अनुनाद

आज वीरेन दा का जन्मदिन है

अग्रज कवि वीरेन डंगवाल के लिए ये दो कविताएं, जो मेरे इस बरस ‘आए-गए’ संग्रह ‘खांटी कठिन कठोर अति’ में शामिल हैं। इनमें से एक साल भर पहले समालोचन पर छपी थी। बहरहाल, चाहें तो इन्हें कविता मान लें, चाहें तो मेरा अपने अग्रज से निजी संवाद।  
  

 

1
ओ नगपति मेरे विशाल
कई रातें आंखों में जलती बीतीं

बिन
बारिश बीते कई दिन

अस्पतालों
की गंध वाले बिस्तरों पर पड़ी रही

कविता
की मनुष्य देह


मैं क्रोध करता हूं पर ख़ुद को नष्ट नहीं करता

जीवन से भाग कर कविता में नहीं रो
सकता

दु:खी
होता हूं

तो
रूदनविहीन ये दु:ख

भीतर
से काटता है


तुम कब तक दिल्ली के हवाले रहोगे

इधर
मैं अचानक अपने भीतर की दिल्ली को बदलने लगा हूं

मस्‍तक
झुका के स्‍वीकारता हूं

कि
उस निर्मम शहर ने हर बार तुम्हें बचाया है

उसी
की बदौलत आज मैं तुम्‍हें देखता हूं
मैं
तुम्हें देखता हूं

जैसे
शिवालिक का आदमी देखता है हिमालय को

कुछ
सहम कर कुछ गर्व के साथ

नगपति मेरे विशाल

मेरे
भी जीवन का – कविता का पंथ कराल

स्मृतियां
पुरखों की अजब टीसतीं

देखो
सामान सब सजा लिया मैंने भी दो-तीन मैले-से बस्तों में
अब
मैं भी दिल्ली आता हूं चुपके से

दिखाता
कुछ घाव कुछ बेरहम इमारतों को

तुरत
लौट भी जाता हूं
हम
ऐसे न थे

ऐसा
न होना तुम्‍हारी ही सीख रही

कि
कविता नहीं ले जाती

ले
जा ही नहीं सकती हमें दिल्ली

ज़ख्‍़म
ले जाते हैं
ओ दद्दा
हम
दिखाई ही नहीं दिए जिस जगह को बरसों-बरस

कैसी
मजबूरी हमारी

कि
हम वहां अपने ज़ख्‍़म दिखाते हैं.

***

2
हे अमर्त्य
धीर तुम
वह
फोन पर जो
आती है कुछ अस्पष्ट-सी आवाज़
अपने
अभिप्रायों में बिलकुल स्पष्ट है
एक स्वप्न
का लगातार उल्लेख उसमें
हालात पर
किंचित अफ़सोस
यातना को
सार्वजनिक न बनने देने का कठिन कठोर संकल्प
आवाज़ आती
है जिनसे लदी हुई
कितने अबूझ
वे दु:ख के सामान
जितने
नाज़ुक
उतने क्रूर
आवाज़ पर
कितने बोझ कुछ धीमा बनाते उसे
पर पुरानी
गमक की उतनी ही तीखी तेजस्वी याद भी उसमें
कुछ नहीं
खोया
इतना कुछ
नहीं मिटा चेहरे से
नक्श बदले
ज़रा ज़रा पर ओज नहीं
प्यार वही
उल्लास वही
सुनना जहां
ढाढ़स में नहीं उत्सव में बदलता हो
आवाज़ भी
ठीक वही
जबकि
इधर के
बियाबान में
बिना किसी
दर्द और बोझ के बोल सकने वाले महाजन
बोलते नहीं
कुछ
वह आवाज़
आती है
उस निकम्मी
ख़ामोशी में पलीता लगाती
ले आती
हमारे हक़ हुकूक सब छीन छान
               तिक तीन तीन तुक तून तान
– यही असर
है थोड़ा-सा तालू पर
जीवन के
तपते जेठ महीने में
पांव पड़ा
था बालू पर
थे लगे
दौड़ने केकड़े जहां बाहों के ताक़तवर कब्ज़े खोले
चिपटते-‍काटते
जगह-जगह
तब से ये
आवाज़ विकल है
लेकिन
स्त्रोत
सभी झर-झर हैं इसके
उतनी ही
कल-कल है इसमें
अब भी है
सतत्
प्रवाहित सदानीर वो
आशंकाओं की
झंझा में जलती चटख लाल एकाग्र लपट का
तुम प्यारे
अमर्त्य
धीर हो
***

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