“नाम है-रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’। ज़िला सुल्तानपुर के मूल निवासी। नाटा कद, दुबली
काठी, सांवला रंग, उम्र लगभग 50
के आसपास, चेहरा शरीर के अनुपात में थोड़ा
बड़ा और तिकोना, जिसे पूरा हिला-हिलाकर वे जब बात करते हैं,
तो नज़र कहीं और जमा पाना मुश्किल होता है। विद्रोही फक्कड़ और
फटेहाल रहते हैं , लेकिन आत्मकरुणा का लेशमात्र भी नहीं है,
कहीं से। बड़े गर्व के साथ अपनी एक कविता में घोषणा करते हैं कि
उनका पेशा है कविता बनाना और व्यंग्य करते हैं ऎसे लोगों पर जो यह जानने के बाद भी
पूछते हैं, “विद्रोही, तुम क्या करते
हो?” विद्रोही पिछले न जाने कितने वर्षों से शाम ढले
जे.एन.यू. पहुंच जाते हैं और फिर जबतक सभी ढाबे बंद नहीं हो जाते, कम से कम तब तक उनका कयाम यहीं होता है. फिर जैसी स्थिति रही, उस हिसाब से वे कहीं चल देते है। मसलन सन् 1993-94 में,
कुछ दिन तक वे मेरे कमरे में या मैं जिस भी कमरे में हूं, जिस भी हास्टल के, विद्रोही वहीं ठहर जाते। एक दिन
सुबह-सुबह भाभी जी पधारीं उन्हें लिवा ले जाने। कई दिनों से घर में महाशय के पांव
ही नहीं पड़े थे। भाभी जी सामान्य सी नौकरी करती हैं। विद्रोही निर्विकल्प कवि
हैं। विद्रोही ने कविता कभी लिखी नहीं,, वे आज भी कविता ‘कहते’ हैं, चाहे जितनी भी
लम्बी हो। मेरे जे.एन.यू. छोड़ने के बाद, एक बार मेरे बहुत
कहने पर, कई दिनों की मेहनत के बाद वे अपनी ढेर सारी कविताएं
लिखकर मुझे दे गए। इलाहाबाद में मेरे घर पर उन कविताओं का अक्सर ही पाठ होता;
लोग सुनकर चकित होते, लेकिन मसरूफ़ियात ऎसी
थीं कि मैं उन्हें छपा न सका, लिहाजा कविताओं की पांडुलिपि
विद्रोही जी को वापस पहुंच गई।
विद्रोही कभी जे.एन.यू.के छात्र थे, लेकिन किंवदंती के अनुसार उन्होंने टर्म और सेमिनार पेपर लिखने की जगह
बोलने की ज़िद ठान ली और प्रोफ़ेसरों से कहा कि उनके बोले पर ही मूल्यांकन किया
जाए। ऎसे में विद्रोही ‘अमूयांकित’ ही
रहे लेकिन जे.एन.यू. छोड़ वे कहीं गए भी नहीं, वहीं के
नागरिक बन गए।. जे.एन.यू. की वाम राजनीति और संस्कृतिप्रेमी छात्रों की कई पीढियों
ने विद्रोही को उनकी ही शर्तों पर स्वीकार और प्यार किया है और विद्रोही हैं कि
छात्रों के हर न्यायपूर्ण आंदोलन में उनके साथ तख्ती उठाए, नारे
लगाते, कविताएं सुनाते, सड़क पर मार्च
करते आज भी दिख जाते हैं। कामरेड चंद्रशेखर की शहादत के बाद उठे आंदोलन में
विद्रोही आठवीं-नवीं में पढ रहे अपने बेटे को भी साथ ले आते ताकि वह भी उस दुनिया
को जाने जिसमें उन्होंने ज़िन्दगी बसर की है। बेटा भी एक बार इनको पकड़कर गांव ले
गया, कुछेक महीने रहे, खेती-बारी की,
लेकिन जल्दी ही वापस अपने ठीहे पर लौट आए। विद्रोही की बेटी ने
बी.ए. कर लिया है और उनकी इच्छा है कि वह भी जे.एन.यू. में पढ़े.
विद्रोही को आदमी पहचानते देर नहीं लगती. अगर
कोई उन्हे बना रहा है या उन्हें कितनी ही मीठी शब्दावली में खींच रहा है, विद्रोही भांप लेते हैं और फट पड़ते हैं। घर से उन्हें कुछ मिलता है या
नही, मालुम नहीं, लेकिन उनकी ज़रूरतें,
बेहद कम हैं और चाय-पानी, नशा-पत्ती का ख्याल
उनके चाहने वाले रख ही लेते हैं। विद्रोही पैसे से दुश्मनी पाले बैठे हैं। मान-सम्मान-पुरस्कार-पद-प्रतिष्ठा
की दौड़ कहां होती है, ये जानना भी ज़रूरी नहीं समझते। हां,
स्वाभिमान बहुत प्यारा है उन्हें, जान से भी ज़्यादा।
किसी ने एक बार मज़ाक में ही कहा कि विद्रोही
जे.एन.यू. के राष्ट्र-कवि हैं। जे.एन.यू.के हर कवि-सम्मेलन-मुशायरे में वे रहते ही
हैं और कई बार जब ‘बड़े’ कवियों को जाने की जल्दी हो आती है, तो मंच वे अकेले संभालते हैं और घंटों लोगों की फ़रमाइश पर काव्य-पाठ करते
हैं।. मज़ाक में कही गई इस बात को गम्भीर बनाते हुए एक अन्य मित्र ने कहा,”काश! जे.एन.यू. राष्ट्र हो पाता या राष्ट्र ही जे.एन.यू. हो पाता।”
‘बड़े’ लोगों के ‘राष्ट्र’
में भला विद्रोही जैसों की खपत कहां? विद्रोही
ने मेरे जानते जे.एन.यू. पर कोई कविता नहीं लिखी लेकिन जिस अपवंचित राष्ट्र के वे
सचमुच कवि हैं, उसकी इज़्ज़त करने वाली संस्कृति कहीं न कहीं
जे.एन.यू.में ज़रूर रही आई है।
‘जन-गण-मन’ शीर्षक तीन खंडों वाली लम्बी कविता के
अंतिम खंड में विद्रोही ने लिखा है-
मैं भी मरूंगा
और भारत भाग्य विधाता भी मरेंगे
मरना तो जन-गण-मन अधिनायक को भी पड़ेगा
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत-भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से, उधर चलकर बसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा।
मरना तो जन-गण-मन अधिनायक को भी पड़ेगा
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत-भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से, उधर चलकर बसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा।
विद्रोही की कविता गंभीर निहितार्थों, भव्य
आशयों, महान स्वप्नों वाली कविता है, लेकिन
उसे अनपढ़ भी समझ सकता है। विद्रोही जानते हैं कि यह धारणा झूठ है कि अनपढ़ कविता
नहीं समझ सकते। आखिर भक्तिकाल की कविता कम गंभीर नहीं थी और उसे अनपढ़ों ने खूब
समझा। बहुधा तो कबीर जैसे अनपढ़ों ने ही उस कविता को गढ़ा। दरअसल, अनपढ़ों को भी समझ में आ सकने वाली कविता खड़ी बोली में भी वही कवि लिख
सकता है जो साथ ही साथ अपनी मातृभाषा में भी कविता कहता हो। विद्रोही अवधी और खड़ी
बोली में समाभ्यस्त हैं। विद्रोही के एक अवधी गीत के कुछ अंश यहां उद्धृत कर रहा
हूं जिसमें मजदूर द्वारा मालिकाना मांगने का प्रसंग है-
जनि जनिहा मनइया जगीर मांगातऽऽ
ई कलिजुगहा मजूर पूरी सीर मांगातऽऽ
………………………………………….
कि पसिनवा के बाबू आपन रेट मांगातऽऽ
ई भरुकवा की जगहा गिलास मांगातऽऽ
औ पतरवा के बदले थार मांगातऽऽ
पूरा माल मांगातऽऽ
मलिकाना मांगातऽऽ
बाबू हमसे पूछा ता ठकुराना मांगातऽऽ
दूधे.दहिए के बरे अहिराना मांगातऽऽ
………………………………………
ई सड़किया के बीचे खुलेआम मांगातऽऽ
मांगे बहुतै सकारे, सरे शाम मांगातऽऽ
आधी रतियौ के मांगेय आपन दाम मांगातऽऽ
ई तो खाय बरे घोंघवा के खीर मांगातऽऽ
दुलहिनिया के द्रोपदी के चीर मांगातऽऽ
औ नचावै बरे बानर महावीर मांगातऽऽ
ई कलिजुगहा मजूर पूरी सीर मांगातऽऽ
………………………………………….
कि पसिनवा के बाबू आपन रेट मांगातऽऽ
ई भरुकवा की जगहा गिलास मांगातऽऽ
औ पतरवा के बदले थार मांगातऽऽ
पूरा माल मांगातऽऽ
मलिकाना मांगातऽऽ
बाबू हमसे पूछा ता ठकुराना मांगातऽऽ
दूधे.दहिए के बरे अहिराना मांगातऽऽ
………………………………………
ई सड़किया के बीचे खुलेआम मांगातऽऽ
मांगे बहुतै सकारे, सरे शाम मांगातऽऽ
आधी रतियौ के मांगेय आपन दाम मांगातऽऽ
ई तो खाय बरे घोंघवा के खीर मांगातऽऽ
दुलहिनिया के द्रोपदी के चीर मांगातऽऽ
औ नचावै बरे बानर महावीर मांगातऽऽ
विद्रोही मूलत: इस देश के एक अत्यंत जागरूक किसान-बुद्धिजीवी हैं
जिसने अपनी अभिव्यक्ति कविता में पाई है। विद्रोही सामान्य किसान नहीं हैं,
वे पूरी व्यवस्था की बुनावट को समझने वाले किसान हैं। उनकी कविता की
अनेक धुनें हैं, अनेक रंग हैं। उनके सोचने का तरीका ही कविता
का तरीका है। कविता में वे बतियाते हैं, रोते और गाते हैं,
खुद को और सबको संबोधित करते है, चिंतन करते
हैं, भाषण देते हैं, बौराते हैं,
गलियाते हैं, संकल्प लेते हैं, मतलब यह है कविता उनका जीवन है. किसानी और कविता उनके यहां एकमेक हैं।
‘नई खेती‘ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.
विद्रोही पितृसत्ता-धर्मसत्ता और राजसत्ता के हर छ्द्म से वाकिफ़
हैं; परंपरा और आधुनिकता दोनों के मिथकों से आगाह हैं। ‘औरत’ शीर्षक कविता की आखिरी पंक्तियां देखिए-,
“इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा.”
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा.”
विद्रोही के साथ चलना हर किसी के लिए आसान नहीं
है। वे मेरे अंतरतम के मीत हैं। ऎसे कि वर्षों मुलाकात न भी हो, लेकिन जब हो तो पता ही न चले कि कब बिछड़े थे। उन्हें लेकर डर भी लगता है,
खटका सा लगा रहता है, इतने निष्कवच मनुष्य के
लिए ऎसा लगना स्वाभाविक ही है।आखिर जे.एन.यू. भी बदल रहा है। जिन युवा मूल्यों का
वह कैम्पस प्रतिनिधि बना रहा है, उन्हें खत्म कर देने की
हज़ारहां कोशिश, रोज़-ब-रोज़ जारी ही तो है।
***
( यह टिप्पणी आशुतोष कुमार की फेसबुक वॉल से साभार)
bahut achchhi baat likha hai apne vidrohi ji ..apko bahut bahut dhanyawad.
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