर
खाती हैं

मैं रोज रात बलात्कार के दौरान होती पीड़ा महसूसती हूँ और सुबह अपने
मांस के टुकड़े देह से जोड़ती विस्मृति का अभ्यास करती हूँ

मेरी कोमल देह की खरोंचे भर गई पर मन अब भी किसी की केकड़े सी
उँगलियों में है उससे खून रीसता रहता है

मेरी सबसे यातनापूर्ण कल्पनाओं में धरती पर प्रलय के बाद अकेले छूट
जाने का भय है

जबकि स्मृतिओं में दृश्य यह कि मेरे पिता अपनी नई साथिन के बच्चे को
कंधे में उठाकर चॉकलेट दिला रहे हैं

मैं निरीह आँखों से उन्हें देखती सिर्फ इस इच्छा से उनके पैरों से
लिपटी हूँ कि वे अपना हाथ मेरे सर पर फेर दें

फिर मैं खुद को दो दिन से भूखी देखती हूँ माँ से जिद करती कि मेरे
साथ एक हफ़्ते में बस दस मिनट बीता ले और वह जलसों का लुत्फ़ लेती मुझे दुत्कार देती
है
 
मेरी स्मृतियों में घर संबंधों का बूचड़खाना है फिर भी मेरे सबसे
पुराने अफसोसों में बुढ़ापे में घिसटते हुए घर तक न पहुँच पाने का काल्पनिक दंश है

जब मैं प्रेम कहती हूँ तो मुझे वह अर्धनारीश्वर शिव स्मृत होता है
जिसने हर क्षण अपनी महानता के लिए मुझे क्षतिग्रस्त किया

जब उसे मुझे चूमना होता वह कहता आओ तुम्हारे होंठों से थोड़ा ज़हर चख
लूँ

जब मुझे उसे उन्माद में प्रेम करना होता मैं कहती आओ तुम्हे छोटे
टुकड़ों में काट कर खा लूँ

प्रेम एक ही समय में आपका सृजक और विध्वंसक दोनों होता है
हम अलग हुये तब उसने आवेग से प्रेम करने की शक्ति खोई मैंने शांति
से विचार करने का शिवत्व

आपने देखा होगा समुद्र पानी उलीच देता है और  कचड़ा लिए लौटता है
वह भी ऐसा ही था उसने मेरा मोह उलीच दिया और और विमोह लिए मेरी देह
से मुक्त हो गया

आत्मकथ्य कहते हुए आप केवल नौसिखिये लेखक होते हैं
जबकि केवल बाते करते वक़्त आप अनचाहे ही समय द्वारा मोल लिए कथावाचक
हो जाते
  हैं
उद्देश्यपरक होना प्रपंच का कुशल नीतिज्ञ बनाता है
उद्देश्यहीनता आपको कमअक्ल अवसरवादी भीड़ बनाती है
लेखक का घोषित आत्मकथ्य सत्य असत्य का मिश्रण
होता है

जबकि लेखक की कहानियों में उसका आत्मकथ्य पैबस्त होता है
तो जैसा की बीथोफ़न ने मरते वक़्त कहा था दोस्‍तो,
ताली बजाओ, प्रहसन अब पूरा हुआ

आप भी उठिए, तालियाँ बजाइए और घर जाइये प्रहसन फ़िलहाल खत्म हुआ सम्पूर्ण फिर कभी होगा.
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0 thoughts on “लवली गोस्वामी की कविताएं”

  1. सामयिक विषम हालात से आगाह कराती और उनसे संघर्ष की चेतना से लबरेज लवली की इन कविताओं के बीच से गुजरना एक जीवंत अनुभव है। इन कविताओं में जहां जीवन के प्रति जिस गहरे प्रेम की अभिव्‍यक्ति मिलती है, वहीं पीड़ित जन के प्रति गहरी सहानुभूति, अमानवीय स्थितियो के समक्ष एक संवेदनशील कवि की बेचैनी, उसकी आत्मिक छटपटाहट और हालात से अनवरत जूझते रहने की जिजीविषा जिस भाषिक संवेदना में व्‍यक्‍त हुई है, विलक्षण है, इन कविताओं का असर देर तक पाठक के मन-मस्तिष्‍क पर बना रह सकता है।

  2. अभी बस अभी लवली की ये पाँच कवितायें पढ़ी हैं। त्वरित रूप से इन पर कुछ कह पाना सरल नहीं मेरे लिए। यह इसलिए कि इनमें जो कुछ भी है वह वही है जो सतह पर कुछ और दिखता है तल में , अतल में एक सम्मिश्रण है कई – कई चीजों , स्थितियों , अनुभूतियों और संवेदना की विभिन्न परतों का। कवि की सोच और कहन बहुत प्रभावशाली है सचमुच। इन कविताओं को आज प्रिन्ट कर पढ़ना है कम से कम दो – तीन बार , आज ही। शुक्रिया अनुनाद ।

  3. लवली जी की कविताओ का इस ब्लॉग पे मिलना एक ख़ज़ाने जैसा है कल से खोज रही हूँ कविताओ के विषय में कुछ कह पाना कठिन है बस इतना ही की अरसे बाद कुछ बहुत बेहतर मिला है पढ़ने को। धन्यवाद अनुनाद।

  4. कवितायें पढना ऐसा है..कि कोई टूटता हुआ भरोसा फिर से मिल रहा है ..गहरा Observation और सुलझा मस्तिष्क …

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