सरकारी
नौकरी में कई लोग ऐसा ही महसूस करते हैं, जैसा अमित की ये कविता महसूस कराती है। ये सीधे-सीधे वाक्य हैं और कविता इनकी
गूंज में कहीं बोलती है। इच्छाएं हैं, जो साधारण हैं। टीस है,
जो जितनी व्यक्त हो रही है, उससे कहीं ज़्यादा
छुपी है अनगिन जीवनों के विकट अंधेरों में।
*एक सरकारी नौकर का मोनोलॉग*
मैं
चाहता था
कि
मेरे आगे खिंची लकीरों में तुम्हारा नाम हो
मिरा
नहीं
मैं
पेड़ की छालों को कुरेदकर
नम
हरियाली भरना चाहता था
मैं
चाहता था कि तालाब की काई कटे
कुछ गहराई कम हो
कुछ
कंकड़ों की बरसात हो
कुछ
तरंगें उठें और ऊपर आ जाए तले पर बैठा मटमैला कीचड़
मैं
चाहकर सोना चाहता था
जानकर
उठना
मैं
नींद की बड़बड़ाहट में
ख़्वाबों
के चलने में
उजाले
की उम्मीद में
कोई
चाँद चिपकाना चाहता था
मैं
दीमकों से निज़ात चाहता था
मैं
धूल से निज़ात चाहता था
मैं
चाहता था पीले पन्नों का खुरदुरापन कुछ कम हो
मैं
चाहता था पन्नों पर लिखावट का क्रम टूटे,
हस्ताक्षर
का घमण्ड,
सेवा का निचाट अकेलापन
मैं
दाहिने कोने को मुड़े याददाश्त के निशान खोलना चाहता था
रात
के हाशिये पर एक दंतुरित मुस्कान चाहता था
मैं
चाहता था कि स्पर्श स्पर्श के जैसा हो
आवाज़
आवाज़ सी
मैं
रेत के समन्दर में
कैक्टस
के कांटों की तरह होना चाहता था
मैं
टीले दर टीले नहीं
रेत
अंदर रेत चलना चाहता था
मैं
अपनी आवाज़ भर नहीं
अहसास
भर बोलना चाहता था
मैं
इतिहास के उजले कपड़े उधेड़ चिकत्तों के दाग़ दिखाना चाहता था
मैं
चाहता था आज का चेहरा कल हथेलियों के पीछे न छुपा हो
मैं
भरे प्यालों से उड़ेलकर थोड़ी शराब टूटे बर्तनों की प्यास बुझाना चाहता था
माथे
की लकीरों को तहाकर खिला देना चाहता था
बाजू
की मछलियों को मैं घुमड़ते बादलों की प्यास बनना चाहता था
मैं
चाहता था मैं कुछ देर और ज़िंदा रह सकूं।
***
सर्वप्रथम आपको ढेर सारी बधाईयां….
आपकी रचना पढ आनंद की अनुभूति प्राप्त कर रहा हुँ … और मुझे इस बात का पता है कि मैं अगले कुछ दिनों तक इस कविता के हेंगोवर में ही रहने , सोने , उठने ,खाने , पीने वाला हुँ … बरहाल , आपने वाकई उम्दा कारीगरी की है…. मज़ा आ गया…
शुक्रिया
Sparsha sparsha ke jaisa ho
Aawaz Aawaz jaisi!!!
Wonderful