अमित ने अपनी कविताओं में कई स्तरों पर प्रयोग किए हैं। उनमें कुंभ पर लिखी एक
कविता मेरी याद में सबसे ऊपर है। ये प्रयोग, प्रयोगधर्मिता के लिए नहीं हैं, किसी तरह अपने विकट
समय और हालात को व्यक्त कर पाने के औज़ार भर हैं। यहां दी जा रही कविता भी ऐसी ही है।
नौउम्रों के जीवन और बरताव को संचालित करती सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में कवि की
भाषा भी उसी पदावली में बात करती है गोया ‘बात करनी मुझे मुश्किल
कभी इतनी तो न थी/जैसी अब है
तेरी महफ़िल कभी
ऐसी तो न थी’। इस पदावली के भीतर कविता किंवा ‘जीवन और मृत्यु’ के बेहद गंभीर आशय अपने हर आवरण को लगभग खरोंचते
हुए-से बाहर झांकते हैं।
सम्पादन में कई बार कविता के असली फूल और अंगारे झर जाते हैं, यह मैंने अनुभव किया है इसलिए कवि से मेरा आग्रह था कि कविता के इसी पहले ड्राफ्ट को यहां छापा जाए और अब मैं पूरी उत्सुकता के साथ इसे अनुनाद के पाठकों के हवाले कर रहा हूं।
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हैश टैग डेंगू
(जिसकी आँखों दीद है, उसकी मिट्टी पलीद है)
इसे हैश टैग मलेरिया कह दो
दिमाग़ी बुखार, बाढ़, आतंक, आपदा, अपराध
हैश टैग कोई अभियान इन ब्रैकेट किसी सेलीब्रिटी का नाम
होठ मोड़े नाक सिकोड़े कोई स्माइली
या
हैश टैग का ही खाली निशान
देन थ्री डॉट्स विद अ फुल स्टॉप
फर्क नहीं पड़ता
हमारे भी युग का मुहावरा है फर्क नहीं पड़ता
किसी को, कोई जवाबदार नहीं
किसी मौत का
एक अर्ध विराम भी बदल सकता है आपकी हैश वैल्यू
किसी के लिए ये वैल्यू बदलने की दौड़ है
किसी को ये विराम लगने फीस है
कुछ लोग दुनिया में आने की फीस भरते हैं
फीस वसूलते हैं कुछ लोग
कुछ लोग महज़ फीस होते हैं
पहले और तीसरे का काम भी दूसरे ने चुना है
ये किसी पुरानी कविता का नया तर्जुमा है
बहुत आसान किश्तों में फीस चुकाना
लम्बे दौर में महंगा पड़ जाता है
इतना कि आदमी घूँट घूँट ज़िन्दगी पीता है
शुक्र करो कि लोग ज़िंदा हैं पानी पीकर भी
पानी पीकर कोसा भी जा सकता है
बात क्यों सिर्फ कोसने पर रुक गई
बात पानी मरने की भी तो है
बात मिट्टी उतरने की भी तो है
बात चिकना होने की भी तो है
बात कलई खुलने की भी तो है
जो हर मौत एक रेशा खुलती है
जो हर मौत एक परत चढ़ती है
उम्र भर मौत है
उम्र भर नींद है
नींद भर आराम नहीं
नींद को मौत आती है, मौत को नींद नहीं आती
अब किसी घूँट से प्यास नहीं जाती
मौत उम्र नहीं देखती अब
तुम्हारी उम्र क्या हुई
तुम्हारी घड़ी में क्या बजा है
के बराबर है
नौ बजे प्राइम टाइम
इज़ इक्वल टू
दस बजे कॉमेडी नाइट्स विद कपिल
इस तरह फीस माफ़ हो जाए कभी तो भी
हम खुद भरते हैं हमारे मारे जाने का बिल
इसे आत्महत्या न कहें सर
दूसरे ने तीसरे का बिल फाड़ा है
पृष्ठांकन से पता चला है
अलिखित पीनल कोड में
ये शासकीय अभिरक्षा में मौत का मामला है
मैं पूछता हूँ
तुम्हारी घड़ी में क्या बजा है
झुर्रियां मत देखो
समझो, तुम्हारी मौत सरक रही है
बालू खत्म होने का इंतज़ार मत करो
अब पलट दो ये रेतघड़ी
– अमित श्रीवास्तव
मौत उम्र नहीं देखती…
लेकिन कहीं-कहीं उम्र देखी जाती है हमेशा!!
थोड़े से अंडरटोन में दबी जबरदस्त मुखरता वाली कविता। कवि इन दिनों ग़ज़ब की लय पाया हुआ है। जरूरी। बधाई। अपने पुराने कमिटमेंट के साथ अनुनाद की वापसी सुखद है।