सुबोध शुक्ल सुपरिचित आलोचक हैं। उनका लेखन हिंदी के इलाक़े में एक नई उम्मीद की तरह है। हमारे अनुरोध पर उन्होंने बेट्टी फ्रीडन के एक महत्वपूर्ण लेख का अनुवाद उपलब्ध कराया है। इस उपलब्धि के लिए अनुनाद लेखक और अनुवादक का आभारी है। हिंदी में विस्तार से आने वाले ये बिलकुल नए प्रसंग हैं, पाठकों से अनुरोध है कि वे इस अनुभव से गुज़रते हुए अपनी प्रतिक्रियाएं भी हमें सौंपें। हमने सुबोध से ऐसे और लेखों के लिए भी अनुरोध किया है, आशा है जल्द उन्हें हम अनुनाद के पाठकों के समक्ष रख सकेंगे।
एक
सफल अनुवाद भाषाओं के साथ-साथ मनुष्यता के बीच भी चहलकदमी है. वह विचार को उसके
अनुभवगत भूगोल में जितना स्वायत्त करता है उतना ही उसके सभ्यतागत पर्यावरण को
संयुक्त भी रखता है. वह समय की चेतना का सीमाओं के समीकरण में एक सांस्कृतिक
ट्रेसपास है.
–
अनुवादक
(यह प्रस्तुति बेट्टी फ्रीडन
की विवादास्पद और चर्चित किताब ‘द फेमिनिन मिस्टीक’ से ली गयी है. यहाँ इस किताब
के पहले अध्याय का अनुवाद दिया जा रहा है. इस पुस्तक का प्रकाशन १९६३ में हुआ और
इसे स्त्री-चिंतन की दूसरी धारा (१९६०-१९८०) का सबसे क्रांतिकारी दस्तावेज़ माना
जाता है. यह कृति फ्रीडन का अमरीकी उपनगरीय गृहिणियों के मनोविज्ञान, संस्कार,
जीवन-शैली, विचार और दृष्टिकोणों पर किया गया एक अनौपचारिक शोध है जिसे उन्होंने
अपने पूर्व कॉलेज ‘स्मिथ कॉलेज’ के पन्द्रहवें पुनर्मिलन पर अपने सहछात्रों के अनुरोध पर १९५७ से शुरू किया. इसका दायरा
समूचे छठे दशक और सातवें दशक के शुरुआती सालों तक का है.)
एक अनाम समस्या
कई सालों से अमरीकी औरतों के दिमाग में एक
समस्या कहीं बहुत अन्दर दफ़न है जो कभी ज़बान पर नहीं आई. एक मुर्दा बौखलाहट,
निर्जीव सी ललक और असंतोष का भाव, बीसवीं सदी के मध्य की अमरीकी औरतों को घेरे हुए
है. हर कस्बाई पत्नी अपने अकेलेपन के साथ लड़ रही है. बिस्तर लगाती हुई, रसोई के
लिए ख़रीदारी करती हुई, घर की दीवारों के रंग से मिलते-जुलते परदे और मेजपोश खरीदती
हुई, अपने बच्चों के साथ पीनट बटर सैंडविच खाती, बुनकरी और घरेलू सजावट की
पत्रिकाएँ पढ़ती और रात में अपने पति के बगल में लेटकर खुद से यह गूंगा प्रश्न
पूछने में भी डरती कि “सब कुछ क्या इतना ही है?”
पन्द्रह
साल से कहीं अधिक का समय बीत जाने पर भी इस घुटी हुई ललक का कोई जवाब नहीं था जबकि कितना कुछ महिलाओं
पर लिख डाला गया. उनके लिए विशेषज्ञों द्वारा लिखे गये वे तमाम अखबारी स्तम्भ,
किताबें और आलेख भी थे जिनमें स्त्रीत्व की पूर्णता, पत्नी और माँ बने रहने में बताई
और समझाई गई थी. बारबार स्त्रियाँ उस परम्पराजीवी रीति और फ्रायडीय दुनियादारी की वे
आवाजें भी सुनती आई थीं की अपने स्त्रीत्व के गौरव को बचाए रखने में ही उनका
होनहार भविष्य निहित है. विशेषज्ञों ने सुझाया कि कैसे पुरुष को पाया और वश में
रखा जाय, बच्चों को स्तनपान कैसे कराया जाय, उन्हें प्रसाधन में शिक्षित कैसे किया
जाय, कैसे भाई-बहनों के आपसी झगड़े निपटाये जाएं, किशोरावस्था के विद्रोही तेवरों
से कैसे निपटा जाय. इस बात का ध्यान रखते हुए कि बर्तन मांजने की मशीन को खरीदने
से लेकर पावरोटी सेंकने, जायकेदार खाना और स्वीमिंग पूल तैयार करते हुए अपने
पहनावे के साथ-साथ अधिक से अधिक नारी सुलभ होकर शादी को कैसे जोशीला बनाये रखा
जाय. यही नहीं अपने पतियों की जवानी को बनाये रखने और अपने बेटों को अपराधी बनने
से रोकने की सोच भी इसमें शामिल थी. उन्हें उन विक्षिप्त, अस्त्रैण और
दुर्भाग्यशाली स्त्रियों पर तरस खाना भी सिखाया जाता था जो कवि, वैज्ञानिक और
राजनेता बनना चाहती थीं. उन्हें बताया जाता कि स्त्रीत्व को सच्चे अर्थों में
जानने वाली औरतें रोजगार-आजीविका, उच्च-शिक्षा और राजनीतिक अधिकारों की आज़ादी और
अवसर नहीं चाहतीं जिनके लिए पुराने ख़यालातों वाली स्त्रीवादी महिलाएं लड़ती थीं.
चालीस से पचास साल के बीच की कुछ महिलाएं आज भी अपने सपनों की उस दर्दनाक मौत को
याद करती थीं पर अधिकांश युवतियां इन सब के
बारे में सोचना भी नहीं चाहती थीं. हज़ारों विशेषज्ञों ने उनके उस स्त्रीत्व और
समझौते से भरे संजीदा फ़ैसले की ऊंचे सुर से सराहना की जिसमें उन्हें अपने जीवन की शुरुआती
उम्र से ही एक अदद पति की खोज और फिर बच्चों को पालने-पोसने के लिए तैयार रहना था.
बीसवीं सदी के छठे दशक के अंत तक अमेरिका
में महिलाओं की शादी की औसत उम्र गिर कर 20 साल तक आ गई और अब यह किशोरावस्था तक
पहुँच रही थी. लगभग एक करोड़ चालीस लाख लड़कियों की सत्रह वर्ष की उम्र तक सगाई हो
चुकी थी. पुरुषों के बनिस्पत महिलाओं का कॉलेज जाने का अनुपात 1920 के 47 फ़ीसदी के
मुकाबले 1958 में 35 फ़ीसदी तक रह गया था. एक सदी पहले जहां औरतें उच्च-शिक्षा के
लिए लड़ी थीं वहीं आज लड़कियां कॉलेज एक अदद पति की तलाश में जा रही थीं. छठे दशक के
मध्य तक 60 फ़ीसदी लड़कियों ने कॉलेज शिक्षा समाप्त करते ही शादी कर ली इस भय के साथ
कि अधिक पढाई उनकी शादी में बाधा साबित होगी. कॉलेजों ने ‘विवाहित छात्रों’ के लिए
छात्रावास बनवाये पर पर ये छात्र हमेशा पति ही हुआ करते थे.पत्नियों के लिए एक नई
तरह की डिग्री शुरू हो चुकी थी – “पी.एच.टी.” (पतियों को पा लेने का पाठ्यक्रम)
फिर अमरीकी लड़कियां हाईस्कूल के दौरान ही
ब्याहता होने लगीं और महिलाओं की पत्रिकाओं ने इन कम उम्र में होने वाली शादियों
के सम्बन्ध में बड़े दुखद आंकड़े पेश किये. और हाई -स्कूल स्तर पर शादी से जुड़े मामलों
के लिए अध्ययन-सामग्री और विवाह सलाहकारों की नियुक्ति की वकालत की जाने लगी.
जूनियर हाईस्कूल तक पहुँचते 12-13 साल की लड़कियां अपनी गढ़न में सधने लगती हैं.
दस्तकार, दस साल की छोटी लड़कियों की छाती में उभार दिखाने के लिए उनकी ब्रेज़ियर
में फ़ोम रबर का इस्तेमाल किया करते थे. १९६० के वसंत में, न्यूयॉर्क टाइम्स
में बच्चों की पोशाकों की नाप के सिलसिले में एक विज्ञापन प्रचारित किया गया : “
वे भी पुरुषों को फांस सकने के लिए तैयार हैं.”
छठे दशक के अंत तक अमेरिका की जन्म-दर,
भारत की जन्म-दर को भी पार कर रही थी. गर्भ-निरोध आन्दोलन जो अब योजनाबद्ध
अभिभावकत्व में बदल चुका था को ऐसा तरीका खोजने को कहा गया जिससे कि जिन औरतों को यह सलाह दी गई थी कि उनका चौथा या
पांचवा बच्चा मरा हुआ या अपंग पैदा हो सकता है वे भी कैसे भी बच्चे पैदा करें.
संख्याशास्त्री कॉलेज की लड़कियों में बच्चों के पैदा होने की असाधारण दर से अचंभित
होने लगे थे. जहां कभी यह संख्या 2 बच्चों तक सीमित थी अब वह चार,पांच यहाँ तक की छः
तक पहुँचने लग पड़ी थी. औरतें जो एक वक़्त अपने रोज़गार और आजीविका को लेकर प्रयासरत
थीं, अब बच्चों को पैदा करने के रोज़गार में शामिल हो गई थीं. ज़बरदस्त हुलास से
1956 में लाइफ़ पत्रिका ने अमरीकी महिलाओं के आन्दोलन की इस ‘घर वापसी’
का जयगान किया.
न्यूयॉर्क के एक अस्पताल में, एक औरत यह
जानकर कि वह अपने बच्चे को स्तनपान नहीं करा सकती, बौखलाहट से भरा प्रलाप करने
लगी. दूसरे अस्पतालों में औरतों ने कैंसर से मरना स्वीकार किया पर उस दवा से परहेज़
किया जो उनके जीवन को बचाते हुए, अपने दूरगामी प्रभावों में उन्हें ‘अस्त्रैण’ बना सकने के खतरे पैदा कर
सकती थी. दवा की दुकानों और अखबारों में एक सुन्दर, भाव-शून्य औरत की भीमकाय
तस्वीर ढिंढोरा पीटते हुए कह रही थी कि “यदि मुझे एक बार जीवन मिला है तो मुझे
एक गोरी और सुनहरे बालों वाली स्त्री की तरह जीने दो.” पूरे अमेरिका में हर दस
औरतों में तीन अपने बालों को सुनहरे रंग में रंगती थीं. अपने नाप और आकार को
दुबली-पतली मॉडल्स जैसा दिखलाने के लिए वे भोजन के स्थान पर एक ख़ास किस्म का वज़न घटाने का आहार जो स्वाद और रंग में खड़िया की
तरह था जिसे मेट्रिकल कहते थे, लेती थीं. बड़ी दुकानों के ख़रीदारों ने प्रत्यक्षतः
यह महसूस किया की 1939 से आज तक अमरीकी महिलाओं की माप तीन से चार अंकों तक कम हो
गई थी. एक ख़रीदार यह कहते हुए पाया गया कि “ कपड़ों की नाप से महिलाएं बाहर हो
गई हैं, जबकि होता इसका उलट है.”
घरेलू सजावट करने वाले, रसोइयों की दीवारों
पर पच्चीकारी और तस्वीरों को लगाकर उन्हें सजा-संवार रहे थे. एक बार फिर रसोई
औरतों के जीवन का केन्द्रीय हिस्सा हो गई थी. घरेलू सिलाई-बुनाई के सामानों का
कारोबार लाखों डॉलर तक पहुँच गया. महिलाओं ने ख़रीदारी करने, बच्चों को घुमाने ले
जाने या सामाजिक कार्यक्रमों में अपने पति के साथ शिरकत करने के सिवाय घर से लगभग
निकलना ही बंद कर दिया था. लड़कियों का बाहरी जीवन, रोज़गार सब ख़त्म होकर घर तक सिमट
गया था. छठे दशक के अंत तक एक उल्लेखनीय समाजशास्त्रीय माहौल महसूस किया गया- अमरीकी
औरतों की संख्या का तिहाई हिस्सा रोज़गार में लगा था पर उनमें युवतियों का हिस्सा
बेहद कम था. बहुत कम संख्या में वे जीविका के लिए प्रयासरत थीं. अपने परिवार का
भरण-पोषण करती विधवाओं के अलावा इनमें वे शादीशुदा औरतें भी थीं जो दुकानों या
दफ्तरों में, अपने पतियों को प्रशिक्षण के लिए भेजने, बच्चों को पढ़ाने के लिए, क़र्ज़
को चुकता करने में सहयोग करने के लिए अंशकालिक कामों में लगी थीं. व्यावसायिक
रोजगारों में महिलाओं की संख्या लगातार कम होती जा रही थी. नर्सों, समाज-सेविकाओं
और अध्यापिकाओं की कमी के कारण लगभग हर अमरीकी शहर में संकट के हालात हो गये थे.
सोवियत संघ के अन्तरिक्ष अभियान में अग्रणी होते जाने को चिंता का विषय मानते हुए
वैज्ञानिकों ने यह भी महसूस किया कि अमेरिका की सबसे बड़ी अप्रयुक्त
दिमागी-ऊर्जा ‘औरतें’ थीं. पर
स्त्रियाँ भौतिकी नहीं पढ़ सकती थीं क्योंकी वह ‘स्त्रीत्वहीन’ मान ली जातीं. एक
लड़की ने जॉन हॉपकिंस की विज्ञान छात्रवृत्ति ठुकरा कर भूमि-भवन संबंधी
दफ़्तर में नौकरी कर ली क्योंकि वह वही चाहती थी जो सभी अमरीकी लड़कियां चाहती थीं-
शादी करना, कुछ बच्चे पैदा करना और एक ख़ूबसूरत उपनगर में ख़ूबसूरत से घर में रहना.
एक उपनगरीय कस्बे में रहने
वाली गृहस्थिन – यह युवा अमरीकी महिलाओं की स्वप्न छवि थी और दुनिया की तमाम
औरतों की जलन की वजह भी. एक अमेरिकन गृहिणी जो विज्ञान और मेहनत बचाऊ उपकरणों के
द्वारा तमाम घरेलू नीरस कामों, बच्चा जनने के खतरों और घर के बूढ़ों की बीमारियों
से जूझने से मुक्त थी. वह तंदुरुस्त, सुन्दर, पढ़ी-लिखी और पूरी तरह से अपने पति,
बच्चों और घर के प्रति समर्पित थी. उसने अपने स्त्रीत्व के चरम संतोष को प्राप्त
कर लिया था. एक घरेलू महिला और माँ के रूप में पुरुष की बराबर सहधर्मिणी के तौर पर
सम्मानित होती थी. कार, कपड़े, उपकरण, सुपरमार्केट; वह कुछ भी चुन सकने को स्वतंत्र
थी. उसके पास सब कुछ था जो औरतों का सपना था.
दूसरे विश्व-युद्ध के पंद्रह सालों बाद
स्त्रीत्व का यह तिलिस्मी आत्मतोष समकालीन अमरीकी सभ्यता का चहेता और मान्य तत्व
बन गया. बेहिसाब महिलाओं ने अपने जीवन को उस ख़ुशनुमा तस्वीर की छवि में ढाला जो कि
अमरीकी उपनगरीय गृहस्थिन के अनुरूप था; कांच की एक बड़ी खिड़की के सामने अपने पति को
गुडबाय चुम्बन देती, अपनी बड़ी सी गाड़ी में बच्चों को स्कूल छोडती, अपनी बेदाग़ रसोई
के फर्श पर उनकी खिलौने वाली गाड़ी को दौड़ते देख हंसने वाली. वे अपना खाना खुद
बनाती थीं, खुद अपने और अपने बच्चों के कपड़ों को सीतीं और उन्हें लगभग दिन भर
धोतीं और सुखातीं. एक बार के बजाय हफ्ते में दो बार बिस्तर का लिहाफ़ बदलतीं, वयस्क
शिक्षा के बतौर कढ़ाई की क्लास लेतीं और उन बेचारी, अवसादग्रस्त मांओं पर अफ़सोस
प्रकट करतीं जो आजीविका और रोज़गार का स्वप्न देखती थीं. श्रेष्ठ-कुशल पत्नी और माँ
बनना ही उनका एकमात्र ख्वाब था. उनकी महानतम आकांक्षा पांच बच्चे और सुन्दर घर था
और एकमात्र संघर्ष एक पति को पाने और उसे बनाये रखने का था. घर के बाहर की दुनिया की
कथित स्त्रीत्वहीन समस्याओं से उनका कोई लेना-देना नहीं था.इन्हें बड़े और महत्व के
फैसलों को लेने के लिए एक पुरुष की ज़रुरत हमेशा थी. वे अपनी स्त्री की भूमिका में
गौरवान्वित थीं और पूरी ठसक के साथ जनगणना के रोज़गार वाले खाने में ‘गृहिणी’ भरा
करती थीं.
पंद्रह साल से अधिक बीत जाने पर जब उन
औरतों के पति दूसरे कमरों में बैठे राजनीति और दुनियादारी की बातचीत में मशगूल
रहते थे उन औरतों के लिए लिखे गये शब्दों या औरतों के बीच होने वाली बातचीत में
इस्तेमाल होने वाले शब्दों में अपने बच्चों की परेशानियां, उनकी पढ़ाई ,पति को ख़ुश
रखने के तरीके, और फर्नीचर-मेजपोश ही शामिल रहते थे. यह बहस का मुद्दा ही नहीं था कि
औरतें पुरुषों से कमतर हैं या बढ़कर, वे बस उनसे अलग थीं. ‘आज़ादी’ और ‘व्यवसाय’
जैसे शब्द विचित्र और शर्मिंदगी पैदा करने वाले बन गये थे; सालों से यह शब्द
प्रयोग में लाये ही नहीं गये थे. इसलिए जब सीमोन दे बुआ नामकी फ्रांसीसी महिला ने
‘ द सेकेण्ड सेक्स’ नाम की किताब लिखी तो एक अमरीकी समीक्षक ने यह टिप्पणी की
“वह जानती ही नहीं कि ज़िन्दगी किसे कहते हैं. संभव है कि वह फ्रांसीसी औरतों की
बात कर रही हो. “स्त्री समस्या” नाम की कोई चीज़ अब अमरीका में नहीं है.”
1950 से 1960 के बीच एक औरत यदि परेशान थी
तो उसे कहीं यही आशंका थी कि उसकी शादीशुदा ज़िन्दगी में कोई दिक्कत ज़रूर है; साथ
ही वह यह भी सोचती कि आख़िर वह कैसी औरत है जो अपनी रसोई के फर्श को चमकाने में वह
तिलिस्मी आत्मसंतुष्टि नहीं पा रही है जो दूसरी औरतों को मिल रही है. वह अपने इस
असंतोष को ज़ाहिर करने में बेहद शर्म महसूस करती थी यह न जानते हुए कि दूसरी बहुत
सी महिलाएं भी वैसा ही सोच रही हैं. जब वह अपने पति से इस सिलसिले में बात करने की
कोशिश करती तो उसे समझ में ही नहीं आता कि वह किस सिलसिले में बात कर रही है और वह
खुद भी इसे कहाँ समझती थी. पंद्रह साल से ऊपर हो जाने के बाद भी अमरीकी महिला के
लिए इस मुद्दे पर बात करना सेक्स पर बात करने से भी ज़्यादा मुश्किल था.यहाँ तक की मनोविश्लेषकों के पास भी
इसके लिए कोई नाम नहीं था. जब एक औरत किसी मनोचिकित्सक के पास सहायता के लिए जाती
थी जैसा कि तमाम महिलाएं करती थीं, उनके वाक्य होते थे- “ मैं शर्मिन्दा महसूस
करती हूँ”, या “ मैं निहायत पागलपन से भरी हताशा में हूँ”. “ मैं
नहीं जानता कि आज की औरत के साथ मुश्किल क्या है?”, एक उपनगरीय मनोचिकित्सक ने
कहा. “ मुझे इतना पता है कोई तो बात है क्योंकि मेरे अधिकाँश मरीजों में
महिलाएं हैं और उनकी समस्या यौन नहीं है”. और जो बहुत सी महिलाएं
मनोचिकित्सकों के पास नहीं जाती थीं, वे भी अपने को ‘कुछ भी दिक्कत नहीं है’,
और ‘सब कुछ ठीक तो चल रहा है’ जैसी
बातों से ख़ुद को बहलाती रहती थीं.
पर 1959 की अप्रैल की एक सुबह, न्यूयार्क
से चौदह मील दूर एक उपनगरीय विकास-खंड में मैंने चार बच्चों की एक माँ को जो दूसरी चार माँओं के साथ कॉफ़ी पी
रही थी, खासी झल्लाहट से भरी आवाज़ से ‘परेशान’ कहते हुए सुना. और सभी बिना
बोले समझ गईं कि वह अपने पति, बच्चों और घर से जुड़ी समस्याओं की बात नहीं कर रही
है. यकायक उन सभी ने महसूस किया कि वे एक समान समस्या से जूझ रही थीं; वह समस्या
जो बेनाम है. उन्होंने हिचकते हुए आपस में यह बात करनी शुरू की. बाद में अपने
बच्चों को स्कूल से घर लाने और उनके सोने चले जाने के बाद वे महिलायें यह जानते
हुए, भरपूर राहत और सुकून के साथ रोईं कि वे अकेली नहीं हैं.
धीरे-धीरे मुझे महसूस हुआ कि यह बेनाम
समस्या अनगिन अमरीकी महिलाओं द्वारा आपस में साझा की गई. एक पत्रिका की लेखिका
होने के नाते मैंने तमाम महिलाओं से उनके बच्चों, शादी,परिवार और बिरादरी को लेकर
ढेर सारी बातें की थीं. पर थोड़े ही समय बाद इस समस्या के साफ़ और भेद खोल देने वाले
संकेत मिलने लगे. मैंने इस समस्या को समान रूप से उपनगरीय पशु-फार्मों, सुदूर
द्वीपों से लेकर न्यूजर्सी और वेस्टचेस्टर काउंटी, मैसेच्यूसेट्स के उपनिवेशी
घरों, मेंफिस के आँगन से लेकर उपनगर और शहरी इमारतों तथा मध्य-पश्चिमी क्षेत्रों की
घरेलू बैठकों तक फैले देखा. कई बार मैंने इस समस्या को एक पत्रकार की हैसियत से
नहीं बल्कि एक उपनगरीय गृहस्थिन के बतौर महसूस किया क्योंकि मैं स्वयं अपने तीन
बच्चों के साथ न्यूयार्क के रॉकलैंड काउंटी में ही रहती थी. इस समस्या की सुगबुगाहटें
मैंने कॉलेज के हॉस्टलों, अर्द्ध-प्राइवेट प्रसूतिघरों, पी.टी.ए. की बैठकों, महिला
वोटर समाज के दोपहर के खानों, उपनगरीय कॉकटेल गोष्ठियों, ट्रेनों का इंतज़ार करती
लॉरियों और श्राफ्ट्स(1) की हो-हल्ले से भरी ऊंची आवाज़ों वाली बातचीत में
सुनीं. शाम के ऐसे वक़्त में जब बच्चे स्कूल में होते और पति देर तक दफ्तरों में,
वे महिलाएं एक दूसरे से बतियाती रहतीं. मुझे लगता है कि मैंने इसे एक औरत के रूप
में सबसे पहले महसूस किया और किसी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक निहितार्थ के रूप में
बाद में.
तो यह समस्या आख़िर है क्या जो बेनाम है?
इसको अभिव्यक्त करने के लिए महिलाएं किन शब्दों का इस्तेमाल कर रही थीं? कभी कोई
औरत कह रही होती- “पता नहीं क्यों मैं खाली-खाली महसूस करती हूँ….एक हद तक
अधूरी.” कोई और कहती मिलती- “मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे मेरा कोई
अस्तित्व ही नहीं है” कभी-कभी वह इन
भावनाओं को नींद की गोलियों के सहारे मिटाती. कभी सोचती कि समस्या उसके पति
और बच्चों के साथ थी या फिर कहीं घर को फिर से सजाने की आवश्यकता में यह समस्या
छिपी थी. शायद उसे किसी बेहतर पड़ोस की तलाश है, किसी प्रेम-सम्बन्ध की या फिर एक
और बच्चे की. कोई किसी डॉक्टर के पास ऐसे लक्षणों के साथ गई जिसे वह बतला ही नहीं
पा रही थी- “एक थकाऊ मन … मैं बच्चों पर बहुत गुस्सा हो जाती हूँ यह बात मुझे
डरा देती है …मैं बिना किसी वजह के रोना चाहती हूँ.” (क्लीवलैंड के एक
चिकित्सक ने इसे गृहिणी-शोथ का नाम दिया). कितनी ही गृहिणियों ने मुझे अपने
हाथ और पंजों के छालों से रिसते हुए खून के बारे में बताया था. “ मैं इसे
गृहिणी पक्षाघात कहता हूँ,” पेन्सिल्वेनिया के एक पारिवारिक चिकित्सक ने
बताया. “ हाल ही में मैंने चार,पांच और छ: बच्चों वाली युवा औरतों में ऐसे
लक्षण देखे हैं जो दिन भर बर्तन धोती रहती हैं पर ऐसे लक्षण डिटर्जेंट के कारण
नहीं होते और यह कॉर्टीसान(2) से ठीक भी नहीं होता.”
एक बार एक महिला ने मुझे बताया कि यह
भावना इतनी उग्र हो जाती है कि वह अपने घर से बाहर भाग खड़ी होती है और अकेले सड़क
पर चलने लगती है या फिर घर में रहते हुए वह लगातार रोती रहती है. उसके बच्चे कोई
चुटकुला सुनाते हैं तो वह हंसती नहीं क्योंकि वह उसे सुन नहीं रही होती थी. मैंने
ऐसी औरत से बात की जिसने कुछ साल ‘अपने स्त्री धर्म में सामंजस्य’ को हल
करने के लिए और उन बाधाओं की समाप्ति के लिए ‘जो एक माँ और पत्नी के रूप में
आत्म-संतोष’ में आड़े आ रहे थे, एक मनोवैज्ञानिक के साथ बिताये थे. ऐसी औरतों की
आवाजों में वही निराशाजनक स्वर और आँखों में विषादग्रस्त भाव थे जो अन्य महिलाओं
में थे. जो कोई समस्या नहीं है कह कर ख़ुद को आश्वस्त कर लेती थीं यद्यपि वे जानती
थीं एक गहरे अवसाद ने उन्हें घेर रखा है.
चार बच्चों की एक माँ, जिसने उन्नीस साल की
उम्र में शादी कर ली थी, ने मुझे बताया:
मैंने वह सब कुछ किया जिसकी
एक औरत से उम्मीद की जाती है- तमाम तरह के शौक, बागवानी, अचार डालना, डिब्बाबंदी,
पड़ोसियों से हिलना-मिलना, गोष्ठियों में शामिल होना, पी.टी.ए. चाय-पार्टी देना;
मैंने यह सब किया, मुझे यह पसंद भी आया, पर ये सारी चीज़ें किसी और बारे में सोचने
का मौक़ा ही नहीं देती थीं और न इस बारे में कि असल में मैं हूँ कौन? अपनी
आजीविका-रोज़गार को लेकर मेरी कोई आकांक्षा नहीं थी.मैं सिर्फ़ शादी करके बच्चे पैदा
करनी चाहती थी. मैं बच्चों को, बॉब को और अपने घर को प्यार करती हूँ. कोई ज़रूरी
नहीं कि आप इसे कोई नाम दें. लेकिन मैं हताश हूँ. मैंने महसूस किया है मेरा कोई
व्यक्तित्व नहीं है. मैं खाना लगाने वाली, कपड़े तहाने वाली, खाना बनाने वाली एक
ऐसी औरत हूँ जिसे आप तब याद करते हैं जब उससे कोई फरमाइश करनी हो. पर मैं हूँ कौन
यह नहीं जानती.
नीली जींस पहने एक तेईस साला माँ ने
बताया:
मैं स्वयं से पूछती हूँ कि मैं
इतनी असंतुष्ट क्यों हूँ? मैं सेहतमंद हूँ, बच्चे ठीक-ठाक हैं, एक प्यारा सा नया
घर है, पर्याप्त पैसा है. एक इलेक्ट्रानिक इंजीनियर के रूप में मेरे पति का
स्वर्णिम भविष्य है. वह कहता है कि मुझे छुट्टी की ज़रुरत है. चलो सप्ताहांत में
न्यूयार्क चलते हैं. पर असल में समस्या यह है ही नहीं. मेरा हमेशा से यह मानना रहा
है कि हमें एक साथ मिलजुलकर काम करना चाहिए. मैं अकेले बैठ या पढ़ नहीं सकती. अगर
बच्चे सो रहे हैं और मेरे पास अपना एक घंटा है तो मैं घर भर में टहलते हुए उनके
उठने का इंतज़ार करती रहती हूँ. मैं कोई भी हरकत यह बिना जाने नहीं करती कि बाकी लोग
क्या चाहते हैं.ऐसा तब से है जब मैं बच्ची थी और कोई व्यक्ति या कोई चीज़ हर वक़्त
मेरे इर्द-गिर्द होती थी : माता-पिता, कॉलेज, प्रेम, बच्चे का पैदा होना किसी
दूसरे घर में जाना. लेकिन एक दिन अचानक सबेरे उठ कर आप यह पाते हैं कि आगे बढ़ने के
लिए कुछ भी नहीं है.
लांग आइलैंड के विकास खंड में रहने वाली
एक युवा पत्नी बोली:
मैं बहुत अधिक सोती हूँ.
पता नहीं मैं इतना अधिक क्यों सोती हूँ? पहले वाले साधारण से घर के (कोल्ड वाटर
फ़्लैट(३)) मुकाबले इस घर की साफ़-सफाई में भी कोई दिक्कत नहीं होती. बच्चे दिन भर
के लिए स्कूल चले जाते हैं. पर यह कोई काम नहीं है. मैं ज़िंदा महसूस नहीं करती.
1960 तक यह बेनाम समस्या विस्फोटक होने
लगी थी और उफन कर ख़ुशहाल अमरीकी गृहस्थिनों के बने-बनाए चौखटों से बाहर आने लगी
थी. टेलीविजन के प्रचारों में अब भी ये ख़ुशहाल गृहिणियां बर्तन धोने के झाग में
चमकती हुईं और टाइम की कवर-स्टोरी पर ‘उपनगरीय पत्नियां : एक अमरीकी परिघटना’
के रूप में’, ‘बेहद उम्दा जीवन
जीती हुईं … वे दुखी भी हैं यह अविश्वसनीय है’, जगमगा रही थीं. पर न्यूयार्क
टाइम्स, न्यूज़वीक, गुडहाउसकीपिंग और सी.बी.एस. टेलीविजन (“बंधक
गृहिणियां”)
के हवाले से अमरीकी महिलाओं का वास्तविक असंतोष एकाएक दर्ज भी किया जाने लगा था. यद्यपि लगभग हर
व्यक्ति जो इसके बारे में बात कर रहा था उसके पास इस समस्या को ख़ारिज कर देने के पर्याप्त
सतही कारण मौजूद थे. इसके लिए घरेलू उपकरण सुधारने वाले निकम्मे मिस्त्रियों ( न्यूयार्क
टाइम्स) को, उस दूरी को जो बच्चों को छोड़ने-लाने के बीच तय होती थी (टाइम),
बहुत ज़्यादा संख्या में होने वाले अध्यापक-अभिभावक बैठकों को ज़िम्मेदार ठहराया
गया. कुछ ने कहा कि इसके पीछे शिक्षा सबसे बड़ा कारण है. ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएं
शिक्षित हो रही हैं जिसने उन्हें स्वाभाविक तौर पर अपनी गृहिणी वाली भूमिका के
प्रति दुखी बना रखा है. न्यूयार्क टाइम्स ( २८ जून, १९६०) ने ख़बर लगाई की “फ्रायड से लेकर फ्रिजिडेयर(4) और सोफोक्लीज़
से स्पॉक(5) तक का रास्ता बुरी तरह से ऊबड़-खाबड़ हो गया है. सभी नहीं पर बहुतेरी
युवा स्त्रियाँ जिनकी शिक्षा ने उन्हें विचारों की दुनिया में छलांग लगाने का अवसर
दिया अपने घरों में घुटन महसूस करती हैं. अपनी शिक्षा के साथ वे अपने दैनंदिन
कार्य का रिश्ता नहीं बना पाती हैं. नज़रबंदों की तरह वे स्वयं को ठुकराया हुआ
महसूस करती हैं. पिछले साल परेशानहाल महिला कॉलेजों के अध्यक्षों के तरफ से
शिक्षित गृहिणियों की समस्याओं पर दर्ज़नों तकरीरें दी गईं जिनमें इस समस्या के
मद्देनज़र यह तय किया गया कि स्त्रियों को दिया जाने वाला सोलह साल का अकादमिक
प्रशिक्षण पत्नीत्व और मातृत्व के लिए एक ज़रूरी तैयारी की तरह ही होता है”
शिक्षित गृहिणियों के लिए सहानुभूतिपरक
माहौल बन गया था. (“ एक विभाजित मस्तिष्क वाली स्त्री की तरह… जहां कभी वे
ग्रेवयार्ड कवियों पर लेख लिखा करती थीं अब वे दूधवाले का हिसाब तैयार करती हैं.
जहां कभी वह सल्फ्यूरिक अम्ल के क्वथनांक का परीक्षण करती थीं वहीं आज मिस्त्रियों
के बकाया हिसाब के कारण अपने बढ़ते हुए रक्तचाप को देखती रहती हैं… उनका जीवन चीखों
और विलापों से भरा है…..कोई भी उनके सन्दर्भ में तनिक भी यह सोचने की कोशिश नहीं
करता है कि कैसे वह एक कवि से चिड़चिड़ी औरत में बदल गयी?”)
घरेलू अर्थशास्त्रियों ने गृहिणियों के
लिए घरेलू संसाधनों पर हाईस्कूल कार्यशालाओं जैसे
कुछ दूसरे व्यावहारिक सुझाव दिए. शिक्षाशास्त्रियों ने महिलाओं को
पारिवारिक माहौल में सामंजस्य बैठाने के लिए परिवार और घरेलू प्रबंधन पर ज़्यादा से
ज़्यादा परिचर्चाओं का सुझाव दिया. पत्रिकाओं में ऐसे लेखों की बाढ़ आ गयी जो ‘शादी
को ज़्यादा रोमांचक बनाए रखने के ५८ नुस्खे’ बता रहे थे. कोई भी महीना बिना
किसी मनोचिकित्सक और यौनशास्त्री की किसी ऐसी नई किताब के बगैर नहीं बीतता था जो
सेक्स के ज़रिये पूर्ण संतुष्टि प्राप्त करने की तकनीकी सलाहें देते थे. हार्पर
बाज़ार ( जुलाई, १९६०) में एक पुरुष मसखरे ने मज़ाक किया की यह समस्या ख़त्म हो
सकती है यदि महिलाओं से मतदान का अधिकार वापस ले लिया जाय. (“ १९वें संशोधन(6) के पहले,
महिला प्रसन्नचित्त, सुरक्षित और अमरीकी माहौल में अपनी भूमिका को लेकर सुनिश्चित
थी. उसने सारे राजनीतिक निर्णय अपने पति पर छोड़ रखे थे और पति ने सारे पारिवारिक
निर्णय उस पर. जबकि आज की महिला राजनीतिक और पारिवारिक दोनों निर्णय ले रही है जो
उस पर विपरीत प्रभाव डाल रहे हैं.”)
बड़ी संख्या में शिक्षाशास्त्रियों ने
गंभीरता से सुझाव दिये कि महिलाओं के कॉलेज-विश्वविद्यालयों में चार-साला दाखिले
को प्रतिबंधित कर दिया जाय. कॉलेजों की बढ़ती हुई समस्या में वह शिक्षा जो गृहिणी
के तौर पर लड़कियां उपयोग में नहीं ला सकतीं वह इस अणु-युग में ज़्यादा से ज़्यादा
पुरुषों के लिए ज़रूरी है.
समस्या को कुछ ऐसे अटपटे समाधानों के ज़रिये भी खारिज किया गया, जिसे कोई भी
गंभीरता से नहीं ले सकता था. ( हार्पर बाज़ार पत्रिका में एक महिला ने सुझाव दिया की
औरतों के लिए नर्स और बेबी-सिटिंग का काम अनिवार्य सेवाओं के अंतर्गत डाल दिया
जाय.) और उन परम्परागत नुस्खों की आवाजें भी उठ रही थीं जो सब कुछ ठीक कर देने
वाली दवा की तरह हमेशा से मौजूद थे जैसे की “प्रेम ही समाधान है”, “अंतर्मन की आवाज़
ही एकमात्र जवाब है”, बच्चे सम्पूर्णता की कुंजी हैं”, “बौद्धिक
परिपूर्णता के निजी साधन”, “समूची इच्छाएं
और जीवन नियति के संचालन में हैं.”[1]
इस समस्या को यह कहकर नकार दिया गया कि गृहिणियों
को समझना चाहिए वह कितनी किस्मत वाली हैं कि
स्वयं अपनी मालिक हैं, समय का बंधन नहीं है, कोई प्रतियोगिता नहीं है. क्या हुआ
अगर वह खुश नहीं है? क्या उसे लगता है कि इस दुनिया में पुरुष खुश है? क्या सच में
वह पुरुष बन जाना चाहती है? उसे पता भी है कि स्त्री होना उसकी ख़ुशनसीबी है?
समस्या को झटककर यूँ भी खारिज किया गया कि
इसका कोई समाधान नहीं है: एक औरत होने का यही मतलब है और अमरीकी महिलाओं को यह हो
क्या गया है कि वह अपनी इस स्थिति को शिष्टाचार से स्वीकार नहीं कर पा रही हैं? न्यूज़वीक
( मार्च ७, १९६०) ने इसे इस तरह पेश किया:
वह अपने उस भाग्य से
असंतुष्ट है जिसका दूसरे देशों की स्त्रियाँ मात्र सपना ही देख सकती हैं. सतही और
अस्तरीय निदान जो बेहद आम और फ़िज़ूल हैं उनके लिए उसका असंतोष बेहद गहरा, व्यापक और
अभेद्य है…. पेशेवर खोजी दस्तों ने संकट के कारणों की एक लम्बी फेहरिश्त पहले से
ही तैयार कर रखी है ….अनादि काल से
मादा-चक्र ने नारी की भूमिका को स्पष्ट कर रखा है. जैसा कि फ्रायड ने ख़ूब कहा है कि
“शरीर-संरचना नियति है” महिलाओं का कोई भी समूह इन प्राकृतिक सीमाओं को बाधित नहीं
कर सकता चाहे वे अमरीकी पत्नियां ही क्यों न हों. पर इन सबके बावजूद वे इसे
शिष्टता से स्वीकार नहीं करतीं…. एक नई उम्र की सुन्दर, आकर्षक, हुनरमंद और समझदार
माँ अपने इस रूप को नकारती है. हम उसे कहते हुए सुनते हैं कि “मैं क्या करूं?”,
“कुछ भी नहीं है”, “मैं सिर्फ़ एक गृहिणी हूँ”. लगता है शिक्षा ने महिलाओं के बीच
यह उदाहरण पेश किया है कि उनकी अपनी कीमत के अलावा सब कुछ मूल्यवान है.
इसीलिये उसे यह बात मान लेनी चाहिए कि “अमरीकी
महिलाओं के असंतोष का कारण कहीं न कहीं स्त्रियों के अधिकार से जुडा हुआ है” और
न्यूज़वीक की उस खुशहाल गृहिणी की परिभाषा से अपना सम्बन्ध बना लेना चाहिए जो कहती
है- “हम इस ख़ूबसूरत आज़ादी को सलाम करते हैं और अपने जीवन पर नाज़ करते हैं.
मैंने कॉलेज की पढाई पूरी की, मैंने नौकरी की पर गृहिणी की भूमिका सबसे संतुष्ट
करने वाली और एक किस्म के पुरस्कार की तरह है….मेरी माँ को कभी भी मेरे पिता के
काम-काज में शामिल नहीं किया गया…उसे कभी भी अपने घर से और बच्चों से दूर जाने की
इजाज़त भी नहीं थी. पर मैं अपने पति के बराबर हूँ और बराबर ही उनके साथ उनकी व्यावसायिक
यात्राओं और सामाजिक आयोजनों में जा सकती हूँ.”
दिया गया विकल्प एक चुनाव था जिस पर कुछ
महिलाओं ने ध्यान दिया. न्यूयार्क टाइम्स के सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में इसका ज़िक्र
हुआ: “सब यह मानती हैं कि वे बुरी तरह से अवसादग्रस्त हैं.निजता की कमी,
शारीरिक दबाव और पारिवारिक दिनचर्या एक कारावास की तरह है. हालांकि उन्हें अगर
दोबारा सोचने का मौक़ा दिया फिर भी वे अपने परिवार और घर को नहीं छोड़ना चाहतीं.” रेडबुक
ने टिप्पणी की “कुछ महिलाएं अपने परिवार, पति और समाज को धता बता कर अपनी
मनमानी करना चाहती हैं. ये होनहार महिलाएं हो सकती हैं पर कदाचित ही ये सफल हो
पाएं”
जिस साल अमरीकी महिलाओं में यह असंतोष चरम
पर था, यह भी खबर (लुक पत्रिका) मिली कि दो करोड़ दस लाख से भी ज़्यादा अमरीकी
महिलाएं जो अविवाहित, विधवा या तलाकशुदा हैं पचास की उम्र होने के बावजूद एक अदद
पुरुष के लिए हताशा के स्तर तक व्यग्र हैं. अमरीकी महिलाओं का सत्तर फीसदी हिस्सा
चौबीस की उम्र के पहले ही शादी करने लगता है. एक ख़ूबसूरत पच्चीस साला सेक्रेटरी छः
महीने के अन्दर एक पति की खोज की उम्मीद में पैंतीस नौकरियां बदल चुकी थी हालांकि वह
सब निष्फल सिद्ध हुआ. एक पुरुष को पति रूप में पा लेने के लिए औरतें एक क्लब से
दूसरे में जा रही थीं, लेखा-कार्यों और नौका-चालन से जुड़े अध्ययन में दाखिला ले
रही थीं, गोल्फ और स्की सीख रही थीं, ढेरों चर्चों की सदस्य बन चुकी थीं, बार में
अकेली जा रही थीं.
हज़ारों की संख्या में महिलाएं अमेरिका में
निजी स्तर पर मनोचिकित्सकीय परामर्श ले रही थीं. ब्याहतायें अपनी शादी से उचटी हुई
थीं और अविवाहितायें उद्विग्नता और विषाद से गुज़र रही थीं. तरह-तरह के अनुभवों से
गुज़रते हुए मनोचिकित्सकों ने यह पाया कि अविवाहित मरीज़ स्त्रियाँ, विवाहित मरीज
स्त्रियों से ज़्यादा ख़ुश थीं. ऐसी बातों ने उन सजे-संवरे उपनगरीय घरों के दरवाज़े
में एक दरार पैदा कर दी जिसने उन अधिकाँश अमरीकी गृहिणियों, जो अकेले ही इस समस्या
से जूझ रही थीं, के जीवन की झलक दिखाने की कोशिश की. अचानक सभी इस मुद्दे पर बात
कर रहे थे, ज़रुरत से ज़्यादा तूल देने वाला मुद्दा समझ रहे थे और हाइड्रोजन बम जैसी
अवास्तविक घटनाओं जैसा मानकर चल रहे थे जो कभी हल नहीं होने वाली थी. 1962 तक
उलझी-फंसी अमरीकी गृहिणियों की यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति एक राष्ट्रीय खेल का
स्वरुप ले चुकी थी. पत्रिकाओं के सभी अंक, अखबारों के स्तम्भ, अकादमिक या सस्ती
किताबें. शैक्षणिक कार्यशालाएं, टेलीविजन चर्चाएँ सभी इस समस्या पर बात कर रहे थे.
इन सबके बावजूद बहुत सारे पुरुष और कुछ
स्त्रियाँ यह नहीं समझ पाते थे कि दरअसल यह समस्या असल है. पर वे जो ईमानदारी से
इसका सामना करते थे जानते थे कि सभी सतही निदान, सहानुभूतिपरक सलाहें, धिक्कारते
शब्द और शोर मचाते लोग हर प्रकार से इस समस्या को अवास्तविकता में ही डुबो रहे थे.
इन सब पर अमरीकी औरतों की विडंबनात्मक कड़वी हंसी सामने आने लगी थी. उनकी तब तक
प्रशंसा की गयी, घृणा की गयी, दया दिखाई गयी, विवेचित किया गया जब तक कि वे इससे
पूरी तरह त्रस्त नहीं हो गईं साथ ही ऐसे उग्र और कठोर समाधान तथा बचकाने चुनाव दिए
गए जिन्हें कोई भी गंभीरता से नहीं ले सकता था. शादी और बच्चों के परामर्शकार,
मनोचिकित्सक और किताबी मनोवैज्ञानिक हर ओर से तमाम तरह की ऐसी सलाहें देने वालों
में शामिल थे जो बताते थे अपनी गृहस्थिन वाली भूमिका के साथ वे कैसे तालमेल
बैठाएं. बीसवीं सदी के मध्य तक अमरीकी महिलाओं को अपनी परिपूर्णता के लिए दूसरा और
कोई रास्ता नहीं बताया गया था. बहुतों ने इस समस्या के साथ जो बेनाम थी ,अपना
साम्य बैठा लिया था कुछ लगातार झेल रही थीं और कुछ उसे अनदेखा कर रही थीं. महिलाओं
को, उस अनोखी असंतुष्ट सी आवाज़ जो लगातार उनके अन्दर घुमड़ रही थी न सुनना ही कम
दर्दनाक लगता था.
अमरीकी स्त्रियों की इस आवाज़ को अधिक समय
तक अनसुना करना और उनकी हताशा को खारिज़ करना
संभव नहीं है. एक स्त्री होने का मतलब यह नहीं है. विशेषज्ञ क्या कहते हैं
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. हर यंत्रणा के पीछे एक कारण होता है: संभवतः कारण खोजा
नहीं जा सका है क्योंकि सही सवाल नहीं पूछा गया है या फिर कहीं दूर ढकेल दिया गया
है. ऐसा जवाब स्वीकार नहीं किया जा सकता कि कोई समस्या ही नहीं है और अमरीकी औरतों
के पास तो वह वैभव है जिसका दूसरे देशों की स्त्रियाँ स्वप्न भी नहीं देख सकतीं.
इस समस्या का नवीनतम पहलू यह है कि इसे पीढ़ियों पुरानी मनुष्यता की भौतिक समस्याओं
– गरीबी, बीमारी, भूख और सर्दी जैसे हालातों से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. जो औरतें
ऐसी समस्याओं से बावस्ता हैं उनको पता है किसी भोजन से उनकी भूख नहीं मिटने वाली
है. यह समस्या उन औरतों के साथ भी है जिनके पति संघर्षरत इंटर्न, कानूनी कर्मचारी
हैं, उनके साथ भी जिनके पति धनाढ्य चिकित्सक और वकील हैं. पांच हज़ार डॉलर से लेकर
पचास हज़ार डॉलर तक की आय-वर्ग के पतियों की पत्नियां इसमें शामिल हैं. किसी किस्म
के भौतिक लाभ की कमी इसके पीछे का कारण नहीं है और न ही इस समस्या को ऐसी औरतों के
द्वारा मात्र सोचा जा रहा है जो भूख, बीमारी और गरीबी की तोड़ देने वाली समस्याओं
से ग्रस्त हैं और मामला तब और भयावह होने लगता है
जब औरतें इस परेशानी का उपचार और ज़्यादा पैसे, और बड़े घर, दूसरी कार और
बेहतर उपनगर में जाने को समझने लगती हैं.
स्त्रीत्वहानि के लिए अब इस समस्या को कि पुरुष
के बराबर शिक्षा, आज़ादी और समानता ने अमरीकी महिलाओं को अस्त्रैण बना दिया है, दोष
देना संभव नहीं रह गया है: मैंने कितनी ही स्त्रियों को अपनी इस क्षुब्ध आवाज़ को
दबाने का प्रयास करते देखा है क्योंकि वह विशेषज्ञों द्वारा बताई गई स्त्रीत्व की तस्वीर
में स्वयं को अंटता नहीं देख पाती हैं. इस समस्या की पहली कुंजी संभवतः यही है कि इसे
वैज्ञानिक समझ, चिकित्सकीय पड़ताल, परामर्श और लेखकों के बनाए गए ढाँचे से अलग कर
के देखे जाने की ज़रुरत है. वे औरतें जो इस समस्या से गुज़रती रही हैं अपनी पूरी
ज़िन्दगी इसी स्त्रियोचित परिपूर्णता की बौखलाहट भरी खोज में बिता चुकी हैं. वे
पेशेवर या जीविका से जुड़ी हुई महिलाएं नहीं हैं ( यद्यपि पेशेवर महिलाओं की कई
अन्य परेशानियाँ भी हैं.). ये वे महिलाएं हैं जिनके लिए शादी और बच्चे सबसे बड़ी
आकांक्षा रहे हैं. अमरीकी मध्य-वर्ग की इन उम्रदराज़ महिलाओं के लिए दूसरा कोई
स्वप्न संभव ही नहीं था. ये चालीस-पचास साला औरतें जिनके कभी कोई भी स्वप्न रहे
हों उन्हें झटककर पूरी खुशी के साथ स्वयं
को गृहस्थी के काम के सुपुर्द कर चुकी थीं. युवा पत्नियों और मांओं के लिए अब यह
एकमात्र स्वप्न था. ये वे स्त्रियाँ थीं जिन्होंने शादी के लिए मैट्रिक और कॉलेज की
पढाई छोड़ दी थी या फिर शादी होने तक कोई गैर-ज़रूरी और अरुचिकर रोज़गार को करने लग
गयी थीं. प्रचलित अर्थों में यही वे औरतें थीं जो कथित ‘स्त्रीत्व’ से भरी थीं पर
फिर भी समस्याग्रस्त और उद्विग्न थीं. क्या वे औरतें जिन्होंने अपनी पढाई पूरी की,
गृहस्थी के अलावा भी जिनके पास ख्वाब थे, वे इस समस्या से अधिक त्रस्त थीं?
विशेषज्ञ ऐसा ही मानते हैं पर इन चार स्त्रियों को सुनिए :
मैं दिन भर व्यस्त रहती हूँ
और साथ ही खिन्न भी. मैं बस सब कुछ दिन भर इधर-उधर करती रहती हूँ. आठ बजे उठती
हूँ- नाश्ता बनाती हूँ फिर बर्तन धोती हूँ, दोपहर का खाना बनाती हूँ फिर बर्तन
धोकर कपड़े धोने और साफ़-सफ़ाई का काम करती हूँ फिर अंत में रात का खाना और बर्तन….
यही मेरा पूरा दिन है. हाँ बच्चों के सोने जाने के पहले थोड़ा आराम कर लेती हूँ. हर
दूसरी पत्नी की तरह भयंकर ऊब और अकेलेपन के साथ ज़्यादातर वक़्त मैं बच्चों के पीछे
ही भागती रहती हूँ.
ओह! मेरा वक़्त कैसे गुज़रता
है ? मैं छः बजे उठती हूँ, अपने बेटे को तैयार करती हूँ, उसे नाश्ता देती हूँ. बर्तन
धोती हूँ, नहाती हूँ, छोटे बच्चे को दूध पिलाती हूँ. फिर दोपहर का खाना खाती हूँ.
और जब बच्चे झपकी ले रहे होते हैं तो मैं सिलाई-कढ़ाई और इस्त्री का काम करती हूँ जो
दोपहर के पहले किये नहीं जा सकते. फिर परिवार के लिए रात का खाना बनता है. मेरे
पति टी.वी. देख रहे होते हैं तब तक मैं बर्तन धो लेती हूँ. और जब बच्चे सोने चले
जाते हैं मैं बालों को संवार कर बिस्तर पर चली जाती हूँ.
समस्या सिर्फ़ यही है की आप
हमेशा या तो बच्चों की मां हैं या फिर मंत्री की बीवी, आप खुद में कुछ नहीं हैं
पुरानी मार्क्स भाइयों की कॉमेडी
की तरह एक रटे हुए ढर्रे पर मेरे घर की सुबह की शुरुआत होती है. मैं बर्तन धोती
हूँ, बच्चों को स्कूल भेजती हूँ. फुर्ती से अहाते में लगी गुलदाउदी को देखती-परखती
हूँ. वापस कमेटी बैठक के लिए कुछ फोन करती हूँ. पंद्रह मिनट अखबार पलटती हूँ ताकी दुनिया-देश
की जानकारी बनी रहे. फिर दौड़कर वाशिंग मशीन के पास जाती हूँ जहां तीन सप्ताह के
कपडे इतने ढेर सारे दूसरे कपड़ों के साथ पड़े रहते हैं जो किसी आदिवासी गाँव में साल
भर चलने के लिए पर्याप्त होंगे. दोपहर तक मैं आराम की स्थिति में होती हूँ. इस बीच
ऐसा बहुत कम है जो महत्व का हो. बाहरी दबाव दिन भर मुझे परेशान किये रहते हैं:
इसके बावजूद मैं खुद को अपने पड़ोस की सबसे निश्चिन्त गृहिणियों में से एक देखती
हूँ. मेरी बहुत सारी दोस्त ज़्यादा ही परेशान और तकलीफ में रहती हैं. पिछले
साठ सालों में हम जहां से चले थे वहीं
पहुँच गए हैं और अमरीकी गृहिणियां एक बार फिर गिलहरी के पिंजरे में फंसी हुई हैं.
यह भी दीगर है कि अब यह पिंजरे आधुनिक चादरों, आइनों और कालीनों से सजे आलीशान
फ़ार्म-हाउस, या फिर सुविधाओं से भरी कोठियों में बदल चुके थे पर उनकी हालत उस समय
की स्थिति से कम दर्दनाक नहीं थी जब उनकी दादी गिलेट और मखमल की कशीदाकारी करती
हुई स्त्री अधिकारों की बात पर गुस्से में बड़बड़ाती रहती थीं.
पहली दो महिलाएं कभी कॉलेज नहीं गईं वे
क्रमशः लेवीटाउन (न्यूजर्सी) और टाकोमा(वॉशिंगटन) के निर्माणाधीन इलाके में रहती
हैं. उनका साक्षात्कार समाजशास्त्रियों की उस टीम ने लिया जो कामगार पुरुषों की पत्नियों
पर शोध कर रहे थे.[2]
तीसरी, एक मंत्री की पत्नी है, जिसने यह बात अपने कॉलेज के पन्द्रहवें पुनर्मिलन
कार्यक्रम की एक प्रश्नावली को भरते हुए लिखी कि उसने कभी रोज़गार की आकांक्षा नहीं
की पर काश उसने की होती.[3]
चौथी, मानव-विज्ञान में शोध कर चुकी एक गृहिणी है जो अपने तीन बच्चों के साथ
नेब्रास्का मे रहती है.[4]
उसके यह शब्द बतलाते हैं कि शैक्षणिक स्तर पर हर तबके की गृहिणी लगभग समान अवसाद की
समस्या को महसूस करती है.
तथ्य यह भी है कि आज कोई भी ‘स्त्री
अधिकारों’ की बात पर गुस्से से बड़बड़ा नहीं रहा है और तो और ज़्यादा से ज़्यादा
स्त्रियाँ कॉलेज भी जा रही हैं. बर्नार्ड कॉलेज से स्नातक हुए लगभग हर वर्ग का एक
हाल का सर्वेक्षण बताता है[5]
कि पूर्व स्नातकों का एक महत्वूर्ण अल्पसंख्यक तबका शिक्षा पर अपने अधिकारों के
प्रति सचेत करने का आरोप लगाता है. एक दूसरा वर्ग शिक्षा पर रोज़गार के सपनों को
दिखलाने का आरोप लगाता है. पर हाल के स्नातकों ने शिक्षा पर यह आरोप लगाया कि उसने
उन्हें यह महसूस कराया कि सिर्फ़ गृहिणी या माँ होकर रहना ही पर्याप्त नहीं है; वे
इस बाबत अपराध-बोध महसूस नहीं करना चाहतीं कि उन्होंने किताबें नहीं पढ़ीं या
कम्युनिटी कार्यक्रमों में हिस्सेदारी नहीं की. शिक्षा का एक पके हुए घाव की तरह
हो जाना भी इन स्त्रियों को समझने की एक कुंजी हो सकती है.
यदि बच्चे होना स्त्री-पूर्णता का रहस्य है
तो क्या उन्होंने अपनी इच्छा से कुछ ही सालों में इतने सारे बच्चे पैदा नहीं कर
लिये थे. यदि जवाब प्रेम है तो क्या उन्होंने पूरी शिद्दत और मेहनत से उसे नहीं
खोजा. पर फिर भी यह संदेह बढ़ता जा रहा था की समस्या यौनाधारित नहीं है यद्यपि यह
किसी न किसी तरह से सेक्स से जुडी हुई है. मैंने स्त्री-पुरुष के बीच मौजूद यौन
समस्याओं के बारे में चिकित्सकों द्वारा दिए जा रहे प्रमाणों के बारे में सुना है
कि पत्नियों की यौन-क्षुधा इतनी तीव्र होती है की पति उन्हें संतुष्ट ही नहीं कर
पाते हैं. मारग्रेट सेंजर जो विवाह परामर्श केंद्र के मनोचिकित्सक हैं, बताते हैं –
“ हमने स्त्रियों को एक यौन-पशु बना दिया है. उसका पत्नी और माँ के अलावा और
कोई परिचय नहीं. उसे नहीं पता कि असल में वह कौन है. वह दिन भर, रात तक अपने पति
के घर लौटने का इंतज़ार करती है जो उसे ज़िंदा महसूस कराये. और पति हैं जिनकी दिलचस्पी
ख़त्म हो चुकी है. रात दर रात, एक औरत के लिए इस कामना के साथ बिस्तर पर पड़े रहना
कितना संत्रासपूर्ण है कि उसे ज़िंदा महसूस कराया जाय.” यौन सलाहें परोसने वाली
किताबों का और आलेखों का बाज़ार आखिर क्यों कर है?
किन्से की खोज से यौन चरमानंद की प्रचुरता को उपलब्ध हो जाने वाली हालिया पीढ़ी में भी यह समस्या दूर होती नहीं
दिखती.
इसके उलट नई किस्म की दिमागी समस्याएं
महिलाओं में देखी जा रही हैं- ये वही समस्या है जो अब तक बेनाम है और एक किस्म की
विक्षिप्ति के रूप में सामने आ रही है. ऐसे शारीरिक लक्षण, चिंताएं और रक्षात्मक
उपाय जो यौन दमन के लक्षणों की ही तरह थे पर जिन्हें फ्रायड और उसके अनुयायी भी
स्पष्ट नहीं कर पाए थे. बच्चों की बढ़ती हुई उस पीढ़ी में भी कई विचित्र तरह की
समस्याएं सामने आने लगी थीं जिनकी माँएं हमेशा उनके साथ रही थीं, उनकी देख-रेख
करती थीं और पढाई-लिखाई में उनकी मदद करती थीं. वे दर्द और अनुशासन को झेलने की
अशक्तता, अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचने की अक्षमता और बर्बाद कर डालने वाली ऊब
का शिकार हो रहे थे. अब शिक्षाशास्त्री कॉलेज जाने वाले लड़के-लड़कियों में
आत्मविश्वासहीनता और दूसरों पर निर्भरता को लेकर बेहद असहज हो रहे हैं. कोलंबिया
विश्विद्यालय के डीन ने टिप्पणी की “ हम अपने छात्रों में साहस और समझदारी पैदा
करने की अनवरत लड़ाई लड़ रहे हैं.”
अमरीकी बच्चों के शारीरिक और मानसिक कुपोषण
पर एक व्हाईट हाउस सम्मलेन रखा गया: क्या वे अतिरेकी पालन-पोषण का शिकार हो रहे
थे? समाजशास्त्रियों के द्वारा कुछ
संस्थाओं के साथ मिलकर उपनगरीय बच्चों के
जीवन को उन्नत करने के लिए तमाम तरह के अध्ययन, पार्टियों, मनोरंजन और
खेल-स्पर्द्धाओं का आयोजन किया जाने लगा. पोर्टलैंड(ऑरेगॉन) में रहने वाली एक
उपनगरीय गृहिणी यह देख कर चकित थी कि बच्चों को यहाँ ब्राउनी(7) और बॉय-स्काउट(8)
की क्या ज़रुरत है? “ यह कोई मलिन बस्ती नहीं है. यहाँ के बच्चों के पास बड़े
खुले मैदान हैं. मुझे लगता है की लोग ऊब-अघा गए हैं जिससे कि बच्चों को ही जमा कर
के उनमें एक दूसरे के साथ मेल-जोल बढ़वाने का काम करने लगते हैं और बेचारे बच्चों
के पास बिस्तर पर पड़े रहने और दिवास्वप्न देखने के सिवाय कोई रास्ता नहीं छोड़ते.”
क्या यह बेनाम समस्या गृहिणियों के दैनिक
घरेलू कामों से भी जुडी हो सकती है? क्योंकि जब एक औरत इस परेशानी को शब्दों में
कहना चाहती है तो वह अमूमन उसी ज़िन्दगी की बात करती है जिसे वह रोज़ जी रही है.
घरेलू सुविधाओं के विवरण के जाप करने में क्या है जबकि वही उनके अवसाद का बुनियादी
कारण है. क्या अपनी गृहिणी की भूमिका से जुड़ी प्रचुर उम्मीदों (बीवी, प्रेमिका,
माँ,नर्स, ग्राहक, खानसामा, ड्राइवर, घरेलू साज-सज्जा, बच्चों की देखभाल, मशीनों
की मरम्मत, फर्नीचर के रख-रखाव, खान-पान और शिक्षा) के जाल में वह फंस गयी है? उसका पूरा दिन बर्तन
से लेकर कपडे धोने, टेलीफोन से ड्रायर, स्टेशन वैगन* से सुपर मार्केट तक, जॉनी को
लिटिल लीग (खेल की प्रतियोगिता) में छोड़ने से लेकर जिनी को नृत्य-कक्षा से लेने और
शाम को बैठकों का हिस्सा होने तक कितने ही
टुकड़ों में बंटा हुआ है. वह किसी भी काम में पंद्रह मिनट से ज़्यादा का समय नहीं
बिता पाती है. पत्रिकाओं के अलावा किताबें पढ़ने का उसके पास समय नहीं है. दिन के
अंत तक कभी-कभी वह इस कदर थक जाती है कि उसके पति को उसकी भूमिका में आकर बच्चों
को सुलाने ले जाना पड़ता है.
ऐसी भयावह टूटन छठे दशक में बहुत सारी
स्त्रियों को चिकित्सकों के पास ले गई. तो एक चिकित्सक ने इसकी पड़ताल करने की
सोची. आश्चर्यजनक रूप से वह इस नतीजे पर पहुंचा कि उसके मरीज़ ‘गृहिणी-दंश’
से पीड़ित हैं. एक सामान्य वयस्क औसतन दस घंटे की नींद लेता है पर वे औरतें उससे
अधिक नींद की चाहना करने वाली थीं. और दिन भर में अपनी समूची ऊर्जा का बहुत कम हिस्सा
ही खर्च कर पा रही थीं. असल समस्या निश्चय ही कुछ और थी, उसने सोचा- शायद ऊब. कुछ
चिकित्सकों ने अपनी महिला मरीजों को दिन भर के लिए घर से बाहर रहने या शहर जाकर
फिल्म देखने की सलाह दी. कुछ ने उन्हें नींद की दवाई दी. यह वह वक़्त था जब बहुतेरी
गृहिणियां खांसी-जुकाम की दवाई की तरह नींद की दवाइयां ले रही थीं. “ आप एक
सुबह उठते हैं और पाते हैं कि हर दूसरे दिन के तरह इस एक दिन को गुज़ारने में क्या
फायदा है तो इसलिए नींद की गोली ले ली
जाती है ताकि उसकी फिक्र न की जा सके जिसका कोई फ़ायदा नहीं.”
उपनगरीय गृहिणियों के पाश के सर्वाधिक
महत्व के कारणों में इसे बड़ी आसानी से चिन्हित किया जा सकता है कि उनके पास अपना
कोई समय नहीं है और उनसे लगातार व्यस्त रहने की उम्मीद की जाती है. पर वे जंजीरें
जो उसे जाल में फंसाए हुए हैं वह उसके मन-मस्तिष्क में ही हैं जो कि त्रुटिपूर्ण
अवधारणाओं, भ्रामक तथ्यों, अधूरे सच और अवास्तविक चुनावों से मिलकर बनी हैं.
उन्हें आसानी से देखा नहीं जा सकता इसलिए उन्हें आसानी से हिलाया भी नहीं जा सकता.
अपने जीवन के बंधनों के दायरे में एक औरत
समग्र सत्य को कैसे समझ सकती है? वह कैसे भरोसा कर सकती है कि उसकी अन्दर की आवाज़
जब रूढ़ियों को नकारती है तो वह उस सच को स्वीकारती है जिसमें वह रह रही होती है?
वे औरतें जिनसे मैंने बात की है और उनमें से जो अपने अन्दर की आवाज़ को सुन रही हैं
वे बड़े अचंभित कर देने वाले तरीकों से विशेषज्ञों को चुनौती देते हुए सत्य की टोह
लेने की कोशिश करने लगी हैं.
मुझे लगता है कि बड़े-बड़े क्षेत्रों के
विशेषज्ञ भी सत्य को उसकी समग्रता में समझे बिना उसके अलग-अलग टुकड़ों को ही
परीक्षित करते रहे हैं: मैंने मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और जैव-वैज्ञानिक
सिद्धांतों-शोध व्याख्याओं में सत्य के ऐसे ही टूटे-बिखरे हिस्सों को पाया है
जिनके आशयों को स्त्री के सन्दर्भ में कभी भी जांचा-परखा नहीं गया.मुझे उपनगरीय
चिकित्सकों, स्त्री-रोग विशेषज्ञों, प्रसूति-विज्ञानियों, शिशु-चिकित्सकों,
किशोर-चिकित्सकों, हाई–स्कूल सलाहकारों, कॉलेज अध्यापकों, विवाह परामर्शदाताओं,
मनोचिकित्सकों और राजनेताओं से बात करके बहुत सुराग मिले. उनके सिद्धांतों से सवाल
करके नहीं बल्कि अमरीकी औरतों से बर्ताव करने के उनके असल अनुभवों से. मुझे बहुत
सारे साक्ष्य देखने को मिले जिनमें से कई सार्वजनिक नहीं किये गए हैं क्योंकि वे
महिलाओं के बारे में विचारों के वर्तमान अंदाज़ से मेल नहीं खाते. ये वे प्रमाण हैं
जो स्त्री, स्त्री-सामंजस्य, स्त्री-परिपूर्णता, स्त्री-प्रौढ़ता जैसे मापदंडों पर
सवालिया निशान लगाते हैं, अधिकाँश महिलाएं जिनके बीच में आज भी जी रही हैं.
अमरीकियों की जल्द शादी और बड़े परिवारों को
जो जनसंख्या-विस्फोट की स्थिति पैदा कर रहे हैं, शिशु-जन्म और स्तनपान के
हालिया आन्दोलन को, उपनगरीय शैलियों, नई विक्षिप्तियों, चारित्रिक रोग के लक्षणों और चिकित्सकों द्वारा बताई जा रही
यौन-समस्याओं को मैं बिल्कुल नई रोशनी में देखने लगी. माहवारी दिक्कतों,
यौन-निष्क्रियता, संकीर्णता, गर्भाधान से जुड़े भय, बच्चे के पैदा होने के समय का
अवसाद, भावनात्मक टूट की बड़ी घटनाओं, बीस से तीस साल के बीच की औरतों की
आत्महत्या, रजोनिवृत्ति, अमरीकी मर्दों की तथाकथित निष्क्रियता-बचकानापन, औरतों के
बचपन में जांची गई उनकी बौद्धिक क्षमता और आगामी जीवन की उपलब्धियों के बीच की
विसंगति, अमरीकी महिलाओं में यौन चरमोत्कर्ष की बदलती हुई मानसिकता, मनोवैज्ञानिक
समस्याओं की निरंतरता और उनकी शिक्षा से जुड़ी पुराने तकलीफ़ों को जो औरतों के
परिप्रेक्ष्य में हमेशा कम करके आंकी जाती थीं मैंने नए आयामों में देखना शुरू
किया.
यदि मैं सही हूँ तो वह बेनाम समस्या जो
ढेरों अमरीकी महिलाओं को मथ रही है वह स्त्रीत्व के ह्रास, अधिक पढाई या घरेलूपन
की मांग से नहीं जुडी हुई है. यह किसी के मान्यता देने से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण
है. यह उन सभी नई-पुरानी समस्याओं की कुंजी है जो सालों से स्त्रियों, उनके पतियों
और बच्चों को पीड़ित तथा चिकित्सकों, शिक्षाशास्त्रियों को परेशान करती रही हैं. यह
एक राष्ट्र और संस्कृति के रूप में हमारे भविष्य की कुंजी साबित हो सकती है. हम
लम्बे समय से स्त्री के भीतर चलने वाली इस आवाज़ को उपेक्षित नहीं कर सकते कि “
मैं अपने पति, अपने बच्चों और अपने घर के अलावा भी कुछ चाहती हूँ.”
(1) न्यूयार्क की एक रेस्तरां चेन
(2) जलन या किसी तरह के संक्रमण
में दी जाने वाली दवा
(3) निम्न-मध्यवर्गीय घर जहां
गर्म पानी की व्यवस्था नहीं होती है
(4) घरेलू सामानों की एक
निर्माता कम्पनी
(5) डॉ. बेंजामिन स्पॉक अमेरिका
के मशहूर शिशु-रोग विशेषज्ञ थे. पांचवें दशक में बच्चों के लालन-पालन से जुड़ी उनकी
किताब बेहद चर्चित रही.
(6) लैंगिक आधार पर मतदान के
अधिकार से वंचित किये जाने को उन्नीसवें संविधान ( 18 अगस्त 1920) संशोधन के आधार
पर अमेरिका में निषिद्ध घोषित कर दिया गया
(7) सात से दस साल की उम्र वाली
लड़कियों के लिए मार्गदर्शक कार्यकलाप
सुबोध शुक्ल
सहायक पर्यवेक्षक
नार्थ केरोलिना कंसोर्टियम
फॉर साउथ एशियन स्टडीज़
डरहम (नार्थ केरोलिना)
[1] ‘द गिफ्ट ऑफ सेल्फ’,
‘गुडहाउसकीपिंग’ के पचहत्तरवें अंक (मई,1960) में मार्गरेट मीड और जेस्मिन वेस्ट
के बीच आयोजित परिचर्चा.
[3] ‘इफ वन जेनेरेशन कैन एवर
टेल एनदर’ बेट्टी फ्रीडन, स्मिथ पुराछात्र त्रैमासिक पत्रिका, नॉरथम्पटन,
मैसच्यूसेट्स, शीतकालीन अंक, 1961. मैं सबसे पहले इस बेनाम समस्या से जिसको मैंने
बाद में ‘स्त्री-विडंबना’ से जोड़ कर देखा, 1957 में परिचित हुई जब मैंने पंद्रह
साल पहले स्नातक हो चुके अपने सहछात्रों के बीच एक सर्वेक्षण करने के लिए गहन
प्रश्नावली तैयार की. इस प्रश्नावली को रेडक्लिफ और दूसरे महिला कॉलेजों के
पुराछात्रों के बीच में भी लगभग सामान परिणामों के साथ बाद में उपयोग में लाया
गया
बहुत ज़रूरी आलेख. अनुवाद करने के लिए सुबोध जी का शुक्रिया और पढवाने के लिए शिरीष जी का.
कितनी समानता है स्थितियों में आज भी उधर भी इधर भी… सच है कि मनोचिकित्सक के पास महिला मरीजों की संख्या ज्यादा होती है… वे जानती भी नहीं कि वे इतना खाली खाली क्यों महसूस करती है…. बहुत अच्छा लग रहा है तथ्यों में मूक का मुखरित होना| अभी पढ़ना जारी है