अनुनाद

अनिल कार्की की नई कविताएं

अनिल की आंचलिकता से भ्रमित मत होइए, वह अपनी कविताओं के जाहिर दिख रहे स्थानीय आख्यानों में हमारे जीवन और वैचारिकी के महाख्यान छुपा देता है। जीवन सदा स्थानीय ही होता आया है पर उसके आशय समूची मानव-जाति के उत्थान-पतन के बीच संभलने-पनपने के रहे हैं। अनिल की इन नई कविताओं में जो गरिमा है, उसे मैं सलाम करता हूं। इतिहास भर नहीं, इतिहासपूर्व की स्मृतियां भी इन कविताओं का हिस्सा बनी हैं। सुखद है देखना कि अंतत: एक नौजवान हमारे लोक में व्याप्त मिथकों को समकालीन जीवन के रचाव में इस तरह लिख रहा है। पाठकीय प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।
कवि अपनी इजा(मां) के साथ
 
रं
साथी के लिये

(उन सभी रं साथियो के लिये जो नस्लीय  टिप्पणी के शिकार हुए और हो रहे हैं . इस
उम्मीद में कि हम इस अमानवीयता के खिलाफ आवाज बुलन्द करेंगे)
1.
तुम्हारे
चेहरे
नैन
नक्श पे जो भूगोल है
सबसे
बड़ा दावा है
तुम्हारे
होने का इस धरती पर
वे
जो तुम्हारे भूगोल को नकारते हैं
वे
तुम्हें नकारते हैं
तुम्हारी
जमीनों को नकारते हैं
या
कि हड़प लेना चाहते हैं
अव्वल
तो भूगोल और जाति में
हेड
और टेल हो जाता है लोकतंत्र
सिक्के
के दो पहलू होने के बावजूद भी
सिक्के
को एक ही नज़र से देखती हैं सत्तायें
साथी!
तुम्हारे
लिये
जगहें
जातियाँ
जातियाँ
जगह भर हैं
जिसमें
बैल
,
भेड़, घोड़े, खच्चर
झुप्पओं
के अलावा
एक
स्नेहिल कुत्ता भी मौजूद होता है सदैव
कुत्ते
में अपनापन होना एक प्राकृतिक स्वभाव है
और
आदमी में कुत्तापन होना
आदमी
होने की गरिमा
तुम
पर उनकी नस्लीय  छींटाकशी
इसी
गरिमा का  प्रमाण भर है
जबकि
तुम
सफेद
बुराँश-सी शान्त
हिमाल
की नदी हो
नदियाँ
जिनके पाट
सभ्यताओं
के प्रतीक हैं।
2.
तुम्हारी
च्यूंभ्याला1 पोशाक
अडिग
हिमाल सी फबेगी हमेशा

नन्दा की पुत्री!
खौंगली2
का चांदी
हिमरेख-सा
झलकेगा हमेशा
तुम्हारे
कण्ठ में
इयू-ज्यूस3
रामगंगा, कालीगंगा और गोरीगंगा सी
हिमाल
की बयार में
बलखाती
रहेंगी
लटकती
ज्यूंज्यू4 का झक्क सफेद रंग 
गंगा
के पानी सा
सागर
तक जाने को रहेगा आतुर
जबकि
तुम्हारे
बब्चै5 हिमाल को
जकड़े
रहेंगे अपने मोह में
और
हिमाल चमका करेगा
तुम्हारी
ही स्वर्णिम आभा से
युगों
युगों तक
3.
तुम
रहना अपने एकांत में
केलड़ी6
के फूल-सी
सेमल
के नर्म फाहों के भीतर
उड़ती
रहना बीज की तरह
ढुंगछा7 सा बचे रहना
तुम
शहर की तरफ आओगी तो
घूरेंगे
तुम्हें लोग
तुम्हारे
जंगलों से ज्यादा खतरनाक
जानवर
तुम्हारे
प्रेतों से भी
ज्यादा
खतरनाक
नीयत
वाले सियार
तुम
झुण्डों में आओगी तो वे
दुकानों-दड़बों
में बैठ के करेंगे छीटाकसी
तुम
अकेले में आओगी तो
पास
आके छूना चाहेंगे तुम्हें
तुम
प्रतिकार में चुपचाप चल दोगी तो
पीछे
से उछाल लेंगे
तुम्हारे
नैन नक्श पर
फब्तियाँ
यह
तुम्हारी पराजय कतई नहीं है
साथी!
यह
उनकी वर्षों से
तुम्हें
न जीत पाने की झल्लाहट है
तुम
आना उतर के रोज शहर की तरफ
अपना
भूगोल ले के
और
धड़धड़ा के गुजरना
चौकों, मॉल, दुकानों से
रेस्त्रां
में काफी पीना
और
घरों में
ज्या8
4.
अब
मालूसाही9 नहीं है
रह
गई है रजुला 
अपने
एकान्त में
प्रेम
मे पगी
हजार
साल पुरानी प्रेमिका की तरह
मालूशाही
अब वाकई बदल गया है साथी
राजाओं
का क्या हैं
वे
बदल ही जाते हैं
पहले
तो राजाओं की रीढ़ें नहीं होती थी
अब
उनके सींग और पूंछ भी लुप्त हो गए हैं
उन्हें
 पहचान पाना मुश्किल है इस बखत
तब
भी कौन सा निभा पाया था वह तुम्हारा प्रेम
जो
अब निभायेगा
चहकना
खूब
भाड़
में जायें राजकुंवर
पर
हाँ
,
सोचना कभी
इस
तरफ अभी हैं कुछ
संगी
साथी तुम्हारे
तुम्हारी तरह के।
    1.
एक रं परम्परागत पोशाक
    2.
गले मे पहना जाने वाला चाँदी का
गहना जिसकी तुलना पूर्व से ही सम्पूर्ण हिमरेखा के साथ की जाती रही है
    3.
मालाओं के नाम जिनकी तुलना पूर्व से
ही हिमालय से निकलने वाली नदियों संग की जाती है
    4.
एक सफेद कपड़ा  जो अलग से रं स्त्रीयों  के पारम्परिक
पोशाक में पैरों की तरफ लटका रहता है जिसकी तुलना पूर्व से ही गंगा नदी के
साथ    की जाती है
    5.
परम्परागत जूते
    6.
एक पहाड़ी  फूल
    7.
पत्थर पर पीसा हुआ नमक (छा)
    8.
नमक डली चाय
    9.
एक नान रं कत्यूर राजकुमार जिसने रं
बाहदुर लड़की से प्रेम किया। 

***

पलटनिया
पिता

(सैनिक पिता)
1-
काले
रंग का तमलेट
सिलवर
का टिप्पन
चहा1 पीने वाला सफेद कप्फू
एक
हरिये रंग की डांगरी
बगस
के किनारे
सफेद
अक्षर में लिखे
नाम
थे
पलटनिया
पिता
बगस
के भीतर रखे उसतरे
ब्लेड, फिटकरी का गोला
सुई, सैलाई,
राईफल
को साफ करने वाला
फुन्तुरु
 और तेल
कालाजादू
बिखेरते फौजी कम्मबल
हुस्की, ब्राण्डी, और रम की
करामाती
बोतल थे
पलटनिया
पिता
धार
पर से ढलकती साँझ
पानी
के  नौलों में चलकते सूरज 
चितकबरे
खोल में लिपटे
टाँजिस्टर
पर बजते
नजीमाबाद
आकाशवाणी थे
पलटनिया
पिता
पलटनिया
पिता के
खाने
के दाँत और थे
और
दिखाने के दाँत और
देशभक्ति
उनके लिये
कभी
महीने भर की पगार
कभी
देश का नमक
कभी
गीता में  हाथ रख के खाई कसम परेट थी
कभी
दूर जगंलों में राह तकती
घास
काटती ईजा
कभी
बच्चों के कपड़े लत्ते जैसी थी
आयुर्वैदिक
 थी देश भक्ति
च्यवनप्राश
के डब्बे-सी
आधुनिक
थी देशभक्ति
मैगी
के मसाले-सी
लाईबाय
साबुन की तरह
जहाँ
भी हो
तन्दुरस्ती
का दावा करती सी
इसके  अलावा पलटनिया पिता
हमें
मिले
कई
बार
कई-कई
बार
मसलन
फिल्मों
में
और
तारीखों में 
पन्द्रह
 अगस्त की तरह
छब्बीस
जवनरी की तरह
कुहरीले
राजपथों में
जोशीले
युद्धों में
पंक्तियों
में
कतारबद्ध
चलते हुए
हाके
जाते हुए।
2.
पलटनिया
पिता
तुम
जब लौटोगे
भूगोल
की सीमाओं से
और
देश की सीमाओं से
मनुष्यता
की सीमा के भीतर
जेब
से बटुआ निकाल लोगे
निहार
लोगे
ईजा
की फोटुक
बच्चों
की दन्तुरित मुस्कान
जाँच
लोगे मेहनत की कमाई
एक
दिहाड़ी मजदूर की तरह
कहीं
किसी पहाड़ी स्टेशन में
(जो अल्मोड़ा भी हो सकता है)
उतरोगे
बस से
बालमिठाई
के डब्बों के साथ
पहुँचोगे
झुकमुक अंधेरे में
अपने
आँगन
मिठाई
के डब्बे से
निकाल
लोगे एक टुकड़ा मिठाई
मुलुक
मीठे मिठाई सा
घुल
आयेगा बच्चों की
जीभ
पर
जबकि
देश पड़ा रहेगा
लौट
जाने तक
रेलवे
टिकट के भीतर 
या
संसद में होती रहेगी
उसके संकटग्रस्त होने की चर्चा
१-
चाय
 ***

‘ग्यस’

(एक पुराने लालटेन (ग्यस) को देखकर। राज्य बनने के सोलह साल फिर याद आये)
कहीं
अतीत में
पहाड़ों
के सर पे रोशनी के फूल थे तुम
तुम्हारे
भीतर
सुतली
का मैन्टल चमका करता था
चनरमा
सा
काज
बरातों में
उतर
आती थी जून
1
पटाल
वाले आँगन में

ग्यस !
हमारे
अन्धेरे समय के साथी
तुम्हें
होना पड़ा है विदा
उजले
अच्छे दिनों में
जबकि
हमारे
गाँव
आज
भी तुम्हारे कर्जदार हैं
और
हमारे बेटे भी
जिनके
पैदा होने से लेकर ब्याह तक जले थे तुम रात भर
यही
सोचकर कि
एक
दिन वे ग्यस में बदल जायेंगे
और
चमकेंगे तुम्हारी ही तरह
धार-उलारों2
पर
पहाड़ों
पर
चोबाटों3
में उलझे हुए
बेटों
के पुरखे हो तुम ग्यस
तुम्हारे
बेटे जलते भी नहीं
और
बुझते भी नहीं
वे
अधिक जगह घेरते हैं
तुम
कम जगह से
अधिक
दूर तक उजाला देते थे
वे
अधिक जगह में भी
कानी
टार्च से टिमकते हैं
जातियों
के पक्षधर वे लोग
पहाड़
से इतर
क्षेत्र
और गुटों में
मोमबत्ती
से पिघल रहें हैं
उनके
बस में कहाँ
ग्यसहोना!
1.
चाँदनी
2.
उतरायी चढ़ाई पहाड़ों की
3.
चौराहे

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