जबकि हमारी अपनी ही स्मृतियां निर्जनता के कगार पर खड़ी हैं, अशोक तीन बुज़ुर्गों से कविता में संवाद कर रहा है। यहां तीन अलग लोग एक ही ऊर्जा
में जलते हुए मिलते हैं, उनके साथ जलता है आज का कवि। ये और वे, विचार के सब रास्ते
अब भी हलचल से भरे हैं और उन पर आगे भी आहटें भरपूर रहेंगी – ऐसा विश्वास दिलाने वाली इन
कविताओं के लिए शुकिया दोस्त।
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प्रकाश दीक्षित |
प्रकाश दीक्षित
शहर ही था जो तुमसे बाहर नहीं गया
तुम तो कबके हो गए थे शहर से बाहर
देह में ताब नहीं, न मन में हुलास कि चलो देख आयें दिल्ली एक
बार
जहाँ तुम्हारे शिष्य याद करते रहते हैं तुम्हें जैसे कालेज के दिनों की
प्रेमिकाओं को
लिखे हुए पन्नों के पीछे गोंजते रहते हो जाने क्या क्या
एक इतिहास तुम्हारे चश्में के शीशों में जमा वाष्प की तरह
एक वर्तमान जोड़ों की दर्द की तरह पीरा रहा है कबसे
सूने ऐश ट्रे सा भविष्य जलती सिगरेट के मसले जाने की बाट जोहता
सम्मानों की गीली मट्टी पर संभल संभल कर चलते
अपमानों के अदृश्य ईश्वर पर हंसते कभी डरते
जैसे सूख गयी वह नदी जिसमें नहाते बीते बचपन के दिन
जैसे छूट गयीं वे आदतें जिनकी संगत में गुज़री जवानी
और वे दोस्त हर सपने में रही जिनकी हिस्सेदारी
सूखती वैसी ही उम्मीदों और छूटती वैसी ही समय की चार पहिया गाड़ी को
देखते अकेले दरवाज़े की ओट से
पीछे छूट गए देखते आगे निकल गयों के रंग
तुम मुझे भी तो देख रहे होगे?
लिखो न एक अंतिम नांदी इस अंतहीन नाटक के लिए साथी
पार्श्व में गूँजता मंदिर का घंटा उसकी शुरुआत का उद्घोष कर रहा है कबसे.
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लाल
बहादुर वर्मा
ठीक इस वक़्त जब तुम्हारी साँसे किसी मशीन के रहम-ओ-करम पर हैं
मैं इतिहास के पेड़ से गिर पड़े पत्तों पर बैठा हूँ लाचार
वे इतिहास को एक मनोरंजक धारावाहिक में तब्दील कर रहे हैं साथी और तुम्हारी
आवाज़ जूझ रही है
तुम्हारा उत्तर पूर्व अब तक घायल है
तुम्हारे इलाहाबाद में भी हो सकते हैं दंगे
तुम्हारा गोरखपुर अब हिटलरी प्रयोगशाला है
फ्रांस की ख़बर नहीं मुझे फलस्तीन के जख्म फिर से हरे हैं साथी
और तुम्हारे हाथों में अनगिनत तार लगे हैं
पहाड़ जैसा सीना तुम्हारा नहीं काबू कर पा रहा है अपने भीतर बहते रक्त को
समंदर की उठती लहरों जैसी तुम्हारी आवाज़ किसी मृतप्राय नदी सी ख़ामोश
बुझी हुई है ध्रुव तारे सी तुम्हारी आँखें
अनगिनत मरूथलों की यात्रा में नहीं थके जो पाँव गतिहीन हैं वे
हम अभिशप्त दिनों की पैदाइश थे
तुम सपनीले दिनों की
तुम्हारे पास किस्से भी हैं और सपनें भी
और उन सपनीली राहों पर चलने का अदम्य साहस
कितने रास्तों से लौटे और कहा कि नहीं यह रास्ता नहीं जाता उस ओर जिधर जाना था
हमें
यह राह नहीं है तुम्हारी साथी
लौट आओ…हम एक नए रास्ते पर चलेंगे एक साथ
चन्द्रकान्त देवताले और अशोक |
चंद्रकात देवताले
सुना आज उज्जैन में ख़ूब हुई बरसात
सुना तुम्हारा मन भी बरसा था बादल के साथ
मुझे नींद नहीं आ रही और बतियाना चाहता हूँ तुमसे
कि पता चले कहीं खून ठंडा तो नहीं हो गया मेरा
सच कहूँ…कुछ लोगों की नींद हराम करने का बड़ा मन है!
पठार अब और तेज़ भभक उट्ठा है साथी
जो लोहा जुटा रहे थे उन्होंने किसी मूर्ति के लिए दान कर दिया है
तुमने जिस बच्ची को बिठा लिया था बस में अपनी गोद में
उसकी नीलामी की ख़बर है बाज़ार में
आग हर चीज़ में बताई गयी थी और हड्डियों तक में न बची
देखते देखते सिंहासनों पर जम गए भेडिये
देखते देखते मंचों पर हुए सियार सब सवार
अबकि तुम्हारी काफी में मिला ही देंगे ज़हर
और तुम सावधान मत होना..प्लीज़
चलो घूम कर आते हैं
नुक्कड़ की वह गर्म चाय और प्याज कचौड़ी चलो खिलाओ
वरना तो फिर सपने में ताई की डांट पड़ेगी
बच्चों को भूखा भेजा? कब सुधरोगे ?
चलो जुनूं में बकते ही हैं कुछ
चलो जुनूं में बकते ही हैं कुछ
क्या करें?
कहाँ जाएँ?
मैं दिल्ली तुम उज्जैन
दोनों बेबस दोनों बेचैन!
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तीनों कविताएं बढ़िया हैं।
उफ! अदृश्य शोक की डोर में पिरोयी हुई हैं तीनों कविताएँ. प्रकाश दीक्षित जी की तो जीवनी ही लिख दी हो जैसे. उनके व्यक्तित्व में घुटता हुआ जो रहस्य है उसे ही सांचे में ढालकर यह कविता लिखी है. देवताले जी वाली कविता की भाषा विशिष्ट है. ऐसा लग रहा है तीनों बुजुर्गों की मनोदशा और आपसे उनके रिश्ते में जो शब्दहीन स्पेस है वह कविता है
कमाल करते हैं पांडे जी।
Jitna aatmiy utna gahara samvaad … Poori kavitai liye huye!! Devtaale Ji vaali Kavita bahut pasand aayi. Sathi Shubhkaamna! Aabhaar Shirish Bhaiya!!