अनुनाद

सिराज ए दिल : जौनपुर – अमित श्रीवास्तव

हर मनुष्य के जीवन में कोई एक शहर-क़स्बा-गांव सूर्य या फिर दीपक की तरह होता है, वह छूट जाता है पर जीवन भर हर दिन यह सूर्य चमकता है और हर रात यह दिया धुंआता-जलता है। हिंदी के कवियों में ऐसे अलग-अलग शहर हमें लिखे मिलते हैं, हर मनुष्य इन्हें लिख नहीं पाता, कवि लिख लेते हैं। वीरेन डंगवाल के यहां इलाहाबाद लिखा मिलता है, केदारनाथ सिंह और ज्ञानेन्द्रपति के यहां बनारस लिखा मिलता है, चन्द्रकांत देवताले के यहां इंदौर-उज्जैन लिखे मिलते हैं, राजेश जोशी के यहां भोपाल ….. यह एक लम्बी सूची है। मुझे अभी कुछ दिन पहले मुझे युवा कवि अमित श्रीवास्तव के यहां उनका सिराज ए दिल जौनपुर लिखा मिला है। कवियों के भीतर जगहों के जगमगाने और दिए की तरह जलने का यह एक आत्मीय प्रसंग है, इसमें नास्टेल्जिया तो है पर समकाल के प्रसंगों तक ख़ूब खिंचा-तना हुआ। अमित शायद इस कविता पर अभी और काम करें पर इसका पहला प्रारूप मैं पाठकों के सामने रखना चाहता हूं।
– शिरीष मौर्य
सिराज-ए-दिल जौनपुर
वक्त ने सब अक्स मेरे छीनकर
मुझमें इक शहर-ए-नवा रहने दिया
एक सपना देखता हूँ मैं
पत्थरों की छाल पर लगाकर हथेली
बटोरता हूँ पानी
अभी-अभी रोपे पौधे पर उड़ेल देता हूँ
मैं लेट जाता हूँ बगल उसके
मेरी साँसों से धीरे-धीरे हिल रहा है पौधा
एक छोटी बूँद
एक छोटी सी पत्ती पर अटक गई है
मैं अक्स ढूंढ़ता हूँ उस बूँद में अपना
बनता है बिगड़ जाता है
थिर नहीं है बूँद 
हवाएं बेशऊर लगती हैं
अपनी बाहों का घेरा डाल देता हूँ पौध पर
पौधा मुस्कुराता है
मेरी बाहों की नाप से बाहर आ जाता है
मेरे देखते-देखते मुझमें
मेरा शहर उग आता है  
1
अपनी आज़ादख्याली का गुलाम है ये शहर। इसे समझना नहीं बरतना पड़ता है। इसके
हर सिरे पर किसी दूसरे शहर की गांठें लगी हैं। इसे खोलकर फैलाना आसान नहीं है।
अगरचे खुलता भी है तो भीतर को और एकदम से अपने में बैठ जाता है।
     एक मुहल्ला सा है ये| अपने
सबसे करीबी मुहल्ले के जैसा आत्ममुग्ध नहीं मगर आत्मग्रस्त| दूसरे किसी मुहल्ले से
असम्पृक्त दिखता है| अपने चेहरे को दूसरे सा पाकर बेचैन नहीं होता| नहीं धोता अपना
चेहरा बार-बार| इसके आईने पर कोई खरोंच नहीं| सफ़ेद, काली, हरी, केसरिया, बसंती और
और धूसर| इसके चेहरे पर कई परतें हैं| पहचान के रस्तों पर गुफाएं हैं अनगिनत| ये
छिप जाता है अक्सर इनमें कहीं घुसकर|
    ये खुद से भागता है|  
2
अपने बीते हुए कल से भी उतना ही लापरवाह है जितना आने वाले कल से। कहन की
इक  रवायत से कहें तो आज को जीता है। इस
जीत में ही एक बड़ी हार है।
3
चुक गए कल को बाज दफ़ा चुभलाते हुए कुछ गुठलियां अटकती हैं। उन्हें रेशा
रेशा चूसता है ये शहर फिर अपनी ही गोद में उलट देता है। खाद पानी और मिट्टी से दूर
गुठलियां सम्भावनाओं की सूखती नमी के साथ अकड़ती जाती हैं।
4
यहां विश्वास की इक मीनार है जो आश्वस्ति की चूनर तले आराम से सोती है।
मीनार ने चूनर को अभी अभी चूमा है। चूनर गुलाबी हो चली है। उधड़ते रंगो के धूसर हो
रहे आसमान पर हमेशा एक कलगी की मुस्कान चिपकी रह जाती है।
     तादाम्य भरोसे का एक सुर है
यहाँ जो अक्सर सम पर थमता है| ये अकथ, अव्यक्त प्रेम की पीड़ा है| दुःख नहीं देती|
यहाँ लाल दरवाजों पर कमल खिलता है| ढलवां संस्कृति को थामता है कोई त्रिकोण| किसी
संगमरमरी दरगाह के ठीक पीछे हाँथ बांधे सूरज उगता है|  
                      
5
स्वाद के ताज़े चश्मे से पुराने सौंधे भाप की गर्माहट एकम एक होती है यहाँ।
पुराना यहाँ बासी नहीं होता महज़ उदासीन हो जाता है|
     भाषा की आंच में तपकर बतकही कविता
बन जाती है और कविता जीवन की तमीज़| जीवन की तमीज़ आलम की बीवी को जहान की माँ समझने
की समझ देती है| ठंडी पड़ गई है शब्दों की ऊष्मा| इक किवाड़ सी भिड़ा दी गई है कि
औंधे पड़े हैं बातों के सब उजियारे| सब बिखरा तो नहीं पर कुछ टूटा ज़रूर है| कुछ है
कि शेख़ ने आलम को विदा कहा है|
6
उदास पपड़ियों में अपनी हदों से और और अंदर सिमटता पानी कहानियों की सतरें
बहाता जाता है। यों तो तमाम समय है याँ सब के पास मगर किसी दयार को फुरसत नहीं
उन्हें गुनने की। एक दिन इकाई में होगा पानी।
     दक्षिण, पूरब फिर उत्तर को
बहता त्रिविधमुख पानी गंग-जमुन को साथ लिए बहता है दो भागों में काटता है शहर को
बीचोबीच से मगर बांटता नहीं|  
7
पत्थरों की तराश से बाहर सरगम के जो आशियाने थे वो रात किसी बुजुर्ग की
खांसियों में बलगम से उठते हैं
, उतर जाते हैं किसी परित्यक्त दीवार के कोने।  
पत्थरों की तराश के भीतर जो सरगम की बसासत थी कभी कभी गजरे में दम तोड़ देती
है । कि अब कानों में कोई धैवत नहीं गन्धार नहीं।
     फागुन की बासंती चुनर और खांटी
बलवईया के अलाप दोनों एक साथ बांधकर सरका दिए गए किसी परित्यक्त अँधेरे कोने में|
वो गठरी नहीं, सुनो ध्यान से, किसी कमली कालिदास की सिसकियाँ बेसुध होने को हैं|
छुओ उसे, आओ छूकर देखो, राग दीपक की तान से जलते सीने को अब भी यहीं मल्हार की
शीतल नमी मिलती है| 
8
दो तरफा है इधर की गरीब उल वतनी। यहां को आया हुआ यहाँ अक्सर नहीं आता।
यहाँ से जाने वाला अक्सरहां यहीं रह जाता है थोड़ा थोड़ा। इसमें थोड़ा थोड़ा लखनौ है
थोड़ा सा बनाअस ज़रा सा इल्लाहाबाद और रत्ती भर फइजाबाद। वां हर जगह बहुत सिकुड़ा हुआ
सा ये शहर ए गुमशुदा भी है।
     वो जो ‘घर चलें’ कहने पर बीच
बाजार चौंक कर देखता है तुम्हारा बूढ़ा बाप, वो जो अभी दुकानदार से मकई के दानों के
चमकते पैकेट को हाथ में लिए हतप्रद टुकुर-टुकुर देखता था मॉल
में, वो जो मूली के छुटपन को कांपते पंजे से नाप मुस्कुराता है, वो जो अब
भी अतर कहता है, सलेटी सड़कों के किनारे ढूंढ़ता है चमेली के फूल कुछ और नहीं वो इन
शहरों में अपना शहर ढूंढ़ता है, अपना आंगन वाला घर ढूंढ़ता है| 
     है न, बड़े शहरों की चमक बढ़ाने
में कितने सारे छोटे शहर बदरंग होते जाते हैं।  
                     
9
ये उतराई कैसी है?
माथे से पसीने की बूँद के साथ नहीं आया ये। किताबों के रजत कीट ने
पहले रोटी खींच ली फिर मन रंजन और फिर सामासिकता। निचुड़ी हुई हरियाली में कुछ दर्द
ठूँठ की तरह उगे हैं। उनमें घरेलू चूल्हों में जलने भर की आग नहीं है।
     ये दर्द सभी दारुल इल्म की
गिरती दीवारों से लगकर अपनी अद्धकथा में हमारी विफलता की तफ़सील लिखते हैं|    
10
फूलों का पसीना शीशों की जद से बाहर हुआ। कुछ खुशबूदार उँगलियाँ अब क्या
करती होंगी। उनके जानिब से फाहों के तईं छुपाए गए अहसास कान की ओट ढूंढते हैं। वो
नर्म रेशम में लिपटे गुलाब कुर्ते की जेबों और गुलाबी हथेलियों से जाने कब के छिटक
चुके हैं। 
                     
11
अब ये शापित शहर है। यहाँ लोग ठहरने के लिए नहीं आते उजड़ने आते हैं। नई
दुकानों की रेशमी रंगीन झालरों पर पुराने पतिंगे लहरते हैं। सड़कों पर ज़ुबान की तरह
रपट जाते हैं उतराए गाँवों के अहसास। अधखुले बाल्टे से धूप की तरह कुनमुनाई छलक
जाती है यहां होने भर की उदासी।
     गाँव को कस्बा कस्बे को शहर
बनाने के अपराध मानचित्र के हाशियों पर दर्ज हैं। अपराधियों के नाम नहीं है
, शक्लें नहीं हैं,
संख्याएं नहीं हैं। उनकी सामूहिकता रह गई है बस।
                       
12
अपने होने के निशान बतकही के ओढ़काए दरवाजों में खोजती सी एक गुफा है। हाथी
को दबाए शेर के नीचे समतल पुलों के पास से जो दिल्ली को निकलती है। अघोषित समझौतों
में गुपचुप वही कलकत्ते को हाथ देने की चेष्टा भी करती है| इस तरह अपने दोनों
मुखों पर विद्रोह और दोस्ती की काली उजली रोशनी के ठीक बीचोबीच इस गज-शार्दूल से
लगकर ये गुफा षणयंत्र और याराने की फुसफुसाहट में दफ़्न है।     
13
अजब उदासीन रहता है ये शहर| ये नींदों में नहीं आता| ये ख़्वाबों में पीछा
नहीं करता| एक ठहरी हुई सी दोपहर दूर किसी टिकड़ी से धुंवे सा उठता हुआ जाने कौन
दिसा से घूमकर आँख के कोरों में छज्जे पर उदास बैठे अकेले बच्चे सा टिक जाता है|
     एक बुझे हुए स्वाद सा चिपका रह
जाता है तालू से ये शहर| इसका होना जीवन का मीठा होना नहीं है| इसके होने से कोई
खटास नहीं पड़ती| 
     झनझनाता नहीं ये शहर| किसी
अंदरूनी पीड़ा सा नसों में बूँद-बूँद रिसता है| बदन छिलता नहीं सील जाता है| 
14
इक्कीस दिनों के चमकते सूरज से नहीं ये शहर-ए-अनवर पीढ़ियों दर पीढ़ियों अपनी
मद्धिम दूधिया रोशनी से रास्ता दिखाता है| चकाचौंध उजाले में नहीं दिखता ये| इसे
देखने को रात का सुकून चाहिए| रात गुज़ार कर ही यां शाह और शेर बनते हैं| जिसे
जल्दी है वो बाज़ार में सबकुछ हारकर चला जाता है| जीत और हार की, गर्व और शर्म की, सफ़ेद
और काले के बीच लिखी दास्तानों में ये शहर धीरे-धीरे सांस लेता है|
     झट से आगे बढ़कर हाथ थामने वाली
बेतकल्लुफ़ी से महरूम ये शहर बाजू में आकर चुपचाप बैठ जाता है| अपने आप नहीं उतरता
ज़हन में| इसे पढ़ना पड़ता है|
15
माना तुझसा हो नहीं पाया मगर
मुझको मुझसा ही कहाँ रहने दिया
    
     अपनी पगड़ी में छुपाकर मैं ये
कुछ सवाल भेजता हूँ
     ओ मेरी रंगरेजन
     तुम ज़रूर कुछ जवाब भेज
देना 
मैं इस शहर में नहीं हूं। मुझमें कभी- कभी शहर की आवाजाही है। मैं लिखता
हूँ प्रेम एक कागज़ पर और अदृश्य अपनी पगड़ी पर खोंस देता हूँ। इस तरह मैं भेजता हूँ
अपनी व्यग्रताएं और एक टूटे हुए शहर के बेहद करीब आ जाता हूँ। इतना करीब कि दिखना
बन्द हो जाता है शहर।
मैं अपने चेहरे पर
इसके कुछ निशान टटोलता हूँ
अपनी आवाज़ में इसकी लचक
ठहर कर देखता हूँ अपनी चाल
और पराएपन पर शर्मिंदा हो जाता हूँ
एक चुटकी नमक
मसलकर देखता हूँ दो उंगलियों के बीच
सूंघता हूँ
मुझे अपनी सी बास आती है
मैं चौंककर उधेड़ देता हूँ अपनी बुनावट
मुझे एक बहता हुआ शहर मिलता है
रुक कर चलता हुआ
ठहरा हुआ अपने नाम की पुकार पर
कभी खुद तक लौट आने की रवानी में 
चलता हुआ 
घुटनों से लगकर झूलता हूँ झूला
छड़ी के एक सिरे को पकड़ घूम आता हूँ सूरज तारे चाँद
शहर के अदृश्य तोरणद्वार पर खड़ा पूछता हूँ ‘मे आई कम इन’
आकर बैठ जाता हूँ कछुए का हाथ थामे दुछ्त्ती पर
ढूंढ़ता रोटी और चीनी के कौर
बंद मुट्ठी के पहाड़ों पर महीनों सा बार-बार आता हूँ
बालों की सफेदी पर हाथ फिराकर
सुलझाना चाहता हूँ किसी बुजुर्ग के हाथों की झुर्रियां
मेरे घुटने में दर्द सा उठता है शब्द का पानी
मैं पपीते के कटे पेड़ सा ढह जाता हूँ
ये शहर मुझे थपकियाँ देता है
मेरे गालों पर शाबाशी की ताल
एक धौल जमाता है ये शहर मेरी पीठ पर
कहीं, किसी तरफ कोई इशारा नहीं करता
उलाहना नहीं देता
हक़ नहीं जमाता
किसी एक तरफ़ा प्रेम की तरह ये शहर मुझे
बस छूकर चला जाता है
मैं जब भी इसे सोचता हूँ
पूछता हूँ बहुत से सवाल
घूमकर वापस आ जाते हैं आत्महंता सब सवाल मेरे
मैं खुद में लौटकर शर्मिंदा हो जाता हूँ
क्यों मगर ये सांस चलती रहती है 
और अंत में अर्जियां
यूं तो हर शहर में एक पुराना शहर होता है मगर उस ओर को जाने
वाली गलियाँ बताती हैं कि शहर में यों नयापन कितना है| इन गलियों से भाषा, तहजीब
और समकालीनता की दो तरफा आवाजाही नए शहर के नएपन को बनाए रखती है| अगर इन गलियों
में दीवारें उग आती हैं तो समझिये नया शहर अभी और नए शहरों का मातम मनाएगा|
     अब तो आजा कि अब
रात भी हो गई…
                   

0 thoughts on “सिराज ए दिल : जौनपुर – अमित श्रीवास्तव”

  1. एक ही शहर कहने को कोई जौनपुर में रहता है और ये पूरा जौंनपुर किसी एक शख्स में। कितना गाढ़ा कितना तरल के इसे कोई अलगा नही सकता ।बनारस ऐसे ही कसकता है मुझमे। काश शहरों की छाती पर हम सर टिका दे और ये भिंच ले एक बार।

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