वर्तमान सन्दर्भ में उत्तर भारतीय तालों का व्यावहारिक
स्वरूप: एकअध्ययन
श्रीमती ललिता,
शोधार्थिनी, संगीत विभाग, कुमाऊँ
विश्वविद्यालय, नैनीताल
डा०रेखा साह,
असिस्टेन्ट प्रोफेसर, संगीत विभाग, कुमाऊँ
विश्वविद्यालय, नैनीताल
संगीत प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ प्रदत्त कला है। संगीत का
स्वरूप प्रकृति के कण–कण में व्याप्त है,
जिनका अनुभव जीवमात्र के द्वारा
निरन्तर किया जाता है। प्रकृति संगीत की जननी है,
परन्तु संगीत में स्वर तथा लय इसके
आधार स्तम्भ है जिनके बिना संगीत का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। प्रकृति की
रचनाओं में स्वर तथा लय का स्वरूप परिलक्षित होता है, जैसे : कोयल के कूकने
का स्वर, नदियों की निर्झर ध्वनि,
पक्षियों का चहकना, अन्तरिक्ष में
ग्रह एवं नक्षत्रों की समान गति, मनुष्य की ह्र्दयगति,
धमनियों में रक्तप्रवाह आदि, यह सब प्रकृति
के द्वारा प्रदान की हुई गति है, जिसको मनुष्य ने जाना व पहचाना तथा प्रकृति की गति व
ध्वनि को स्वर तथा लय का नाम दिया,
इन्ही के आधार पर संगीत की रचना की
जाती है। संगीत में समय के असीमित काल को निश्चित समय में बांधने के लिये ताल की
परिकल्पना की गई जो कि मानव के अंक ज्ञान के पश्चात ही संभव हो पाया।
“ताल” संगीत
रचना का आधारतत्व है, मात्राओं की निश्चित आवृति को ताल का स्वरूप दिया गया, संगीत
के मूल तत्व स्वर तथा लय है परन्तु आधार ताल ही है। ताल पर ही संगीत को स्थापित
किया जाता है, यदि गायन,
वादन तथा नृत्य से ताल को निकाल
दिया जाये तो संगीत, प्राण शुन्य शरीर की भांति हो जायेगा। संगीत में स्वर
सीमित हो सकते है, परन्तु ताल की कोई सीमा नही है। ताल गति का निश्चित क्रम
संगीत को रसानुभूति तथा स्थायित्व प्रदान करता है।
तालस्तलप्रतिष्ठाय
मितिधातोर्धत्रिस्मृत: ।
गीतं वाद्यं तथा नृत्ययतस्ताले
प्रतिष्ठितम॥
अर्थात: प्रतिष्ठा अर्थवाली ’तल’ धातु में
’धञ’
प्रत्यय लगाने पर ताल शब्द बनता है, गीत, वाद्य और नृत्य
इसमें सम्मिलित होते है, यहां पर प्रतिष्ठा का अर्थ व्यवस्थित करना, एक सूत्र में
बांधना तथा आधार प्रदान से है, अर्थात गीत,
वाद्य एवं नृत्य के विभिन्न तत्वों
को व्यवस्थित या आधार प्रदान करने वाला ताल ही है।
राताजन्कर,
एस. एन. (१९४०)
वैदिक
काल में ताल की परिकल्पना की गई, महान ऋषियों ने वेदों का संकलन सूक्तिबद्ध किया, उदात्त, अनुदात्त एवं
स्वरित प्रणाली ह्र्स्व, दीर्घ एवं प्लुत उच्चारणो द्वारा वेदों की संगीत प्रणाली
विकसित हुई जो आगे चलकर छंदोबद्ध हुए और पिंगलशास्त्र का निर्माण हुआ| दर्शनकाव्य आदि
समस्त शास्त्र छंदबद्ध बनाये गये जिससे वे स्वर ताल और लय में गाये जा सके और
सुगमता से कंठस्थ किये जा सके।
श्रीवास्तव,
गिरीशचन्द्र (२००६)
निश्चित ही तालों की युक्ति छन्दों द्वारा ही प्राप्त की
गई क्योंकि छन्दों के समानताल में भी समान वर्ण,
मात्रा, लय, गति यति और चरण
सम्बन्धी नियमों का पालन किया जाता है।
मिश्र,
छोटेलाल (२००६)
ताल पद्धति से तात्पर्य यह है कि ताल व्याख्या, ताल गठन के नियम, ताल खण्ड, निश्चित पटाक्षर, सशब्द निशब्द
क्रिया, ताल प्रस्तुति,
ताल विस्तार आदि का विवेचन।
नाटयशास्त्र में ताल की परिभाषा इस प्रकार की गयीहै,
“कला,
पात और लय से युक्त जो काल विभा
गया परिणात्मक प्रमाण जो घनवर्ग में आता है ताल कहलाता है“।
साधारण व्यवहार के काष्ठानिमेश या पल के परिमाण को ताल प्रसंग में कला नही कहा जाता।५
निमेशकाल को मात्रा कहते है
तथा एक मात्रा से, अथवा मात्राओं
के योग से बनेगा न समय को कला कहा है।मात्राओं के तीन स्वरुप बताये हैं, लघू, गूरु, और प्लुत। लय के
तीन प्रकार बताये है, द्रुत, मध्य, तथा विलम्बित। प्राचीनकाल में ताल लक्षणों के अनुसार
मात्राकाल ही पात के द्योतक थे, प्रबन्ध या छन्दगायन होता था जिनगी तों में (गीतकों में) कहां कहां घात
हो उस आधार पर धात का काल निश्चित किया जाता था और उसी अनुसार तालवादन होता था| “प्राचीनकाल
के पूर्व में पंचमार्गी तालों का प्रचार था जिनका उल्लेख भरत ने नाटयशास्त्र में किया
है। इन तालों का स्वरूप इस प्रकार है:
चचत्पुट:
ऽ
ऽ
।
Š
= मात्रा८
स
श
ता
श
चाचपुट:
ऽ
।
।
ऽ
=मात्रा६
श
ता
श
ता
षटपितापुत्रक
Š
।
ऽ
ऽ
।
Š
= मात्रा१२
स
ता
श
ता
श
ता
सम्पक्वेष्टाक
Š
ऽ
ऽ
ऽ
Š
= मात्रा१२
ता
श
ता
श
वा
उदघट
ऽ
ऽ
ऽ
= मात्रा६
नि
श
श
प्राचीनकाल में मार्गी तालों के साथ देशी तालों की भी
परिकल्पना की गई व असंख्य देशी तालों का निर्माण किया गया। सर्वप्रथम ’देशी शब्द’ का उल्लेख मतंग मुनि ने
’वृहद्देशी’ में किया है
परन्तु तालाध्याय लुप्त होने के कारण देशी ताल का विवरण प्राप्त नही होता।
शारंग्देव ने संगीत रत्नाकर में १२० तालों का विवरण प्रस्तुत किया है। ’नन्दिकेश्वर
द्वारा रचित ग्रन्थ भरतार्वण में कुल ११२ तालों का वर्णन है, जिनको कि अंगों
द्वारा प्रदर्शित किया गया है। इन तालों में प्रथम पांच तालें मार्गीताल है तथा
अन्य १०७ तालें देशी तालें है। इसमें सबसे कम मात्रा की ताल एकताला ही है जो कि
आधे मात्रा की है एवं सबसे अधिक मात्रा की ताल सिंहनन्दन है जो कि ३२ मात्रा की
है। इसी ग्रन्थ में ६ मात्रा, ८ मात्रा,
७ मात्रा, ९ मात्रा, १० मात्रा, १२ मात्रा, १४मात्रा आदि
तालों का वर्णन भी प्राप्त होता है।
प्राचीन ग्रन्थों में समान मात्रा की विभिन्न तालों का
विवरण भी प्राप्त होता है जैसे– आठ मात्रा की मार्गीताल चत्चप्पुटम तथा देशीताल, श्रीरंगताल, मण्ढताल, जयमंगलताल, नान्दीताल, प्रतिमढयताल, वर्णताल आदि।
जिनका प्रयोग सम्भवत: भिन्न– भिन्न प्रकार की संगीत रचनाओं के लिए होता होगा। गर्ग, प्रभुलाल (१९४०) प्राचीनकाल में असंख्य देशीतालों की रचना की गई परन्तु
कुछ ही तालों का प्रयोग संगीत में किया जाता था इस विषय में ’दूल्हाखाँ’ जी ने स्वरसागर
में लिखा है
“पंचहजार नौ सौ कई, ताल
कहावत नाम।
इनमें ते सोलह लिए, इन
से चलता काम॥“
भारतीय संगीत से भारतीय संस्कृति की पहचान होती है, प्राचीनकाल में
तथा पूर्वमध्यकाल में मार्गी तथा देशी संगीत पद्धति प्रचार में थी, परन्तु उत्तरमध्यकाल में उत्तर पर मुस्लिम आक्रमण के
पश्चात भारतीय संगीत के प्रारम्भिक स्वरूप पर अत्यन्त प्रभाव पडा तथा मुस्लिम
शासकों की रुचि तथा उनके संगीत की विशेषतायें भारतीय संगीत में सम्मिलित होकर नवीन
रुप में परिलक्षित हुई। भारतीय संगीत में ध्रुपद धमार का स्थान ख्याल गायकी ने ले
लिया व अन्य संगीत शैलियाँ जैसे : टप्पा, ठुमरी, दादरा आदि श्रंगारिक शैलियों का प्रचार बढने लगा। मुगलों
के प्रभाव के कारण भारतीय संगीत की दो पद्धतियों का निर्माण हुआ। उत्तरभारतीय
संगीत पद्धति व दक्षिणी संगीत पद्धति,
दक्षिणीभारतीय संगीत में प्राचीन
भारतीय संगीत की सैद्धान्तिक गरिमा की रक्षा की गई है जबकि उत्तरभारतीय संगीत में
ऐतिहासिक उत्थान–पतन के कारण संगीत का स्वरूप परिवर्तित हो गया।
कुदेशिया,
शोभा (२०१२) आधुनिक
काल दक्षिण भारतीय सप्त मुख्य तालों के प्रचार व विकास का ऐतिहासिक काल कहा जा
सकता है। सोलहवीं शताब्दी में पितामह के रुप में विख्यात पुरन्दरदास नेअलंकार, गीत तथा कीर्तन
आदि के साथ इन सप्तसुलादि तालों का प्रयोग किया एवं प्रचार में लाये। तदोपरान्त
मद्रांचल, रामदास, क्षैत्रेयारामदासस्वामी आदि संगीतज्ञों ने अपनी रचनाओं
द्वारा इन तालों को अत्यन्त समृद्धशाली बनाया,
शीघ्र ही ऐसी स्थिति आयी कि
प्राचीन तालों का लोप होकर इनका बहुलता से दक्षिणी संगीत में प्रयोग होने लगा। यह
पद्धति “सप्तसूल्लादि”
नाम से जानी गयी। प्राचीन तथा
मध्यकालीन तालों में से इन सातों तालों का चुनकर इनका विकास हुआ तथा जाति भेद के
आधार पर क्रमश: ३५ एवं १७५ तालों की रचना हुई |
वर्तमान दक्षिणी तालपद्धति का मुख्य आधार अंगजाति तथा सात
तालें है। दक्षिणी सप्तताल– ध्रुव, मठ, रुपक, झम्प, त्रिपुट, अठ, तथा एक तालों को प्राचीन पद्धति के समान अणुद्रुत, द्रुत, लघु, गुरु, प्लुत तथा काकपद
छ: अंगों के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है तथा जाति चतुरश्र, त्रयश्र, खण्डमिश्र और
संकीर्ण के भेद के आधार पर 7X5=35 की रचना की जाती है।
उत्तरभारत में मुगल प्रभाव के कारण उत्तरीसंगीत प्राचीन
संगीतपद्धति को संजोकर नही रख पाया,
तथा उत्तरभारतीय संगीत में अनेक
परिवर्तन आये। मध्यकाल में ध्रुपद तथा धमार गायकी का प्रचार था और पखावज का खूब
प्रयोग किया जाता था, मुस्लिम आक्रमण और शासन के पश्चात भारतीय संस्कृति तथा
कलाओं पर यवन संस्कृति का प्रभाव पडना प्रारम्भ हो गया, अकबर युग में
ध्रुपद की चार बाणियां प्रचार में थी। मुगल शासक मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में
अनेक व्यवसायी कलाकार थे, जिनमें से कुछ पखावजी तथा कुछ तबलावादक थे, तथा उस समय तबला
तथा पखावज की घरानों की नींव पडने लगी। ध्रुपद तथा धमार शैली का प्रभाव कम होने के
कारण और ख्याल गायकी का अधिक चलन होने के कारण पखावज का स्थान तबले ने ले लिया, इसके अलावा अन्य
श्रंगार शैलियाँ ठुमरी, दादरा, टप्पा आदि प्रचार में आने लगी जिनका आधार तबला ही था और
तबला बदलती जनरूचि के अनुसार सर्वश्रेष्ठ अवनद्धवाद्य बन गया।
बदलती मान्यताओं,
जनरूचि एवं पाश्चात्य संस्कृति के
प्रभाव के कारण ताल प्रयोग तथा ताल स्वरूपों में भी अनेक परिवर्तन परिलक्षित होते
है। प्राचीनकाल में निर्मित अधिक संख्या वाली क्लिष्ट तालें तथा उनके साथ रचित
रचनायें लगभग समाप्त हो
चुकी है। क्लिष्ट तालों का स्थान
अब सहज तालों ने ले लिया इनका निर्माण विभिन्न संगीत शैलियों के साथ संगत करने के
लिये किया गया। संगीत में विभिन्न विधायें
(गायन, वादन, नृत्य) तथा संगीत की
विभिन्न शैलियाँ शास्त्रीय संगीत, उपशास्त्रीय संगीत,
सुगम संगीत, तथा लोकसंगीत
में ताल के प्रयोग की विशिष्ट भूमिका है, शास्त्रीय संगीत
की विधाओं में प्रयोग होने वाली तालों का प्रयोग उपशास्त्रीय संगीत, सुगमसंगीत, तथा लोकसंगीत
में नही किया जाता है जैसे : ख्याल गायकी में प्रयोग होने वाली तालें तीनताल, झपताल, एकताल आदि का
प्रयोग ख्यालगायकी एवं शास्त्रीय संगीत वादन तक ही सीमित रहता है। उपशास्त्रीय
संगीत में प्रयोग होने वाली तालें दीपचन्दी,
झपताल, पंजाबी, दादरा आदि तालों
का प्रयोग ठुमरी, दादरा तक ही सीमित है,
एवं लोकसंगीत हेतु विभिन्न
प्रदेशों में लोक संगीत की आवश्यकतानुसार तालों का प्रयोग किया जाता है तथा ध्रुपद–धमार शैली के साथ पखावज पर बजनेवाली चारताल, सुलताल, तथा तीव्रताल आदि का प्रयोग किया जाता है।
प्रत्येक तालरचना का उद्देश्य विभिन्न विधाओं के साथ संगत करना सार्थक सिद्ध होता है; विलम्बित ख्याल के साथ संगत हेतु एकताल, तिलवाडा, झूमरा तथा आडाचार आदि तालों को ही निश्चित किया गया, इन तालों में धागेतिरकिट जैसे बोलों का प्रयोग किया जाता है क्योंकि धागेतिरकिट को जितना चाहे उतना विलम्बित किया जा सकता है, जैसे धाऽगेऽतिऽरऽकिऽटऽ | इन तालों का प्रयोग विलम्बित लय में सरलता से किया जा सकता है।
इसी प्रकार छोटा ख्याल में अधिकतर मध्यलय तथा द्रुतलय में तीनताल, रुपकताल तथा झपताल तालें प्रयुक्त तथा उपयुक्त सिद्ध हुई जिनमें तबलावादक अपने कौशल प्रयोग से ठेके का भराव, तिहाई, मुखडे, मोहरेरेले, कायदे आदि रचनाओं का प्रदर्शन सौन्दर्यानुभूति हेतु करता है। इसी प्रकार ठुमरी, टप्पा आदि श्रंगारिक शैलियों के लिए दीपचन्दी, रुपक, कहरवा, दादरा आदि श्रंगारिक तालों का प्रयोग किया जाता है, जिनमें श्रंगाररस की उत्पत्ति होती है।
प्राचीनकाल में तालरचना केवल ताल के दस प्राण काल, मार्गक्रिया, ग्रह, अंग, जाति, कला, लय, यति, तथा प्रस्तार के आधार पर की जाती थी, परन्तु आधुनिककाल में उत्तरी संगीत में ताल प्राण के मूलस्वरूप में परिवर्तन हुआ। तालरचना के लिए नये सिद्धान्त निश्चित कर दिये गये जैसे:
१.
मात्राओं की संख्या
२.
ताल के अंग या विभाग
३.
ताल की जाति
४.
ताल क्रिया का स्थान
५.
ताल में बोलों का चयन
वर्तमान में तालों का प्रयोग तबले पर विभिन्न बन्दिशों कायदों का उलट–पलट कर प्रस्तार किया जाता है। विभिन्न गतिभेद अथवा लयकारियों के द्वारा चमत्कारिक प्रदर्शन किया जाता है|
कला हमेशा सामाजिक परिवर्तन से प्रभावित होती रहती है, वर्तमान तालव्यवहार में परिवर्तन भी सामाजिक वातावरण, जनरुचि के आधार पर परिलक्षित हुआ है। वर्तमान में ताल व्यवहारिक स्वरूप संगत, तन्त्रवाद्यों के साथ, नृत्य के साथ, वाद्यवृन्द, तालवाद्य कचहरी, जुगलबन्दी, फ़िल्मी संगीत तथा सुगम संगीत आदि के साथ प्रयोग किया जाता है
गायन वादन तथा नृत्य के साथ संगत:
अवनद्धवाद्यों का प्रयोग मुख्यरुप से गायन तथा अन्य संगीत शैलियों के साथ संगत हेतु किया जाता है ’संगति’शब्द का मुख्य अर्थ अनुसरण करना होता है, संगतकार का मुख्यकार्य गायन, वादन तथा नृत्य में लय तथा ताल को नियन्त्रित करते हुए संगत करना होता है। वादक, गायक या नर्तक कलाकार को रचनात्मक सांगीतिक सहयोग देता है, कई बार संगतकार गायक के दोषो को उजागर नही होने देते हैं। वर्तमान में वादक कलाकार ठेके को नये रुप में सौन्दर्यपूर्ण रचनात्मकता उत्पन्न करने में सक्षम है। शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद तथा धमार के साथ पखावज वादन की प्रथा थी, परन्तु वर्तमान में पखावज के स्थान पर तबले के साथ ध्रुपदधमार गाया जाता है, आज पखावज की तालें चारताल, सुलताल जो ध्रुपद तथा धमार जैसी गम्भीर शैलियां है, इनका तबले पर खूब प्रयोग किया जाता है।
तंत्रवाद्यों के साथ संगत:
कुदेशिया,
शोभा (२०१२)
तालव्यवहार का स्वरूप वादन के साथ संगत हेतु भी दिखाई पडता है, जिनमें विशेषत: तंत्रवाद्य होते है जो स्वर प्रधान होते है इनके साथ संगत हेतु तबले पर ताल तथा लय प्रदर्शन किया जाता है। “तन्त्रवाद्यों में ध्वनि सूक्ष्मखण्डों में उत्पन्न होने के कारण छंद और लयकारी के वादन की सुविधा रहती है, इसलिये उनमें जो रचनायें बजायी जाती है, उन्हें ’गत’ कहा जाता है, उनकी वादन शैली को तंत्रकारी या गतकारी के नाम से सम्बोधित किया जाता है। “गतें दो प्रकार की होती है: १. मसीतखानी गत जो प्राय: विलम्बित त्रिताल में होती है तथा २. रजाखानी गत जो मध्य या द्रुत त्रिताल में निबद्ध होती है। अन्यतालों में विलम्बित लय में बजायी जाने वाली गतों को क्रमश: ’मध्यलय की गत’तथा ’द्रुतलय की गत’ कहा जाता है, मिजराब प्रहार से बजाये जानेवाले वाद्यों की वादनशैली में छंद और लय का अधिक महत्व होने से उनकी संगति में स्वतंत्र तबलावादन में प्रयोग किये जाने वाले उठान, पेशकार, कायदा, रेला, तिहाई , मुखडा, गत, टुकडा, रौ आदि रचनाओं को किसी सीमा तक प्रयोग करने का अवसर मिल जाता है। वादक तबले के इन संरचनाओं के आधार पर समुचित बोल संयोजना द्वारा संगति करता है। तंत्रवाद्यों में झालावादन के साथ तबला–वादक कोठे के और रेलो की तैयारी प्रदर्शित करने का अवसर रहता है। घर्षण या फ़ूंक के द्वारा बजाये जानेवाले वाद्यों की ध्वनि में स्थिरता अधिक होने से वह कंठध्वनि से कुछ साम्य रखता है, इसीलिए इन वाद्यों में गायकी अंग की शैली का प्रयोग किया जाता है। इन वाद्यों के साथ गायन शैलियों की भांति ही संगति की जाती है।
जौहरी,
रिमा (२०११)
नृत्य की संगति गायन एवं वादन दोनों से ही भिन्न एवं कठिन होती है, नृत्य के साथ संगत सर्वाधिक बुद्धि चातुर्य व परिपक्वता से पूर्ण कार्य होता है, इस विद्या की संगत में वादक को आरम्भ से ही अत्यन्त तैयारी एवं सूझबूझ के साथ कलात्मक क्षमता का परिचय देना होता है। कत्थक नृत्य के साथ संगति में तबलावादक को नर्तक के पैरो द्वारा निकाले गये बोलों को उतनी ही मात्रा व उसी वजन के अनुरुप तबले पर निकालना होता है।
उदाहरण के लिए नृत्यकार का बोल
” तत
तत थेई
तिगधा दिंग
दिग “थेई”
है तो इसी वजन को ध्यान में रखकर
“ति ट
ता
धाधातिरकिट धा”
तबले पर बजाया जायेगा।
श्रीवास्तव,
गिरीशचन्द्र (२००६)
इसी प्रकार चारताल में निषद्ध गणेश जी की स्तुति दी जा रही है जिसका संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है – सुन्दर कानवाले, ज्ञान के देवता का नाम गणपति है जिनका बडा सा पेट और एक दांत है। इन रचना में पौने दौगुन (बिआऽ) की लय का अधिक प्रयोग हुआ है:
श्रवणसुनदरनाऽमगणपति ज्ञाऽन
नाऽथग जाऽन नमधेटे
धाऽन
धिकिट
धाधिता
धिऽनगतिरकिट, ऽ
लऽबो
दरएक
दऽन्त
धा, तिरकिट, लऽम्बो
दरएक
दऽन्त
धा, तिरकिट
लऽम्बो
दरएक
दऽन्त। धा
वृन्दवादन या वाद्यवृन्द
श्रीवास्तव,
गिरिशचन्द्र (२००६)
“वाद्यवृन्द और वृन्दवादन दोनो समानार्थक है। आज भी भारत की साधारण जनता वाद्यवृन्द से अधिक विदेशी शब्द आरक्रेस्ट्रा से परिचित है। साधारण अर्थ में विभिन्न वाद्यों या ध्वनियों के सुमधुर संयुक्तवादन को वाद्य–वृन्द कहते है। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद वृन्दवादन के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किया गया। आकाशवाणी दिल्ली केन्द्र में भारत सरकार की ओर से वृन्दवादन की एक यूनिट का निर्माण किया गया, जिसमें सुप्रसिद्ध सितारवादक प०रविशंकर, बांसुरीवादक स्व.श्री पन्नालाल घोष तथा जयराममणिअय्यर आदि प्रकाण्ड विद्वानो ने अपना सहयोग दिया और उच्चस्तर की वृन्दरचनाएं तैयार की आकाशवाणी के वृन्दवादन की टोलियाँ समय–समय पर विभिन्न केन्द्रों पर अपना प्रदर्शन करती रहतीहै।“
आज वृन्दवादन या वाद्यवृन्द का प्रसार धीमी गति से हो रहा है इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी हो सकता है कि प्रत्येक वाद्य का वादक को एक साथ निश्चित समय पर अभ्यास करना पडता है, अत्यधिक व्यस्त जीवनशैली तथा समय के अभाव के कारण कलाकार अभ्यास नही कर पाते।
स्वतंन्त्रवादन:
जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है,
स्वतंन्त्र रुप से किया गया वादन, स्वतंन्त्र वादन होता है। तालवादक अपनी इच्छानुसार तालव्यवहार करने हेतु पूर्णरुप से स्वतंन्त्र होता है, एकलवादन प्रस्तुत करते समय कुछ तबलावादकजैसे : लखनऊ घराना के कलाकार पहले बन्दिश की पढन्त करते हैं, तदुपरान्त बन्दिशों को तबले पर उसका वादन प्रस्तुत करते है जिससे श्रोतागण भी आनन्दित होते हैं। विद्वानो द्वारा स्वतंत्र या एकलवादन प्रस्तुत करने की विधि तैयार की गई है जिसके अनुसार वादक को वादन प्रस्तुत करना होता है। प्रत्येक घराने की अपनी विशेषता है उसी के अनुसार तालवादक ताल का चयन करता है साथ ही यह भी निश्चित करता है कि किस घराने की शैली में तालव्यवहार करना है जैसे : बनारस घराने के कलाकार वादक उठान से स्वतंन्त्र वादन प्रस्तुत करते है जबकि फ़र्रुखाबाद घराने में चाल तथा चलन विशेष रुप से बजाया जाता है। मध्यकाल में घराना पद्धति का जन्म हुआ। घराना पद्धित के तबलावादक अपने घराने का बखूबी प्रस्तुत करते थे, आजादी के कई वर्ष बाद तक भी घरानेदार वादक वादनशैली का प्रदर्शन करते थे परन्तु अब घरानों का लोप हो जाने के कारण भारतीय वादन पद्धतियों में अनेक परिवर्तन हुये। आज तबलावादक सभी घरानों की विशेषताओं को अपने वादन के द्वारा प्रदर्शित करता है। सर्वप्रथम तबलावादक ताल चुनाव के पश्चात हारमोनियम के साथ अपना वादन प्रदर्शित करते है, स्वतन्त्र वादन में उठान, पेशकारा, कायदा, रेला, गत, टुकडा, परन, चक्करदार, तिहाई आदि तालविषयक बन्दिशों को प्रस्तुत किया जाता है। पखावज वादन मेंरेला, पडार, तिहाई आदि का वादन किया जाता है।
तालवाद्य कचहरी:
जौहरी,
रीमा (२०११)
तबला, पखावज, ढोलक, नाल, नक्कारा, तासा, घटम आदि लय– ताल वाद्यों का एक निश्चित ताल और लय में क्रम से अथवा एकसाथ वादन करना तालवाद्य कचहरी कहलाता है। ऐसे प्रदर्शन में अनेक लय– तालवाद्यों पर विभिन्न लयकारियों में काम बहुत मनोरंजक होता है।
तालवाद्य कचहरी में सभी वाद्य उत्तरभारतीय होते है तालवाद्य कचहरी में तालवादन पेशकारा या उठान से प्रारम्भ किया जाता है फ़िर बाकी वादक बारी–बारी से मिलती जुलती रचनाओं का वादन करते है संगीत गोष्ठियों में इस प्रकार के आयोजन देखने को मिल जाते है।
जुगलबन्द युगलबन्द:
जौहरी रीमा
(२०११)
इन दोनों शब्दों का भावार्थ और शब्दार्थ एक ही है। जुगलबन्दी उर्दू भाषा और युगलबन्दी हिन्दी भाषा का शब्द है। फ़ारसी के शब्द जुकत का अर्थ है जोडा या दो। इसी से उर्दू में जुगलबन्दी शब्द बना, इसका अर्थ दो या जोडा है। इस प्रकार के कार्यक्रम में दो गायक, वादक या नृत्यकार पूर्वनिश्चित किसी एक ताल में या एक राग में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करते है, जैसे प०रविशंकर और उस्ताद अली अकबर खां की सितार व सरोद की जुगलबन्दी या प०राजन साजन मिश्र की गायन में या उस्ताद अल्लारखा खाँ व जाकिर हुसैन की तबले में “जुगलबन्दी ” |
संगीत में जनरुचि के आधार पर अनेक परिवर्तनों में से एक परिवर्तन ताल भी है। वर्तमान में तालव्यवहार केवल प्रत्यक्ष रुप से इलैक्ट्रोनिक वाद्यों के माध्यम से भी प्रदर्शित किया जा सकता है तथा इसका प्रचलन तथा प्रयोग बढता जा रहा है, जैसे: मैट्रोनोम, तालमाल, सुनादमाला |
मैट्रोनोम:
श्रीवास्तव,
गिरीशचन्द्र (२००६) घडी के आधार पर बने इस यन्त्र का अविष्कार “एमेर्स्टडम” के वैज्ञानिक “तिकिल” ने किया तथा सुधार ’वियेना’ के “जान मैजिल ने सन १८१६ में किया “यह यन्त्र घडी के आधार पर बना है जो एक निश्चित गति घटायी और बढायी जा सकती है। कुछ सुधरे हुए यन्त्र में लय के साथ–साथ ताल का भी आभास मिलता है। जिसमें एक निश्चित मात्रा संख्या के उपरान्त एक घंटी की ध्वनि भी सुनायी पडती है। यह सर्वविदित है कि संगीत स्वर और लय पर आधारित है और एक सफ़ल संगीतज्ञ बनने के लिये ये दोनो गुण अपेक्षित है प्राय: विद्यार्थी अभ्यास करते समय अपनी निश्चित लय भूल जाता है और लय से इधर–उधर भटक जाता है। प्रत्येक समय मार्गदर्शक या शिक्षक का उपलब्ध होना सम्भव नही है अत: ऐसे समय में मैटोनोम का प्रयोग उपयोगी सिद्ध होता है|
तालमाला:
इस यन्त्र की आकृति एक रेडियो के समान होती है जिसमें विभिन्न तालों के ठेके बजते रहते हैं जिसमें आवश्यकतानुसार ठेकों की गति को विलम्बित, मध्य या द्रुत की जा सकती है अभ्यर्थियों के लिये यह यन्त्र अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो रहा है तालमाला के साथ गायन, वादन तथा नर्तन तीनों प्रकार से अभ्यास किया जा सकता है।
सुनादमाला:
(हारमोनियम)
‘सुनादमाला’ को इलैक्ट्रोनिक लहरा भी कहा जाता है, यह यन्त्र रागों तथा तालों से जुडे लयात्मक धुने प्रस्तुत करता है इसकी ध्वनि हारमोनियम की ध्वनि के समान ही सुनायी पडती है इस यन्त्र में लय, सुर तथा ध्वनि की गति को भी
नियन्त्रित किया जा सकता है। सामान्यत: इस प्रकार के वाद्यों का प्रयोग केवल विद्यार्थी वर्ग तथा फ़िल्मी व सुगम संगीत मे ही उपयोगी पाया गया है शास्त्रीय संगीत में इस प्रकार के वाद्यों को अधिक महत्व नही मिलता है।
नियन्त्रित किया जा सकता है। सामान्यत: इस प्रकार के वाद्यों का प्रयोग केवल विद्यार्थी वर्ग तथा फ़िल्मी व सुगम संगीत मे ही उपयोगी पाया गया है शास्त्रीय संगीत में इस प्रकार के वाद्यों को अधिक महत्व नही मिलता है।
भारतीय संगीत के तालव्यवहार में अनेक परिवर्तन हुए जिसमें से एक विशेष परिवर्तन ताल का ठेका के रुप में दिखाई पडता है, संगीतशास्त्रीयों ने प्रत्येक ताल की पहचान करने के लिए ठेका निश्चित किया जो किसी भी ताल का पर्याय माना जाता है। डा० लालमणि मिश्र जी लिखते है “मध्यकाल से मृदंग वादन की पद्धति में जो सबसे बडा अन्तर हुआ, वह है उसमें ताल विशेष का ठेका वादन। प्राचीनकाल में ताल का ठेका बजाने की प्रथान ही थी। ताल के ठेका का वादन करने की जिस प्रथा का सूत्रपात मृदंग से हुआ उसको तबले ने पुष्पित तथा पल्लवित्त किया। विद्धानों ने तबला साहित्य की समृद्धि के लिए मृदंग ढोलक, नक्कारा आदि से बोल लिये और उन्हे तबला के योग्य बना लिया।“
प्राचीनकाल से आजतक वादन के पाटाक्षरों में भी अनेक परिवर्तन हुए वर्तमान में तबलावादन गीत या गत की प्रकृति तथा वजन के अनुसार बोल निश्चित कर नवीन ठेका का निर्माण कर संगत करता है।
मिश्र,
लालमणि (२०११)प्राचीनबोल:
१.
मटकत
घिघघट्घेघघोटट
मंधि घंघन
घिघि।
२.
घड
गुटु
गुटुमघे दो
घिंघ दुघि
दुघेंघि।
३.
किंकाकिटुभेदकितां
किंकेकितांद
तसितां गुटुग।
४.
मद्धि कुट घेघेमत्थिद्धिघ
खुखुणंघे घोट्त्थिमट।आदि
मध्यकालीनबोल:
१.
ननगिड।गिडदगि॥
२.
ननग्डिदि
३.
नखुंनखुं
४.
खचटकिट
५.
घिकटघिकट
६.
थोगिणि।थोथांगि॥
७.
थिरकिथों॥
८.
नगिझेंनगिझें॥आदि
वर्तमान मृदंग के बोल:
धुमकिट धुमकिट तकिटत क, किट
धुमकिट धुमकिट तकिटत का, किट
धुमकिट तकधुम किटतक गदिगन
धा
देत
देत
धुमकिट तक
धुम
किटतक गदिगन धा
देत
देत
धुमकिट तकधुम किटतक गदिगन
वर्तमान तबला के बोल:
धगिनधा ऽगधग धिनाऽध
गिनधग धेनेगेने
धातिरकिट्ध
गिनधग तिनकिन।
तगिन ता
ऽगतग तिनाऽतगिनतक
धिनगिन
धातिरकिरध
गिनधग धिनगिन॥
उपर्युक्त बोलों के अक्षरों के सामान्य अन्तर परिलक्षित होता है जो विशेषकाल का सूचक है। जिस प्रकार बोलचाल की भाषा में परिवर्तन होता रहा है। यद्यपि उतनी मात्रा में नही, मृदंग के इन पाटाक्षरों में भी लगभग उसी प्रकार का परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है. भारतीय संगीत में जनरुचि,
सांगीतिक वातावरण तथा आवश्यकतानुसार विभिन्न समपदी तालों का निर्माण तथा प्रयोग निश्चित किया गया जैसे : तिलवाडा ताल १६ मात्रा, तीन ताल १६ मात्रा, आडाचार १४ मात्रा, झपताल १०मात्रा, कहरवाताल ८ मात्रा, दादरा ताल ६ मात्रा, एकताल १२ मात्रा आदि। प्राचीनकाल में प्रचलित तालों का प्रयोग अत्यधिक क्लिष्टता के कारण समाप्त हो गया अत: नवीन तालों का प्रचलन बढ गया। आज सममात्रिक तालों का ही नही अपितु विषममात्रिक तालों का प्रयोग स्वतन्त्रवादन तथा संगत हेतु किया जाने लगा है। प्राचीन भारतीय संगीत में ताल के मुख्यतत्व जिनको ताल के दस प्राण कहा जाता था ताल पद्धति में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्तथा परन्तु वर्तमान में ताल प्राणों का अधिक महत्व नही रह गया है। आजकल तालव्यवहार में क्रिया का प्रयोग केवल दो रुपों में किया जाता है सशब्द क्रिया, निशब्द क्रिया। क्रिया के अन्य प्रकारों का प्रयोग पूर्णत: लुप्त हो चुका है। अंगो के स्थान पर विभाग का प्रयोग किया जाता है, ताल विभाग में मात्रा संख्या के आधार पर ताल की जाति निश्चित की जाती है जैसे: तीनताल चतुरश्रजाति तथा दादराताल त्रयश्रजाति की है इसके अलावा ताल प्रस्तार का स्वरूप ही बदल गया है आज तबलावादक बन्दिशो को उलटपलट कर ताल का विस्तार करता है।
प्राचीनकाल में लय को विलम्बित,
मध्य तथा द्रुत तीनो रुपों में प्रयोग किया जाता था। और वह आज भी प्रचलित है परन्तु आज लयकारियों का प्रयोग ठाह, दुगुन, तिगुन, चौगुन, अठगुन, आड, कुआड, बिआड आदि का प्रयोग वादन में रसोत्पादन तथा सौन्दर्यनुभूति हेतु किया जाता है। आज तालवादक ताल को आकर्षक बनाने के लिये बांये तबले को दबाकर या ढीलाकर के ध्वनि उत्पन्न करता है, जिसे दांबगांस कहा जाता है अधिकतर धागे बजाने में दांबगांस का प्रयोग किया जाता है। ठेके का स्वरूप अधिक आकर्षक बनाने के लिए ठेके का भराव कर बजाया जाता है, जिससे ताल में सौन्दर्य उत्पन्न होता है।
उत्तरभारतीय संगीत में प्राचीनकाल से वर्तमान तक अनेक परिवर्तन परिलक्षित हुए है अत: परिवर्तन का मूल आधार सामाजिक जनरुचि है। सामाजिक अभिरुचि के कारण ताल का व्यवहारिक स्वरुप स्थापित किया गया। ताल के द्वारा सामान्यजन को आकर्षित करने का कार्य किया गया है। आज तालव्यवहार सिर्फ़ संगीतशास्त्रीयों को ही नही सामान्य श्रोताओं को भी आनन्दित करता है।
सन्दर्भग्रन्थ:
· कुदेशिया,
शोभा, प्राचीनताल के परिपेक्ष में वर्तमान तबलावादन, राधा पब्लिकेशन्स, नईदिल्ली, २०१२, पृ०स०१२६, १२७, २४१.
· गर्ग, प्रभुलाल,
ताल की विशेषता(सम्पादकीय), संगीत ताल अंक, संगीत कार्यालय, हाथरस, १९४०, पृ०स०१०.
· जौहरी, रीमा, वर्तमान परिपेक्ष में भारतीय ताल: स्वरुप एवं प्रयोग (शोधप्रबन्ध), दयालबाग एजुकेशनल इन्स्टीटयूट (डीम्ड विश्वविद्यालय), दयालबाग, आगरा, पृ०स०१२८, १७२, १७३.
· पाण्डे, सुधांशु, ताल प्राण,
सांस्कृतिक दर्पण, लखनऊ, २०१३, पृ०स०२.
· मिश्र, छोटेलाल, ताल प्रबन्ध,
कनिष्क पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्युटर्स, २००६, पृ०स०१११, १०८
· मिश्र, लालमणिभारतीयसंगीतवाद्य,
भारतीयज्ञानपीठ, नईदिल्ली, २०११, पृ०स०२१०, २११
· राताजन्कर,
एस.
एन.
हिन्दुस्तानी संगीत में ताल विचार, संगीत ताल अंक, संगीत कार्यालय, हाथरस, १९४०
· श्रीवास्तव,
गिरीशचन्द्र, ताल परिचय, भाग–३, रुबी प्रकाशन, इलाहाबाद, २००६, पृ०स०९५, १२७,१४०,१४१
Very nice, It is really a good research paper on instrumental music.