कराहते हुए वक़्तों में,
बेइंतेहा ज़ुल्मतों में, जब आंखों में पानी और आग एक साथ भरे हों, कविता
की राह और कठिन हो जाती है। हमारे बीच लोग क़त्ल हो रहे हैं, वे लोग, जो मनुष्यता को अपना साध्य माने थे। जाहिर है
कि मनुष्यता बचे, यह अपने आपमें एक विचार है। लेखक , विचारक और अंधविश्वासों के विरुद्ध मानवीय उजाले की शिनाख़्त
कराने वालों के साथ-साथ धर्म और जाति के नाम पर आमजनों के क़त्ल हो रहे हैं। ये पानी
के बीच आग उठने के दिन हैं, जैसे हमारी आंखें हैं इन दिनों,
जैसे हमारे दिल। अशोक की ये कविता इसी तरह की कविता है। राह कठिन की
कविता।
उनका मरना लाज़िम था
(पानसरे, काल्बर्गी, दाभोलकर और तमाम बेनाम योद्धाओं के लिए)
·
(एक)
जहाँ श्रद्धांजलि लिखा होना था
वहाँ शुभकामना लिखा था
माफ़ हुई यह ग़लती उदारताओं के हाथ
उदारताएं
गाय
जितनी दुधारू
गाय
जितनी पवित्र
गाय
जितनी निरीह
और बेमानी था मक़तूल का होना
शहर में अदीब जैसे धूल भरी
लाइब्रेरी में किताब
जैसे सुबह तक जलता रह गया दिया
आदमी की सोच जैसे जहाज में बम
न रहे तो बेहतर रहे तो बस कम कम
वह चमचमाता हुआ वक़्त था चाकू के
फाल की तरह
गोली की गति से भागता हुआ
शोर और सूचनाओं से भरा वक़्त
जिसमें खलल डालती आवाज़ों के लिए
कोई जगह नहीं थी
होशमंदों का वक़्त था जहां नशे में
टूटती आवाज़ कुफ्र थी
सीने से बहते लहू सा बह रहा था
वक़्त और मक़तूल रूई सा राह में बज़िद
ज़िद की कोई जगह नहीं थी वज़ह नहीं
थी
ज़िद की कोई सुनवाई कोई ज़िरह नहीं
थी
ज़िद का तो ख़ामोश किया जाना लाज़िम
था
सच बस वह था जो एलान-ए-हाकिम था
(दो)
जब सबके हाथों में मोबाइल था
वे क़लम लिए गुज़रे बाज़ार से
यह
ज़ुर्म नहीं इकबाल-ए-ज़ुर्म था
इश्तेहार से सजी दीवारों पर
भूख लिखा बदलाव लिखा
खुशबूदार राख में दबी किताबें
पलटीं
हाकिम के दरबार में गए सर उठाये
और लौट आये पीठ दिखाते
बलात्कार की महफ़िल में प्यार किया
लहू खेलते लोगों के सूखे चेहरे पर
रंग शर्म का जाने कबसे फेंक रहे
थे
अँधेरे वक़्तों में जाने कैसे क्या
क्या देख रहे थे।
चुप्पी के सुरमई बसंत में नीले हर्फ़ों
में बोल रहे थे
चार सिम्त बाज़ारू पर्दे धीमे धीमे
खोल रहे थे
जो
जैसा था वैसा रखने को
उनका
मरना लाज़िम था
(तीन)
एक उदास इतिहास था उनकी कब्रगाहों
में फूल सा बिछा हुआ
बेचैन भविष्य धुएँ से बनती
तस्वीरों सा क्षणभंगुर
और उनके बीच वर्तमान शोकग्रस्त
भीड़ सा कसमसाता
वे
हारे नहीं मारे गए थे
नायक नहीं थे वे पुत्र थे,
पति थे, पिता थे जैसे हम होते हैं
जर्जर कायाओं के भीतर आज़ाद तबीयत
और भय भी तमाम
चलते हुए थके भी वे कई बार रुके
गिरे संभले और चलते रहे
मार दिए जाने के ठीक पहले तक
अनलहक कहा और मारे गए
कोपरनिकस के वंशज थे और मारे गए
चार्वाकों की राह चले और मारे गए
नहीं बना सके ज़िन्दगी को बनिए की
दूकान और मारे गए
प्यार किया बेहिसाब और वे मारे गए
मरकर
भी पर दीवाने कब मरते हैं?
मरने
से पहले पर वे कितने जीवन छोड़ गए थे
रक्तबीज
थे
सौ
सौ आँखों में अपने सपने बीज गए थे.
जिनको
डरना था
वे
सब कैसे सीना ताने खड़े हुए हैं
उसकी
स्याही बिखर गयी है यहाँ वहाँ
धीमी
आवाज़ें उसकी हर सूं गूँज रही हैं
धर्म
ध्वजा के नीचे उनका लहू जमा है.
संपर्क
:
e-mail : ashokk34@gmail.com
मोबाइल : 8375072473
अनलहक कहा और मारे गए
कोपरनिकस के वंशज थे और मारे गए
चार्वाकों की राह चले और मारे गए
नहीं बना सके जिंदगी को बनिए की दुकान और मारे गए
प्यार किया बेहिसाब और मारे गए
और यह भी कि-
धर्म ध्वजा के नीचे उनका लहू जमा है…………..
…………..
इस समय में प्यार करना सबसे बड़ा जुर्म है। उदासी से भर देने वाली कविता, जो एक उम्मीद भी जगाती है
बहुत बढ़िया और समय के अनुरूप लिखी गयी कविता हैं। सच लिखना, सच लिखकर नेताओं की पोल खोलना, समाज में परिवर्तन लाना लिखने के साथ-साथ जन आंदोलनों की आवाज बनने लगता है तब वो राष्ट्र विरोधी बता दिया जाता है। राजेश जी की कविता—-जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे. मारे जाएंगे. कटघरे में खड़े कर दिए जाएंगें, जो विरोध में बोलेंगें. जो सच सच बोलेंगे, मारे जाएंगे।
सार्थक !!