अनुनाद

माधवी : पौराणिक कथा के बहाने स्त्री देह पर सत्ता और ताकत की राजनीति का भंडाफोड़ – सुजाता





भीष्म साहनी के नाटकों में शायद माधवीही है जिसकी चर्चा सबसे कम हुई है बावजूद इसके कि वह पौराणिक कथा पर आधारित होते हुए भी एक फेमिनिस्ट नाटक है। प्रस्तुत आलेख ‘माधवी’ का पुनर्पाठ फेमिनिस्ट दृष्टि से करने और उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित करने का प्रयास करता है। एक बेहद नाटकीय और सम्भावनाओं से भरे इस कथानक में न सिर्फ स्त्री के शोषण और समाज मे उसके दोयम दर्जे के लिए उत्तरदायी कारणों को समझा जा सकता है बल्कि यह देह व ताकत की राजनीति को भी उघाड़ कर रख देता है।

कथावस्तु

नाटक की कथावस्तु का आधार है महाभारत मे आया ययाति की पुत्री माधवी का प्रसंग जिसे ययाति द्वारा विश्वामित्र के शिष्य़ गालव को दान कर दिया जाता है ताकि वह अपनी गुरुदक्षिणा चुका सके और दानवीर ययाति को अपयश न मिले। गालवजिसका घमण्ड तोड़ने के लिए  विश्वामित्र एक असम्भव शर्त रखते हैं कि वह 800 अश्वमेधी घोडे ले आए, भटकता हुआ, असफल और निराशआत्महत्या करने पहुंचता है तो विष्णु  उसे बचाने के लिए गरुड़ को ब्राह्मण बनाकर भेजते हैं। गरुड़ गालव को समझाता है कि वानप्रस्थ ले चुके ययाति इतने दानवीर हैं कि हर हाल में तुम्हारी मदद करेंगे। ऐसे में जबकि पूरे  आर्यावर्त मे किसी एक राजा के पास  800 श्यामकर्णी अश्वमेधी घोड़े मिलना मुश्किल था, अपनी दानवीरता और महानता पर आंच न आने देने के लिए ययाति अपनी इकलौती कन्या माधवी को ही दान कर देते हैं। माधवी को यह वरदान प्राप्त है कि उसकी कोख से पैदा होने वाला पुत्र चक्रवर्ती सम्राट होगा । उससे भी बड़ी बात यह है कि संतान जन्म के बाद माधवी फिर से अनुष्ठान करके कुमारी हो सकती है और अपने रूप यौवन को प्राप्त कर सकती है। यह पुत्र जन्म की गारंटी और चिरयौवना बने रहने का वरदान माधवी के मूल्य का आंकलन करने का पैमाना है।व ह तीन राजाओं के रनिवास में रहती है, उन्हे पुत्र और यौन सुख भी देती है तथा बदले में गालव को श्यामकर्णी अश्वमेधी घोड़े मिलते हैं।  अंत में विश्वामित्र भी उसे अपने आश्रम मे स्वीकार करते हैं क्योंकि बचे हुए 200 घोड़े विश्वामित्र के पास ही हैं और माधवी उनके लिए विश्वामित्र को स्वयं को सौंपती है। इस प्रकार गालव गुरुदक्षिणा से मुक्त होकर दीक्षान्त समारोह में सम्मानित होता है। ययाति की दानवीरता की प्रशंसा होती है और ऐसी कठिन परीक्षा अपने शिष्य के सामने प्रस्तुत करने के लिए विश्वामित्र की भी। लेकिन माधवी अंत में अपने लिए पिता द्वारा रचाए स्वयम्वर से पूर्व अनुष्ठान करके फिर से कौमार्य नहीं प्राप्त करती।

पितृसत्ता, स्त्री और महानता के प्रपंच

स्वयं भीष्म साहनी के शब्दों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री की अवहेलना और शोषण की कहानीहै माधवीलेकिन मज़ेदार यह है कि लेखक ने आज के अतीतमें यह स्वीकार किया कि माधवी की कथा में अनंत सम्भवनाएँ थीं और इसे और अधिक धैर्य से लिखा जाना चाहिए था।1 यह सत्य है कि एक पितृसत्तात्मक और धर्मान्ध समाज में जीते हुए स्त्री की अवहेलना और शोषण की कथा लिखना बेहद धैर्य के साथ ही सम्भव है। यह भीष्म जी की सम्वेदनशीलता ही थी कि त्रिलोचन शास्त्री से माधवी की कथा सुनते ही वे व्यग्र हो उठे इसे लिखने के लिए और यह अनायास नहीं था कि हीरो वरशिप की आदी रही संस्कृति वाले देश में दानवीर ययाति , गुरु विश्वामित्र और एक लगभग  असम्भव गुरु दक्षिणा देने वाले शिष्य गालव जैसे तीन पुरुष पात्रों के होते हुए नाटक के केन्द्र में माधवी आ गई। भले ही भीष्म जी फेमिनिस्ट दृष्टिकोण से प्रभावित नहीं थे  लेकिन वे माधवी के जीवन से जुड़ी विडम्बनाओं को समस्त स्त्री जाति के वर्तमान हालात के साथ जोड़कर शोषण की परम्परा को उसकी निरंतरता मे देख पा रहे थे।2 आलोच्य नाटक स्त्री देह और पितृसत्तात्मक व्यवस्था मे स्त्री के शोषण की कई परतें एक साथ खोलता है। 1984 मे लिखा गया था माधवी और अपने एक साक्षात्कर मे भीष्म साहनी ने स्वीकारा है कि इसे लिखते हुए कोई फेमिनिस्ट विचार उनके मन में नहीं रहालेकिन सत्य का शोध लेखक अक्सर लिखने की प्रक्रिया में ही करता है। इस नाटक को लिखने की प्रक्रिया में ही भीष्म साहनी को एहसास हुआ कि नाटक की मुख्य पात्र माधवी है और उसी के पक्ष से कथा कही जानी ज़रूरी है। 80 के दशक तक स्त्री विमर्श  और शोषण  के अंतिम उपनिवेश के रूप मे स्त्री देह को पहचान लिए जाने से लेखक कितना परिचित था यह कहना मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि माधवी की कथा कहते हुए भीष्म साहनी ने हिन्दी साहित्य में स्त्रीवादी देह विमर्श में एक महत्वपूर्ण शुरुआत की। माधवी का कंटेंट इतना सीधा नहीं है कि उसे स्त्री शोषण की कथा कहकर विराम लिया जा सके।

पितृसत्ता के षडयंत्र के तहत प्रेममातृत्व और त्याग जैसी भावनाओं के साथ प्रशिक्षित की गई और कोख व योनि के कारण टूल बनकर अपनी ही देह से निर्वासित हुई स्त्री जाति की प्रतिनिधि पात्र है माधवी। माधवी और गालव के प्रेम की बात महाभारत मूल कथा में नहीं है जिसे भीष्म जी नाटक में ले आए हैं और बजा ले आए है क्योंकि स्त्री की गुलामी दरअस्ल इस बात मे बाकी गुलामियों की तुलना में अलग है कि वह ऐसा गुलाम है जिससे भावनात्मक गुलामी की भी अपेक्षा की जाती है।3 अपने मालिक को प्रेम करते हुए वह गुलामी करे ऐसी अपेक्षा स्त्री से हमेशा ही रखी गई। पितृसत्ता को वैध और चिरंतन बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि स्त्री यह सोचे कि जो करती है वह प्यार के लिए करती है और यही उसका कर्तव्य है। माधवी कई बार संकेत करती है कि वह गालव से प्रेम के कारण आत्मोत्सर्ग करती है , उसे गालव का साथ चाहिए वैसा ही बिला-शर्त जैसा वह देती है उसका साथ। वह गालव की मुक्ति में अपनी मुक्ति की बीहड़ कंटकपूर्ण राह खोजती है। वह कहती है मुस्कुराकर – “तुम ऋण मुक्त होने के लिए यह सब प्रयास कर रहे हो नऔर मैं?” मानो अबोध हो गालवपूछता है –“क्या?”  तो माधवी आग्रह से कहती है मैं तुम्हें प्राप्त कर पाने के लिए…चलोगालव4  अत्यंत व्याकुल होकर वह अपने पिता के वचन की मर्यादा रखने , गालव को सहायता करने के लिए खुद को  आग मे झोंकती है तो यह उस स्त्री की बनावट में निहित है।5 वह सिर्फ कर्तव्य के लिए निर्लिप्त भाव से यह सब कर ही नही सकती थी। वह प्रेम करने लगती है गालव से और मन ही मन सोचती है पहले प्रसव में कि गालव से मेरा पुत्र उत्पन्न होता यदि तो भी क्या मैं ऐसे ही रोती चिल्लाती6 और उसका मन शांत हो जाता है। प्रेम , भावनाएँ , मातृत्व और कोख ये मिलकर स्त्री के लिए ऐसा एकांत कोना रचते हैं कि स्त्री ताउम्र इनके भंवर से निकल नही पाती। अपनी ही देह से निष्कासित होकर जीना और चयन के अवसरों का अभाव उसकी नियति बना दिए गए। तीसरी बार तो माधवी अपने सद्य जन्मे शिशु का मुख भी नहीं देखती और बाहर चली आती है।

 यहाँ मानसिक गुलामी और देह की गुलामी की वह कहानी शुरु होती है जो देह व ताकत  की राजनीति की बिसात पर बिछती खुलती है तो एक कौंध की तरह समझ आनी शुरू होती है।

कुलच्छनी कोख और अभिशप्त योनि

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री से उम्मीद की ही गई है कि वह पुत्र प्राप्ति के प्रयासों में लगातार गर्भधारण करती रहे और फिर भी शय्या पर पति के लिए कामिनी बने रहे। महाराज ययाति की पुत्री माधवी को मिला यह वरदान कि वह चक्रवर्ती सम्राट को जन्म देगी और जन्म के पश्चात एक अनुष्ठान द्वारा चिर कुमारी हो सकेगीसंकेत करता है कि स्त्री की देह पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक टूल मात्र है। पितृसत्ता की भलाई के लिए यह स्त्री का कोख और योनि में रिड्यूस कर दिया जाना है। ऋगवेद पुत्र प्राप्ति की कामनाओं से भरा पड़ा है और रामदेव की पुत्रजीवक दवा तक की मानव सभ्यता की यात्रा ताकत और सत्ता की इसी बादशाहत को बनाए रखने की दुर्दमनीय इच्छा दिखाई पड़ती है। तीनों राजा, हर्यश्च , दिवोदास और ऊशीनगर नरेश पुत्र के लाभ और विशेषरूप से दिवोदास काम- क्रीडाओं के लिए भी लालायित होकर गालव का प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लेते हैं। दिवोदास के चरित्र को भीष्म जी ने जानबूझ कर यह हास्यास्पद और कामुक रंग दिया है। वह पूछ्ता है कि सत्रह पुत्रियों के बाद हमें पुत्र तो प्राप्त होगा न7 और आगाह  भी करता है कि यदि ऐसा न हुआ तो वह माधवी और गालव को काल कोठरी मे डाल देगा। दिवोदास को पुत्र की जितनी  चिंता है उतनी उससे तनिक भी कम काम क्रीड़ा की नहीं। स्त्रियाँ शृंगार तो बहुत करती हैं लेकिन काम क्रीड़ा बिलकुल नही जानतीं8 वह कहता है – इस भेस में तुम कैसे हमें रिझाओगी? नहा धोकर अच्छे से शृंगार करके आओ। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में जैसी कुलच्छनी कोख है वैसी ही अभिशप्त योनि भी।9  स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में यह यह एक इतनी विचित्र बात है कि काम क्रीड़ा में भी दोनो के बीच गैर-बराबरी का सम्बन्ध , नौकर-मालिक का सम्बन्ध बरकरार रहता है। दिवोदास को देखते असम्भव ही है कि कोई स्त्री खुशी से उसके साथ समागम करना पसन्द करे लेकिन सम्भोग में स्त्री की इच्छा’’ का सवाल उठाना ही पितृसता से बगावत करना है। रति आनन्द स्त्री के लिए नहीं है। उसे केवल रिझाना है , आनन्द की वस्तु मात्र होना है।10 सहवास सुख में वह एक सक्रिय भागीदार है यह कल्पना भी दूर दूर तक सम्भव नहीं। दिवोदास की कई पत्नियाँ अंत: पुर मे पड़ीहुई हैं और ऐसा ही करती आई हैं। उनकी दशा देख माधवी विचलित होती है। और माधवी के पास तो कोई विकल्प है ही नही।

स्त्री हमेशा अन्यहै। यह अन्यता पुरुष के संदर्भ में व्याख्यायित होती है। वह पुरुष से भिन्न है इसलिए उसकी निष्ठा पर पुरुष को हमेशा शक है, उसकी भावनाओं पर हमेशा सन्देह है, और उसके शारीरिक मानसिक  स्वास्थ्य से उसे कोई मतलब नहीं है बस इतना कि वह उसके मकसद मे सहायक बनती रहे। माधवी की नीयत पर गालव निरंतर सन्देह करता है। स्त्री की यह अन्यताधीरे धीरे उसे स्वयं  से भी एलियनेट करती है। माधवी का राजाओं के पुत्र को जन्म देना और फिर भी चिरयौवना रहना ययाति , गालव, तीनो राजाओं और यहाँ तक कि विश्वामित्र के लिए भी एकदम सहज बात है लेकिन जीवन में बहुत कुछ है जिसे ‘अन डू’ नहीं किया जा सकता । बच्चों को जन्म देना और जन्मते ही उनसे अलग हो जाना एक माँ के लिए जितना बड़ा मानसिक कष्ट है उतना ही शारीरिक भी है। मन जिस देह में निवास करता है उन दोनो की अलग अलग सत्ता मानना एक मनुष्य़ को आत्मनिर्वासन की पीड़ा से भर देता है। यह उसके आत्मविश्वास और आत्मगौरव को कुचलने जैसा है, काबू में रखने के लिए स्त्री के साथ अक्सर किया यही गया है कि उसे ‘परसनहुड’ से वंचित किया गया। उसके व्यक्तित्व को पल्लवित होने नही दिया गया। यही माधवी को भी उसकी देह को उसके अपने अस्तित्व  से अजनबी करता है। यहाँ आकर स्त्री मात्र एक टूल,एक औजार में तब्दील होती है जिसकी अपनी इच्छा के कोई मानी नही, जिसे किसी को भी दान दिया जा सकता हो, जिसका अपनी देह और उसकी इच्छाओं पर भी अपना अधिकार न हो,जिसे किसी के भी साथ सह्वास के लिए बाध्य किया जा सकता हो। अपने ही पिता , गालव , अश्वमेशी घोडे देने वाले तीनो राजाओं और अंतत: विश्वामित्र द्वारा भी माधवी को वस्तु ही समझा जाता है। इस देह –विमर्श की कितनी लानत-मलामत  की जाए पर सच है कि स्त्री का शरीर उपनिवेश है। सत्ता , ताकत ,राजनीति और अर्थतंत्र इसका इस्तेमाल करते हैं। इसी से मुक्ति देह की मुक्ति है।

मातृत्व को चुनना या न चुनना स्त्री का अपना अधिकार होना चाहिए । सेकेंड वेव फेमिनिज़्म आवर बॉडीज़ अवर सेल्व के प्रति सचेत था। स्त्रीवाद के दूसरे चरण का यह आन्दोलन स्त्री के गर्भपात के फैसले को या गर्भ को पालने के फैसले को सम्मान से देखे जाने की बात करता रहा। यह अपनी कोख को पितृसता का टूल बनने देने के खिलाफ एक महत्वपूर्ण जंग थी। स्त्री की आज़ादी में मातृत्व आड़े आता है इसलिए स्त्रियाँ माँ बनना ही नही चाहेंगी अगर उन्हे यह अधिकार दे दिया गया तो’ –ऐसी आशंकाएँ दरअस्ल स्त्री के व्यक्ति होने स्वतंत्र अस्मिता होने पर ही एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती हैं। ‘चुनाव’ स्त्री के लिए या कहना चाहिए कि हाशिए की अन्य अस्मिताओं के लिए भी एक भ्रामक शब्द है। यदि चुन सकने की ही स्थिति होती ही तो स्त्री कभी अपने लिए एक कष्टदायकदाग-धब्बों और मानसिक क्लेश युक्त मासिक धर्म का ही चुनाव न करती। लेकिन यह उसकी कोख थी और यह उसका शरीर जिसपर उस का अपना कोई इखित्यार न था। अपने सोचते समझते उसे मर्दवाद के हाथों का खिलौना बनते नहीं देखा जा सकता। कमाल की बात यह है कि गर्भाशय एक ऐसा अंग है जो अपने होने की याद तभी  दिलाता है जब वह असुविधा का कारण बनता है। 11  माधवी खुशी-खुशी गालब से प्रेम में यह स्वीकार करती है कि वह राजाओं को पुत्र देगी और बदले मे वे राजा गालव को अश्वमेधी घोडे देंगे । लेकिन जिस पल वह अपने पहले दुधमुँहे बच्चे को छोडती है उस वक़्त वह वही माधवी नहीं रह गई होती है। एक प्रसवसिर्फ एक प्रसव एक स्त्री को ट्रांसफॉर्म कर देता है। उसका मन वह नहीं रहता भले ही वह अनुष्ठान कर ले और कौमार्य व सौन्दर्य भी पुन प्राप्त कर ले। माधवी तो इससे बार-बार गुज़रती है। हर प्रसव के बाद संतान से बिछड़ना पड़ता है उसे। माधवी कहती है गालव से स्वतंत्र? कैसी स्वतंत्रता गालव ? उन दीवारों के पीछे मेरा नन्हा बालक मुँह खोले मेरा स्तन ढूंढ रहा है, और तुम कहते हो, मैं स्वतंत्र हूँ ? गालव, क्या सचमुच तुम मुझे स्वतंत्र समझते हो? जो माँ अपने बच्चे को छाती से लगा पाए, वही स्वतंत्र होती है।” 12

कमाल की बात यह है कि गालव को ऋषि बनाने के लिए उसकी योजना में निमित्त बनकर अपने यौवन , अपने मन , अपने मातृत्व  का बलिदान करते हुए भी वह कमज़ोर कहलाती है। गालव माधवी के आत्मसमान पर चोट पहुंचाने के लिए यह मनोवैज्ञानिक पैंतरा भी इस्तेमाल करता है कि इसीलिए शायद स्त्रियाँ किसी बड़े काम का दायित्व वहन नही कर सकतीं13

यह एक स्त्री की अस्मिता के साथ मर्दवाद का खेला गया एक षडयंत्र ही है कि पुरुष वेश में सभी कर्तव्यपरायण राक्षस 14 सम्मान और यश प्राप्त करते हैं और माधवी जिसके व्यक्तित्व और सम्वेदनाओं की बलि देकर गालव , ययाति और विश्वामित्र महान बनते हैं उसे ही दुर्बल करार दिया जाता है। माधवी पहले वाली माधवी नही रह जाती । यह पल एक हाशिए की अस्मिता के लिए अपनी सीमांतीयता के बोध का पल है। अपनी असली औकात के समझ आने का पल। टूटने का पल । टूटकर फिर उठने समंजन करने या विद्रोह कर देने का पल। गालव कहता है माधवी तुम तो ऐसे व्यंग्य मे बात नही करती थीं। माधवी को फिर से सुनाई देता है बच्चे का रोना । गालव कहता है यह वहम है माधवी। माधवी उत्तर देती है नही गालव …मैं अपने आने वाले बच्चे का रोना सुन रही हूँ।15 ऊशीनगर के राजा को पुत्र लाभ होने के बाद माधवी कहीं चली जाती है। गालव को लगता है वह थक हारकर उसे बीच न मंझधार मे छोड़कर चली गई है। आखिर स्त्री चंचल होती है और उसे पुरुष के अंकुश की ज़रूरत हैव्यंग्य करता है सूत्रसधार!  कितना शांत लेकिन कितना बेशर्ममार्मिक और बेहद नाटकीय पल था वह कि अंत में माधवी विश्वामित्र के दरवाज़े पर खडी होती है। मर्दवाद के मुख पर तमाचा यह कि विश्वामित्र उसे अपनी कुटिया के भीतर ले लेते हैं। भले ही वे कहते हैं मैं गालव का घमण्ड चूर करने चला था तुमने मेरा ही अहंकार चूर कर दिया। अहंकार चूर होने के बाद भी विश्वामित्र माधवी से पुत्र प्राप्त करते हैं। इससे न गुरु पर आंच आती है , न मर्यादा पर न कर्तव्य पर। यदि गालव , विश्वामित्र और ययाति ये तीनों कर्तव्यपरायण और मर्यादा पुरुष हैं तो निश्चित ही कर्तव्य परायणता और मर्यादा पालन का अर्थ होता होगा -स्त्री विरोधी होना। स्त्री को पतित किए बिना महानता हासिल न की जा सकती हो जिस व्यवस्था में वह निश्चय ही एक गैर बराबरी और शोषण की परम्परा वाला समाज ही हो सकता है।

 स्त्री के वस्तुकरण के सभी लक्षण पूरे नाटक की कथा मे अंतस्यूत दिखाई देते है। राजा हर्यश्च के दरबार में ज्योतिषी माधवी के अंग प्रत्यंग का निरीक्षण इसी प्रकार करता है जैसे बाज़ार से मोल ली जाती वस्तु का किया जाता है। उसके नितम्ब , वक्ष ,जीभतालु , हथेलियाँ सभी को दरबार के बीच ज्योतिषी गहन निरीक्षण करता है और महाराज को आश्वस्त करता है –“…ज्योतिष ग्रंथों में इन सभी लक्षणों से युक्त युवती चक्रवर्ती राजा को जन्म देने वाली होगी। 16 अंत तक स्वयं को वस्तु बना दिए जाने को आत्मसात कर चुकी माधवी अपने मुख से स्वीकार करती है विश्वामित्र के सम्मुख – “महाराज मैं उसी भांति आपका आज्ञापालन करूंगी जिस भांति अन्य तीन राजाओं के रनिवास में करती रही हूँ। मैं विशिष्ट लक्षणों वाली हूँ महाराज, आपको भी मुझसे पुत्र लाभ होगा। मुझे ग्रहण करके आपको पश्चाताप नहीं होगा महाराज। सभी राजा  मुझसे प्रसन्न थे। …मै आपकी परिचारिका बनकर रहूंगी , जिस रूप में रखेंगे रहूंगी17 यह नाटक का सर्वाधिक करुण स्थल है। मनुस्मृति पर चलने वाले मर्दवादी समाज के ग्रैंड डिज़ायन में एक टूल बनी माधवी अपना आखिरी बलिदान पूर्ण करती है।

 आत्मनिर्वासन और विद्रोह

यह आत्मनिर्वासन जो अकेलापन देता है वह स्त्री के लिए जानबूझ कर निर्मित किया है। जब भी वह खुद के लिए तय मानकों से हटकर चलने की कोशिश करती है तभी अस्वीकार्य,असह्य हो जाती है। ‘हीरोइज़्म‘ तो पुरुष में ही हो सकता है न।  स्त्री हीरो बनने की कोशिश करेगी तो या कम से कम हीरो को हीरो बनाने का क्रेडिट भी लेने की कोशिश करेगी तो उसकी नियति सीता की सी होगी  या माधवी की सी। इसके बाद की कथा तीनों कर्तव्यपरायण  राक्षसों की सफलता और माधवी की गुमनामी ,अकेलापन और पीड़ा की नियति पर खत्म होती है। महाराज ययाति स्वयंवर रचाते हैं। एक फेक स्वयंवर । यह स्वयंवर एक भ्रम  है। अपने अपराध बोध से मुक्ति पाने का आसान आसान तरीका नहीं क्योंकि अपराध बोध की तो कहीं ध्वनि भी सुनाई नही देता। ।ययाति से कुछ गलत कहाँ हुआ। यह स्वयंवर भी अपनी महानता सिद्ध करने का एक अवसर सिद्ध होता है। मज़े  की बात है कि नाटककार सफलतापूर्वक  इस विडम्बना को उभार पाया है कि माधवी के चार पुरुषों से समागम चार संतानों को जन्मते ही छोड देने और पुन पुन अपने आपको धोखा देने के लिए चिर कौमार्य का अनुष्ठान करते रहकर एक निमित्त बनते रहने के बाद चयनका अर्थ ही क्या रह जायता है? कुछ नहीं ! बेशक यौवन पाया जा सकता हो अनुष्ठान करके लेकिन क्या वाकई सब कुछ जो उस शरीर और मन पर गुज़रा उसे विस्मृत किया जा सकता है कभी ? गर्भाशय पर पुत्र- संतान जन्म की चार बार लिखी कहानियाँ , अनिच्छा से किए गए सम्भोग , प्रत्येक बार सद्य-जन्मा संतान से बिछुड़ना …क्या यह सब माधवी की स्मृतियों से मिटाया जा सकता था? क्या हमारे जीवन मे भोगा हुआ हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा नही हो जाता

गालव के आग्रह के बावजूद माधवी द्वारा अंत मे अनुष्ठान करने से मना कर दिया जाना और फिर गालव का उससे विवाह करने से मना कर देना इस नाटक का अत्यंत महत्त्वपूर्ण
 मोड़ है । यहाँ आकर वह न केवल स्त्री मात्र की उस वेदना से जुडती है जो विवाह और मातृत्व मे अपने जीवन के सबसे स्वर्णिम पल खो देती है,जो छिजते शरीर के साथ सबके शुभ और  कल्याण की कामना करती है और फिर भी अंत में दुर्बल व कमज़ोर कही जाती है बल्कि इस नकार में उसका विद्रोह छिपा है जो एक स्त्री के भीतर सब कुछ हार कर मिली हिम्मत में से जन्म लेता है। स्वयंवर मे आए राजा यही सोच कर आये थे कि माधवी चिर युवा रहेगी। स्वयं गालव यही सोचता है और उसे धक्का लगता है यह देखकर कि जिस कामिनी माधवी को भोगने के वह सपने सजा रहा है वह उसी के लिए निमित्त बनकर अपने जर्जर हो गए शरीर के साथ स्वयं को स्वीकारे जाने की शर्त रखेगी। वह जिसने सदा ही दूसरों की इच्छा से , बिना किसी शर्त अपनी देह का इस्तेमाल हो जाने दिया वह अंत में अपने विचार पर इस तरह दृढ होगी|। यह माधवी की शांत ललकार थी उस पुरुष के लिए जिसे उसने प्रेम किया जिसके लिए उसने अनेक कष्ट सहे वस्तु हो जाना भी स्वीकार कर लिया।  “मुझे देख कर ठिठक क्यों गए गालव।  मैं अब पहले जैसी माधवी तो नही हो सकती हूँ न” 18 आप उसे वस्तु समझते रहे झाड़ा पोंछा इस्तेमाल किया  तेल डाला मरम्मत की फिर और वैसी की वैसी । उसकी देह ढल चुकी है, चेहरे का लावण्य़ फीका पड चुका है, मुँह पर झाँइयाँ हैं, आंखों के नीचे अन्धेरे साए उतर आए हैं। अधेड उम्र की अनाकर्षक स्त्री लगने लगी है माधवी।19

वह अब अनुष्ठान नही करेगी। वह कर्तव्यपरायणता का प्रपंच समझ चुकी। वह पितृसत्ता के हाथों अपना इस्तेमाल किया जाते रहना समझ चुकी जिसे पिता वस्तु स्वरूप दान मे दे दे और जिसे राजा पुत्र प्राप्ति की गारंटी के साथ अपने रनिवास मे पनाह दें और जिसके अनुष्ठान कर वापस सुन्दरी न बनने पर  गालव ठुकरा दे। वह प्रेम के प्रपंच से निकल आई है। वह पूछती है गालव से तुम किस माधवी के लिए छटपटाते रहते थेमैं तुम्हारे लिए केवल निमित्त मात्र थी। जब तुम मेरे सामने अनुनय-विनय कर रहे थे तब भी तुम झूठ बोल रहे थे। तुमने केवल एक व्यक्ति से प्रेम किया है और वह है अपने आप से। पर मैं तुम्हे पहचानते हुए भी न पहचान पाई। मैं सारा वक़्त यही समझती रही कि गालव सच्ची साधना और निष्ठावाला व्यक्ति है। तुम भी गुरुजनों जैसे ही निकलेगालव…। कटु मुस्कान के साथ कहती है तुम सचमुच एक दिन ऋषि गालव बनोगे। ” 20 वह मर्यादा पालन के फरेब को समझ चुकी है।  

गालव की तारीफ होती है
, विश्वामित्र की कठिन परीक्षा की दाद दी जाती है , ययाति के दानवीर होने की वाहवाही होती है …माधवी पर एक शब्द नहीं कहा जाता उस सभा में।  लेकिन नाटककार की सफलता यह है कि कुछ अपनी ओर से न कहते हुए भी उसने माधवी को नायकत्व प्रदान किया है।
यदि इतिहास को छूना एक दुष्कर कार्य है तो उसी तरह पौराणिक कथाओं को भी लेकिन भीष्म साहनी ने माधवी को सफलता से निभाया है। नाटक में सूत्रधार के ज़रिए कथा कहलाते हुए भीष्म जी ने अद्भुत ढंग से दृश्यों का संयोजन व पात्रों का चरित्र गढा है।सूत्रधार के द्वारा अनावश्यक विस्तार से बचते हुए नाटक में एक चुस्ती आती है और सूत्रधार दृश्यारम्भ में जो लम्बे सम्वाद कहता है उनकी व्यंजना बेहद प्रभावी ठहरती है। दूसरे अंक के पहले दृश्य के आरम्भ में माधवी के लापता हो जाने की घटना की सूचना देते हुए वह अपने कथन में कहता है- पुरुष को भगवान ने धीर-गम्भीर बनाया हैपर स्त्री के स्वभाव में चंचलता होती है। इसीलिए कहा गया है कि नारे की चंचलता पर पुरुष का अंकुश सदा बने रह्ना चाहिए। इसमें अंतत: स्त्री का ही लाभ है।21 और इस नाटक में स्त्री यानि माधवी को कैसा लाभ होता है पाठक-दर्शक स्वयम जान लेते हैं। दृष्यों मे व्यंग्य नाटककार जानबूझ कर ले आए हैं। दिवोदास के चरित्र में जो छिछलापन व कामुकता है और सोच में लालची सामंत बैठा है वह उसके डेढ हड्डी शरीर के साथ मिलकर एक घृणा उपजाता है। ज्योतिषी द्वारा राजा हर्यश्च के यहाँ माधवी के निरीक्षण के दृष्य की नाटकीयता और विश्वामित्र के यहाँ माधवी का पहुंचना अत्यंत मार्मिक व प्रभावी स्थल हैं। माधवी के सम्वाद बेहद तीक्ष्ण हैं। सभी पात्रों के परस्पर कथोपकथन और सूत्रधार के कथनों के कारण सामाजिक को अपना पक्ष तय करने मे कतई मुश्किल नहीं होती। माधवी तंज़ करते हुए एक स्थान पर कहती है- गालव , तुम एक दिन अवश्य ऋषि गालव बनोगेयह पुरुष की महानता के पीछे उसका स्वार्थ व उसके लिए स्त्री का इस्तेमाल किए जाने की मंशा पर चोट करता है और ऐसे ही बच्चे के रोने को वहम बताने पर गालव से कहती है- ‘मैं आने वाले बच्चे का रोना सुन रही हूँ। नाटक रंगमंचीयता के लिहाज़ से निर्देशक को छूट लेने और अपनी रचनात्मकता के उपयोग के भरपूर  अवसर देता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता हैं कि अपने कथानक की कसावटसम्वादों की सांकेतिकता व व्यंजकतानाटकीयता व अद्भुत सम्प्रेषणीयता के साथ ‘माधवी’ भीष्म साहनी का एक बेहद सशक्त नाटक है।

संदर्भ:
   1.       आज के अतीत, भीष्म साहनी, पृ.239, राजकमल प्रकाशन,2004
    2.       मेरे साक्षात्कार, भीष्म साहनी, पृ.86, किताबघर प्रकाशन, 2007
 3.The masters of women wanted more than simple obedience, and they turned the whole force of education to get what they wanted. All women are brought up from their earliest years to believe that their ideal of character is the very opposite to that of men: not self-will and government by self-control, but submission and accepting control by someone else. All the moralities tell them that it is their duty, and all the current ideas about feelings tell them that it is their nature, to live for others—to set aside their own wishes and interests and have no life but in their affections. And by ‘their affections’ are meant the only ones they are allowed to have—those to the men with whom they are connected, or to the children who constitute an additional and unbreakable tie between them and a man  ”
दि सब्जेक्शन ऑफ विमेन, जॉन स्टुअर्ट मिल, पृष्ठ – 9 http://www.earlymoderntexts.com/assets/pdfs/mill1869.pdf  
4.       माधवी, भीष्म साहनी, पृ.70, राजकलम प्रकाशन, 2008
5  5.“one is not born but rather becomes a woman” page. 330  Chapter-3 Lived Experience, Childhood , The second sex, Simone de Beauvoir, Vintage Books , New York
   6.       माधवी, भीष्म साहनी , पृ. 69, राजकमल प्रकाशन,2008
   7.       वही , पृ.76
   8.       वही, पृ. 72,74
   9.       विद्रोही स्त्री,जर्मेन ग्रियर , पृ.47 , राजकमल प्रकाशन
   10.   वही
   11.   वही
   12.   माधवी, भीष्म साहनी , पृ. 64, राजकमल प्रकाशन,2008
   13.   वही, पृ.65
   14.   माधवी और कर्तव्यपरायण दानव, जावेद अख्तर खाँआलोचना, जनवरी-मार्च 1985
   15.   माधवी, भीष्म साहनी , पृ. 67, राजकमल प्रकाशन,2008
   16.   वही, पृ.39
   17.   वही, पृ.99
   18.   वही, पृ.111
   19.   वही, पृ.110
   20.   वही, पृ.117
   21.   वही, पृ.91
  अनहद पर प्रकाशित  



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