(वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह और सुपरिचित कवि महेश पुुनेठा की यह महत्वपूर्ण बातचीत चार खंडों में अनुनाद पर आएगी। अनुनाद इस सहयोग के लिए महेश पुनेठा का आभारी है।)
डॉ0 जीवन सिंह हिंदी के
प्रतिष्ठित,प्रतिबद्ध और ईमानदार आलोचक हैं। अलवर राजस्थान
में रहते हैं। अब तक आलोचना की तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। पहली किताब ‘कविता की लोक प्रकृति’ नाम से प्रकाशित हुयी। दूसरी
किताब ‘कविता और कवि कर्म’ बहुत चर्चित
रही। तीसरी किताब ‘शब्द और संस्कृति’ में
भक्तिकालीन कवियों के अलावा साहित्य और संस्कृति पर बहुत जरूरी आलेख संकलित किए गए
हैं। लोकधर्मी कविता के लिए जाने-जानी वाली पत्रिका ‘कृति ओर’
में वह निरंतर लिखते रहे। अलीबख्शी ख्याल और मेवाती लोक संस्कृति पर
गहरी पैठ रखते हैं। अपने गांव जुरहरा (भरतपुर) की रामलीला में पिछले पैंतालीस
वर्षों से जुड़ाव और रावण का अभिनय करते रहे हैं। राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर
के सर्वोच्च ‘मीरा पुरस्कार’ से
पुरस्कृत और ब्रजभाषा अकादमी से सम्मानित। 1968 से 2004 तक राजस्थान के विभिन्न राजकीय कॉलेजों में अध्यापन करते रहे। प्रस्तुत
है उनसे फेसबुक के माध्यम से हुई लंबी बातचीत के कुछ अंश
-महेश पुनेठा
महेश
चंद्र पुनेठा- आज लोक और लोकधर्मिता को लेकर हिंदी कविता और आलोचना में खूब कहा जा
रहा है। खंडन और मंडल दोनों ही पुरजोर तरीके से हो रहा है। सबकी अपनी-अपनी
व्याख्याएं हैं। यह बात शायद आप भी स्वीकार करेंगे कि लोक और लोकधर्मिता को बहस के
केंद्र में लाने का श्रेय विजेंद्र जी को जाता है,जिसे आपने आगे बढाने का काम किया है।
आपकी तीनों पुस्तकें-कविता की लोक प्रकृति,कविता और कवि कर्म
तथा शब्द और संस्कृति इसका प्रमाण हैं। आपकी और विजेंद्र जी की लोक की अवधारणाओं
में मुझे कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई देता है, लेकिन पिछले
दिनों आपने लोक की परिभाषा को लेकर विजेंद्र जी से अपने मतभेद की बात कही है। क्या
आप उन मतभेदों के बारे में विस्तार से बता
पायेंगे?
जीवन
सिंह- दो व्यक्तियों की बातों में समानता के बिन्दु होते हुए भी जरूरी नहीं कि हरेक
बिन्दु पर समानता और एकता रहे। प्रारंभ में जब एक व्यक्ति कुछ सीखता है तो वह
दूसरों से यानी अपने बड़ों से प्रभावित होकर अपना रास्ता निश्चित करता है। मैं
आपातकाल की अवधि में बूँदी में था। 1980 में तबादला कराकर अपने जिले के पास गंगापुर
सिटी आ गया। यहाँ से मेरे गाँव का रास्ता भरतपुर होकर था। भरतपुर में मैंने 1960से1963 तक रहकर स्कूली शिक्षा हासिल की थी। इस वजह
से भरतपुर से लगाव था और वह मेरा जिला भी है। विजेन्द्र जी की कविता की आधारभूमि
यही अंचल रहा है। इस वजह से हम एक दूसरे के समीप आए। वैसे भी कविता में ब्रजभाषा
की देशज शब्दावली और परिवेश ने उनकी कविता के प्रति मेरे मन में आकर्षण पैदा किया।
वैसे बूँ्दी में रहते हुए मैं अपने कई साथियों के साथ विचार सभाओं में अक्सर कोटा
जाया करता था,जहाँ आपातकाल के विरोध में मेरे मन में समाजवादी
विकल्प की एक जमीन तैयार हुई, इसमें मथुरा के कामरेड
सव्यसाची के व्याख्यानों की एक बड़ी भूमिका है। वे मथुरा के एक कालेज में पढाते थे
किन्तु आचरण में इतनी सादगी, सच्चाई ,लोकतांत्रिकता
और सहयोग की भावना थी कि उनके विचारों का असर हुए बिना नहीं रहता था। यह एक जमीन
थी जिस पर हम मिलकर आगे चले थे। विजेन्द्र जी के बारे में जहाँ तक मुझे मालूम है
कि पहले वे भी लोहिया के समाजवाद से प्रभावित रहे। व्यक्ति एक दिन में नहीं बनता,
कितने प्रभाव, सम्पर्क, अभिरुचि,संस्कार, अनुभव, अध्ययन आदि
होते हैं, जो व्यक्ति को छीलते, छाँटते
रहते हैं। जो कदली कभी कटता नहीं, वह फल देना बंद कर देता
है। बहरहाल, विजेन्द्र जी से लगातार सम्पर्क सघन होता गया।
इसी में से निकला लोकधर्म और समाजवाद। मैं पहले से ही तुलसी की कविता के सबसे
ज्यादा नजदीक था। इस सम्पर्क ने उसको मजबूत किया। वैसे अपने परिवेश, परिवार व संस्कारों की वजह से मेरी रुचि नई कविता में इसलिए नहीं थी कि
उसमें छंद नहीं था। जबकि ब्रज कविता छंदमय थी। विजेन्द्र जी उस समय भरतपुर से ‘ओर’ नाम से पत्रिका निकालते थे। बाद में यही ‘कृति ओर’ हुई। इस सम्पर्क और सत्संग का लाभ यह हुआ
कि मेरी नई मुक्त छंद कविता में रुचि पैदा हुई। अब हमारी समान रुचि और जीवन दृष्टि
होने से हम आपस में समीप होते चले गए। जब भी अवसर मिलता मैं भरतपुर चला जाता।
दोनों दिनभर घना अभयारण्य में घूमते। पक्षी विहार का बहुत नजदीक से नजारा देखते।
कविता पर बतियाते। विजेन्द्र जी की अक्सर सलाह होती कि गद्य लिखो। पत्रिकाओं के
नाम बतलाते कि इसमें भेजो। इसी यात्रा में उस समय के मध्यप्रदेश के दुर्ग से
महावीर अग्रवाल के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका में मेरा लेख ‘कविता की लोकप्रकृति’प्रकाशित हुआ। इस तरह से एक
दिशा बनती गई। इस दृष्टि से विजेन्द्र जी के कविता संग्रहों पर लिखा और त्रिलोचन,केदार, नागार्जुन,कुमारेन्द्र,कुमार विकल आदि की कविता पर भी। इसका कारण था कि इनकी कविताओं में लोक को
एक आधारभूमि की तरह रखा गया था। मुक्तिबोध भी इस बीच मेरे मन में बसने लगे थे।
यद्यपि उनको समझ पाना आसान नहीं था। सच तो यह है कि जिसकी मार्क्सवादी दृष्टि
कमजोर है या यांत्रिक है वह मुक्तिबोध को कम ही पसंद करता है। मुक्तिबोध को
रामविलास जी तक नहीं समझ पाए। विजेन्द्र जी ने भी मुक्तिबोध का उल्लेख तो हमेशा
किया किन्तु उनकी कविता का खुला समर्थन कभी नहीं किया। इसकी एक बड़ी वजह हमारा लोक
के खूँटे से बँध जाना भी था। मैं आज मानता हूँ कि इससे एक अजीब तरह का दृष्टिसंकोच
पैदा हुआ। इसके बाद 2011 में मैं जब अपने सुपुत्र के साथ
आस्ट्रेलिया के सिडनी नगर में रहने के लिए गया तो मुक्तिबोध का सारा साहित्य अपने
साथ पढ़ने को ले गया। वहाँ समय ही समय था। अपने पौत्र को लगभग पन्द्रह किलोमीटर दूर
मिरांडा नाम के उपनगर के एक प्ले स्कूल में उसे छोड़ने जाता ,तब
वहाँ चार घण्टे ठहरने का समय मिलता। वहाँ पास में ही एक लाइब्रेरी थी, जिसमें जितनी देर चाहो बैठकर पढो, मैं चार घंटे वहीं
बैठता। पौत्र को वापस जो लाना होता था। रेल से आते जाते। यहीं मुक्तिबोध को बार
बार पढ़ा। या फिर आस्ट्रेलिया के आदिवासियों के बारे में या उसके इतिहास के बारे
में। मुक्तिबोध की खूबी मैनें देखी कि वे दृष्टि विस्तार करते हैं और सभी तरह की
संकीर्णताओं और रुढ़िवादिता का पता बतलाते हैं। इसी से मुझे लगा कि यह कवि
सीधे-सीधे जनपक्षधर और बेहद ईमानदार होते हुए भी हमारे लोक परिसर में अपनी
सुनिश्चित जगह नहीं बना पाता। हमारी लोकदृष्टि में ही कहीं खोट है। इसी से मेरे
सोच की भिन्नता शुरु हुई। हाँ,दो साल हुए, केदारनाथ सिंह दिल्ली से यहाँ अलवर एक कार्यक्रम में अलवर आए, इससे पहले भी वे जौकहरा में एक कार्यक्रम में बहुत गर्मजोशी से मुझसे मिल
चुके थे, जबकि मैंने उनकी कविता पर बहुत आक्रामक तरीके से
लिखा था। लेकिन उनके माथे पर इस बात की एक भी शिकन नहीं। बेहद लोकतांत्रिक और
निर्दम्भ व्यक्तित्व। अपने भोजपुर से अगाध लगाव। उनके इस पक्ष को लेकर उनके अलवर
आगमन पर एक कविता लिखी, जो फेसबुक पर डाल देने से पकड़ में आ
गई। इसे मेरा विचलन कहा गया और इस बारे में अमीरचंद वैश्य के सम्पादन में ‘कृति ओर’ में सव्याख्या छापा गया जिसमें 1980 में विजेन्द्र जी को लिखे मेरे एक पत्र का हवाला दिया गया और यह सिद्ध
किया गया कि मेरा यह विचलन है। जबकि बहुत सी बातें ऐसी होती हैं, जिनको हम अपने विचारों की विकास प्रक्रिया में पुराने को छोड़ते हैं और
बहुत सी नयी बातें जोड़ते हैं बशर्ते कि उनमें कुछ पाने के उद्देश्य वाला अवसरवाद न
हो।
हाँ इस बीच केदारनाथ सिंह का नया संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’
आया जिसकी कविताओं में मुझे पहले से अलग रंग दिखाई दिया, इसका उल्लेख भी मैंने एकाध जगह किया। कहने का तात्पर्य यह है कि लोकबद्धता
में यदि हम संकुचित होते जाते हैं तो अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारते हैं। पुराना
समय अब बहुत बदल चुका है। यथार्थ भी आज पहले से बहुत बदला हुआ है।
महेश
चंद्र पुनेठा- विजेंद्र जी तो लोक को सर्वहारा का पर्याय मानते रहे हैं। अभिजात्य
और शास्त्र का विपरीतार्थी कहते हैं। उनके लिए तो लोक का मतलब वह वर्ग है, जो शारीरिक श्रम से
जुडा है। वह शहर या गांव कहीं भी रह सकता है। तब ऐसे लोक की बात करना आपको खूँटे
से बँध जाना क्यों प्रतीत होता है?
जीवन
सिंह- इसकी वजह जिस तरह के सर्वहारा की बात मार्क्स ने की,उस तरह का सर्वहारा
हमारे यहाँ नहीं रहा। सर्वहारा का मतलब सिर्फ गरीब और श्रम से जुड़ा होना ही नहीं
है,यह उस संगठित श्रम विवेक का नाम है जो पुरानी व्यवस्था को
बदलता है। हमारे यहाँ जो भी व्यक्ति है वह सबसे पहले एक जातिगत इकाई है। हमारे देश
जो खेती करता है,वह स्वयं को एक किसान से पहले ब्राह्मण,ठाकुर,बनिया,जाट,गूजर,अहीर,मीणा,लुहार,कुम्हार इत्यादि मानता है। इस वजह से हमेशा
उसकी जातिगत अहमन्यता या बेचारगी कभी कम नहीं होती। दलितों और स्त्रियों के सवाल
अलग है। वैसे सारी स्त्रियाँ पितृसत्ता से पीड़ित हैं, किन्तु
उनकी जातिगत अहमन्यता कभी एक स्त्री लोक में संगठित नहीं होने देती। एक ब्राह्मण
स्त्री और शूद्र स्त्री हमारे यहाँ कभी एक नहीं हो सकती क्योंकि स्त्री होने से
पहले वे एक जाति हैं। हमारे यहाँ की अस्मिताओं में श्रम आधारित संगठित सामूहिक
अस्मिताएं कहाँ रही हैं। हमारे देश में जाति एक बड़ा और क्रूर विभाजनकारी सामंती कारक
ऐसा है, एक सामान्य मजदूर को भी जाति की अस्मिता से अलग नहीं
होने देता। हमारे यहाँ मजदूर संगठनों की राजनीतिक चेतना हमेशा सामाजिक अस्मिता की
भेंट चढ़ जाती है। यदि ऐसा होता तो आज विधान सभाओं और संसद में किसान और मजदूरों के
प्रतिनिधि होते,न कि जातियों के। इसलिए वह लोक कहाँ है जिसे
हम सर्वहारा कहते या मानते हैं। यह कविता लिखने के लिए तो ठीक है यथार्थ में सब
कुछ उल्टा- पुल्टा है। कवि दरअसल यदि सचाई को नहीं जान रहा है तो सारी बात हवा में
कर रहा है। जबकि कवि का उद्देश्य सचाई को प्रकट करना भी है। तभी उस सौन्दर्य की रचना
संभव है, जो युगान्तरकारी होता है। साहित्य सृजन में रचना का
आधार हमारे जीवनानुभव होते हैं, वे जितने बुनियादी हों सचाई
तभी उजागर हो पाती है। इसीलिए हमारे यहाँ सर्वहारा के अलावा वह मध्यवर्ग ज्यादा
महत्व का है जो सचाई को ज्यादा जानता है और उसको जानने में मदद करता है। लोक और
सर्वहारा की एक किताबी धारणा तो ठीक है,लेकिन सर्जना तो
वास्तविकता और व्यावहारिकता यानी जीवनानुभवों से होती है। कदाचित,यही वजह रही मुक्तिबोध ने श्रमिकों को ध्यान में रखते हुए भी मध्यवर्ग की
भूमिका को अपनी आँखों से कभी ओझल नहीं होने दिया। उसकी दोनों तरह की भूमिकाओं को
खुली आँखों से देखा। इसलिए इस सवाल को बहुत सरलीकृत करके नहीं समझा जा सकता।
आभिजात्य और शास्त्र के विभाजन में भी हमारे यहाँ हर ब्राह्मण, राजपूत कृषक कर्म या मजदूरी करने के बावजूद अपने उस लोक समूह के साथ
संगठित नहीं होता, जो शूद्र बताई गई जातियों से आता है। यह
खुली वास्तविकता है जिसे न चाहते हुए भी लोग जीते हैं। इसको दूर करने में सर्वहारा
या लोक के सहयोगी सचेतन,संघर्षशील और डिक्लास करने वाले
मध्यवर्ग के योगदान को नकारा नहीं जा सकता ,जो अपने आभिजात्य
के साथ लोक की बातों को पसंद करता है।
लोक इस वजह से हमारे यहाँ वैसी संज्ञा
व्यावहारिकता में नहीं है। वह कविता और आलोचना के लिए वास्तविक आधारभूमि कम, सैद्धांतिक आधारभूमि
ज्यादा सुलभ कराती है। कई बार तो आभिजात्य,शास्त्र और लोक सब
हमारे यहाँ गड्डमड्ड हो जाता है। शायद, इसीलिए कबीर ने अपने
जमाने में उस लोक का विरोध किया जो वेद के साथ भागता था। इस सचाई को समझकर
उन्होंने लोक और वेद दोनों का रास्ता छोड़कर अपना तीसरा रास्ता बनाया था। कबीर उस
लोक का विरोध करते हैं जो आभिजात्यवादी है। वे कहते हैं-‘पाछे
भागा जाय था, लोक वेद के साथ। आगे थें सद् गुरु मिला,
दीपक दीया हाथ।’ जबकि तुलसी लोक और वेद दोनों
को एक साथ जरूरी मानते हैं। क्या यह सच नहीं है कि आज का हमारा समाज कबीर की
अपेक्षा तुलसी के विचारों से ज्यादा प्रभावित है।
यदि हम इस जटिलता की उपेक्षा कर सिर्फ लोक की
तोता रटन्त करते हैं तो वह खूँटे से बँध जाना नहीं है। फिर उस मध्यवर्गीय सचाई का
क्या करोगे, जिसको जाहिर करने में मुक्तिबोध ने अपनी पूरी ऊर्जा और जीवन लगा दिया। हम
भी अब लोक का हिस्सा कहाँ रहे हैं। क्या यह सचाई नहीं है कि जिन्दगी में कहीं न
कहीं हम भी तो आभिजात्य का हिस्सा हैं।
महेश
चंद्र पुनेठा- तब क्या यह माना जाय कि लोकधर्मी कविता या आलोचना जैसा वर्गीकरण अब
अप्रासंगिक हो गया है? क्या किसी नये शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए?
जीवन
सिंह- लोकधर्मी कविता या आलोचना हो सकती है और लोकदृष्टि से रचना और विश्लेषण दोनों
संभव है। पहले से भी होता रहा है किन्तु यह मोटे- मोटे अर्थ में ही सही है। रचना
तो अधिकांशतः मध्यवर्ग के लोग करते हैं, जिसमें उनके जीवन का अपना यथार्थ भी आता है।
सच तो यही है कि व्यापकता की दृष्टि से लोक का आधार ही मुख्य आधार बनता है। किन्तु
आज स्थितियां जितनी जटिल हैं, उनमें लोक की बहुत ऊपरी और
सतही समझ से काम नहीं चल सकता। श्रम के सौन्दर्य और प्रकृति सौन्दर्य को केन्द्र
में रखने से किसे गुरेज और एतराज हो सकता है और श्रम के शोषण उत्पीड़न के प्रतिरोध
से भी। हमारे यहाँ दलित और स्त्री विमर्श भी इसी वजह से चला कि इनका इनकी अपनी
स्थितियों से शोषण उत्पीड़न होता रहा है, किन्तु सवाल यह भी
है कि इसके प्रतिरोध में मध्यवर्ग क्यों तटस्थ ,उदासीन और
अवसरवादी हो जाता है। वह जिसे हम लोक कहते हैं, उसके साथ
नहीं रहना चाहता। उसका पक्ष लेने वाले भी उसके स्वामी की मुद्रा में क्यों रहते
हैं। हम जिस किसान मजदूर को लोक या सर्वहारा मानते हैं, वह
स्वयं आपस में इतना विभाजित क्यों है? इसलिए हमको लोक के साथ
साथ प्रगतिशीलता और जनवाद के लिए मध्यवर्ग द्वारा किये जाने वाले संघर्ष और उसकी
ज्ञानात्मक भूमिका को ध्यान में रखना होगा। वैसे चाहें तो हम प्रगतिशीलता और जनवाद
को कई दौरों में अलग-अलग करके देख सकते हैं। क्या यह सच नहीं है कि 1935-36 के बाद से हिंदी साहित्य में जिस तरह से प्रगतिशील-प्रगतिवादी दौर की
शुरुआत हुई, वही जीवन दृष्टि आज तक चली आ रही है। उसके दौर
जरूर बदले हैं। आज भी हम निराला से अपनी शुरुआत करते हैं और कई बार प्रमाण में
उनकी कविता को उद्धृत करते हैं। किसी भी तरह के बुनियादी बदलाव के लिए लम्बी
यात्रा तय करनी पड़ती है। इसीलिए हमारे यहाँ भक्तिकाल की कविता चार सौ सालों तक
चलती रही। रीतिकाल दो सौ साल तक चला। ऐसे ही पिछले अस्सी सालों से
प्रगतिशील-जनवादी कविता के दौर चल रहे हैं। नई कविता के काल में भी मुक्तिबोध ने
अपनी कविता को नया तो बनाया लेकिन प्रगतिशील दृष्टि का परित्याग नहीं किया। ऐसे ही
नागार्जुन,केदार, त्रिलोचन आदि ने
स्थानीयता को आधार बनाकर प्रगतिशील नजरिए के साथ रचना की। कई कवियों ने
लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए प्रगतिशील-जनवादी दृष्टि को अपनाया। केन्द्र में
प्रगतिशील-जनवादी दृष्टि ही रही, जिसे आज हम लोकदृष्टि भी कह
देते हैं।
लोकधर्मिता एक प्रतिमान तो हो सकता है। कविता को
परखने की पूरी कसौटी नहीं। आज का यथार्थ इतना बहुआयामी और जटिल है कि उसे केवल लोक
के प्रतिमान से परिभाषित नहीं किया जा सकता। यदि लोक से ही परिभाषित करना है, तो उसके आधार को बहुत
व्यापक बनाना होगा। मुख्य तो प्रगतिशीलता और जनवाद ही हैं जिनसे हम जटिल से जटिल
यथार्थ को समझ सकते हैं।
कविता का सम्बंध सम्पूर्ण जीवन से होता है। यदि
हम उसे एक निश्चित दायरे या सीमा में बाँध देंगे तो कविता का एक ही तरह का रूप
सामने आयगा। उसकी विविधता खत्म हो जायगी। मसलन कोई यदि केवल मध्यवर्ग के नकली और
अवसरवादी चरित्र पर ही व्यंग्य की कविता लिखता है तो लोक के प्रतिमान की दृष्टि से
उसे कहाँ रखेंगे। कोई लोक की बात किए बगैर यदि सामन्ती, पूँजीवादी,फासीवादी प्रवृत्तियों के प्रतिरोध में ही काव्यसृजन करता है तो उसे कहाँ
रखेंगे। एक और बात कि हमारी लोकधर्मी कविता और आलोचना दोनों में श्रम और पूँजी के
संघर्षपूर्ण और निरंतर अमूर्त होते संबंधों के बारे में बहुत कुछ नहीं आ पाता।
केवल श्रम सौन्दर्य या श्रमरत समाज की पीड़ाओं का उल्लेख और किताबों में लिखा जाने
वाला सैद्घांतिक सा प्रतिरोध। सच तो यह है कि हमारे यहाँ श्रम का जो जातिगत और
वर्णव्यवस्थावादी विभाजन है, उसकी तरफ ध्यान नहीं जाता। जबकि
कबीर, प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन के यहाँ उसकी शक्ल सूरत ज्यादा स्पष्ट, मूर्त
और साफ रूप में आती है। उनके यहाँ साफ दिखता है कि हमारे यहाँ श्रम का आर्थिक ही
नहीं ,सामाजिक शोषण उत्पीड़न होता रहा है। इसलिए हमारे यहाँ
का लोक बहुत विभाजित रहा है जो आज भी है।
हमारे यहाँ के गांव इस तरह के सामाजिक श्रम
विभाजन से शहरों की अपेक्षा ज्यादा पीडित रहे हैं इस सत्य को जानकर डॉ0 अम्बेडकर ने दलितों
का आह्वान किया था कि वे गाँवों को छोड़कर शहरों में जा बसें। क्या हमारी लोकधर्मी
कविता और आलोचना इस तरह के असुविधाजनक का सामना करती है? जैसा
कि मैंने पूर्व कहा कि इसी कारण से कबीर वेद के साथ साथ लोक का विरोध भी करते हैं ?क्या हम इस तरह के लोक का विरोध कर पाते हैं या हमेशा उसके सम्मोहन में
बने रहते हैं। हमारे यहाँ लोक के भी अपने गहरे अन्तर्विरोध रहे हैं जिनको अम्बेडकर
के जीवनानुभवों से जाना और समझा जा सकता है।
महेश
चंद्र पुनेठा- लोक में किस तरह के अन्तर्विरोध रहे हैं? थोडा विस्तार से
कहिये।
जीवन
सिंह- लोक के इस सामाजिक अन्तर्विरोध से आर्थिक-राजनीतिक अन्तर्विरोध पैदा होते
हैं।मेहतर के काम का मेहनताना भी उतना ही कम होता है जितनी उसकी सामाजिक हैसियत
होती है। इसी सामाजिक बुनियाद पर देश का लोकतंत्र ,जातितंत्र में बदल चुका है। पिछले दिनों
प्रो0 तुलसी राम की आत्मकथा के दो भागों-मुर्दहिया और
मणिकर्णिका को पढ़ने से मालूम हो जायगा कि हमारे उस समाज की वास्तविकता क्या है
जिसे हम लोक कहते हैं। अब आप खुद देख लीजिए कि लोक के नाम से जानी जाने वाली कविता
में इस तरह के अन्तर्विरोधों को कितना लाया गया है। जब लोक आदर्श बन जाता है तो
उसके अन्तर्विरोधों को देखने वाला कहाँ से आयगा। हमने तो लोक को सर्वहारा का दर्जा
दे रखा है।यह कौन देखे कि इस लोक की वास्तविकता क्या है? मार्क्स
ने दुनिया के मजदूरों को एक होने का नारा दिया लेकिन किसने जाँचने की कोशिश की
सामाजिक अन्तर्विरोधों के चलते देश दुनिया की बात तो दूर,हमारे
एक छोटे से गांव का मजदूर ही एक नहीं है। वह जाति-बिरादरी के ऊँच नीच के सोपानों
में विभाजित है। जहाँ तक कविता का सवाल है अभी तक उसको जाँचने की कोई वस्तुगत
कसौटी नहीं बनी है। सब कुछ बहुत मोटे ढंग से देखा,परखा और
समझा जाता है। कुछ सूत्र बना लिए जाते हैं सिर्फ उनसे कविता का मूल्यांकन कर लिया
जाता है। इसमें पाठक के अपने सोच, संस्कार, अनुभव,अभिरुचियाँ, अध्ययन और
समझ काम करती है। इसीलिए हर युग में कविता का एक ढर्रा सा बन जाता है। उस ढर्रे से
यदि कोई थोड़ा भी बाहर निकलने या दिखने की कोशिश करता है तो ढर्रेवादी लोग मैदान
में कूद पड़ते हैं। मसलन मुक्तिबोध का उदाहरण ही लें,क्या
लोकवाद के चलते उनको एक बड़े कवि के रूप में देखा और समझा जा सकता है। हमने लोक की
जो कसौटी बना ली है, उस पर शायद ही वे खरे उतर पाये।
रामविलास जी ने तो साफ- साफ लिख दिया है कि किसान जीवन के अनुभव उनके यहाँ नहीं
हैं और मार्क्सवादी नजरिये के प्रति भी उनके मन में संदेह रहता है। जबकि मेरा
मानना यह है कि इस दर्शन को उन्होंने जितना समझा और भारतीय जीवन संदर्भों और उसके
यथार्थ के अनुरूप व्यवहृत किया है उतना दूसरा कोई नहीं कर पाया है। लेकिन वे हमारी
लोक की कसौटी के प्रतिमान नहीं हैं।जब हमारा इतना बड़ा और बहुत आगे तक कविता के आँगन
को रोशन करने वाला कवि हमारी कसौटी पर नहीं आ पा रहा है तो हमको इस मुद्दे पर
गम्भीरता से सोचने और मनन करने की जरूरत है।
आज की लोकधर्मी कविता में श्रम का सौन्दर्य है
उसका छोटा मोटा सामान्य संघर्ष भी है,विशेषीकृत नहीं,। कुछ
सैद्धांतिक आख्यान भी है।किसान मजदूर की पक्षधरता और प्रशंसा भी है। प्रकृति सौन्दर्य
और श्रम एवं पूँजी के अन्तर्विरोध भी हैं किन्तु वह अन्दरूनी सचाई नहीं जो आज देश
और समाजों को क्रूर विभाजन और अमानवीय विषमता के स्तर तक ले आई है जिससे फासिज्म
दरवाजे तक आ गया है। क्या आपको लोकधर्मी कविता में कही आवारा पूँजी से बढ़ती
अपसंस्कृति और अलगाव अजनबीपन से संघर्ष नजर आता है।
सिद्धांत कविता नहीं होते। कविता एक पूरा जीवन
व्यवहार होती है।कविता हमारे मन का निर्माण तभी कर सकती है जब वह सचाई का ऊपरी
ऊपरी नहीं, पूरी गहराई के साथ पता दे।
लोकधर्मी प्रतिमानों की सबसे बड़ी सीमा यह है कि
उसमें शहरी मध्यवर्ग द्वारा व्यक्त किए और रचे जा रहे यथार्थ को जगह नहीं होती।
इससे गांव और शहर के विभाजन का खतरा भी रहता है। आज दरअसल वे परिस्थितियां नहीं
हैं जो पच्चीस साल पहले थी। नई नई तकनीकों और तेजी से बढ़ते शहरीकरण ने आदमी का सोच
और व्यवहार दोनों बदल दिए हैं। अब कितने से लोग हैं जो सोचते हैं वैसा ही करते भी
हैं। सब कुछ मैनेजरों के हाथ में आ गया है। प्रापर्टी डीलिंग ,सटोरियों,दलालों और कम्पनी नौकरशाहों की पूँजी का कोई ओर छोर नहीं है। तकनीक ने
दिमागों पर कब्जा ही नहीं किया है उनके पूरे जीवन पर कब्जा कर लिया हैं। हम जो
कहते हैं वैसा करते कहाँ है। अब निराला, नागार्जुन,त्रिलोचन,केदार के जमाने का यथार्थ नहीं है। इसलिए
हमको एक व्यापक जनवादी सोच की ही नहीं, व्यवहार की भी
आवश्यकता है क्योंकि दुनिया जितना व्यवहार से बदलती है सिद्धांतों से नहीं।
एक बात और कि क्या हमने कविता में लोक के नाम पर
नये मिथकों का सृजन किया है या मिथकों को तोड़ा भी है।कबीर का महत्व हमारे लिए आज
इसीलिए है कि उन्होंने अपने समय तक चले आ रहे कई सामाजिक-धार्मिक-साँस्कृतिक
मिथकों को ध्वस्त किया। ऐसा वे तभी कर पाए जब वे पहले से लोक प्रचलित मिथकों का
भंजन कर सके क्योंकि वे इस रहस्य को जान गये थे कि लोक में सब कुछ अच्छा ही अच्छा
नहीं चलता। मीरा ने स्त्री के पारम्परिक मिथक पर अपनी कविता और आचरण दोनों स्तरों
पर प्रहार किया और स्त्री के लिए एक नया रास्ता दिखलाया ,जिसका उल्लेख आज के नए
जीवन संदर्भों में किया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोक को भी
द्वंद्वात्मक रूप में देखने की आवश्यकता है। प्रेमचंद ने भी लोक को कभी इकहरी
दृष्टि से नहीं देखा। हमारे ग्रामीण लोक के वे सबसे बड़े चितेरे हैं। उसी लोक के
अनुभवों से वे सद्गति, ठाकुर का कुंआ,सवा
सेर गेंहू जैसी कहानियां लिखते हैं। क्या हम आज इस तरह के अनुभवों और सवालों के
रूबरू होकर काव्य सृजन करते हैं या फिर हमने लोक का वैसे ही मिथक नहीं गढ़ लिया है
कि सारा लोक सर्वहारा है। क्या हमने वहाँ इन सर्वहाराओं के विभिन्न ऊँचे नीचे
सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक स्तरों को गहराई से देखा और समझा है। हमारे लोक में
आपस में चल रहे शोषण-उत्पीड़न को महसूस किया है? हमारी पुरानी
चली आ रही मान्यताओं की परख कर उनको तोड़ने या उठाने की कोशिश की है या हमने अपने
लिए सृजन की सुविधा के लिए अपना मनोलोक निर्मित कर लिया है। लोक के नाम पर हम अपने
एक गढ़े हुए लोक में रहने के अभ्यस्त हो चुके हैं। हम उसके बिल्कुल इधर-उधर नहीं
जाना चाहते। मैं आपके उत्तराखंड के लोक में निर्मित और अभी तक प्रचलित एक
संस्कारगत मान्यता को बतलाना चाहता हूँ। हुआ यह कि मेरे एक गढवाली ब्राह्मण मित्र
हैं उनकी अच्छी पढी-लिखी खूबसूरत बेटी का रिश्ता गढ़वाली ब्राह्मणों में करना था
।उनको मालूम हुआ कि अलवर के जिस कालेज में मैं अध्यापक हूँ। वहाँ विज्ञान संकाय
में कार्यरत एक गढ़वाली ब्राह्मण प्राध्यापक के सुपुत्र के साथ उनकी सुपुत्री के
रिश्ते की चर्चा चलायें। इस प्रयोजन से मैं उनके आवास पर मिलने गया और यह चर्चा भी
प्रसंगवश चला दी। उनका पहला ही सवाल था कि वे कैसे ब्राह्मण हैं? ऊँची धोती वाले या नीची धोती वाले ? मैं इस सवाल से
चकित और हतप्रभ दोनों था : मुझे हमारे यहाँ मेवात में प्रचलित एक चुटकुला याद आया
कि गौड़ों में भी गौड़। इस वजह से ही वह रिश्ता नहीं हुआ। इस तरह की अनेक विभाजनकारी
बातें और रीति रिवाज हैं जो गांव प्रधान देश के लोक में आज तक बहुत पढ़े लिखों में
भी प्रचलित हैं। क्या इस तरह के अनुभवों को छेंककर एक आदर्श लोक में रहते हुए अपना
सुविधाजनक सृजनकर्म करते रहें या फिर उसके यथार्थ का दायरा व्यापक बनाये।
अन्त में,एक बात और कि यह हमारे मौजूदा लोक का यथार्थ ही
है कि राजनीति का सारा कर्मकाण्ड हमारे यहाँ सोशल इंजीनियरिंग यानी जाति पाँति और
सम्प्रदायों के ध्रुवीकरण से धड़ल्ले से चल रहा है और हम हैं कि इस लोक को एक बार
जो देख लिया उसके अलावा और शायद ही कुछ देखना चाहते हैं।
महेश
चंद्र पुनेठा- कुछ लोग लोक,
लोक संस्कृति और लोकधर्मिता शब्दों के प्रयोग से परहेज करते हैं
उनका मानना है कि लोक में बहुत कुछ सामन्ती और प्रतिगामी है. इसलिए जब लोकबद्धता
की बात की जाती है तो कहीं न कहीं सामन्ती और प्रतिगामी मूल्यों का समर्थन हो जाता
है. लोक की सारी प्रवृतियों का महिममंडल होने लगता है. इससे बचने के लिए वे जन,
जन संस्कृति और जनधर्मी शब्दों के प्रयोग करने की बात करते हैं.
क्या जन और लोक शब्दों में आपको कोई अंतर दिखाई देता है?
जीवन
सिंह- लोक एक ही तरह का कभी नहीं रहा। आपको पहले भी कह चुका हूँ।उसे द्वंद्वात्मक
नजरिए से देखना चाहिए ।यह ठीक है कि लोक बहुत पुराना शब्द और धारणा है जो तरह तरह
के अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है।इससे विभ्रम पैदा होते हैं।मैने जब कविता की
लोक प्रकृति की बात कही. थी तब वह अभिजन के विरोध में थी लेकिन आज के जटिल और
समग्र यथार्थ को व्यक्त कर पाने के लिए पर्याप्त नहीं थी।हमारी ही कमी और गलती रही
कि हम एकमात्र इसी प्रतिमान से सारी कविता का मूल्यांकन करने लगेःदरअसल हुआ यह कि
जिस तरह से नामवर जी ने अपनी कृति कविता के नए प्रतिमान में नागार्जुन।त्रिलोचन, केदार,शील ,कुमारेन्द्र आदि की जानबूझकर या तत्कालीन मध्य
वर्ग के आधुनिकता वादी कवियों के दबाव में इनकी उपेक्षा की और इनकी कविता को नए
प्रतिमानों का आधार नहीं बनाया, उन परिस्थितियों के तहत इस
लोकप्रतिमान को खड़ा किया गया ,यह गंभीरता से नहीं सोचा कि इस
तरह से हम एक दूसरी अति कर रहे हैं।विजेन्द्र जी की कविता भी इसमें कवर हो जाती थी
और हमारे स्वभाव में स्थानीयता,जनपदीयता का सम्मोहन था इसलिए
यह सब होता गया।दूसरे यह जिन राजनीतिक-आर्थिक विश्व परिस्थितियों में उस समय
एकध्रुवीय विश्व नहीं बना था। सोवियत संघ का विकल्प भी मौजूद था। फासिज्म का कोई
बड़ा खतरा भी आसपास दिखाई नहीं देता था। वैसे भी कबीर पहले ही लोक और वेद दोनों का
विरोध कर चुके थे। हमारे मन पर भी कबीर से ज्यादा तुलसी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल
की मान्यताओं का गहरा असर था। जबकि हमको और अधिक व्यापक स्तर पर सोचा जाना चाहिए था
क्योंकि विश्व परिस्थितियां और राष्ट्रीय परिस्थितियां बहुत तेजी से बदल रही थी।
नवउदारवाद दरवाजे पर आ खड़ा था। हम अपने मनोलोक में थे। सच यह भी लोकबद्ध होना
हमारी परम्परा का हिस्सा है, किन्तु आज के विश्व में
मध्यवर्ग की भूमिका की कम जरूरत नहीं है। श्रम सम्बंधों की वास्तविकता को केवल
लोकबद्धता से नहीं समझा जा सकता। समझेंगे तो यह हमारा द्रविड़ प्राणायाम होगा।
महेश चंद्र पुनेठा- लोकधर्मिता और जनधर्मिता में
क्या अंतर है? क्या लोकधर्मिता में प्रगतिशील और जनवादीदृष्टि समाहित नहीं है?
जीवन
सिंह- मौजूदा परिस्थितियों में जनवाद अधिक व्यापक है और उसकी जरूरत भी है। उसके
भीतर लोक स्वतः ही आ जाता है उसकी अवज्ञा नहीं होती। वैसे भी डेमोक्रेसी के लिए
तीन शब्दों में से सबसे सटीक ,तथ्यपूर्ण,आधुनिक और व्यापक अर्थ देने
वाला जन ही है,जो व्यक्ति और समाज दोनों के द्वंद्वात्मक
रिश्ते को जाहिर करता है। जबकि लोक अमूर्त सामूहिकता को ज्यादा कहता है। जनवाद से
क्यों परहेज है।जनसंस्कृति शब्द का प्रयोग खूब करते ही हैं।चाहें तो जनधर्मी भी कह
सकते हैं।
हमारा
जीवन भी उस समय संग्राम हो जाता है जब हम किसी कला माध्यम से रचना कर्म में उतरते
हैं।रचना कर्म का मतलब समय के अनुसार बदलते जीवन मूल्यों और सम्बंधों की सही पहचान
एवं उनकी रचना। इसमें मूल्य विरोधी प्रक्रियाओं को समझते हुए उनसे संघर्ष भी करना
पड़ता है। इस संग्राम में सही अस्त्र-शस्त्रों और रणनीति का उपयोग करना भी जरूरी है, इसलिए समय-समय पर
आत्माकलन की जरूरत भी होती है।समय जैसे बदलता है व्यक्ति को भी उसके अनुरूप अपने
दाव पेच बदलने पड़ते हैं,जो नहीं बदलता उसका असफल होना या एक
ही जगह पर ठहर जाना लाजिमी है।बार बार खुद को जाँचने की आवश्यकता हमेशा बनी रहती
है।कविता या आलोचना इस प्रक्रिया का अपवाद नहीं है।सही दिशा को पाने के लिए बदलना
कभी विचलन नहीं होता।प्रेमचंद लम्बे समय तक गाँधीवादी रास्ते पर चलते हैं किन्तु
आगे चलकर अपने अनुभवों के आधार पर और अधिक वस्तुगतता की ओर आते हैं।खुद को बदल
लेते हैं।
महेश
चंद्र पुनेठा- क्या यह माना जाय कि साहित्य के मूल्यांकन के लोकधर्मी प्रतिमान
पुराने पड़ चुके हैं और आज की कविता का उससे सही-सही मूल्यांकन संभव नहीं है?
जीवन
सिंह- पुराने नहीं, अधूरे। उनसे आज की पूरी कविता या साहित्य का मूल्यांकन संभव नहीं है।गंगा
में तब से बहुत पानी बह चुका है।लोगों का आपस में मिलबैठकर संगठित सोच विचार संचार
की आधुनिकतम तकनीकों से इतना प्रभावित है कि उसने सभी को अपना शिकार बना लिया
है।तकनीकों ने श्रम को परिदृश्य से लगभग आउट जैसा कर दिया है और लोगों के दिमागों
पर अपना कब्जा जमा लिया है और हम हैं कि वही पुराने गीत आलापने में लगे हैं ।आज का
आदमी वस्तुओं के एक ऐसे छद्म मोहक संसार में आ गया है । मिथ्या लोभ लालच की एक नई
भाषा की गिरफ्त में आज का आदमी क्या अपनी पहचान को नहीं खो रहा है। आज का आदमी
चौबीस घंटे धन के लालच पाश में नहीं आ फँसा है क्या फ्राँसीसी विचारक बौद्रिआ की
इस बात में दम नहीं है कि अब श्रम उत्पादन को तय नहीं करता, स्वचालन
की प्रक्रिया व तकनीकी विकास ने उसे उत्पादन के तमाम उपकरणों में से एक उपकरण जैसा
नहीं बना दिया है क्या? तो क्या इस नए यथार्थ के संदर्भ में
और आदमी के लगातार बदलते स्वरूप पर जरा भी गौर न करके अपनी वही पुरानी ढपली बजाते
रहना चाहिए ?
महेश
चंद्र पुनेठा- क्या पुराने को बचाने की आपको कोई जरूरत महसूस नहीं होती?इस पुराने में ही क्या
हमारी लोकसंस्कृति निहित नहीं है. लोकसंस्कृति से हमारी पहचान जुडी है ,यही पहचान है जो हमें हमारी जमीन से जोड़े रखती है.तब क्या इससे कट जाना
अपनी पहचान को खो देना नहीं होगा?
जीवन सिंह- गति का नियम है द्वन्द्वात्मकता। जब
संसार नित्य नवीन हो रहा है और हम उसकी नई से नई तकनीक को अपने रोजमर्रा के उपयोग
में ला रहे हैं तो कुछ तो कविता, साहित्य के बारे में भी सोचना पड़ेगा। पुराने को बचाना ही
नए का काम नहीं होता। पुरानी स्वस्थ बातों को बचाते हुए काम नया ही करना पड़ता है।
फिर पुराना भी हमारा सब कुछ एक जैसा कहाँ है?उसमें ऊँच-नीच ,उतार-चढाव बहुत हैं। पुराने को चयनित रूप में बचाते हुए नए को लाओ,
तभी गति संभव है। मुझे तो ऐसा ही लगता है। पुराना ही सब कुछ अच्छा
और शिवकारी होता तो नए की जरूरत ही क्या थी। पुरातन और सनातन तो धर्म में चलता है ,ज्ञान विज्ञान में नहीं। जहाँ तक हमारी लोकसंस्कृति का सवाल है,वह तब की संस्कृति ज्यादा है जब हमारे यहाँ कृषि से सामूहिक उत्पादन होता
था। आज कृषि का दबाव नहीं रह गया है। सब कुछ कारपोरेट के नियंत्रण में आ चुका है।
वह पुरानी लोकसंस्कृति जहाँ पैदा हुई वहीं उसके ऊपर बहुत से दबाव हैं। अब उत्तम
खेती वाली बात कहाँ है?
हम अपने बच्चों से खेती कराने के बजाय ऊँची से
ऊँची नौकरी कराना चाहते हैं तो पुरानी लोकसंस्कृति को बचाने वाले कहाँ से आयेंगे।
सब तो गाँवों को छोड़कर शहरों की ओर आ रहे हैं। उस पुरानी गांव आधारित लोकसंस्कृति
को कौन बचायेगा? हाँ,इतना अवश्य है कि उसके, साधारणता,सादगी, और सामूहिकता जैसे मूल्यों को अपने आचरण से
बचा लें,यही लोकसंस्कृति को बचाना है। नए संचार माध्यमों से
भी पुराना बहुत कुछ बचाया जा सकता है। बचाया भी जा रहा है। मुख्य हैं साधारणता और
सादगी, वह जीवन में कैसे बचे, इस पर
सोचने की जरूरत है। जहाँ तक जमीन से जोड़े रखने का सवाल है वह सही अर्थों में
इन्सानियत से जुड़े रहने का सवाल है । जमीन का अर्थ यहाँ सिर्फ भूगोल नहीं है
इतिहास भी है। इतिहास का मतलब है, गहरा इतिहास बोध, कि दुनिया कहाँ से कहाँ जा पँहुची है और कौन सी शक्तियां है, जो ऐसा कर रही हैं। इसी में जब हम श्रम और पूँजी के सम्बंधों पर विचार
करते हैं, तभी हमारी जमीन का सही पता हमको चलता है। अन्यथा
हम जमीन के नाम पर एक बँधे बँधाये भावलोक से बाहर नहीं निकल पाते। इससे पूरी सचाई
सामने नहीं आ पाती। इससे हम संकीर्णता के एक ऐसे जाल में फँसते जाते हैं जिससे
बाहर निकल पाना तभी संभव हो पाता है, जब हम अपनी जमीन की
सचाई पर गंभीरता से सोचकर उसके बदलते आयामों को भी अपनी रचना प्रक्रिया का हिस्सा
बनायें। अन्यथा हम भी जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि के शिकार हो जायेंगे। पहचान खोना तो तब होगा, जब हम अपनी भाषा और
इंसानों को भूल जायेंगे। जब तक अपनी भाषा-बोलियों और श्रमसंलग्न जीवन मूल्यों से
आचरणपरक रिश्ता है तब तक हमारी पहचान को कोई खतरा मुझे नहीं लगता।खतरा तो तब
ज्यादा है जब हम लोकसंस्कृति का उपयोग सिर्फ कविता लिखने के लिए करें, स्वयं को तदनुरूप बदलने के लिए नहीं। आज सबसे बड़ा संकट यह है कि मध्यवर्ग
जो कहता और लिखता है वैसा कर नहीं पाता।
महेश
चंद्र पुनेठा- बिलकुल सही कहा, तकनीक और अर्थव्यवस्था में आ रहे बदलाव के कारण लोकसंस्कृति
की बहुत सारी बातें लुप्त होती जा रही हैं। लेकिन कुछ लोगों द्वारा उसे उसके
पुराने रूप में ही बचाए रखने की कोशिश की जा रही है। इसके लिए अभियान चलाये जा रहे
हैं। महोत्सवों का आयोजन किया जा रहा है। मंचों में लोकगीत-नृत्य,लोक कला आदि को प्रस्तुत किया जा रहा है। दूसरी ओर लोकसंस्कृति के केंद्र
माने जाने वाले गाँव पलायन से लगातार खाली होते जा रहे हैं। क्या आपको लगता है कि
लोकजीवन को बचाए बिना लोकसंस्कृति को बचाया जा सकता है?
जीवन
सिंह- लोकजीवन अपनी संस्कृति को बचाता ही नहीं था बल्कि लगातार उसे समय के अनुसार
नई से नई बनाता जाता है। उसे अलग से बचाने की जरूरत नहीं थी ।वह नयी होती जाती
संस्कृति में समाहित होती जाती थी। जैसे पुरानी कविता नई कविता में समाती जाती है।
इसीलिये तो मुक्तिबोध ने कहा कि कविता कभी खत्म नहीं होती। खत्म होते हैं उसके
पुराने रूप। जैसे कविता लगातार लिखी जा रही है, लेकिन उसका कथ्य,अन्तर्वस्तु
और रूप विधान समय के अनुसार बदल रहा है। जैसा समाज होता है और जैसी
सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ होती हैं वैसे ही संस्कृति भी अपना नया वेश
धारण करती जाती है। अब चूंकि पुराना कृषि समाज हाशिये पर चला गया है और उसका स्थान
एक नए तरह के समाज ने ले लिया है तो पुरानी बातों से मोह खत्म हो रहा है। आज के
हमारे गांव भी वैश्वीकृत बाजार की जद में आ गये हैं। यह सब नये संचार साधनों और
रोज नयी से नयी होती तकनीक ने किया है। अतः लोकसंस्कृति को आज की तकनीक ही बचा
सकती है या फिर समाजवादी व्यवस्था। जैसे सोवियत संघ ने अपना वह सब पुराना बचाने का
प्रयास किया था,जिसकी नए के लिए आवश्यकता थी।पुराने लोकरूपों
को नई अकादमियाँ खोलकर भी बचाया जा सकता है। लेकिन मुनाफाखोर बाजार और उसका लोगों
के दिमागों पर नियंत्रण सिवाय बाजार के और कुछ नहीं बचाना चाहता। वह क्रिकेट और
फिल्मों को इसलिए बचा रहा है कि वे बाजार को फैलाने के काम आती हैं। जो कुछ बाजार के काम का है आज वही फल-फूल रहा
है। उसी को विकास बतलाया जा रहा है। इसका प्रतिरोध करने का कोई तौर तरीका
लोकसंस्कृति के पास है क्या? इसीलिए उसे सरकारों ने पर्यटन विभाग को सौंपकर बाजार को
सौंप दिया है। इस तरह से अब वही काम का है जो बाजार के काम का है। हमारी शिक्षा भी
एकमात्र बाजार के लिए संसाधन तैयार कर रही है। सब कुछ मैनेजमेंट में बदल रही हैं।
गाँवों में अँग्रेजी भाषा के प्रति आकर्षण अपने बच्चों को इसी बाजार में प्रवेश
दिलाने की वजह से है और इसी को विकास ,ग्रोथ और सूचकांकों से
रोज परिभाषित किया जा रहा है। टी वी ने हमारे दिमागों में ही जैसे बाजार खोल दिया
है। जब भाषा-बोलियाँ ही नहीं रहेंगी तो संस्कृति कहाँ से बचेगी। जिस देश में अपनी
भाषाओं में पढ़ना पिछड़ेपन की निशानी माना जाने लगा हो वहाँ संस्कृति को बचाने वाले
कहाँ से आयेंगे। इसीलिये आज जहाँ भी बाजार की दौड नहीं है, वहीं
थोड़ी बहुत लोकसंस्कृति बची हुई है।
लोककलाओं के महोत्सव तो बाजार भी आयोजित करा रहा
है। आप देख नहीं रहे हैं कि जयपुर में हर साल जनवरी में एक अन्तर्राष्ट्रीय
साहित्य महोत्सव होने लगा है। लेकिन उसका प्रयोजन संस्कृति नहीं बाजार है। आज
आवारा पूँजी की तो कमी नहीं है उससे कला-संस्कृति सबको खरीदा जा सकता है।
जो कला-संस्कृति के महोत्सव आयोजित करेंगे, बाजार उनको सारी
सुविधाएं उपलब्ध करा देगा। आज एन जी ओ भी बहुत कुछ बचाने में लगे हुए हैं। लेकिन
नयी संस्कृति कौन बनायेगा ?पहले के लोकजीवन में लोकसंस्कृति
के नए नए रूप भी विकसित होते थे क्योंकि उसको विकसित करने वाला समाज मौजूद था।क्या
आज उसका सर्जक समाज बचा है?
जब गाँवों से लगातार पलायन हो रहा है तो इस मसले
पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि जो किसान कभी अपनी जमीन बेचने को तैयार नहीं
होता था,आज
उससे मुक्ति पाकर शहर क्यों आना चाहता है। बाजार, रोजगार और
जीवन की अन्य सारी सुविधाएं शहरों में हैं तो कोई असुविधा और अभावों में क्यों
रहना चाहेगा। आवश्यकता ही आविष्कार करती है ऐसे ही जरूरतें ही जरूरी को लाती हैं
और बचाती भी हैं।
संपर्क-
डॉ0 जीवन
सिंह 1/14 अरावली बिहार, अलवर-301001
(राजस्थान)
महेश
चंद्र पुनेठा शिव कालोनी न्यू पियाना पो0डिग्री कालेज जिला-पिथौरागढ़ 262502।