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घर में अकेले
इस घर में अकेले रहता हूं तो घूम आता
गांव के पुराने घर के आंगन में कई बार
पेंसिल से लिखी दीवारों पर वर्णमालाएं
अपने नाम के पहले अक्षर
गोटी खेलने वाली वो जगहें
खोजता छूता बेतरह
चला जाता उन सखियों के गांव जो बहुत
दूर बियाही गईं
उन दोस्तों के घर
जो चले गए सूरत दिल्ली अरब रोटी की
जुगाड़ में
उस बूढ़े गवैये के घर
जो गाता था तो हिलता था पूरा गांव वीणा
के तार-सा
घर में अकेले रहता तो कभी नहीं जाता
हावड़ा ब्रीज पर
विक्टोरिया या नंदन नहीं जाता
कार्यालय तो भूल कर भी नहीं
जाता हूं कुछ देर बैठने उस नदी किनारे
जिसमें बहुत कम रह गया है पानी
उस बगीचे में जहां बहुत कम रह गए हैं
पेड़
उस चौपाल पर
जहां अब मेहिनी नहीं होती पूरवी की तान
नहीं लहराती
जाता हूं बार-बार लौटकर
जहां अपना बचपन छोड़ आया था एक दिन
बार-बार जाता हूं
उसे ही तलाशता हंकासा-पियासा
और लौट आता हूं बार-बार निराश
इस घर में अकेला
जिसे मेरा ही घर कहते हैं लोग-बाग ।
पर रहते लोग
वे आत्महत्या नहीं करते
जोर-जोर
बिल्लियों को अपना दोस्त बनाते हैं
बीच जीते हैं
गालियाँ नहीं देते
खतरा नहीं होते
लोगों का समुद्रशास्त्र बताता है
नक्शे पर
मस्से की तरह हैं
के साथ
लिए शुभ नहीं है
सदियाँ बीतीं
दिन का इंतजार कर रहा है
पर चिपक जाएंगे
तरह
तो पता नहीं
और कविता की भाषा में एक दिन
साजिशों की अंधेरी परतों में छुपे बैठे हैं
कविता और जनता की भाषा समझ नहीं आती
आदेश देने वाले वे लोग
जिनके काली हँसी तैरती है
की भाषा में बेनकाब वे बहरूपिए
हैं आत्महत्या की रस्सियाँ
बनाने की हजारों फैक्टरियाँ
जिनकी दुकानें
नाम पर फल-फूल रही हैं
में झूठ उगलते
दनदनाते
ईमानदारी की उल्टियाँ करते
जिनकी आत्मा की शर्मो हया
में गिरवी है
कविता के गिलोटीन पर चढ़ा दें
सजा नहीं।
वह
वह कविता में अभिनय करता
करता प्यार में अभिनय
उसने चेहरे पर लगा रखे हैं
कई तरह के मुखौटे
वही समय का सबसे बड़ा प्रेमी
वही समय का सबसे बड़ा कवि ।
***
वह दिन
बहुत तेजी से खूँखार जानवर में बदलते जा रहे थे
मैं चाहता था सिर्फ आदमी बने
रहना
लेकिन मुश्किल यह
कि आदमी बनकर मैं
दुख का शिकार हो जाता था
साँस तक लेने में होने लगती थी तकलीफ
तब मुझे लगता कि इस देश में जिंदा रहने के लिए
मुझे भी एक दिन जानवर में बदल जाना होगा
प्रतिरोध
रह जाएंगे
वह दिन आया और मैं भी जानवर की शक्ल में तब्दील हो गया
तब मेरे पास दुनिया भर की चीजें थीं
जिनके न होने से गांव घर से लेकर मुहल्ले भर में
अब तक मुझे नकारा समझा जाता था
जब वह दिन आया तब सब कुछ था मेरे पास
सिर्फ कविता नहीं थी ।
धान की तरह रहते ओखर में
तसली में डभकते चावल की तरह
रक्त में चले जाते कुछ देर
हमें ताकत देते
दुःसमय के खिलाफ लड़ने को
धमनियों में
रेंगते
और फिर वापिस चले आते
मौसम के रंग की तरह
और कविता कहां जाती है
सूखे खेत में बारिश के पानी की तरह
चूल्हे में लावन की तरह
शरबत में गुड़ और तरकारी में नमक की
तरह
कविता कभी-कभी जाती है परदेश
कमाने के लिए
और एक दिन मिट्टी के एक घर में
महीनों बाद अन्न की गंध
और मुरझाए चेहरे पर
हंसी की तरह लौटती है
नहीं है
एक हाथ एक दूसरे हाथ के साथ मिलकर दुनिया है
दुनिया अगर दो हाथ बन जाए
एक शब्द
और दो हाथ मिलकर अगर दुनिया बन जाएं
एक कविता ।
बहनों को भेजना ही होगा राखी के दिन संदेश
पिता को तो प्रणाम भर कर लेने से काम चल
जाएगा
लेकिन बच्चों के लिए
तुतलाते हुए कुछ शब्दों की होगी जरूरत
इस दुनिया में न रहे पितरों के लिए
मंत्रों के कुछ अंश बचा लेने होंगे
दोस्तों के लिए बचा कर रखना होगा
मिसरी-से कुछ मीठे बोल
बावजूद इनके
नए साल में बहुत कम शब्द खरचूंगा
रोजमर्रा की जरूरतों से
शब्द-शब्द बचाकर
बनाऊंगा
एक ऐसा देश
जिसके नाम पर रोना नहीं आएगा
नए साल में कविता नहीं
सचमुच का देश लिखूंगा ।
आया हूँ मेरे दोस्त
में लौटी चिडिया की तरह नहीं
मटमैले घर में किसान की तरह नहीं
न चींटियों की तरह सुरक्षित बिल में
आया हूँ जंगल में अंधेरे की तरह
खेत में सूखे की तरह
उस तरह कि एक पराजित योद्धा
लौटता है लहूलूहान अपने टैंट की ओर
जैसे आँख में लौटता है पानी
पैर में झिनझिनी
सिर में असह्य दर्द लौटता है जैसे
आया हूँ जैसे पिता लौटता है
एक मृत शिशु को जमीन में गाड़कर निढाल
माँ लौटती है
बेटी को डोली में विदा कर रूआँसा
है जैसे दिन
रात को अपनी कोख में छुपाए
आया हूँ संसार की विलुप्त होती
भाषाओं की तरह
जानवरों की तरह
आदिवासियों की तरह
लौट आया हूँ मेरे दोस्त
कि अब कभी नहीं लौटूँगा ।
एक शब्द लिखने के सोचता हूँ कि इसे किसी ने पहले ही लिख दिया है
एक वाक्य लिखकर लगता है कि इसे तो पहले
और पहले कई लोगों ने लिख दिया है
कविता लिखने के बाद खंगालता हूँ कविता की दुनिया
तो पता चलता है
कि यह कविता भी बहुत पहले लिखी जा चुकी है
लिखे हुए को
फिर-फिर लिख रहा हूँ
और जी रहा हूँ इस एक दुखद भ्रम में कि मैं लिखे हुए को ही दुहरा रहा
हूँ
कि घिस रहा हूँ शब्द, वाक्य
और इस तरह कविता को भी
तरह बन रही हैं ढेर सारी पहले से ही लिखी जा चुकी कविताएँ
छप रही किताबें
यह सब होने पर भी
एक काम करता हूँ जरूर
और वह मौलिक है
नया है
उसमें दुहराव नहीं
हर शब्द, हर वाक्य, हर पदबंध
हर कविता के साथ
मैं अपना समय जड़ देता हूँ
जो मेरा अपना समय है
कि अपनी जमीन की थोड़ी-सी माटी भुरभुरा देता हूँ अदृश्य
जो मेरी अपनी माटी है
इस तरह हर बार मैं मौलिक
और अलग हो उठता हूँ ।
का स्वप्न
लिखता नहीं कुछ
लिखने का स्वप्न देखता हूँ
कीजिए
कुछ न लिखकर
लिखने का स्वप्न देखना
बहुत सम्मोहक
और बहुत खतरनाक होता है ।
में कविता
ख़्वाब में चांद चांद ही रहता है
पृथ्वी पृथ्वी ही रहती है
हवा बहती हवा की तरह
रात रहती रात की तरह ही
ख़्वाब में तुम नहीं रहते तुम
घर नहीं रहता घर
हमारे बीच की नदी नहीं रहती नदी
झर जाते स्मृतियों के गुलाब
टूटता भरभराकर हमारे बीच का पुल
नदी का वेग अंतहीन
ख़्वाब में हमारे शब्द
चनकते कांच की तरह
लय टूटता अपने उठान पर
सांस टूटने की तरह
और कविता साध लेती मौन
अंतहीन ।
***
कैसे सहती हो यह एकांत अपनी छाती पर अकेले
रात हंसती है
मेरी देह पर एक शब्द लिखकर
‘सुबह‘ ।
एक चिरइ की-सी
महत्वाकांक्षा
वही लेकर जीना
वही लेकर मरना
बस वही
और
कुछ भी नहीं
सियाह धुंध में ढक जाता
अच्छी किताबें खाक में तब्दील हो जातीं
महासागर
उड़ती धूल
मौन – अवाक्
ईश्वर मर जाते ।
बक्सर, बिहार के
एक गांव हरनाथपुर में जन्म । प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही।
प्रेसिडेंसी कॉलेज
से स्नातकोत्तर, बीएड, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत।
देश की लगभग सभी
पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन।
कविता और कहानी का
अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद।
भारतीय ज्ञानपीठ
का नवलेखन पुरस्कार
ठाकुर पूरण सिंह
स्मृति सूत्र सम्मान
भारतीय भाषा परिषद
युवा पुरस्कार
राजीव गांधी
एक्सिलेंट अवार्ड
हम बचे रहेंगे
कविता संग्रह, नयी किताब, दिल्ली
एक देश और मरे हुए
लोग, कविता
संग्रह, बोधि प्रकाशन
उजली मुस्कुराहटों
के बीच, ( प्रेम कविताएँ) ज्योतिपर्व प्रकाशन
अधूरे अंत की
शुरूआत, कहानी संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ
कैनवास पर प्रेम, उपन्यास,
भारतीय ज्ञानपीठ
आमरा बेचे थाकबो (
कविताओं का बंग्ला अनुवाद), छोंआ प्रकाशन, कोलकाता
वी विल विद्स्टैंड
( कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद), अथरप्रेस, दिल्ली
2004-5 के वागर्थ
के नवलेखन अंक की कहानियां राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित।
देश के विभिन्न
शहरों में कहानी एवं कविता पाठ
कोलकाता में
रहनवारी।
परमाणु ऊर्जा
विभाग के एक यूनिट में कार्यरत।
संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
विधान नगर, कोलकाता-64.
Email: starbhojpuribimlesh@gmail.com
Mobile: 09088751215
पता नहीं कितनी सदियाँ बीतीं
और मेरा कवि उस दिन का इंतजार कर रहा है
जब वे देश के ललाट पर चिपक जाएंगे
एक सुंदर तिल की तरह
वाह !
"अहले सफा / मरदूदे-हरम / मसनद पे बिठाए जाएंगे".
फैज़ साहब की याद दिला दी इन लाइन्स ने. सभी कवितायेँ ज़बरदस्त.
कवि की राजनीतिक-सामाजिक-व्यक्तिगत चेतना पर यथार्थ दृष्टि एवं रोमानी भावबोध का गहरा प्रभाव पड़ता है। अगर रोमानी भावबोध के साथ यर्थाथ दृष्टि संकुचित होता है तो कवि व्यक्तित्व की सामाजिकता खो बैठता है। विमलेश की कविताओं में रोमानी बोध के साथ समय की भीषण वास्तव की विकृताकृति बिम्ब भी है जो वर्तमान व्यवस्था की अवस्था को उघाड़ कर रख देती है। दरअसल उनकी कविता वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के प्रतिपक्ष की कविता बनती दिखालाई पड़ती है। यद्यपि इस कोशिश में यह भूल जाते हैं कि आदर्श और सर्वसंपन्न जिस सामाजिक जीवन की वे कल्पना करते हैं उसकी स्थापना के लिए सामाजिक परिवेश को बदलना आवश्यक है। ये वैयक्तिक दृष्टि से प्रशंसनीय है लेकिन इससे पूरा समाज बदल जायेगा, यह मानना कोरी कल्पना को सच कहने के बराबर है। विमलेश कविता को प्रतिरोध का हथियार मानते है। कविता से असंभव उम्मीदों के कारण कवि के अन्दर एक ट्रैजिक हताशा,अकुलाहट और जिजीविषा भी है, इसलिए वे बार बार अपने निजत्व की छील छाल कर मुक्ति पाने की कोशिश करता है। विमलेश इसके लिए फैण्टेसी में नहीं जाते पर फैंटेसी जैसा कुछ इमेज तैयार कर लेते है। इन कविताओं में कवि असहाय आदमी है और अपनी कविता को एक मुक्कमल हथियार के तौर सार्थक करने की कोशिश करता है। कुछ बहुत अच्छी कविताएं और कुछ कविताओं में दुहराव की गुँज है पर बोर नहीं करती है। मैं क्या कहूँ आप स्वयं पढ़ें।
शुक्रिया नील भाई।
अच्छी कविताएं…एक हाथ एक दुनिया नहीं है
एक हाथ एक दूसरे हाथ के साथ मिलकर दुनिया है
दुनिया अगर दो हाथ बन जाए
तो वह बहुत सुंदर एक शब्द
और दो हाथ मिलकर अगर दुनिया बन जाएं
तो वही मुक्म्मल एक कविता ।…विमल जी शुभकामनायें आपको
अच्छी कविताएं ..कवि का अकेलापन और अंतहीन दुःख वाजिव सा दिख रहा है ..कहीं यात्रा न करते हुए भी कितने ही पड़ावों से गुजरना, साफ मन को बार बार मांजना और रुई से भी हलके मगर भारी भरकम शब्दों को कविता का रूप देना सार्थक बन पड़ा है ..विमल जी शुभकामनायें आपको |
बहुत सुन्दर कविताएँ
बहुत शुक्रिया मनोज।
आपका बहुत आभार मंजूषा जी और ओंकार जी।
बेहतरीन कविताएं..!