अनुनाद

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विमलेश त्रिपाठी – 15 कविताएँ

विमलेश त्रिपाठी अनुनाद के पुराने साथी लेखक हैं। उनकी दो लम्बी कविताएं पहली बार अनुनाद पर छपीं और चर्चा में रहीं। बहुत समय बाद विमलेश ने अपनी कविताएं अनुनाद को दी हैं। अनुनाद इन सभी कविताओं का स्वागत करते हुए, इन्हें पाठकों के हाथ सौंप रहा है। 

– – – 
 

घर में अकेले



इस घर में अकेले रहता हूं तो घूम आता
गांव के पुराने घर के आंगन में कई बार
पेंसिल से लिखी दीवारों पर वर्णमालाएं
अपने नाम के पहले अक्षर
गोटी खेलने वाली वो जगहें
खोजता छूता बेतरह

चला जाता उन सखियों के गांव जो बहुत
दूर बियाही गईं

उन दोस्तों के घर
जो चले गए सूरत दिल्ली अरब रोटी की
जुगाड़ में

उस बूढ़े गवैये के घर
जो गाता था तो हिलता था पूरा गांव वीणा
के तार-सा

घर में अकेले रहता  तो कभी नहीं जाता
हावड़ा ब्रीज पर
विक्टोरिया या नंदन नहीं जाता
कार्यालय तो भूल कर भी नहीं

जाता हूं कुछ देर बैठने उस नदी किनारे
जिसमें बहुत कम रह गया है पानी
उस बगीचे में जहां बहुत कम रह गए हैं
पेड़

उस चौपाल पर
जहां अब मेहिनी नहीं होती पूरवी की तान
नहीं लहराती

जाता हूं बार-बार लौटकर
जहां अपना बचपन छोड़ आया था एक दिन
बार-बार जाता हूं
उसे ही तलाशता हंकासा-पियासा

और लौट आता हूं बार-बार निराश
इस घर में अकेला
जिसे मेरा ही घर कहते हैं लोग-बाग ।

*** 
सड़क
पर रहते लोग
वे दंगे नहीं करते   हत्या नहीं करते
राजनीति नहीं करते
मंदिर  मस्जिद या गिरिजाघर नहीं जाते
घोर निराशा में भी
 वे आत्महत्या  नहीं करते
वे हँसते हैं
जोर-जोर
प्रसव करते हैं    बच्चों को पालते हैं
कुत्ते और
बिल्लियों को अपना दोस्त बनाते हैं
धूल और धुएँ के
बीच जीते हैं
वे अपने देश को
गालियाँ नहीं देते
वे कभी देश के लिए
खतरा नहीं होते
कुछ खास और सरूख़
लोगों का समुद्रशास्त्र बताता है
कि वे देश के
नक्शे पर
गलत जगहों पर उगे
मस्से की तरह हैं
तमाम दुख और अभाव
के साथ
कुछ काले धब्बे-से
उनका होना देश के
लिए शुभ नहीं है
पता नहीं कितनी
सदियाँ बीतीं
और मेरा कवि उस
दिन का इंतजार कर रहा है
जब वे देश के ललाट
पर चिपक जाएंगे
एक सुंदर तिल की
तरह
समुद्रशास्त्र का
तो पता नहीं
कि देश के व्याकरण
और कविता  की भाषा में एक दिन
वे शुभ हो जाएंगे।
*** 
फ़िलहाल
कौन हैं जो
साजिशों की अंधेरी परतों में छुपे बैठे हैं
कौन हैं जिन्हे
कविता और जनता की भाषा समझ नहीं आती
फर्जी और अबूझ
आदेश देने वाले वे लोग
कौन हैं इमान में
जिनके काली हँसी तैरती है
कविता और आम जनता
की भाषा में बेनकाब वे बहरूपिए
रात-दिन जो बनाते
हैं आत्महत्या की रस्सियाँ
जिनके नाम पर जहर
बनाने की हजारों फैक्टरियाँ
कौन हैं वे लोग
जिनकी दुकानें
इस अभागे देश के
नाम पर फल-फूल रही हैं
कौन हैं वे प्रेस कॉन्फ्रेंसों
में झूठ उगलते
मंचों पर देशभक्ति
दनदनाते
नूक्कड़ों पर
ईमानदारी की उल्टियाँ करते
कौन हैं वे लोग
जिनकी आत्मा की शर्मो हया
राजनीति के अंधकूप
में गिरवी है
आओ इन्हें अपनी
कविता के गिलोटीन पर चढ़ा दें
फिलहाल इनके लिए
कोई और दूसरी कठोर
सजा नहीं।
***

वह

वह कविता में अभिनय करता
करता प्यार में अभिनय
उसने चेहरे पर लगा रखे हैं
कई तरह के मुखौटे
वही समय का सबसे बड़ा प्रेमी
वही समय का सबसे बड़ा कवि ।

*** 

जब
वह दिन
कुछ लोग थे जो
बहुत तेजी से
 खूँखार जानवर में बदलते जा रहे थे
मैं चाहता था  सिर्फ आदमी बने
रहना

लेकिन मुश्किल यह
कि आदमी बनकर मैं 
एक अजीब तरह के
दुख का शिकार हो जाता था

साँस तक लेने में होने लगती थी तकलीफ

तब मुझे लगता कि इस देश में जिंदा रहने के लिए
मुझे भी एक दिन जानवर में बदल जाना होगा

मेरे सारे
प्रतिरोध
एक जगह धरे के धरे
रह जाएंगे

वह दिन आया और मैं भी जानवर की शक्ल में तब्दील हो गया
तब मेरे पास दुनिया भर की चीजें थीं
जिनके न होने से गांव घर से लेकर मुहल्ले भर में
अब तक मुझे नकारा समझा जाता था

जब वह दिन आया तब सब कुछ था मेरे पास
सिर्फ कविता नहीं थी ।

*** 
शब्द कहीं नहीं जाते



शब्द कहीं नहीं जाते
धान की तरह रहते ओखर में
तसली में डभकते चावल की तरह
रक्त में चले जाते कुछ देर
हमें ताकत देते 
दुःसमय के खिलाफ लड़ने को 
धमनियों में
रेंगते
 
और फिर वापिस चले आते
मौसम के रंग की तरह

और कविता कहां जाती है
सूखे खेत में बारिश के पानी की तरह
चूल्हे में लावन की तरह
शरबत में गुड़ और तरकारी में नमक की
तरह

कविता कभी-कभी जाती है परदेश
कमाने के लिए
और एक दिन मिट्टी के एक घर में
महीनों बाद अन्न की गंध
और मुरझाए चेहरे पर
हंसी की तरह लौटती है

*** 
दो हाथ मिलकर
एक हाथ एक दुनिया
नहीं है

एक हाथ एक दूसरे हाथ के साथ मिलकर दुनिया है
दुनिया अगर दो हाथ बन जाए
तो वह बहुत सुंदर
एक शब्द

और दो हाथ मिलकर अगर दुनिया बन जाएं

तो वही मुक्म्मल
एक कविता ।
***

 

नए साल में



हालांकि मां को लिखनी ही होगी चिट्ठी
बहनों को भेजना ही होगा राखी के दिन संदेश
पिता को तो प्रणाम भर कर लेने से काम चल
जाएगा

लेकिन बच्चों के लिए 
तुतलाते हुए कुछ शब्दों की होगी जरूरत
इस दुनिया में न रहे पितरों के लिए
मंत्रों के कुछ अंश बचा लेने होंगे

दोस्तों के लिए बचा कर रखना होगा
मिसरी-से कुछ मीठे बोल

बावजूद इनके
नए साल में बहुत कम शब्द खरचूंगा

रोजमर्रा की जरूरतों से
शब्द-शब्द बचाकर
बनाऊंगा
एक ऐसा देश
जिसके नाम पर रोना नहीं आएगा

नए साल में कविता नहीं
सचमुच का देश लिखूंगा ।

*** 
लौटना



लौट
आया हूँ मेरे दोस्त
घोसले
में लौटी चिडिया की तरह नहीं

मटमैले घर में किसान की तरह नहीं
न चींटियों की तरह सुरक्षित बिल में
लौट
आया हूँ जंगल में अंधेरे की तरह

खेत में सूखे की तरह
उस तरह कि एक पराजित योद्धा
लौटता है लहूलूहान अपने टैंट की ओर
कि
जैसे आँख में लौटता है पानी

पैर में झिनझिनी
सिर में असह्य दर्द लौटता है जैसे
लौट
आया हूँ जैसे पिता लौटता है

एक मृत शिशु को जमीन में गाड़कर निढाल
माँ लौटती है
बेटी को डोली में विदा कर रूआँसा
लौटता
है जैसे दिन

रात को अपनी कोख में छुपाए
लौट
आया हूँ संसार की विलुप्त होती

भाषाओं की तरह
जानवरों की तरह
आदिवासियों की तरह
अंततः
लौट आया हूँ
 मेरे दोस्त
कि अब कभी नहीं लौटूँगा ।
*** 
मौलिक



बाद
एक शब्द लिखने के सोचता हूँ कि इसे किसी ने पहले ही लिख दिया है

एक वाक्य लिखकर लगता है कि इसे तो पहले
और पहले कई लोगों ने लिख दिया है
एक
कविता लिखने के बाद खंगालता हूँ कविता की दुनिया

तो पता चलता है
कि यह कविता भी बहुत पहले लिखी जा चुकी है
मैं
लिखे हुए को

फिर-फिर लिख रहा हूँ
और जी रहा हूँ इस एक दुखद भ्रम में कि मैं लिखे हुए को ही दुहरा रहा
हूँ

कि घिस रहा हूँ शब्द, वाक्य
और इस तरह कविता को भी
इस
तरह बन रही हैं ढेर सारी पहले से ही लिखी जा चुकी कविताएँ

छप रही किताबें
लेकिन
यह सब होने पर भी

एक काम करता हूँ जरूर
और वह मौलिक है
नया है
उसमें दुहराव नहीं
कि
हर शब्द
, हर वाक्य, हर पदबंध

हर कविता के साथ
मैं अपना समय जड़ देता हूँ
जो मेरा अपना समय है
कि अपनी जमीन की थोड़ी-सी माटी भुरभुरा देता हूँ अदृश्य
जो मेरी अपनी माटी है

कि
इस तरह हर बार मैं मौलिक

और अलग हो उठता हूँ ।
***
लिखने
का स्वप्न
आजकल
लिखता नहीं कुछ

लिखने का स्वप्न देखता हूँ
यकीन
कीजिए

कुछ न लिखकर
लिखने का स्वप्न देखना
बहुत सम्मोहक
और बहुत खतरनाक होता है ।
***

 

ख़्वाब
में कविता

ख़्वाब में चांद चांद ही रहता है
पृथ्वी पृथ्वी ही रहती है
हवा बहती हवा की तरह
रात रहती रात की तरह ही

ख़्वाब में तुम नहीं रहते तुम
घर नहीं रहता घर
हमारे बीच की नदी नहीं रहती नदी

झर जाते स्मृतियों के गुलाब
टूटता भरभराकर हमारे बीच का पुल
नदी का वेग अंतहीन

ख़्वाब में हमारे शब्द
चनकते कांच की तरह
लय टूटता अपने उठान पर
सांस टूटने की तरह

और कविता साध लेती मौन
अंतहीन ।

***

उम्मीद



रात से पूछता हूं
कैसे सहती हो यह एकांत अपनी छाती पर अकेले

रात हंसती है
मेरी देह पर एक शब्द लिखकर
सुबह

***

 

महत्वाकांक्षा



चाहता हूँ
एक चिरइ की-सी 
महत्वाकांक्षा

वही लेकर जीना
वही लेकर मरना

बस वही

और
कुछ भी  नहीं

नहीं… नहीं ।
***
आत्महत्या
धरती दरक जाती   आसमान
सियाह धुंध में ढक जाता
दुनिया की सारी
अच्छी किताबें खाक में तब्दील हो जातीं
सूख जाते सब
महासागर
नदियों की कोख में
उड़ती धूल
संपूर्ण सृष्टि यह
मौन – अवाक्
और एक एक कर सारे
ईश्वर मर जाते ।
***
विमलेश त्रिपाठी
·
बक्सर, बिहार के
एक गांव हरनाथपुर में जन्म । प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही।
·
प्रेसिडेंसी कॉलेज
से स्नातकोत्तर, बीएड, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत।
·
देश की लगभग सभी
पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन।
·
कविता और कहानी का
अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद।
सम्मान       
·
भारतीय ज्ञानपीठ
का नवलेखन पुरस्कार
·
ठाकुर पूरण सिंह
स्मृति सूत्र सम्मान
·
भारतीय भाषा परिषद
युवा पुरस्कार
·
राजीव गांधी
एक्सिलेंट अवार्ड
पुस्तकें
·
हम बचे रहेंगे
कविता संग्रह, नयी किताब, दिल्ली
·
एक देश और मरे हुए
लोग,  
कविता
संग्रह, बोधि प्रकाशन
·
उजली मुस्कुराहटों
के बीच,
( प्रेम कविताएँ) ज्योतिपर्व प्रकाशन
·
अधूरे अंत की
शुरूआत,
कहानी संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ
·
कैनवास पर प्रेम, उपन्यास,
भारतीय ज्ञानपीठ
·
आमरा बेचे थाकबो (
कविताओं का बंग्ला अनुवाद), छोंआ प्रकाशन, कोलकाता
·
वी विल विद्स्टैंड
( कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद), अथरप्रेस, दिल्ली
·
2004-5 के वागर्थ
के नवलेखन अंक की कहानियां राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित।
·
देश के विभिन्न
शहरों  में कहानी एवं कविता पाठ
·
कोलकाता में
रहनवारी।
·
परमाणु ऊर्जा
विभाग के एक यूनिट में  कार्यरत।
·
संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ.,
विधान नगर, कोलकाता-64.
·
Email: starbhojpuribimlesh@gmail.com
·
Mobile: 09088751215

0 thoughts on “विमलेश त्रिपाठी – 15 कविताएँ”

  1. पता नहीं कितनी सदियाँ बीतीं
    और मेरा कवि उस दिन का इंतजार कर रहा है
    जब वे देश के ललाट पर चिपक जाएंगे
    एक सुंदर तिल की तरह

    वाह !
    "अहले सफा / मरदूदे-हरम / मसनद पे बिठाए जाएंगे".

    फैज़ साहब की याद दिला दी इन लाइन्स ने. सभी कवितायेँ ज़बरदस्त.

  2. कवि की राजनीतिक-सामाजिक-व्यक्तिगत चेतना पर यथार्थ दृष्टि एवं रोमानी भावबोध का गहरा प्रभाव पड़ता है। अगर रोमानी भावबोध के साथ यर्थाथ दृष्टि संकुचित होता है तो कवि व्यक्तित्व की सामाजिकता खो बैठता है। विमलेश की कविताओं में रोमानी बोध के साथ समय की भीषण वास्तव की विकृताकृति बिम्ब भी है जो वर्तमान व्यवस्था की अवस्था को उघाड़ कर रख देती है। दरअसल उनकी कविता वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के प्रतिपक्ष की कविता बनती दिखालाई पड़ती है। यद्यपि इस कोशिश में यह भूल जाते हैं कि आदर्श और सर्वसंपन्न जिस सामाजिक जीवन की वे कल्पना करते हैं उसकी स्थापना के लिए सामाजिक परिवेश को बदलना आवश्यक है। ये वैयक्तिक दृष्टि से प्रशंसनीय है लेकिन इससे पूरा समाज बदल जायेगा, यह मानना कोरी कल्पना को सच कहने के बराबर है। विमलेश कविता को प्रतिरोध का हथियार मानते है। कविता से असंभव उम्मीदों के कारण कवि के अन्दर एक ट्रैजिक हताशा,अकुलाहट और जिजीविषा भी है, इसलिए वे बार बार अपने निजत्व की छील छाल कर मुक्ति पाने की कोशिश करता है। विमलेश इसके लिए फैण्टेसी में नहीं जाते पर फैंटेसी जैसा कुछ इमेज तैयार कर लेते है। इन कविताओं में कवि असहाय आदमी है और अपनी कविता को एक मुक्कमल हथियार के तौर सार्थक करने की कोशिश करता है। कुछ बहुत अच्छी कविताएं और कुछ कविताओं में दुहराव की गुँज है पर बोर नहीं करती है। मैं क्या कहूँ आप स्वयं पढ़ें।

  3. अच्छी कविताएं…एक हाथ एक दुनिया नहीं है
    एक हाथ एक दूसरे हाथ के साथ मिलकर दुनिया है
    दुनिया अगर दो हाथ बन जाए
    तो वह बहुत सुंदर एक शब्द

    और दो हाथ मिलकर अगर दुनिया बन जाएं
    तो वही मुक्म्मल एक कविता ।…विमल जी शुभकामनायें आपको

  4. अच्छी कविताएं ..कवि का अकेलापन और अंतहीन दुःख वाजिव सा दिख रहा है ..कहीं यात्रा न करते हुए भी कितने ही पड़ावों से गुजरना, साफ मन को बार बार मांजना और रुई से भी हलके मगर भारी भरकम शब्दों को कविता का रूप देना सार्थक बन पड़ा है ..विमल जी शुभकामनायें आपको |

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